लखनऊ में रहने वाले वरिष्ठ पत्रकार-यायावर-कवि गोविन्द पन्त ‘राजू’ देश के पहले पत्रकार थे जिन्हें अन्टार्कटिका के अभियान में जाने के लिए चुना गया था. नैनीताल से गहरा ताल्लुक रखने वाले गोविन्द पन्त ‘राजू’ ने लम्बे समय तक हिमालय की सुदूरतम उपत्यकाओं में घुमक्कड़ी की है. प्रस्तुत कविता ऐसी ही एक यात्रा से उपजी है. यह कविता सबसे पहले ‘पहाड़’ में छपी थी. इसे वहीं से साभार लिया गया है.
तवाघाट
-गोविन्द पन्त ‘राजू’
काली और धौली
दो प्रतिकूल धाराओं का संगम.
भारत और नेपाल
दो भिन्न मुल्कों की सीमा.
मोटर सड़क का अंतिम सा छोर.
चंद दुकानों का एक जमावड़ा
1997 के भयावह भूस्खलन की दर्दनाक स्मृति
और दारमा-व्यांस-चौंदास का प्रवेश द्वार.
यहीं से उतरे होंगे कभी
जोरावर सिंह की पराजित
थकी हारी सेना के गिने चुने सैनिक
यहीं से गुजरता रहा होगा कभी
तिब्बत का सोना, नमक और सुहागा
यहीं से फैलता रहा होगा कभी
मानसरोवर के साहसी यात्रियों का धर्म सन्देश
और यहीं से फूटते होंगे कभी
घुमंतू जीवन के तमाम जीवंत सुर
आज यहाँ गूंजती हैं
घर से हजारों मील दूर
सीमा की रखवाली पर जाते सैनिकों की पदचाप
ऊपर की घाटियों में बचे
इक्का-दुक्का गांववासियों के कदमों की आहट
एफ़.सी.आई. के खच्चरों की थकी टापें
और लगातार बहती जा रही
जल संपदा का शाश्वत कोलाहल.
तंग पहाड़ों के बीच ऊपर देखते हुए
कितनी भयावह लगती है
यहाँ से पांगू की चढ़ाई,
मनुष्य के साहस की परिक्षा जैसी.
मगर ज्यों-त्यों
ऊपर चढ़ता जाता है आदमी
बौना होने लगता है तवाघाट
चींटी सी हो जाती है
शहरी सभ्यता का दंभ भरती जीप
धुंधला काती है कोलतार की काली-पक्की सड़क
नदी कहीं खो जाती है गहरी घाटी में
पर्वत शिखर बराबरी पर आने लगते हैं
बादल नीचे हो जाते हैं
सितारे और करीब
जैसे यह सब पुरुस्कार हो
मनुष्य के साहस का.
तवाघाट कितना कुछ बताता है हमें.
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