मन्दिरों पर शिखर बनाने की प्रथा गुप्तकाल में आरम्भ हो गई थी. कत्युरी काल के छोटे मन्दिरों पर नागर शिखर मिलता है. उनमें शिखर का निर्माण गर्भगृह की चपटी छत से आरम्भ हुआ है. चारों कोनों से दीवारें गोलाकार एवं संकीर्ण होती हुई ऊपर जाकर एक बिन्दु पर मिल गई हैं.
(Temple Architecture of Uttarakhand)
इसके ऊपर एक गोल शिला रखी हुई मिलती है, जिसकी परिधि को अनेक वृत्तों में बांटकर चक्र के समान सजाया गया है. शिला का निचला भाग आमलक और अन्तिम भाग कलस कहलाता है. ऐसे नागर शिखर वाले मन्दिर प्राय: 10-15 फोट से अधिक ऊंचे नहीं हैं.
समकालीन कलाकारों ने नागर शिखर में तनिक परिवर्तन करके एक नए प्रकार के शिखर का निर्माण आरम्भ किया था, जो कैंत्युरी शिखर कहलाता है तथा जिसका प्रयोग आज तक चला जाता है. कैंत्युरी शिखर वाले मन्दिर 20 फीट से लेकर 40 फीट तक ऊंचे मिलते हैं. उनकी दीवारें सीधी उठकर जब शिखर की ओर ढलती हैं तो उन्हें अधिक नहीं झुकाना पड़ता. उनके ऊपर एक चपटी पाषाण-छत लगती है. इस छत को बड़ी-बड़ी लोहे की सब्बलों के द्वारा ऐसी कुशलता से बनाया जाता है, जिससे सब्बलें बाहर से नहीं दिखाई देतीं.
इस चपटी छत के ऊपर विशाल वृत्ताकार पाषाण-आमलक रखकर उसे ऊपर से चपटी आयाताकार पटाल शिलाओं की या लकड़ी की वेष्टिनी से ढक देते हैं. काष्ठ वेष्ठिनी के नीचे लकड़ी की छोटी-छोटी तीलियां आमलक तक लगाते हैं, जो सजावट के अतिरिक्त शिखर-वेष्ठिनी को थामे रखती हैं और हिमपात से रक्षा करती हैं.
उत्तराखण्ड के अधिकांश प्राचीन मन्दिरों पर नागर शिखर मिलता है. अनेक स्थानों में जहां मन्दिर पुंज हैं, जैसे जागेश्वर, बागेश्वर, आदि बदरी और सिमली आदि में, वहां छोटे मन्दिरों पर नागर शिखर मिलता है और प्रधान बड़े मन्दिर पर कैंत्युरी शिखर. उत्तरकाशी, केदारनाथ, गोपेश्वर, गंगोतरी, जागेश्वर, जोशीमठ, तपोवन, त्रियुगीनारायण, तुंगनाथ, धराली, देवप्रयाग, देवलगढ़, नालाचट्टी, पांडुकेश्वर, बदरीनाथ, बिनसर, बैजनाथ, बागेश्वर, राणीहाट, लाखामण्डल, श्रीनगर, सोमेश्वर आदि अनेक स्थानों पर कैंत्युरी शिखर वाले मन्दिर मिलते हैं. इनमें से केवल थोड़े-से ही मन्दिर दसवीं शती ई. से पहले के हैं. अधिकांश का समय-समय पर जीर्णोद्वार या कायाकल्प होता रहा है.
(Temple Architecture of Uttarakhand)
तपोवन, सिमली, केदारनाथ, गोपेश्वर, आदिबदरी तथा जागेश्वर के कुछ मन्दिर निश्चय ही कत्यूरी कालीन हैं. जागेश्वर के एक मन्दिर की एक दीवार पर उसके सूत्रधार (शिल्पी) कल्याण ने अपना नाम अंकित किया है, जिसे लिपि के आधार पर आठवीं शती ई. का माना जाता है. जागेश्वर में मृत्युञ्जय आदि कुछ मन्दिरों का निर्माण आठवीं शती ई. तक हो चुका था. उन मन्दिरों की दीवारों पर यात्रियों के लेखों को लिपि के आधार पर आठवीं से दसवीं शती तक का माना गया है.
जागेश्वर में नवदुर्गा मन्दिर के स्थापत्य और उड़ीसा के भुवनेश्वरादि के मन्दिरों के स्थापत्य में मिलने वाली रोचक समानता उत्तराखण्ड का भारत के पूर्वी भाग से घनिष्ठ सम्पर्क सिद्ध करती है.
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शिव प्रसाद डबराल की किताब कैंत्युरी राजवंश उत्थान एवं समापन से साभार.
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