आज वीरेन डंगवाल की चौथी पुण्यतिथि है. हिन्दी कविता और पत्रकारिता में अपनी ख़ास जगह रखने वाले इस महान व्यक्ति की कविता के बहाने इस लेख में हमारे साथी शिवप्रसाद जोशी बहुत सारा और कुछ कह रहे हैं.
गल्प नहीं है कविता है यह : वीरेन डंगवाल की कविता पर कुछ बातें
-शिवप्रसाद जोशी
दिल्ली में साकेत के पास पुष्प विहार की कॉलोनी में एक इमारत की चौथी मंज़िल पर हम रहते थे. मैं उन दिनों भारतीय जनसंचार संस्थान में छात्र था और फ़्रीलांस नौसिखिया पत्रकार भी. मई जून की गर्मी और उमस भरे दिनों की कोई दोपहरी थी वो 1994 में, जब मैं दरवाज़ा खोलकर बाहर निकलने लगा तो बैठक में सोफ़े पर बैठे वीरेन डंगवाल ने पुचकारते हुए कहा, जा रहे हो शिवा … प्रेम करने … ख़ूब प्यार करो प्यारे, मज़े करो … ख़ुश रहो … हं …अच्छा.
मैं सकपकाया शर्माया जवाब देते न बना और भीगता हुआ नीचे भागा.
तो वीरेन डंगवाल से मुलाक़ात की ये पहली स्मृति है. और आज इतने वर्ष बाद 2012 में जब उनकी कविताओं के बारे में लिखता हूं तो उस स्मृति का प्रकाश है.
वीरेन जैसे अपने व्यक्तित्व में है, उनकी कविताएं भी उसी तरह उनके आसपास पड़ी रहती हैं. वो कविता के शायद बड़े निर्मोही कवि हैं. प्यार उनका पूरे जीवन में छलछलाता रहता है. गुस्सा भी, चिढ़ भी और अपने क़िस्म की दादागिरी भी. लेखन और पत्रकारिता में उनके शागिर्दों की एक पूरी भरीपूरी टोली है और लोग उनकी ‘झिड़कियों’ और निर्विकार ‘गालियों’ का आनंद लेते पाए जाते हैं. उनका अपना एक निराला आतंक सा है और उनका एक बड़ा और दबदबे वाला आसपास है. और उसमें कोष्ठकों की दरकार नहीं.
फिर मालवीयनगर, दिल्ली में ही 1997 में एक देर शाम. ज़ी न्यूज़ की नौकरी. मेरी एक कमीज़ वीरेन जी ने “ज़ब्त” कर ली. मैंने कहा ये नहीं दूसरी ले लीजिए. बच्चों की तरह अपने नटखटेपन में उन्होंने कहा क्यों यही चाहिए. ख़ूब माल पीट रहे हो प्यारे. यही दो. तो जैसे कविता में वो जिस नटखटपन के बारे में वह कहते हैं कि हिंदी पट्टी में वो किसी तरह बची हुई है उसी की वो और बचाते रहते हैं, ऊपर ले आते हैं, फिर से तलाश करते हैं क्योंकि ऐसी ही हिंदी पट्टी को बचे रहना है. वरना तो वो घोर पांडित्य और अनीति में जा बिलाई है.
नटखटपट हमारी जाति का सर्वाधिक गुण अब भी है
पांडित्य और अनीति की खुरदुरी दोहरी जीभ से
सर्दियों तक चाटे जाने के बावजूद. इसी से यह बची हुई भी है.
