समाज में विधवा स्त्री के त्याज्य तथा अस्वीकार्य माने जाने की ऐतिहासिक सामाजिक विकृति, देश के एक बड़े हिस्से में विधवाओं के सती होने की कुप्रथा के प्रचलन से ही स्पष्ट होती है. इस पर काफी कुछ कहा और लिखा गया है. यह तो ज्ञात इतिहास है कि राजा राममोहन राय के इस कुप्रथा के खिलाफ चलाये गये सामाजिक आन्दोलन के फलस्वरूप हिन्दू विधवाओं को पति की चिता पर जिंदा जलाने की बर्बर प्रथा के खिलाफ लार्ड विलियम बेंटिक ने सती रेगुलेशन 1829 पारित किया. कुछ वर्ष बाद और ज्यादा सुधार के लिए लार्ड कैनिंग ने विधवा पुनर्विवाह अधिनियम,1856 पारित किया. (The social laws of Kumaon giving succession to widows)
ये भारत के विधायी इतिहास की विडम्बना ही है कि इस विधवा पुनर्विवाह कानून के 1856 में पारित होने के करीब 100 साल तक भारतीय समाज में एक विधवा स्त्री को उत्तराधिकार में संपत्ति पाने के अधिकार के लिए, महिला संपत्ति अधिकार अधिनियम, 1937 और हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 के पारित होने का इन्तजार करना पड़ा. उस पर भी हिन्दू महिला संपत्ति अधिकार अधिनियम, 1937 के अंतर्गत विधवा को उत्तराधिकार में मिलने वाली संपत्ति में ‘कृषि भूमि’ भी शामिल है, यह न्यायिक व्यवस्था “विजयनाथ बनाम गुरुअम्मा और अन्य” के केस में लगभग 61 वर्ष बाद 1998 में सर्वोच्च न्यायालय में न्यायमूर्ति सुश्री सुजाता मनोहर और जी.बी. पटनायक की खंडपीठ ने दी.
लेकिन चर्चा के केंद्र से परे रहे इतिहास के मुताबिक कुमाऊँ और गढ़वाल के ऐतिहासिक पारंपरिक कानूनों ने विधवाओं की कष्टप्रद सामाजिक स्थिति के ठीक उलट उन्हें संपत्ति के उत्तराधिकार के अधिकार प्रदान किये थे, जिनकी तस्दीक ब्रिटिश अदालतों में चले संपत्ति बंटवारों के मुकदमों के अभिलेखों से होती है.
इतिहास, लोकसाहित्य और जनश्रुत कथाओं के सन्दर्भ बताते हैं कि विधवा स्त्री का जीवन पहाड़ में भी अनेकों वर्जनाओं और बेड़ियों में जकड़ा कठिन जीवन था. अगर लोकसाहित्य को समाज का दर्पण माना जाए तो कुमाऊँ के लोक साहित्य में विधवा स्त्रियों की सामाजिक स्थिति का वर्णन उनकी मार्मिक दशा को चित्रित कर किया गया है.
