बरेली. चीनी कुंगफू के मास्टर की तरह कोच और अखाड़े जैसा माहौल .यहां खिलाड़ी नहीं, लड़ाके तैयार हो रहे हैं. ऐसे लड़ाके जिनको भले ही कभी मेडल के लिए मायूस होना पड़े लेकिन जिंदगी की जंग हर मोड़ पर जीतने का जज्बा कायम रहे. खासतौर पर बालिकाओं के लिए सरकार से एक कदम आगे का नारा यहां चलता है.
यहां के हेड कोच हरीश बोरा कहते हैं, बेटी पढ़ाओ, बेटी बढ़ाओ लेकिन धाकड़ जरूर बनाओ.ऐसा किया तो बेटियां देश और समाज का नाम हमेशा रोशन करेंगी. मार्शल आर्ट सीखने को किया सैकड़ों मील का सफर हरीश बोरा की ताइक्वांडो को लेकर कहानी खासी दिलचस्प है.
इज्जतनगर मंडलीय रेल कारखाने के कर्मचारी हरीश बोरा उत्तराखंड में रानीखेत के पास पहाड़ी गांव के रहने वाले हैं. पिता भी रेलवे में थे.बताते हैं कि बचपन में एक दिन बाल कटवाने हेयर ड्रेसर की दुकान पर पहुंचे. बाल कटाने को इंतजार करने के दौरान वे वहां रखी पत्रिका पढऩे लगे. पत्रिका में एक जगह कोरियन मार्शल आर्ट ताइक्वांडो की जानकारी के साथ दक्षिण भारत के शहर बेंगलुरू में एक कोच का पता दिया था.उन्होंने वो हिस्सा चुपके से फाड़कर जेब में खोंस लिया.प्रकाशित लेख की बात उनके मन में बैठ गई और एक दिन मां को बताकर साउथ की ट्रेन पकड़ ली. मुश्किलों का सामना करके भी नहीं हारे वहां पहुंचे तो न कोई उनकी बात समझने वाला, न वे किसी की बोली समझने वाले. काफी धक्के खाने के बाद कोई हिंदी भाषी मिल गया, जिसने पुर्जे में छपे पते तक पहुंचा दिया. वहां उनके ‘मास्टर’ मिल गए, लेकिन वे ऐसे ही किसी बच्चे को सिखाने को तैयार नहीं हुए. उन्होंने बहलाकर किशोर हरीश बोरा से घर का पता पूछा और वहां चिठ्ठी भेज दी. घर वाले तो उन्हें तलाश ही रहे थे, चिठ्ठी मिलते ही चल पड़े. पिता वहां पहुंचे लेने लेकिन वह लौटने को तैयार नहीं हुए. सीखने की जिद के साथ पिता से मार खाने का भी डर भी था.बेटे की इच्छा के आगे पिता का दिल पसीज गया. मन लगाकर सीखने के साथ चिठ्ठी-पत्री की हिदायद देकर लौट आए.
इसके बाद हरीश बोरा का मार्शल आर्ट का सफर ट्रैक पर शुरू हो गया. उनके मास्टर ने उन्हें लोहा बनाना शुरू कर दिया. बाद में ब्लैक बेल्ट टैस्ट के लिए कोरिया भेजा. वहां फाइट प्रैक्टिस के लिए कई दिन घर में ही बंद रहे. ब्लैक बेल्ट लेकर वतन वापसी की. कुछ समय बाद रेलवे में नौकरी भी लग गई.शहर में बनाई इस आर्ट के लिए जगह इज्जतनगर मंडलीय कारखाने में काम करने के साथ ही उन्होंने ताइक्वांडो सिखाने को समय निकालना शुरू किया. पहले तो सीखने वाले ही नहीं मिल रहे थे. नई तरह की आर्ट थी, जिसमें कोरियन शब्द भी बोले जाते हैं.चिरैत, घुंघरी; चुंबी, ईल जांग टाइप. कई लोगों ने मज़ाक भी बनाया लेकिन बोरा जी डटे रहे. ये करीब 28 साल पहले की बात है.कहा ये जाता है कि बरेली शहर में इस मार्शल आर्ट को वही लाए. आज कई कामयाब कोच उनके शिष्य रहे हैं. सीखना और सिखाना इबादत हरीश बोरा ने कभी सिखाना बंद नहीं किया. वे कहते हैं, ये मेरी इबादत है, यही दौलत. आज भी वे ख़ुद जंप करके किक मारकर बताते हैं, जबकि उम्र पचास पार हो चुकी है. उनकी क्लास के सीनियर कोच इंटरनेशनल खिलाड़ी ब्लैक बेल्ट हैं, लेकिन आज भी कई बार वे उनकी डांट खाते हैं. फिर भी उनका स मान इतना है कि कोई कोच उनके सामने फर्स्ट पुमसे सीखने वाले बच्चे की तरह ही खड़ा रहता है.
हरीश बोरा वर्कशॉप से सीधे अपने अखाड़े मतलब रेलवे स्काउट डेन पहुंचते हैं, तब तक एक्सरसाइज़ करके बच्चों का इंजन गर्म हो चुका होता है. उनके आते ही सबमें मानो गियर पड़ जाता है. उनकी क्लास कुछ इस तरह चलती है जैसे बेसिक एजुकेशन की गाइडलाइन है, कि बच्चों को सीखने का माहौल दो, छोटे बच्चे सीनियर से सीखते हैं. यही वजह है कि उनके यहां बच्चे कोच बनने की ओर खुद ब खुद बढऩे लगते हैं.पता ही नहीं चलता कि कब वह लीड करने लगा. ग्रुप बनाकर सबको एक साथ तेजी से बढऩे का रास्ता तैयार रहता है. डांट-फटकार के साथ दुलार ऐसा रहता है कि बच्चे भले ही स्कूल बंक कर दें, ट्यूशन छोड़ दें, लेकिन अपने ‘अखाड़े’ की क्लास नहीं छोड़ते. हरीश बोरा कई अन्य मार्शल आर्टस के भी खिलाड़ी हैं.
आशीष सक्सेना
बरेली में रहने वाले आशीष सक्सेना अमर उजाला और दैनिक जागरण अखबारों में काम कर चुके हैं. फिलहाल दैनिक जनमोर्चा के सम्पादक हैं.
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