यहां आशय हिंदी जाति से है
‘लोगों में ही दीख जाते हैं लोग भी’ कहने वाले वीरेन की कविताओं में इतने सारे लोग उनका ठाठबाट उनका आचरण उनकी आवाजाही उनकी बदमाशियां खुराफ़ातें, उनकी मासूमियतें उनकी नादानियां दर्ज हैं. व्यक्तियों का उनके आदर्शों उनके विचारों उनकी सच्चाइयों या उनके झूठों के बारे में माइक्रोस्कोपी डिटेल्स हिंदी में सिर्फ़ वीरेन की कविता में आती हैं. वो जैसे ज़िदपूर्वक आत्मा की तलाश में खुदाई में लग जाते हैं. पीछे पड़ना कोई उनसे सीखे. उनकी कविता इतनी दूर तक और देर तक पीछा करती है कि दुष्ट ताक़तों को या तो बाहर धकेल आती है या जो मानवीयताएं हैं उन्हें अपने पास रह जाने को विवश कर देती है. इतना बुहारना है उनकी कविताओ में. यानी मुक्तिबोध के शब्दों में दुनिया को साफ़ करने के लिए मेहतर चाहिए वाली जवाबदेही उनकी कविताओं में रहती है. और वो ऐसा “ज़ोर” देकर लिखते हैं कि लगता है बोल रहे हैं. भाषा को इतने सुंदर और ज़ोरदार ढंग से बोलने वाले कम लोग हैं. टीवी और रेडियो के अनुभवों वाला कोई व्यक्ति कह सकता है- वीरेन डंगवाल बोलने के क्लासिक घराने से ताल्लुक रखते हैं.
वीरेन डंगवाल की कविताओ में जब लोग आते हैं और आकर नमस्कार आदि करते हैं तो उन्हें लौट जाने की अनुमति ज़रा यूं ही नहीं मिलती. उन्हें एक आईने में दाखिल होना पड़ता है. कोई झूठा है या सच्चा वीरेन की कविता बता देती है. वो छोड़ देने की सहूलियत नहीं देती. वो आपसे पूरी मनुष्यता की मांग करती है, पूरी मोहब्बत की. अगर उसके अभाव का खटका है तो उसे दिखा देती है और फिर आप जा सकते हैं. जहां चाहें. लेकिन एक बोझ भी आपके साथ आन पड़ता है. आप चाहे न चाहें वीरेन डंगवाल की कविता आपको कथित खुली हवा में निश्चिंतता और पीछा छूटा की छूट नहीं देती. अगर आप इसे खुली हवा कहते हैं तो वीरेन उसमें सांस लेने को इस कदर बाध्य करते हैं कि सांस के साथ आपके मन का मैल भी बाहर आना चाहिए.
ऐसी “पुशिंग” कविता है यह. बड़ा मंतव्य है और एक बड़ी ज़िम्मेदारी वाला काम है. वीरेन पसीना छुड़ा देने की हद तक मनुष्य को और उसकी बदमाशियों और नकलीपन को टटोलते हैं. वो चैन नहीं लेने देते. जाते हुए मक्कार के पीछे उनकी कविता चिपक जाती है जिसे छुड़ाना नामुमकिन है.
पहली मिसालः
अब बोल यार बस बहुत हुआ
कुछ तो ख़ुद को झकझोर यार.
कुर्ते पर पहिने जीन्स जभी से तुम भइया
हम समझ लिये
अब बख़त तुम्हारा ठीक नहीं.
दूसरी मिसालः
उत्कृष्ट उच्चारण परिनिष्ठित भाषा
मृदुल हास
बुद्धि तीक्ष्ण
चेहरा भी सुन्दर और मोहरा भी
धर्मनिरपेक्षता पर भी है पूरा विश्वास
अब आत्मा में ही नहीं है सुवास
तो क्या कीजै !
तो वीरेन डंगवाल की कविता सवाल नहीं पूछती. उसमें जो फटकार है वो भी प्रकट नहीं है. हमारे समय की ज़्यादतियों और अन्यायों और विसंगतियों पर अपनी मृदु वक्रोक्तियों के सहारे वीरेन झिड़कते हैं. पर ये झिड़क किसी भी फटकार या सवाल या हमले से ज़्यादा गहरी और तीखी है. ये सोने नहीं देती. आप शरमा जाएंगें या नज़रें फेर लेंगे. या जल्दी से सीढ़ियां उतर जाएंगें. आप एक हृदयहीन मनुष्यताहीन व्यक्ति हैं तो आप हो सकता है अट्टाहस करेंगे गर्जन तर्जन करेंगे पांव पटकेंगे कुछ बकेंगे पर ये कविता कमबख़्त इतनी निराली और इतनी नटखट ऊर्जा से भरी हुई है कि वहां भी टहलती हुई आ जाती है, आती क्या है चक्कर काटती रहती है. आत्मा में उसका उत्पात चलता ही रहता है.
