हेडमास्टर साहब, मस्तमौला आदमी थे. टेंशन बिल्कुल नहीं पालते थे. बरसात के दिनों को छोड़कर, सालभर कक्षाएँ बाहर लगती थीं. स्कूल- बिल्डिंग के आगे एक खुला सा मैदान था. पहाड़ के हिसाब से अच्छा-खासा बड़ा सा. मैदान के चारों तरफ दरमियानी चोटियाँ दिखलाई पड़ती थी. एकदम हरी-भरी वसुंधरा और मनभावन सी लोकेशन. तो मास्टर जी का डेरा, स्कूल में ही रहता था.
वैसे, पढा़ने में उनका मन, कम ही रमता था. बच्चों को उनके हाल पर छोड़कर, अक्सर वे डेरे में आ जाते थेे. डेगची में दाल चढ़ाते, फिर खटिया डाले लेटे रहते. लेटे-लेटे हुक्का गुड़गुड़ाते. ‘बिन मास्टर की क्लास और बच्चों के शोरगुल’ का ‘बादरायण’ ने ‘सहज संबंध’ बताया है.
तो यह शास्त्रीय स्थिति अक्सर पैदा हो जाती, जिससे उनके आराम में, अक्सर विघ्न पड़ता रहता था. आराम में खलल पड़ते ही, मास्टर जी हुक्के की नाल हाथ में लिए अपनी माँद से बाहर निकल पड़ते. जो भी सामने पड़ता उसी को दबोच लेते. खूब दचकते. फिर कसकर फटकारते, “कैकु छैं रे. देख तू. ब्याखनि दाँ मिन त्यार बाबा कि कलास ल्येण.” (किसका है रे तू. देखना तू, शाम को तेरे बाप की क्लास लेता हूँ.)
बच्चा मन-ही-मन कहता, ‘पहले हमारी क्लास तो ले लो गुर्जी. बाबू की क्लास तो जब मर्जी आए, तब ले लेना. जिनकी क्लास लेनी चाहिए, उनकी तो कभी लेते नहीं. बड़े आए क्लास लेने वाले. याद नहीं पड़ता, आखिरी बार कब क्लास ली होगी. कसम खाने के लिए एक बार तो गिना जाओ गुर्जी.’
अगर सचमुच मास्टर जी से पूछा जाता कि, उन्होंने आखिरी बार क्लास कब ली, तो यकीनन वे मुश्किल में पड़ जाते. खुद उन्हें याद नहीं पड़ता था कि, आखिर कब उन्होंने, आखरी बार क्लास ली थी, जिसे सचमुच क्लास लेना कहा जा सके.
बाईचांस एकाधबार, अगर कभी, उन्होंने मन लगाकर क्लास लेने की कोशिश भी की, तो पढ़ा नहीं पाए. मन उनका, कहीं और रमा रहता था. घड़ी-घड़ी चाँठ्यों (चोटियों) की तरफ देखते रहते थे. खोई-खोई नजरों से, स्वप्निल निगाहों से . चाँठ्यों में जरा सी हलचल हुई नहीं कि, वे एकदम से सतर्क हो जाते. घुरड़-काखड़ को तो वे दिलोजान से चाहते थे. एक झलक दिखी नहीं कि, फिर उन्हें दुनिया की कोई ताकत नहीं रोक सकती थी. पढाई-लिखाई का मायामोह फेंक-फाँककर, वे अपनी माँद की तरफ दौड़ लगाते. पलभर में भरवाँ बंदूक हाथ में लिए बाहर निकलते थे. फिर घुरड़-काखड़ की तरफ चौकड़ी भरकर दौड़ लगाते. उसके पास पहुँचने को आतुर हो उठते. उसे प्राप्त करने को ऐसी दौड़ लगाते कि, अगर जमैका वाले उन्हें एकबार देख भर लेते तो खड़े-खड़े पछताकर रह जाते. दौड़ते इतनी तेज थे कि, बच्चों को लगता कि, ‘गुर्जी दौड़ कहाँ रहे हैं. वे तो लगभग उड़नछू हो गए.’