कुमाऊनी साहित्य के माध्यम से सामाजिक कुरीतियों पर चोट करने वाले बीसवीं सदी के पूर्वार्ध के साहित्यकार श्री शिवदत्त सती द्वारा अपनी पुत्री गोपी की मृत्यु के बाद उसकी स्मृति में रचे गए ‘बाल विधवा गोपी देवी के स्वप्न गीत‘ जिसे ‘गोप गीत’ नाम से भी जाना जाता है, उसमें पहाड़ की विधवा नारी के नारकीय जीवन का रेखांकन किया है. श्री सती ने लिखा कि लड़की के विधवा होने पर उसके अभिभावकों और ससुराल पक्ष के सदस्यों का जीवन भी कष्टमय हो जाता है, और विधवा को समाज हेय दृष्टि से देखता है, अतः विधवा बेटी के जीने से तो उसका मरना ही भला. सती जी के पूर्ववर्ती और काशीपुर रियासत के राज्य कवि लोकरत्न पंत “गुमानी” ने तो विधवा स्त्री के कठोर जीवन को शब्दों से सजीव करते हुए विधवा स्त्री के बकौल अपनी दारुण दशा के बारे में लिखा है:-
“हलिया हाथ पड़ो बड़ा कठिनले, है गेछ दिन दोफरी,
बाऊँ बल्द मिलोछ एक, दिजिय को कॉ जाँ मैं दैणा हुणी नस्यूड़ा बिना,
माणो भट्ट गुरूंश को खिचड़ी, सूं पैंचों लग नीमिलो,
मैं ढोलासू हाय काल हराणो कॉ जौं क्या धाना करूँ.“
(अर्थ :- जब खोज करते-करते दोपहर हो गई तब बड़ी कठिनता से हल चलाने वाला मुझे मिला, फिर हल जोतने के लिए किसी से बांया बैल भी बड़ी कठिनाई से मिल पाया अब मैं दाहिने बैल की खोज में, हल के फल के बिना कहां जाऊं. खिचड़ी का एक माणा (माप का एक बर्तन) भी मुझे कहीं से उधार नहीं मिल पाया मुझ विधवा के लिए काल तक खो गया है, मैं अब क्या करूँ !) (संदर्भ: कविता कोश)
गुमानी की इस रचना में विधवा स्त्री की इस दयनीय दशा का चित्र देखकर भी कम से कम इतना स्पष्ट होता है कि उसके पास कोई कृषि भूमि रही होगी. हालाँकि इतिहास और लोकसाहित्य यह तो बताता है कि विधवा स्त्री का जीवन कम नारकीय नहीं होता है परन्तु देश के अन्य हिस्सों के उलट तत्कालीन कुमाऊँ में पारंपरिक सम्पत्ति उत्तराधिकार कानून में स्त्रियों के अधिकारों की रक्षा की गयी है जबकि तमिलनाडु के मामले में विधवा को उत्तराधिकार में मिलने वाली संपत्ति में ‘कृषि भूमि’ भी कानूनन शामिल है यह घोषणा 1998 में सुप्रीम कोर्ट ने की.
सन 1815 के आसपास से देश की आजादी तक तत्कालीन ब्रिटिश कुमाऊँ कमिश्नरी और टिहरी गढ़वाल में चले सम्पत्ति विभाजन के दीवानी मुकदमों का इतिहास तो इस ओर इंगित करता है कि यहाँ के पारंपरिक उत्तराधिकार कानून में विधवाओं का भी ख्याल रखा गया था. संपत्ति बंटवारों के मुकदमों में दी गयी परंपरा की दलीलों से स्पष्ट होता है कि तत्कालीन सामाजिक व्यवस्था चलाने वाले, कम से कम विधवा स्त्रियों के उत्तराधिकार में सम्पत्ति गृहण करने के अधिकार के प्रति जागरूक थे, यह बात दीगर है कि उन्हें इन्हीं विधवा स्त्रियों की सामाजिक दुर्दशा के खिलाफ जागरूक होने में सदी बीत गयी.
कुमाऊँ में भाइयों के बीच पैतृक सम्पत्ति का बंटवारा या “न्यार” होना एक सहज प्रक्रिया थी जो कि सौहार्दपूर्ण वातावरण में बड़ों की मध्यस्थता से आँगन में बैठकर आसानी से हो जाती थी, दरअसल इस स्नेह और सौहार्द के पीछे परिवार की स्त्रियों की सौजन्यता और सहयोग ही सबसे बड़ा कारक था. “काकी/काखि” “ज्यड़जा” “ठुलइजा/ठुलिजी” के द्वारा बच्चों के बीच किसी विभेद का भाव अक्सर न होना इस सौहार्द की नींव हुआ करती थी. और बहुविवाह की प्रथा, या बहनों का विवाह एक ही परिवार में होने के कारण “सौती इज” भी होती थीं और अक्सर चाची या ताई “कैंज” भी होती थी. अतः पारस्परिक स्नेह स्वाभाविक था.
