Read in English: Myth of Pipihya from Chaundas Valley
बहुत समय पहले की बात है जब विभिन्न धर्मों एवं संस्कृतियों में देवता एवं राक्षस दोनों ही सामान्य लोगों के बीच रहा करते थे. काफी समय पहले उस युग में एक हिमालय के देवता थे जिनके पांच युवा एवं बलवान पुत्र थे. सबसे छोटे पुत्र का नाम पीपीह्या था जिसका अर्थ होता है वह व्यक्ति जिसके चार बड़े भाई हो.
उन पांचों भाइयों में आपस में बहुत प्रेम था और उन्हें कहीं भी जाना होता तो वे हमेशा साथ में ही जाते. कभी वे हिमालय की पहाड़ियों में नीले रंग वाली भेड़ का तिब्बत के घास के मैदानों तक पीछा किया करते थे तो कभी गंगा के बर्फीले पानी में और हुम्ला की केर्मी के गरम पानी में स्नान किया करते. उन सभी के पास उड़ने वाला रथ था अतः वे दूर-दूर के क्षेत्रों में भ्रमण किया करते थे. उन्होंने बसंत ऋतु के समय लांगर सो के द्वीपों पर पक्षियों के द्वारा बनाये हुए घोसलों को देखा. लीमी घाटी में उन्होंने बर्फीले तेंदुओं को देखा. नीचे की ओर स्थित ब्यांस घाटी के सरसों के खेतों में नृत्य करने के लिए वे गडरिए का वेश धारण करके जाते थे.
एक दिन गढ़वाल में स्थित फूलों की घाटी में जब वे गेंदा फूल एवं खसखस के मुकुट बना रहे थे तभी उन्हें एक सम्मोहक गीत सुनाई दिया. पीपीह्या ने बड़े भाइयों से कहा, ‘हम सभी देव हैं, परंतु यदि मुझे इस गीत को गाने वाला दिखाई नहीं दिया तो मैं मर जाऊंगा.’’
उसके भाइयों ने उसे सावधान करते हुए कहा, ‘पीपीह्या कुछ कामनाएं ऐसी होती है जो सिर्फ जन्म लेने वाले व मृत्यु को प्राप्त होने वाले मनुष्य ही कर सकते हैं. हमारे लिए युवावस्था शाश्वत है और यदि हम दुखी बने रहेंगे तो हमारी तृष्णाएं भी इसी प्रकार अनंत ही बनी रहेगी.
परंतु पीपीह्या उन गायकों को ढूंढने के लिए हठ करता रहा. उसके बड़े भाइयों ने कहा, ‘अच्छा ठीक है पीपीह्या, परंतु हम सबको एक प्रतिज्ञा करनी होगी कि हम मनुष्यों द्वारा भेंट में दिया गया कुछ भी नहीं खायेंगे. यदि हमारे मुख में चावल का एक दाना भी गया तो हम सदा के लिए पृथ्वी लोक में ही फंस जायेंगे.
रात भर अपने रथों पर उड़ते हुए उन्होंने कुछ खोजबीन की ओर उन्हें ब्यांस घाटी में उन गायकों का पता चल गया जहां पर अभी भी रंग जाति के लोग रहा करते थे. रंगलिन देव की पांच पुत्रियां थीं जो पूरे विश्व में सबसे सुंदर थी. पीपीह्या एवं उसके भाइयों ने उन युवतियों को स्वयं का परिचय दिया और तत्काल ही उनसे मित्रता कर ली.
रंगलिंग देव ने अपनी पुत्रियों के लिए एक शानदार एवं मनोरंजक महल बनवाया हुवा था जहां से वे सारी बहिने उत्तर पूर्व में स्थित साइपाल पर्वत के दर्शन कर सकती थी एवं नीचे की ओर घाटी में बहने वाली महाकाली नदी को बहते हुए देख सकती थी. वहां पर वे युवा देवता व नव युवतियां लाल रंग के मखमल में आवृत्त बिस्तरों पर शतरंज खेलते थे और नर्म घास पर नग्न पांवों से नृत्य करते हुए पूरी रात हंसते हुए व बातें करते हुए बिताते थे. जब भी वे नवयुवतियां नृत्य करती थीं तब देवता उनके लिए बांसुरी और ढोल बजाते थे एवं जब भी वे सुंदर बहिनें उन देवताओं से निवदेन करती तो वे देवता उनके समक्ष प्रसन्नता पूर्वक नृत्य करते. परंतु पीपीह्या और उसके भाई सदा ही उसके द्वारा दिया हुआ भोजन ग्रहण न करने का कोई न कोई बहाना बनाते और सूर्योदय से पहले ही वे सभी उस मनोरंजन महल से चले जाते.