गुर्जी के ओझल होते ही बच्चे, शिकार के नतीजों पर अनुमान लगाने में व्यस्त हो जाते, “अब जंगल़ जौंल़ ह्वैग्येन गुर्जी.”(गुर्जी जंगल गए और जंगल के ही होकर रह गए.)
“चला रे छ्वारों घौर. अब रतब्याणि तक नि औंदिन गुर्जी.” (चलो रे छोकरों, अब घर चलो. अब गुर्जी रात होने पर ही लौटेंगे.)
“घ्विल्ड क बिना कनके ऐ सकदन यार ऊ.” (घुरड़ लिए बिना वे कैसे लौट सकते हैं.)
“त्वै किलै छाई भारि मुंडारु उठ्यूँ. अबे, मृग मारिक ल़्याह्ल, त सगून खनि द्याल.” (तुझे क्यों सिरदर्द हुआ जा रहा है. अरे, मृग मारकर लायेंगे, तो बोटी तो देंगें ही न.)
“हाँ इन त छैंछ.” (हाँ, सो तो है.)
मृग की झाँकी भर दिख जाए, उनके बहकने के लिए इतना काफी रहता था. मृग थे भी बदमाश किस्म के. हरदम उनकी एकाग्रता भंग करने में जुटे रहते थे. बड़े गुर्जी के अलावा और किसी के साथ लुकाछिपी नहीं खेलते थे. जब भी कभी(एकाधबार ही सही, आखिर हुआ तो) उनका पढ़ाने का मन हुआ, मृग उन्हें मुँह चिढ़ाने लगते थे. फिर, वे सहज नहीं रह पाते थे. न तो वे सर पे इल्जाम लेना चाहते थे, न ही कर्त्तव्य-पथ से मुँह मोड़ सकते थे. नया कर्म सम्मुख पड़ते ही, पुराने कर्मबन्धन अपने आप, धुँधले पड़ जाते. यह उनकी विडंबना ही कहाएगी कि, वे जंगल में तनिक भी असहज नहीं होते थे, उधर क्लास में कभी भी सहज नहीं रह पाते थे. क्लास को तो उन्होंने हमेशा सरसरी नजरों से देखा, उड़ती-उड़ती निगाहों से.
नजर तो हमेशा पृष्ठभूमि पर टिकी रहती थी, हरदम विहंगम दृश्यों पर लगी रहती. झाड़ियाँ हिलते ही वे चौकन्ने से होकर रह जाते. आहट सुनकर तो एकदम व्याकुल हो उठते थे. पूर्णतः निरूपाय. पलट-पलटकर, पंजों पर उचक-उचककर उस दिशा की ओर देखते, कहीं भाग तो नहीं गया. जैसे ही उन्हें मायामृग की झाँकी दिखती, फिर उनका रुकना बेहद कठिन हो जाता.
कभी-कभी तो उनको ललचा के गायब हो जाते. फिर न दिखाई पड़ते, तो गुर्जी चाँठी को उदास नजरों से देखते रहते. उनकी नजरों से, उनके अंतर्मन की दशा साफ-साफ जाहिर होकर रह जाती.
शायद इसे ही भाग्य का फेर कहते होंगे. कहाँ तो काम कौन सा पसंद है और करना क्या पड़ रहा है. ज्यादा पढ़े-लिखे लोग तो इस स्थिति को विसंगति, विडम्बना जैसे भारी-भरकम शब्दों का आवरण पहनाकर छोड़ जाते . तो गुर्जी स्कूल को तो जैसे-तैसे निभा रहे थे. तनख्वाह जो उठा रहे थे. नमक का कर्ज, बड़ी चीज होती है. फिर, शिकारी चाहे जितना नामचीन हो जाए, ठीए की जरूरत तो उसे भी पड़ती है.
तो एकतरफ स्कूल था, दूसरी तरफ जंगल. गुर्जी दोहरी जिम्मेदारी के बीच पिसकर रह गए. बड़ा ही व्यस्त और भागमभाग वाला जीवन था, उनका. लगे रहते थे, दिन-रात. भरवाँ बंदूक कंधे पर धरे-धरे घूमते. दस्युओं की तरह जंगल-जंगल.