पहली मिसालः
हमसे छीने हैं हमारे कितने ही मित्र सखा
दिल्ली के इन हवाई अड्डों
विश्वविद्यालयों संस्थानों और
अस्पतालों ने
मगर फिर कभी
वह कथा फिर कभी
दूसरी मिसालः
फूलबाग़ में फूल नहीं
चमनगंज में चमन
मोतीझील में झील नहीं
फ़ज़ल गंज चुन्नी गंज कर्नल गंज में
कुछ गंजे होंगे ज़रूर
मगर लेबर दफ़्तर और कचहरी में न्याय नहीं
वीरेन की कविता मक्कारों को तंग करती है तो मनुष्यों के लिए वो ढाढस है. बहुत प्रेम से भरा ढाढस. उनका ढाढस कितना अद्भुत है इसका ज़िक्र लेख की शुरुआत में किया गया है. और उनका प्रेम. यानी उनकी कविता इतनी निश्छल सादगी वाली और इतनी भीतरी गहराइयों से निकली इतनी शांत करुणा से भरी है कि कोई भी उसे अपने बुरे वक़्त के लिए मदद के रूप में रख सकता है. आप जैसे हैं वैसे ही अपनी कविता में दिखते हैं. ये होना कितना मुश्किल है और एक लिहाज़ से देखिए तो कितना सहज.
ककड़ी जैसी बांहे तेरी झुलस झूर जाएंगी
पपड़ जाएंगे होंठ गदबदे प्यासे प्यासे
फिर भी मन में रखा घड़ा ठंडे मीठे पानी का
इस भीषण निदाघ में तुझको आप्लावित रक्खेगा
अलबत्ता
लली, घाम में जइये, तौ छतरी लै जइये
और वो टोकने वाली कविता ही नहीं है, अपने लिए भी ऐसा ही कुछ चाहती है. उसे भी सारे दर्द चाहे बेशक दे दो पर उससे मुंह मत मोड़ो आंखे मत फेरो.
समय कठिन
प्राण सखा आंखें मत फेर
टोक टोक जितना भी जी चाहे टोक
पर आंखे मत फेर ……
चढ़ी चली आती है अकड़ भरी
लालच की बेल
शुरू हुआ इस नासपीटे वसंता का
सर्व अधिक कठिन खेल
वीरेन डंगवाल समकालीन वक्तों के इसी कठिन खेल को देखने समझने की कोशिश करते हैं. उनकी लंबी कविताएं इसी कोशिश की बेचैनियां हैं. रॉकलैंड डायरी मुक्तिबोधीय बेकली से अपने समय की यातना को याद करती हुई कविता है तो वो रुकुमिनी की महागाथा….वीरेन की ये लंबी कविता कटरी की रुकुमिनी औऱ उसकी माता की खंडित गद्यकथा अपने शीर्षक और अपने आख्यान में कमोबेश गार्बिया गार्सिया मार्केज़ की लंबी कहानी इंनोसेंट इरेंडिरा एंड हर हर्टलैस ग्रांडमदर की याद दिलाती है. उस कहानी और इस कविता की यातनाएं अलग अलग समयों की मानो एक ही दास्तान हैं. उनमें जो चीखें, विह्वलताएं, बेक़रारी और दमनभट्टियां हैं वे भी संयोग से कई मौक़ो पर मिलतीजुलती हैं. अन्याय कहां से कहां तक और कब से कब तक एक जैसा है और कितना लंबा फैला हुआ यहां से वहां. और रुकुमिनी और इंरेडिरा की व्यथा कथाएं कैसी मिलती टकराती और हमारे आसपास घूमती हुई.