कई दिनों की इस आनन्दमयी मित्रता के पश्चात उन बहिनों को यह आभास हुआ कि वे जो भी भोजन अपने आगंतुकों के समक्ष प्रस्तुत करती थी वे उसे छुए बिना ही वहां से चले जाते थे. वे बहिनें आपस में विचार-विमर्श करने लगी, ‘युवकों के डील-डोल व सुंदर चेहरों से यह साफ लगता है कि वे सभी भाई देवता है, शायद उन्हें लगता है कि हमारा भोजन उनके लिए अशुद्ध है.’’ तब उन्होंने निश्चय किया कि वे चावल के प्रत्येक दाने को अपने स्वंय के हाथों से छीलेंगी और स्वंय अपने हाथों से चावल का हलवा बनाएंगी. वे एक-दूसरे से कहने लगी, ‘ऐसा कौन मित्र होगा जो इतने प्रेम व स्नेह से बनाए हुए भोजन को ग्रहण करने से मना करेगा?’’
पूरा दिन उन बहिनों ने चावल के दानों को छीलते हुए बिता दिया. बीच-बीच में काम की वजह से उत्पन्न हुई ऊब को मिटाने के लिए उन्होंने गीत भी गाए. वे यह सोच-सोच कर बहुत प्रसन्न हो रही थी कि यह स्वादिष्ट हलवा उन देवों के चेहरों पर मुस्कुराहट ले आएगा. शुद्ध चावल को शुद्ध दूध में उबाल कर उसमें केरल व कश्मीर के बेहतरीन मसालों को मिलाकर उन बहिनों ने चावल एवं दूध के मिश्रण से बनी खीर के पांच बड़े कटोरे तैयार किए.
सूर्यास्त के पश्चात वे देवता आए. सुंदर युवतियों ने उन देवों से बेहतरीन ऊन के बने कालीन पर बैठ जाने का निवेदन किया और याक चंवर से हवा करने लगी तत्पश्चात उनके समक्ष खीर से भरे कटोरे रखे.
जब भाइयों ने खीरे से भरे कटोरों को देखा तो उनमें से सबसे बड़े भाई ने अपने शेश भाइयों को आंख मार कर व सिर हिलाते हुए चावल के एक भी दाने को मुंह में लिए बिना खीर खाने का बहाना करने का संकेत दिया. पवित्र देवों को अपवित्र मानवों से पृथक करने का यह एक सख्त नियम था. इन नियमों को तोड़ना प्रकृति के सृजनकार की बनायी हुयी सीमाओं को लांधने के बराबर था. बड़े भाई द्वारा दिया गया संकेत सभी को समझ आ गया था. अतः वे हंसते हुए व भोजन की सराहना करते हुए खीर खाने का ढोंग करने लगे. एक भाई ने कहा, ‘ओह! इलायची की गंध बहुत बढ़िया है,’ दूसरे भाई ने समर्थन में कहा, ‘और केसर की सुगंध भी एकदम मनमोहक है.’
सभी देवता खीर को अपने होठों तक लाने का ढोंग तो करते परंतु बड़ी चालाकी के साथ उसे अपने कंधों के ऊपर फेंक देते. वे बहुत जोर-जोर से हंसते हुए खीर की प्रशंसा कर रहे थे तथी चावल का एक दाना छटक कर कंधे के बजाए पीपीह्या के मुख के अंदर चला गया.
रात के गुजरने के साथ ही सभी देवता और वे पांच बहिनें आपस में रहस्यमयी बातें फुसफसाने लगी और वे एक दूसरे की कमर के इर्द-गिर्द बाहें डालकर नृत्य करने लगे. वे जांचने लगे कि कौन सबसे लम्बे समय तक मोर पंख से की हुई गुदगुदी सहन कर सकता है. जब तक भोर की देवी ने पूर्व दिशा को लाल रंग से न रंग दिया तब तक वे सभी मस्तिष्क एवं काया के खेल खेलते रहे. सभी देवों ने सांझ में वापस आने का वादा किया और मृदुता से उन बहिनों के प्रेमालिंगन से अपने को दूर करके अपने-अपने रथों पर चढ़ गए.