एकबार तो रात हो चली थी. शुभ्र चाँदनी में भी वे शिकार का पीछा करते रहे. हिरण शायद नीचे की तरफ भागा था. तब भी पीछा नहीं छोड़ा. जंगल में चीड़ का पिरूल पसरा हुआ था. चीड़ का पिरूल, तीव्र यातायात का बड़ा ही उपयोगी साधन माना जाता है. तो गुर्जी पीछा करते हुए, अचानक पिरूल पर सवार हो गए. फिर क्या था, वे अनायास ही क्षणभर में हिरण के ठीक आगे पहुँच गए. उनकी स्पीड देखकर, हिरण तक हैरान होकर रह गया. गुर्जी का निशाना क्या था. कुछ आभास था, तो शेष अनुमान. कभी-कभार लग जाता तो वे झूम उठते, जंगल में मंगल हो जाता.
इस तरह से व्यस्त दिनचर्या में उन्हें बुरी तरह थकान हो आती, फिर ऊपर से हताशा. अगली सुबह, जोड़-जोड़ दर्द करता. घुटनों से आवाज आती. कर्कश संगीत की आवाज.
बच्चे स्वाध्याय में लगे हुए थे. गुर्जी खटिया पे लेटे थे. हुक्का गुड़गुड़ा रहे थे. उनका मन नहीं माना. तो उन्होंने फौरन शिकार की योजना बनाई. दोपहर हो रही थी. वे उठे और प्रांगण में आकर बच्चों को देखने लगे. उन्हें बहुत अच्छा लगा. देखो, खुद पढ़ रहे हैं. ये होता है, अनुशासन. तभी उन्हें शिकार की इस्कीम याद हो आई. आतुर होकर बोले, “चलते हो जंगल. तुम्हारी भी घूमघाम हो जाएगी.”
फिर कुछ सोचकर, मानो बड़ा मौका देना चाहते हों, नाप-तोलकर बोले, “बड़े-बड़े लड़के चाड़ू (हाँका) करेंगे और अहेड़ (शिकार) में हाथ बँटायेंगे.”
इस प्रस्ताव पर बच्चों को एकसाथ खुशी और हैरानी हुई. आज तो गुर्जी का व्यवहार अप्रत्याशित रूप से बदला हुआ था. इससे पहले तो ऐसा कभी नहीं हुआ. जाते पहले भी थे, लेकिन कहते थे, “तुम पाठ खोलकर रक्खो..हाँ.. पढ़ते रहना.. अब्बि आता हूँ…आके सवाल पूछता हूँ..”
तो उस दिन जंगल में गहमागहमी मची रही. बच्चों का हल्लागुल्ला. बड़े बच्चे थोड़ा संजीदा बने रहे. हर झाड़ी के पीछे एक लड़का तैनात था. एकदम बुश-टू-बुश मार्किंग. परिंदा तक बचकर नहीं भाग सकता था.
गुर्जी तन्हा बैठे थे, दोब(घात) लगाकर. सबसे बड़े झुरमुट के पीछे साँस बंद करके बैठे हुए थे.
इस शिकार अभियान पर, एक-दो लोगों ने एतराज जताया तो गुर्जी ने उनकी बोलती बंद करके रख दी. शिकार-कथा तो कोर्स में रहती ही थी . गुर्जी तो उससे भी आगे बढ़कर, व्यावहारिक प्रशिक्षण पर जोर दे रहे थे. ‘जिसे शिकार की अनुभूति न हो. वो क्या खाक रोमांचित होगा. वो तो किताबी रोमांच तक सीमित होकर रह जाएगा. कुँए का मेंढक, अपने देखे को ही समंदर मान लेता है. हुँह्.’
इस तरह की कैफियत सुनकर, गार्जियन्स प्रशंसा और चमत्कार के भावों से भर उठे. धीरे-धीरे गाँव वाले धन्य मानने लगे कि, उन्हें बैठे-बिठाए इतना काबिल मास्टर मिला है. इस तरह से गाँव वालों से उनका बढ़िया सौहार्द्र बना हुआ था. सयानों से तो उनकी खूब घुटती थी. पंचांग से लेकर मौसम विज्ञान तक के सारे अपडेट देते रहते थे. पंचांग तो छपा- छपाया मिल जाता था. उसे बस पढ़ना रहता था. ग्रहण, पंचक, दिशाशूल, सहालग और श्राद्धपक्ष की एक्यूरेट तारीख बताते थे. मौसम की तो सटीक भविष्यवाणी करते थे. चौबीस घंटे पहले ही बता देते थे कि, बारिश आने वाली है.