एवम् प्रकार
रकुमिनी समझ चुकी है बिना जाने
अपने समाज के कई जटिल और वीभत्स रहस्य
अपने निकट भविष्य में ही चीथड़ा होने वाले
जीवन और शरीर के माध्यम से
गो कि उसे शब्द ‘समाज’ का मानी भी पता नहीं
इंरेडिरा एक दिन अपनी दादी से बहुत दूर चली जाती है. सागरों के पार आकाश की नीलिमा की ओर. इधर रुकुमिनी अपने हाहाकार से मुख़ातिब है, समाज के भीतर है तो उसकी मां मार्केज़ की कहानी की दादी से अलग सपने देखती है. ‘आलता लगी रुकुमिनी की एड़ियां’ देखती हैं और अपने जीवन में फैले अंधकार के दरम्यान ‘उसका दिल कैसे उपले की तरह सुलगता रहता है.’
खंडित ज़िदंगियों की दुनिया इससे पहले कि किसी पतन वाली निराशा के हवाला हो जाए, ‘जल की दुनिया में बहार आ जाती है और मछली की आंखों की पुतली भी हरी हुई जाती है.’ संघर्ष और उम्मीद के इस रोमान को अगर कोई कर सके तो रागकारी में बांधा जा सकता है जिसमें निबद्ध होकर ये कविता चरम सांगीतिक बिंदु पर जाकर टिक जाए. कुछ देर वहीं रहे. इस कविता के मुतल्लिक मैंने वीरेन जी से फ़ोन पर तफ़्तीश की थी कि क्या इसे लिखते समय उनके ज़ेहन में संगीत से जुड़ी कोई बात या याद थी. तो उनका कहना था कि संगीत ऐसे तो प्रकट तौर पर या सायास तो नहीं ही था लेकिन वे कुछ संगीत शायद उस समय सुन रहे होंगे.
यह शीतल राग हवा का, यह तो है ख़ास हमारे पूरब का
यह राग पूरबी दुनिया का अनमोल राग
इसकी धुन ज़िन्दा रखती है मेरे जन को
हैं जहां कहीं, अनवरत सताए जाते जो…..
यह राग पूरबी की धुन उन सब की कथा सुनाती है
जल की दुनिया में भी बहार आती है
मछली की आंखों की पुतली भी हरी हुई जाती है.
जन जीवन को प्रकृति को पशुओं को फूलों पत्तो मिट्टी और हवाओं को उनकी बारीकियों में अगर हिंदी कविता में किसी ने नोट किया है तो वो वीरेन हैं. विवरण के चुटीले अंदाज़ हैं उनके पास. पपीता समोसा हाथी आदि उनकी प्रसिद्ध कविताओं के बारे में हम सब जानते हैं, स्याही ताल नाम के तीसरे संग्रह में वीरेन विवरणों और कथाओं की नई विशेषताओं के साथ आते हैं.
रातों में तमाम बार टूटी हुई नींद में
अचकचाए आतंक से उसे मैंने देखा
सतर्क रुआब के साथ अपने कमरे का मुआयना करते
या चांदनी रात में बित्ता भर आंगन में अकारण दौड़ते
बग़ैर रत्ती भर डर या शर्म के
…
उसके चूहा ज्ञानकोश में संचित थी
कुतरने की तमाम आनुवंशिक प्रविधियां
जिन्हें उसने अपनी आलोचक मेधा से
नई धार दे दी थी
यों उससे भी मेरा एक शत्रुतापूर्ण मैत्री संबंध था.
वीरेन अपनी खिलंदड़ी अपने मज़ाकों और अपनी व्यंग्य वाणी और उस व्यंग्य दृष्टि के लिए भी जाने जाते हैं. लेकिन इस फक्कड़पन और मस्तमौला ठाठ के अंदर कई मुड़ीतुड़ी तहें हैं. वहां गहरा संताप और कोफ़्त और कई बार ऊब और चिढ़ भी है, रोना जो है सो है. उनकी कविताओं की बिंदास छटाएं एक पर्दा है और आप उसे उठाकर अंदर झांके तो हम रॉकलैंड जैसी दास्तान से टकराते हैं.