चांदी व स्वर्ण से बने पांचों रथ उस मनोरंजक महल से उड़ गए एवं उन पांचों बहिनों ने विदाई के समय रेशमी लटकन वाले दुपट्टों को लहराया. परंतु शीघ्र ही पीपीह्या का रथ नीचे की ओर उतरने लगा जैसे कि मानो कोई अदृश्य बल उसे नीचे की ओर खींच रहा हो. बड़े भाइयों ने यह दृश्य देखा और वे भयभीत हो उठे. अंत में जब वह रथ सिर्खा जा उतरा तब बड़े भाइयों ने बादलों के पार से उससे बात की.
‘‘पीपीह्या! तुमने मनुष्यों के हाथ का भोजन खा लिया है अतः अब तुम्हें इसका दंड भुगतना पड़ेगा. तुम अब राजा की तरह वहीं रहो, तुम्हारी आवश्यकता की सभी चीजें हम तुम्हें भेजते रहेंगे.’’
अपने भाइयों की बातों को मानते हुए पीपीह्या वहीं रुक गया और सिर्खा के पहाड़ी ढलान वाले क्षेत्र में अपने लिए एक भव्य महल का निर्माण किया जिसमें रथ को आंगन के बीचों-बीच रखा गया था.
अठारह मंजिल ऊंचा महल पूरे विश्व भर में सबसे आलीशान महल था. उसके भाइयों ने राज मिस्त्रियों व काष्ठकर्मियों, जुलाहों व कम्हारों एवं बड़े महल के निर्माण में उपयोगी हर प्रकार के कारीगर को किराए पर रखने के लिए उसे धनराशि प्रदान की. पीपीह्या ने एक प्रशिक्षित सेना भी बनायी. अब उसने मानवों वाला भोजन खाना प्रारम्भ कर दिया था. अब जब वह धरती पर अटक ही गया था तो उसे आनंदपूर्वक पृथ्वी पर वास करना ही चाहिए.
परंतु उसकी सम्पत्ति इतनी अधिक हो गयी थी कि किले की खिड़कियां व छतें बोझ से गिरने लगी थी . पीपीह्या ने अपनी संपत्ति का वितरण सेना, निर्धन किसान व ब्यांस घाटी के गड़रिए, गाय चराने वाले व दर्जी, उसके बावर्ची व सफाईकर्मी के बीच करने का निर्णय लिया. उसने सड़कें बनवायीं एवं तिब्बत के साथ आसान व तीव्रतर व्यापार के लिए धर्मशालाएं बनवायी. पहाड़ों की जड़ी-बूटी की पहचान, उसका प्रशोधन किया ताकि वे बीमारों का उपचार कर सकें एवं इससे रोजगार भी पा सके.
परंतु पीपीह्या का पृथ्वी पर समय उसके आस-पास रहने वाले लोगों के समय से भिन्न प्रकार की गति से बीत रहा था. वह उन पांचों बहिनों से मिलने जाता था. अब वे बड़ी हो चुकी थी एवं कई वर्षों पश्चात मृत्य को प्राप्त हो गयी. उसके आंगन के मध्य में रखा रथ भी जंग लगकर टूटने लगा था. उसके सेवकों के वंशज भी नयी ऊर्जा व नए उत्साह के साथ उसकी सेवा में शामिल होते, फिर भी मोटे होते, तत्पश्चात उनका शरीर झुकने लगता और अंत में उनकी मृत्यु हो जाती. इस जन्म से मरण की यात्रा ने पीपीह्या को सुखी व मनोरंजक स्थिति से परे कर दिया था और अब वह भी संसार से मुक्ति की अभिलाषा करने लगा था.
एक दिन जब उसकी सेविका उसके लिए अंगूर छील रही थी तब वह सिसकते हुए बोलने लगा, काश मेरे भाई स्वर्ग से आएं और मुझे भी लेकर चले जाएं. मैं अब इस सुख-सम्पत्ति से ऊब चुका हूं क्योंकि यह मुझे यहां बांधे रखना चाहती है.‘ पीपीह्या की सेविका अपने स्वामी के लिए अंगूर छीलते-छीलते इतनी बूढ़ी हो चुकी थी कि वह उसकी याचना सुन ही नहीं पायी. आखिर उसने कभी भी अपने मालिक से शिकायत नहीं की थी कि कैसे एक-एक अंगूर को छीलने से उसकी आंखें तनावपूर्ण हो गयी थी और उसकी अंगुलियों में गठिया हो गया था.
