जिला पिथौरागढ़ में एक गाँव होता था लाचुली. पूरा पता – ग्राम लाचुली, पोस्ट देकुना, तेजम, जिला- पिथौरागढ़.
‘था’ इसलिए कह रहा हूँ कि सरकारी फाइलों में बाकायदा बने रहने के बावजूद आज इस गाँव में एक खँडहर होते जाते स्कूल की इमारत और एक शौचालय के अलावा कुछ नहीं बचा है.
एक ज़माने में कुमाऊँ के पिथौरागढ़ जिले के सीमान्त गाँवों में रहनेवाले शौकाओं का पारंपरिक भारत-तिब्बत व्यापार पर एकाधिकार चला करता था. जनसंख्या बढ़ने के साथ-साथ कुछ परिवार अपने मूल स्थानों को छोड़कर निचली जगहों में जा बसे. तीन-चार पीढ़ी पहले इसी क्रम में मुनस्यारी की जोहार घाटी के मिलम गाँव के कुछ रावत परिवार हीरामणि ग्लेशियर से निकलने वाली पूर्वी रामगंगा नदी के किनारे इस उपजाऊ लाचुली में आ बसे. खेत बने, देवता प्रतिष्ठित हुए और अपने श्रम से यहाँ के लोगों ने जीवन का सिलसिला नये सिरे से बनाना शुरू किया. प्राइमरी स्कूल भी बना और जूनियर हाईस्कूल भी.
जाड़ों में तिब्बत के लाये गए सामान को रामनगर की मंडी तक पहुंचाने के रास्ते के सबसे महत्वपूर्ण पड़ावों में लाचुली शामिल हो गया था. पच्चीस के आसपास परिवारों वाले इस भरे पूरे गाँव लाचुली में इफरात में धान, मडुवा, गेहूँ और बाजरा उगता था. कुछ परिवारों के बच्चे नौकरियों में बाहर चले गए थे लें कुल मिलाकर यह गाँव इलाके के संपन्न गाँवों में गिना जाता था. 2013 तक सब कुछ बढ़िया चल रहा था.
सन 2013 में आई आपदा की चपेट में सारा उत्तरखण्ड आया था हालांकि मीडिया ने इसे केदारनाथ त्रासदी भर का नाम दिया. इस आपदा के कारण रामगंगा नदी ने अपना बहाव बदल दिया और गाँव की थोड़ी बहुत उपजाऊ ज़मीन बह गयी. नदी के बहाव के बदलने की सबसे बड़ी वजह थी विकास के नाम पर किया जाने वाला अन्धाधुन्ध नुकसान. पिछले कई वर्षों से तेजम को शामा-भराड़ी से होते हुए बागेश्वर से जोड़ने वाली सड़क पर काम चल रहा था. इस निर्माण कार्य में निकालने वाले मलबे को बिना कुछ सोचे-समझे नदी में डाल दिया जाता रहा. गौरतलब है कि यह प्रक्रिया आज भी आधे उतराखंड में चल रही है. फ़िलहाल जब 2013 की जलप्रलय हुई, नदी को विवश होकर अपनी चाल और रास्ता बदलने पड़े जिसका शिकार लाचुली गाँव भी हुआ.
गाँव के मूल निवासी हुकुम सिंह रावत बताते हैं कि 2013 के बाद ग्रामवासियों द्वारा बार-बार अनुरोध किये जाने के बाद भी सरकार ने चैक डैम तक बनाने की जेहमत नहीं उठाई और आगामी वर्षों में गाँव के खेत धीरे-धीरे नदी में समाते चले गए जिसकी बानगी आप साथ लगी तस्वीरों में देख सकते हैं. सड़कों का निर्माण कार्य और नदी में मलबे का डाला जाना लगातार चलता रहा. 2018 के जून में कुछ सरकारी विभागों को यहाँ की सुध आई और थोड़ा बहुत काम होना शुरू हुआ.
देर बहुत हो चुकी थी और इस साल की बरसातों में सारा का सारा गाँव बह गया. हालत यह है कि शामाधूरा को जाने वाला पुल भी फिलहाल सुरक्षित नहीं कहा जा सकता.
यह सारे घरों, सारे खेतों, देवताओं के सारे खेतों, बच्चों के खेलने की जगहों भर का बह जाना नहीं था, यह तीन-चार पीढ़ियों के मानवीय श्रम, बच्चों-बूढों की स्मृतियों और इष्टों के आशीर्वादों का समूल नष्ट हो जाना था.
मुझे नहीं पता अगले साल भगवती माता की पूजा करने लाचुली गाँव के लोग कहाँ जाएंगे. हिमालय और उसका पर्यावरण तो बहुत बाद की चीज़ें हैं.
– अशोक पाण्डे की रपट
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