असहाय-असहाय
पीड़ा-भय-शंका-की इस
निर्लज्ज रासायनिक धुंध में
सब लेटे पंक्तिबद्ध-पीड़ाहत
लोहे के जंगलेदार पलंगों पर
मूक पशुओं की तरह कराहते असहाय
लेकिन वीरेन विवशताओं और दयनीयताओं के हवाले अपनी कविता को छोड़कर आगे बढ़ नहीं जाते. वे आगे बढ़ते हैं अपनी कविता का हाथ थामे उसे उस कलप भरे गडढ़े से निकालकर, अपने साथ ले आते हैं. वो दुख से भरा उतना ही कड़ा समय है लेकिन वहां जिजीविषा अदम्यता और अभूतपूर्व उम्मीद है.
मेरे दिल में वही ज़िद कसी हुई
किसी नवजात की गुलाबी मुट्ठी की तरह
मेरी रातों में मेरे प्राणों में
वही-वही पुकारः
‘हज़ार ज़ुल्मों से सताये मेरे लोगों
तुम्हारी बद्दुआ हूं मैं
तनिक दूर पर झिलमिलाती
तुम्हारी लालसा…..
ये है पर्दे के भीतर जाकर वहां से लौट आने और एक नया पर्दा उठाकर नई झिलमिलाहट में चले जाने की आकांक्षा. अपने लोगों की लालसा की रक्षा करती उसे बाहर निकाल ले आती कविता. जैसे मशहूर भौतिकविद स्टीफ़न हॉकिंग का “हॉकिंग विकिरण.” किसी ब्लैक होल में जाकर भी हर चीज़ वहां फ़नां या गर्त नहीं हो जाती वो वहां से निकल भी जा सकती है. ब्लैक होल इतना भी ब्लैक नहीं. कविता भी तो असाधारण ढंग से भौतिकी के उसी करिश्मे को संभव करती है. कविता की अगर गली होगी तो वो कभी बंद नहीं होगी. वो गली इतनी लंबी इतनी आगे जाने वाली और इतनी पीछे लौटने वाली की है आप इसका अंदाज़ा कविता में ही लगा सकते हैं. या नहीं ही लगा सकते हैं.
झासी-झीनी चादर बुनता
जाता-जाता भादों
चलो ओढ़ कर ये चादर
हम छत पर गाने गायें
सतहत्तर तक
दौड़ लगायें.
संगीत के बाद या शायद उससे पहले कविता ही ऐसी चादर बुन सकती है. और वीरेन डंगवाल की कविता इसी चादर की बनी है. या वो कविता इसी चादर के भीतर है. ये समझना हमें हैं कि इस चादर का भीतर बाहर है या बाहर भीतर. वीरेन इसी अलक्षित से जादुई यथार्थ के कवि हुए हैं. ये अपने मुलुक की व्यथा को न सिर्फ़ ज़ाहिर करने वाला अंदाज़ेबयां है- ये आगे बढ़कर एक भूमिका भी उन व्यथा के सताए लोगों के लिए तै करता है-उन्हें लड़ाइयों में भागीदार बनाता है. उनकी लड़ाइयों में अपनी भागीदारी सुनिश्चित करता है- एक रचनाधर्म के हवाले से नहीं बल्कि एक पोलिटिक्ल इंसान के लिहाज़ से भी वीरेन इस अंदाज़ को, उनकी ही एक कविता में कहें, ‘बीस हाथ नीचे मगर उस आकाश से काफ़ी ऊपर’ ढालते जाते हैं.