‘यदि आप अपनी सम्पन्नता और सुंदरता से इतने ही व्याकुल है तो अपन अपने पूर्वजों को प्रदान किए जाने वाला आटे के धलंग के बजाय राख से क्यूं नहीं बनवाते और वार्षिक श्राद्ध के लिए बकरे की बजाए कुत्ते की बलि क्यूं नहीं करते?’
समाज के कुछ नियम बहुत साफ तरीके से प्रतिष्ठित है जिसका सभी लोगों को ज्ञान है. जिनमें से कुछ तो ऐसे हैं जो कि सब लोगों को सिर्फ मालूम ही नहीं है अपितु जिनके तोड़ने पर वे दंड के भी भागी हो सकते हैं. कुछ नियम अज्ञानतावश टूट जाते हैं परंतु कभी-कभी स्वंय देवता ही समाज में परिवर्तन लाने के लिए जान-बूझ के नियमों का उल्लंघन करते हैं. पीपीह्या ने अपने विश्वसनीय लोगों को अपने पास बुलवाया ओर बोला, ‘मैं अपने भाग्य को पूर्णरूप से नष्ट करने जा रहा हूं.’’
धन व शक्ति के नाश की सम्भावना से भयभीत पीपीह्या के मंत्री व सैनिक ने कहा, ‘नहीं. यह हम सबके लिए बहुत बुरा होगा.’ परंतु किसी की भी न सुनते हुए उसने आटे के बदले राख का धलंग बनवाया और पूर्वजों को बकरे के बजाय कुत्ता अर्पण किया. यह बहुत ही अपमानजनक बात थी. समाज के आधारभूत नियमों को तोड़ने के बाद कोई भी सुख व सम्पत्ति का अधिकारी नहीं हो सकता. अतः पीपीह्या की पूंजी घटने लगी. उसके रथ में शेष बचे स्वर्ण, चांदी व जंग को चोर चुरा कर ले गए. अंततः उसका किला भी ध्वस्त हो गया एवं उसे लोगों द्वारा फेंकी गयी जूठन खाकर रहना पड़ा.
पीपीह्या के पास अब सिर्फ एक लकड़ी का कटोरा शेष रह गया था.
पीपीह्या का वैभव एंव उसकी सुंदरता सब गायब हो गयी थी. जब वह चावल चबा रहा था तो उसका एक दांत टूट कर गिर पड़ा. तत्काल ही वह पागलों की तरह हंसने लगा. स्वर्ग की ओर देखते हुए उसने कहा, ‘भाइयों! क्या तुम मुझे भूल गये हो?’’
तभी उसके भाई अपने शानदार स्वर्ण व चांदी के रथों पर सवार होकर आए और उसे जमीन से उठाते हुए आकाश की आरे खींचा. उस दिन के बाद किसी ने भी उसे नहीं देखा. अंततः पीपीह्या उस एक चावल के दाने के अपराध से क्षमा कर दिया गया था.
जब उसका किला भव्य एंव सम्पन्न था तब पांच सौ रंग व्यापारियों एंव किसानों के परिवार किले के पश्चिम दिशा की ओर आकर बस गए थे. पूर्व में तीन सौ लुहारों के परिवार जिन्होंने किले व उसके सैनिकों की सेवा की, आकर बस गए थे परंतु पीपीह्या द्वारा अपने पूर्वजों को अर्पित किए गए राख के धलंग व कुत्ते की बलि की वजह से लोगों को लगता था कि यह गाँव अब कभी फिर से सम्पन्न नहीं हो पाएगा. अतः वे हमेशा के लिए वहां से चले गए.
जो पर्यटक सिर्खा की यात्रा पर जाते हैं वे आज भी पहाड़ी के टूटे-फूटे भागों को देख सकते हैं. यह खंडहर किसी देवता द्वारा नियम तोड़े जाने के फलस्वरूप होने वाले परिणामों के ही सूचक हैं.
अंग्रेजी में पुनर्प्रस्तुति: प्रवीण अधिकारी
हिंदी अनुवाद: चंद्रेशा पाण्डेय
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