पिढ़ा शब्द हिंदी भाषी क्षेत्रों का एक चिर परिचित शब्द है. लकड़ी का बना पटला, जिसे प्रायः भोजन करते समय बैठने हेतु प्रयोग किया जाता है पिढ़ा कहलाता है. प्राचीन काल में पिढ़ा मात्र लकड़ी का मोटा सा पतला पट्ट बनाया जाता था. उत्तर प्रदेश में आज भी पैर वाले लकड़ी के पट्टे प्रयुक्त किये जाने की परम्परा है. बिना पैर के तथा पैर सहित पिढ़ाओं को मंदिर के शिखर निर्माण में एक के ऊपर एक पिढ़ाओं को रखकर शिखर का रूप प्रदान किया गया. इस प्रकार पिढ़ा शिखर युक्त मंदिरों को विद्वानों ने पिढ़ा शैली के मंदिर के नाम से संबोधित किया है.
पिढ़ा शैली उत्तर भारत की नागर शैली की उप-शैली है. जिसके अंतर्गत मंदिरों के ऊपर क्षैतिज पट्टियां बना-बनाकर शिखर का निर्माण किया गया. पूर्व मध्यकाल में कुमाऊँ के 90 प्रतिशत देवालय पिढ़ा शैली में निर्मित हैं. इस प्रकार के मंदिरों की पिढ़ा देवालय के नाम से जाना जाता है. पूरे भारत में इस शैली के सर्वाधिक मंदिर कुमाऊँ क्षेत्र में हैं.
भारतीय पुरातत्व के संदर्भ में सबसे पहले पिढ़ा शैली के मंदिर के बारे में जानकारी उड़ीसा में हुई. विद्वानों में अभी तक यह अवधारणा है कि पिढ़ा शैली के मंदिरों का प्राचलन उडीसा की देन है. लेकिन अभी तक के पुरातात्विक खोजों से इस बात की पुष्टि हो चुकी है कि इस प्रकार के मंदिर की उत्पत्ति उड़ीसा नहीं बल्कि उत्तराखंड में हुई है.
कुमाऊँ के पर्वतीय क्षेत्र में पूर्व से लेकर उत्तर मध्यकाल तक विभिन्न शैली के मंदिर प्राप्त हुए हैं. स्थापत्य कला की दृष्टि से इसप्रकार के मंदिरों को पिढ़ा, रेखा, एकांडक तथा गजपृषष्ठाकृति ( बलभी ) शैली के देवालय कहा जाता है. ये मंदिर स्थानीय पत्थरों द्वारा बनाये गये हैं. एकाकी काष्ठ निर्मित मंदिर के अवशेष भी प्राप्त हुए हैं.
पुरातात्विक सर्वेक्षणों से प्राप्त आकड़ों के अनुसार उत्तराखंड के पर्वतीय भागों में पूर्व-मध्यकाल में पिढ़ा शिखरयुक्त मंदिर बहुतायत में बनाये जाते थे. इनमें लेखायुक्त और बिना लेख दोनों प्रकार के मंदिर हैं. लेख युक्त मंदिर तत्कालीन स्थापत्य कला के जानने एवं तिथि निर्धारण हेतु मील का पत्थर साबित हुए हैं. अभिलेख युक्त मंदिर, तिलाड़ी ( बाड़ेछीना ), कपिलेश्वर ( मौना ), बमनसुयाल, जागेश्वर, कोटली ( बनकोट), मण ( चमदेवल ) आदि स्थानों से प्रकाश में आये हैं. अनाभिलिखित मंदिर कनरा ( सांगण ), बमनसुयाल, नारायणकाली, बल्सां, कुतुम्बडी, बिगराकोट, गोलनासरो, बसान, बसकुनी, गंगोलीहाट, गरसाडी, चमदेवल, मजपीपल और मडलक इत्यादि स्थानों से प्राप्त हुये हैं.
इस काल में पिढ़ा शैली के मंदिर लघु एवं विशाल दोनों आकार में प्राप्त हुए हैं. इस मंदिरों के सामने मंडप बनाने का प्रचलन नहीं था. लघु मंदिरों पर चार से छः पिढ़ा युक्त शिखर बनाया जाता था, बड़े मंदिरों में बारह से लेकर अट्ठारह पिढ़ा तक का भव्य शिखर बनाया जाता था.
कुमाऊँ के अतिरिक्त गढ़वाल में पलेठी, नारायणकोटी तथा क्यार्क से भी इसी प्रकार के मंदिर प्रकाश में आये हैं. कुमाऊँ और गढ़वाल में पिढ़ाओं का प्रयोग शिखर निर्माण में किया गया है. शिखर की बनावट के आधार पर ही वह मंदिर उस शैली का माना जाता है. इस दृष्टि से कहा जा सकता है कि पिढ़ा शिखर युक्त मंदिर निर्माण शैली कुमाऊं हिमालय की देन है.
श्री लक्ष्मी भंडार अल्मोड़ा द्वारा प्रकाशित पुरवासी के 1996 के 17वें अंक में सुरेश कुमार दुबे के लेख पीढ़ा शैली के मंदिर स्थापत्य की देन- कुमाऊं के आधार पर
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