हुक्के के तो वे विकट शौकीन थे. हुक्के की तंबाकू में शीरा मिला रहता था. आर्द्रता बढ़ते ही, तंबाकू पिघलने लगती थी. वे गाँव वालों को झट से बता देते कि, बारिश आने वाली है. सब अपना माल-असबाब समेटने में लग जाते. उनके कहे के मुताबिक, बारिश जरूर होती थी. इस तरह से उनका मौसम का पूर्वानुमान हमेशा सत्य सिद्ध हुआ. संक्षेप में, गाँव वाले उन पर श्रद्धा करते चले गए. अपनापन ठाठें मारने लगा. कारीगरी तो वे एक से एक जानते थे. जिससे उनका सामाजिक संपर्क व्यापक होता चला गया. स्कूल टाइम में वे जंगल में डंडा-झोली उठाए फिरते रहे और गाँव वाले उनसे परम प्रसन्न बने रहे.
अब सहायक मास्टर उर्फ़ छोटे गुर्जी की गाथा. छोटे गुरूजी एकदम विलक्षण थे. ‘बड़े गुर्जी-छोटे गुर्जी’ के संबंध बड़े जोरदार थे. ये संबंध हमेशा सूरज-चंदा जैसे बने रहे. दोनों इस सृष्टि में मौजूद तो थे, पर एकसाथ कभी नहीं दिखाई दिए. जब, बड़े गुर्जी स्कूल में रहते थे, तो छोटे नहीं दिखाई पड़ते थे. जब छोटे गुर्जी आते तो, बड़े गुर्जी अचानक अस्त हो जाते. शुक्ल पक्ष-कृष्ण पक्ष के हिसाब से दोनों अलग-अलग पालियों में ड्यूटी किया करते थे. दोनों में कुछ अद्भुत समानताएं थीं. किताबों से वितृष्णा रखते थे या आदर-भाव, निश्चित रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता. कारण जो भी रहा हो, किताबों को दोनों, कभी हाथ नहीं लगाते थे. क्लास पढ़ाना शायद उन्हें जोखिम भरा काम लगता था.
बैठे-ठाले कब तक रहते. कुछ न कुछ तो करना ही था. सो उनका चिंतन कुछ खास बिंदुओं पर केंद्रित होकर रह जाता- किसकी गाय कितना दूध देती है, कितने ब्यात की है. कितनी गायों के तीन या पाँच थन हैं. फलानी गाय विशेष की नानी-माँ-मौसी का स्वभाव कैसा था और उनका हाल मुकाम कहाँ पर हैं. कुल मिलाकर, इलाके के गोवंश का जीनोम डाटा, छोटे गुर्जी जबानी याद रखते थे.
स्कूल खुलने पर वे घर-घर संपर्क करते थे. पहले सुःख-दुःख पूछते. फिर सीधे काम की बात पर आ जाते- “क्वी पैटाणुकु त नी छ. छैं छ त बतावा दि.” (कोई तैयार करने को तो नहीं है? अगर है तो झटपट बता दो.)
सवाल गज्जब का पूछते थे. यह सवाल एक किस्म से द्विअर्थी किस्म का सवाल होता था. हालांकि उनका मूल आशय तो बछड़ों को लेकर ही रहता था, लेकिन कुछ अनाड़ी किस्म के अभिभावक, ‘बच्चों के रूप में’ इसका अर्थग्रहण कर लेते थे. गुर्जी बिलकुल बुरा नहीं मानते थे. न ही उन्हें निराश करते थे. लगेहाथ दोनों को एडमिशन दे देते.
बछड़े खोजने का तो उन्होंने एक आंदोलन सा छेड़ रखा था. कहते थे, “जु त मनखि क बच्चा छिन. उँकू त कुछ न कुछ ह्वैजाल. बाछरु, खाल्लि गौदानिकु त नि होंदिन. क्या मल्लब. यन्नि कन्न.” (जो भी मनुज-जाति की संतान हैं, उनका तो कुछ-न-कुछ हो ही जाएगा. रही बात बछड़ों की. तो बछड़े मात्र गोदान के लिए ही तो जन्म नहीं लेते. उन्हें किसी की दया पर भी तो नहीं छोड़ा जा सकता है.)