इसीलिए एक अलग रास्ता पकड़ा मैंने
फ़ितूर सरीखा एक पक्का यक़ीन
इसीलिए भोर का थका हुआ तारा
दिगंतव्यापी प्रकाश में डूब जाने को बेताब
असल में वीरेन डंगवाल अपने दौर की विकटताओं, विडंबनाओं, लड़ाइयों, उल्लासों और मोहब्बतों पर बहुत सोचविचार कर ख़ुद को खंगालकर बारबार झाड़पौंछ कर लिख रहे हैं और कुछ ऐसा करिश्मा है कि नया ही होता जाता है और नई बात ही आती जाती है. पुराने औजारों को पीछे छोड़ आए हैं और उनके पास अब नए और ज़्यादा पैने ज़्यादा गहरे औजार आ गए हैं और उनके सहारे वे पुराने दिनों की एक यहां से वहां भटकती बेचैनियों में गए हैं. भीमसेन जोशी कहते हैं कि गायक तो चोर होता है, इधर उधर से सब जगह से लेता है और अपनी गायकी में अपने ढंग से ढालता है. अपनी बात कहता है. एक अच्छी कविता भी यही करती है. उसके सच्चेपन और गाढ़ेपन के लिए बहुत सारी बातें ज़िम्मेदार हैं. वो निरंतर ऐसी ताकझांक और मनुष्य जीवन की पेचीदगियों को कुछ इस अंदाज़ में नोट करती रहती है कि जब हमारे सामने आती है तो वो विलक्षण अनुभव बन जाती है.
ज़रा सम्हल कर
धीरज से पढ़
बार-बार पढ़
ठहर-ठहर कर
आंख मूंद कर आंख खोल कर
गल्प नहीं है
कविया है यह
एक नज़र में लगता है कि वीरेन अपनी इस कविता के ज़रिए फ़रमान जारी कर रहे हों और कविता का रुतबा याद दिलाने की कोशिश कर रहे हों लेकिन जैसा कि इस कविता की मांग है बार बार पढ़े जाने और आंख मूंद कर और आंख खोलकर पढ़े जाने की, तो उसी एक्सरसाइज़ को अपनाते हुए आप देखेंगे कि असल में वीरेन कविता से ज़्यादा गल्प के लिए भी यही मंत्र फूंकने की कोशिश करते हैं. एक सुंदर गल्प को भी कविता की तरह पढ़ा जाना चाहिए. यानी आपके सामने एक सुंदर रचना है तो उसे उसकी बुनावट की तमाम बारीकियों की खोजबीन के साथ पढ़े. उसका टोन उसका टेक्सचर उसका रिद्म उसकी संदेहपरकता उसकी अस्पष्टता उसके तेवर के साथ- जैसा कि एक कविता कैसे पढ़ी जाए नामक लंबे निबंध में प्रख्यात ब्रिटिश आलोचक और साहित्य सैद्धांतिकी के विद्वान टैरी इगल्टन ने ज़िक्र किया है. अगर उसे आप बहुत जटिल काम की तरह देखें तो उसे डिकोड कर सकते हैं वीरेन डंगवाल की उपरोक्त कविता की मदद से. वह अपने ढंग से और शायद ज़्यादा प्रभावशाली और सहज ढंग से और कम शब्दों में हमें बताती है “हाऊ टू रीड अ पोएम.”
दोस्त निश्छल, विद्वेषहीन
जिनकी विस्तीर्ण भुजाओं में था विश्व सकल
सकल प्रेम
ज्ञान सकल
अधपकी निमोली जैसा सुन्दर वह हरा-पीला
चिपचिपा प्यार
…..
सड़के वे नदियों जैसी शान्त और मन्थर
अमरूदों की उत्तेजक लालसा भरी गन्ध
धीमे-धीमे से डग भरता वह अक्टूबर
गोया फ़िराक़
वीरेन डंगवाल के व्यक्तित्व और कविता पर और भी बातें हैं, एक मीठी भावना के साथ ‘मगर फिर कभी वह कथा फिर कभी’ कहना चाहता हूं. वीरेन की कविता एक दोस्त कविता है. वह हमारे पास एक दोस्त की तरह आना चाहती है. वो अटूट होकर वहीं रहना चाहती है शायद. उसमें ‘डूब जाने को बेताब.’ उसकी मित्रता का ये गुण दुर्लभ है जिसके लिए हम कितना छटपटाते हैं…कितना तड़पते हैं….इन दिनों.
ख़ुद की बदहाली
कभी रोमांचक लगती है कभी डरावनी
एक खटका गड़ता है कांख में कांटे की तरह
तुम एक बच्चे की तरह साथ में आये मित्र की बांह पकड़ना
चाहते हो
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