तत्कालीन वृहद कुमाऊँ में, स्त्री पुरुष अनुपात में महिलाओं का अनुपात अधिक होने और बाँझपन आदि अन्य कई सामाजिक कारणों से कुमाऊँ में भी बहुविवाह का प्रचलन हुआ. कुमाऊँ के दूसरे कमिश्नर रहे स्कॉटिश मूल के जॉर्ज विलियम ट्रेल ने अपने नोट्स में बहुविवाह प्रथा के कारणों को तलाशने की कोशिश की. आईसीएस रहे पन्ना लाल जिन्हें तत्कालीन सरकार ने कुमाऊँ की परम्पराओं के संकलन और अभिलेख बनाने की जिम्मेदारी दी थी उन्होंने भी इन सब कारणों के अतिरिक्त कुमाऊँ के हाड़तोड़ जीवन में घरेलू काम में पहली पत्नी की मदद के लिए फिर युवा पत्नी घर लाने की सोच को भी एक कारण बताया है. अन्य कई जातिगत कारण भी बहुविवाह के जिम्मेदार रहे हैं. ब्रितानी राज में कुमाऊं के हिम्मती कारोबारी ठाकुर गोपाल सिंह के साहस की दास्तान
एक विवाह में तो विधवा स्त्री अपने पुत्र के साथ पति की संपत्ति की स्वामिनी होती ही थी पर बहुविवाह की व्यवस्था में भी एक ही पति की विधवाओं के हितों की संरक्षा की भी सामाजिक व्यवस्था रही है. प्रमाणिक अभिलेख के तौर पर तत्कालीन कुमाऊँ कमिश्नर हेनरी रैमजे की अदालत में सुनी गयी सन 1861 की राजस्व अपील संख्या 90 “नंद राम बनाम भजन दत्त” तथा “रतन सिंह रावत बनाम शेर सिंह” के दुर्लभ अभिलेखों का जिक्र, उत्तराखंड की न्याय व्यवस्था के इतिहास पर विस्तृत शोध प्रबंध लिखने वाली उच्च न्यायालय नैनीताल, में कार्यरत डॉ. ममता पपनै ने कुमाऊँ कमिश्नरी व जिला जज पुस्तकालय नैनीताल में संरक्षित कुमाऊँ ज्यूडिशियल रिकार्ड्स के हवाले से किया है. हालाँकि इन दोनों मुकदमों में सर हेनरी रेमजे का निष्कर्ष यह था कि बहुविवाह में एक साथ विधवा होने वाली महिलाओं द्वारा, पति की सम्पत्ति उत्तराधिकार में तभी ग्रहण की जा सकती है जब उनके पति ने जीवन काल में उनके मध्य बंटवारे की वसीयत की हो.
इसके विपरीत 1921 के अपने कुमाऊँ की परम्पराओं के कम्पेंडियम, में लिखा है कि प्राचीन कुमाऊँ में बहुविवाह में विधवा होने वाली स्त्रियों के मध्य “सौतिया बाँट” के आधार पर संपत्ति बंटती थी, जिसमें माताओं के जीवन काल के बाद उनके पुत्र अपने पिता के बजाय अपनी-अपनी माताओं के हिस्से की संपत्ति के उत्तराधिकारी होते थे. लेकिन ब्रिटिश साम्राज्य की अदालतों ने कुमाऊँ के इस मातृ-आधारित सम्पत्ति बंटवारे की परम्परा को गलत तरीके से “सौतिया बाँट” को सौतेले बेटों के मध्य सम्पत्ति के बंटवारे के तौर पर घोषित करना शुरू कर दिया. ब्रिटिश अदालतों के निर्णयों से “सौतिया बाँट” और “भाई बाँट” को एक ही प्रकार के बंटवारे का अलग-अलग रूप घोषित कर दिया गया जिसमें पुत्र ही सम्पत्ति के उत्तराधिकारी थे, जबकि कमिश्नर हेनरी रेमजे द्वारा तय मुकदमे भी यही बताते हैं कि पति अपने जीवनकाल में ही अपनी बहुपत्नियों के मध्य बंटवारा तय कर दिया करते थे ताकि वैधव्य में उनके हित संरक्षित रह सकें. सन 1815 से 1947 के बीच के कुमाऊँ कमिश्नरी के न्यायिक रिकॉर्ड तस्दीक करते हैं कि यहाँ ऐसे अनेकों मामले हैं जिसमें पति की सम्पत्ति बालिग पुत्र से पहले उसकी माता के अधिकार में आने की उत्तराधिकार परम्परा थी. (सन्दर्भ: पेजेंट हाउसहोल्ड्स एंड विलेज कम्युनिटीज इन कोलोनियल गढ़वाल, डॉ. रश्मि पन्त, 2011)