अनाड़ी बछड़ों को ट्रेंड करना, उनके पुराने शौक में शामिल था. फिर वे चुप बैठने वालों में से भी नहीं थे. कब तक, हाथ पर हाथ धरे बैठे रहते. चुप बैठे रहना, उनकी अस्मिता के विरुद्ध पड़ता था.
स्कूल खुलते ही उन्होंने घर-घर संपर्क किया, युद्ध स्तर पर अभियान चलाया. बछड़ों के पीछे तो वे हाथ धोकर जैसे पड़ गए. कुछ लोगों ने बहाने बनाये, तो कुछ ने उन्हें टरकाने की असफल कोशिशें की- “हमारे यहाँ नहीं हैं…अभी छोटा है….रहने दो गुर्जी.” गुर्जी इतनी आसानी से रहने देने वालों में से नहीं थे. न ही हार माननेवालों में से थे. खास बात यह थी कि, वे गोठ के दरवज्जे से गुजरकर ही, गृहस्वामी से मिलते थे. यह उनकी ‘ओरिजनल स्टाइल’ थी. हमेशा गौशाला, छानी का रास्ता लपकते हुए चलते थे. एक तरह से पहले से रेकी किए रहते थे. उसके अनजान बनने या मना करने पर, वे उसे हाथ पकड़कर गोठ के दरवज्जे तक ले जाते. बछड़ा-दर्शन होते ही, बछड़े को तो उम्मीद भरी नजरों से देखते ही थे, लेकिन मालिक को हिकारत भरी नजरों से देखतेे. मानों कह रहे हों “ये क्या है. हुशियारी और वो भी हमसे. धरी- की-धरी रह गई न, तुम्हारी हुशियारी.”
इशारों-ही-इशारों में वे बछड़ा-मालिक को लज्जित कर जाते. उस पर तो मानों घड़ों पानी पड़ जाता. न चाहते हुए भी, शर्माशर्मी में उसे बछड़े का एडमिशन कराना ही पड़ता था. कुछ ही दिनों में उन्होंने स्कूल-मैदान को फस्सकल्लास ‘रिक्रूटमेंट सेण्टर’ बनाके रख दिया. छोटे-मझोले, नये-नवेले, रंग-बिरंगे बछड़े. सीधे-शरीफ और अनाड़ी, बछड़े-ही- बछड़े. स्कूल, स्कूल न होकर पशुमेला स्थल जैसा दिखाई पड़ता. ‘टीनएजर’ बछड़े तो ऐसा घपला मचाये रहते कि, पूछो मत. इधर-से- उधर, उधर-से-इधर दौड़ लगाये रहते. लड़कों के तो फुल मजे थे. स्कूल- का-स्कूल, कौतुक-का- कौतुक, एकसाथ डबलमजा. लड़के कहाँ चुप रहने वाले थे. जरा सा हुर्रर्रर्रर्रर्र.. किया नहीं कि, बछडे पूँछ उठाते और गोली के वेग से भागने लगते.
कुछ ही दिनों में बछड़े जान जाते कि, वे किसके हत्थे चढ़े हैं. किससे उनका साबका पड़ा है. गुरुजी को न तो शिथिलता बर्दाश्त थी, न ही किसी तरह की ‘गोल़ादंगी’. इस तरह की इजाजत, वे बिल्कुल नहीं देते थे. न खुद चैन से बैठते थे, न उन्हें बैठने देते. दिन भर जोते रखते, “स्यूँ पर हिटा रे, स्यूँ पर.” (लाइन पर चलो रे. हल की लाइन पर चलो.)
बहकते बछड़ों को डाँट-फटकार लगाते, “अबे निगोसिक, अरे गौदानिक, स्यूँ पर हीट.” (अरे, बिन मालिक के, अरे गोदान किये जाने लायक बछड़े! बस तू सीधी रेखा पर चल.)
बेंत लहराते हुए गार्जियनशिप जताते, “फुकचाचरिक नि छैं रे. मि छौं तुमारु गोसी.” (अब तुम पहले की तरह स्वच्छंद नहीं हो. अब मैं जो तुम्हारा मालिक बन गया हूँ.)