पिता की संपत्ति के बंटवारे का दूसरा सर्वत्र प्रचलित तरीका भाइयों के मध्य बंटवारे का रहा है. जिसे कुमाऊँ में भाई-बाँट के माध्यम से पुत्रों के “न्यार” हो जाने को माना गया जिसमें पिता के बाद उसके पुत्रगण उसके उत्तराधिकारी हुए. लेकिन हमारा प्राचीन न्यायिक इतिहास बताता है कि इस प्रकार के बंटवारे में भी भाइयों के पास भी अपने एक ही पिता की सम्पत्ति अपनी-अपनी माता के हिस्से के आधार पर दी जाती थी. और भाइयों के बंटवारे में भी बड़े भाई को “जेठयों” या “जेठाली” के नाम पर कुछ अधिक हिस्सा दिया जाता था जिसके मूल में यह पारिवारिक व्यवस्था थी कि विधवा माँ प्रायः बड़े पुत्र के साथ ही निवास करती थी.
इस तरह हमारे प्राचीन इतिहास को करीब से देखने पर नजर आता है कि हमारी सामाजिक व्यवस्था ने पति की संपत्ति में अधिकार देकर विधवाओं की आजीविका और संरक्षण की व्यवस्था की और इस मामले में हम तमिलनाडु से अधिक जागरूक दिखाई देते हैं. लेकिन इस संपत्ति के उत्तराधिकार के बावजूद फिर यक्ष प्रश्न पुनः हमारे तत्कालीन समाज की विधवाओं की दुःखद सामाजिक स्थिति के पहलू पर ही आकर खड़ा हो जाता है जिसमें उसे अपनी भूमि होने के बाद भी जुताई के लिए बैल और हलिया आसानी से नहीं मिलता. इसका सजीव दर्शन भी पुनः कवि गुमानी की उस रचना में होता है जिसमे विधवा स्त्री की उस मनस्थिति का वे भावपूर्ण चित्रण करते हैं, जिसमें अतिथि का आगमन भी उसके लिए दुःखदायी हो जाता है- (सौजन्य: कुमाउनी साहित्य में स्त्री विमर्श: कृष्ण चन्द्र, रामनगर महाविद्यालय, आइजेएचआर प्रकाशन 2018)
“नै नायो नै झाड़ झाड़ो, नै उखल कुटो पानी को रीतो घड़ो.
केड़ो एक नै लाकड़ी को, नै चूल्हा का ख्वार में पाणीं पड़ो.
ए लै कथें बटि कलमुवा, पौणा लगै ऐ मरीं
हाय में ढोला सूँ काल हराणो, काँ जूँ, के धाना करूँ.‘‘
(अर्थात:- मैंने अभी तक ना नहाया, ना ही झाड़ू पोछा किया, ना ही ओखल कूटा, पानी का घड़ा भी नहीं भरा. एक भी टुकड़ा लकड़ी भी न जुटा पायी ना ही चूल्हे की लिपायी मैं कर सकी, ऐसे वक्त में न जाने कहाँ से, यह कलमुंहा मेहमान आ पड़ा, हाय मुझ बेचारी विधवा के लिए काल भी खो गया है. अब मैं कहाँ जाऊँ, क्या युक्ति लगाऊं.
पेशे से अधिवक्ता दुष्यन्त मैनाली उत्तराखंड उच्च न्यायालय में प्रमुखतः जनहित के मामलों की वकालत में सक्रिय रहते हैं.
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