वे ट्रेंड करने का भरपूर मजा लेते थे. जैसे बच्चों को उंगली पकड़कर चलना सिखाते हैं, उन्हें लीक पर चलना सिखाते. लगातार अभ्यास कराते. दाएँ मुड़, बायें मुड़, पीछे मुड़, तेज चल. ‘अटेंशन कॉशन’ समझाना और उसके ‘कंप्लायंस’ कराने पर उनका विशेष ध्यान रहता था. गलती पर एकाध बेंत भी जड़ देते. कहते, “फिर ना कहना खबरदार नहीं किया था.” गुरूजी उन्हें क्रमशः जुगलबंदी में काढ़ते. जोड़ी के आपसी तालमेल बिठाने पर ज्यादा जोर देते. इस तरह से वे निरंतर उनके शोधन में सक्रिय बने रहते थे.
सम्यक् बुद्धि-विचार करके देखें तो उनकी सक्रियता के कई मतलब निकलते थे. व्यापक अर्थों में देखा जाए, तो वे समस्त जंतु- जगत की साक्षरता के पक्ष में थे. साक्षरता का मूल उत्स यही तो है- ‘हम सुनें-सोचें-समझें. फिर उसे गुनें, उस पर उचित प्रतिक्रिया दें. सही मौके पर, सही कदम उठाएं.’ गुरुजी भी, यही तो कर रहे थे. ‘ओवरएज’ बछड़ों के लिए तो अलग से ‘स्पेशल ओरिएंटेशन कोर्स’ की, सुविधा थी.
‘होमो सेपियंस’ बच्चों पर गुरुजी पूरा भरोसा जताते थे, क्योंकि वे उन्हें पर्याप्त समर्थ मानते थे. चूँकि वे ‘समझदार जाति’ के बच्चे थे. उन्हें पाठ पढ़ने को दे दो, खुद-ब-खुद, खड़े होकर पढ़ते रहते हैं. अंजाम जानते रहते हैं. इस वजह से शायद गुरूजी उनसे थोड़ी सी ईर्ष्या भी रखते थे. अल्पवयस्क बछड़ों से अपनी इस भावना को अक्सर जता जाते, “ऊ त मनखिक बच्चा छन. ऊँकि सौर ना करा रे. ऊ त ह्वैजाल. तुमारु क्या होलु.” (वे तो मनुज-संतति हैं. तुम्हें उनकी देखादेखी नहीं करनी चाहिए. वे तो सफल हो ही जाएंगे. इस काम में नहीं तो किसी और में सही. मैं तुम्हारा जाती दुश्मन नहीं हूँ. मुझे तो इस बात की चिंता लगी रहती है, कि आखिर तुम्हारा क्या होगा.)
गुरुजी को बछड़ों से बेहद लगाव था और ट्रेनिंग देने का बेहद शौक. बस यूँ समझ लीजिए कि, एकदम मणिकांचन योग बना हुआ था. बछड़े बेचारे, सोच में पड़ जाते. बड़े सख्त उस्ताद से पाला पड़ा था. उस्ताद के हठ के सम्मुख वे असहाय से रहते थे. एकाध चतुर सुजान बछड़े भी थे, जो मौका देखकर निकल भागना चाहते थे, लेकिन उस्ताद जी की जिद के सामने एकदम लाचार थे. भागना बहुत कठिन ही नहीं नामुमकिन सा रहता था. उस्ताद जी सुस्ताने ही नहीं देते थे. झपकी तक नहीं लेने देते थे. बछड़े तो उनके पास तक फटकने से घबराते थे. आँख उठाकर भी, उनकी तरफ नहीं देखते थे.
इधर लोग सोच में पड़े रहते थे कि, ‘आखिर मास्टरजी इस भीड़भाड़ का हिसाब कैसे रखते होंगे. सभी बछड़ों की मिलती-जुलती शक्लें. कौन किसका पार्टनर है. कौन सा फाउंडेशन कोर्स में है, तो कौन एडवांस कोर्स में. गुरुजी लेखा-जोखा बिलकुल नहीं रखते थे. सब कुछ मुँहजबानी याद. किताबी कोर्स भले ही भूल जाते हों, अनाड़ी बछड़ों को टैकल करने के ‘स्पेशल फंडे’ वे कभी नहीं भूलते थे. एकदम ‘क्लिनिकल मैथड’ उर्फ उपचारात्मक शिक्षण जैसा.
उधर महकमें में कुछ लोगों को अक्सर उनसे शिकायत रहती थी. सुनी-सुनाई बातों में आकर, किसी दिन एक इंस्पेक्टर ने उनके स्कूल का दौरा किया. उसके चेहरे पर पहले से ही कुछ-कुछ शिकायत जैसा भाव था. बोला तो इनडायरेक्टली, लेकिन लहजा शिकायती ही था, “क्या सुन रहे हैं आपके बारे में. आप निजी व्यापार करते हैं. स्वार्थ साधते हैं.”
ऐसे सवालों से तो गुरुजी कबके ऊपर उठ चुके थे. ठेठ बेअंदाजी से बोले, “नहीं जी, बिलकुल गलत कहते हैं. मैं स्वार्थ नहीं साधता, मैं तो बछड़ों को साधता हूँ.”
“और ये जो आपके पशु-व्यापार और लेनदेन को लेकर शिकायतें आ रही हैं. उनका क्या?”
“जी, थोड़ा बहुत व्यौपार कर लेता हूँ. नाजायज बिलकुल नहीं करता. ट्यूशनखोर तो कितना- कितना कमा लेते हैं. मैं करता हूँ और डंके की चोट पे कहता हूँ कि, मैं मेहनत और हक का कमाता हूँ.”
बेचारा इंस्पेक्टर झेंपकर रह गया.
सब जानते थे कि, इस तरह की कवायद कराना कोई हँसी खेल नहीं. इतना दिमाग तो मवेशी महकमे वाले भी नहीं लगाते होंगे. बहुत मगजमारी करनी पड़ती है. इंस्पेक्टर ने भी सोचा, ‘मास्टर जी एकदम सही कह रहे हैं. बछड़ों को सिखलाई देना, हँसी ठठ्ठा नहीं. अच्छे अच्छों की साँस उखड़ जाती है. एक तो बेहद कठिन काम और वो भी इतनी मुस्तैदी से.’
उसने बधाई तो नहीं दी, लेकिन उसके कहने का जो भाव था, वह लगभग बधाई के आसपास ही पड़ता था.
इस तरह से नाना क्षेत्रों की पशु-प्रतिभाओं को गुरुजी निरंतर तराशते रहे. खास बात यह थी कि, श्रम करने से उनका मन, दिन भर ताजा-ताजा बना रहता था. शनैः शनैः उनके प्रति लोगों का अगाध विश्वास होता चला गया. बाद में तो उनके मैदान में स्थान पाने के लिए, सिफारिश लगवाने तक की नौबत पड़ने लगी, लेकिन गुरूजी का हृदय, विशाल था. उन्होने मैदान के द्वार, सबके लिए खोलकर रख दिये. बछड़ों-बैलों और हलवाहों के सर्कल में तो उन्होंने बहुत बड़ा नाम कमाया.
ललित मोहन रयाल
उत्तराखण्ड सरकार की प्रशासनिक सेवा में कार्यरत ललित मोहन रयाल का लेखन अपनी चुटीली भाषा और पैनी निगाह के लिए जाना जाता है. 2018 में प्रकाशित उनकी पुस्तक ‘खड़कमाफी की स्मृतियों से’ को आलोचकों और पाठकों की खासी सराहना मिली. उनकी दो अन्य पुस्तकें शीघ्र प्रकाश्य हैं. काफल ट्री के नियमित सहयोगी.
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1 Comments
दिनेश कर्नाटक
हम लोगों के बचपन में ऐसी स्थिति थी। मॉनिटरिंग न होने के कारण, प्राथमिक शिक्षा में शिक्षकों की मनमर्जी चलती थी। अगर किसी को पढ़ने-पढ़ाने में रुचि हुई तो ठीक वरना इसी तरह से शिक्षणेत्तर गतिविधियां चलती रहती थी। व्यंग्य की चासनी में डूबी हुई सुंदर रचना।