ब्रह्मपुरी की बात चली थी उन दिनों उत्तराखंड के भूगोल पर वह गहरी जाँच पड़ताल कर रहे थे. मल्ली ताल से पाषाण देवी होते रोडवेज स्टेशन तक आते बूंदाबांदी तड़ातड़ बारिश में बदल गई थी और बचते बचाते हम पोस्ट ऑफिस के शेड में खड़े हो गये थे.
‘द्यो हुआ ये. समझते हो सुभाष?’ उन्होंने साथ चल रहे चेले सुभाष बनर्जी से पूछा.
गाड़ियां आ कर सामने स्टेशन पर खड़ी हो रहीं थीं. इतनी तेज बारिश में भी आती गाड़ियों को झील की तरफ मुहं कर रोकने की चालक द्वारा बैक किये जाने वाली कोशिशों व कंडक्टर की सीटी और उन्हें हटाने के लिए तमाम प्रचलित गालियों का छूट उच्चारण करता जिनके बीच सामान ले जाने वाले डोटियाल नगर पालिका द्वारा दिए गये धातु के टोकन को यात्रियों के हाथ में थमाने के लिए भगदड़ मचा देते थे.यही नहीं इनको नियंत्रित करने हेतु हाथ में डंडा पकड़े एक हेड मेट भी होता. अभी इतनी बारिश में उसके दर्शन नहीं हुए.
“तू ले गुमनिया बहादुर के चां नो छै?” उनकी आवाज बरखा की तेज धार के पोस्ट ऑफिस की टिन वाली छत की समागम ध्वनि के साथ सुनाई दी.
“उ होल पछिल राजहंस प्रेसक बगल वाल खड्ड में, खटिक वालि दुकानक तली “
मैं समझ गया. वहां देसी दारू की दुकान थी. श्रम जीवी वर्ग अपनी दिनमान की थकान और मजदूरी वहीं लोहे के बने कटघरे के पीछे की तिजोरी में सौंप जाता था और फटेहाल रहता दिखाई देता था.यहां भी साफ वर्ग विभेद था. कोट पेंट वाला वर्ग इंदिरा फार्मेसी के ठीक सामने बी दास की दुकान से अंग्रेजी की वैरायटी खरीदते थे जहां बड़े कायदे से कागज की थैली में लपेट कर आपूर्ति होती ऐसी ही अभिजात्य शॉप मल्ली ताल में शेकले पेस्ट्री व अलीगढ़ डेरी फार्म से आगे मोहन को थी.
पहले की बात है भाऊ. ये नेपाल से आई श्रम शक्ति यहां रह बड़ा विश्वास बड़ा भरोसा जीतती थी. क्या लाला क्या आम आदमी किसी का भी काम इनके बिना न चले. पल्लेदार भी यही हुए रात को सीटी बजा डंडे से ठक ठक कर पूरी बाजार में पहरा दें. पर अब देखो शाम हुई नहीं इनके मुँह भी पउवा लगता दिखता है. भटुआ सपोड़ते दिखेंगे ये दुकान पे. ज्यादातर मेट गोल बना साथ रहते सुबह शाम साथ खाना बनाते. हर किसी के हाथ का छुवा भात नहीं खाते.और जो भी रुपया पैसा बचाते उसे ले साल में एक दो बार अपने गांव चले जाते बेतड़ी पार काली पार महाकाली अंचल, बजाँग उधर टनकपुर बनबसा होते फरकते नेपाल.
गरीबी हमारे पहाड़ में कम थोड़ी हुई पर बोझा बोकने का काम तो डोटियाल ही करेंगे जहां ये नहीं पहुंचे वहाँ शिल्पकार. पर वह बाकी सभी लकड़ी लोहे धातु औजार के काम संभालते हैं. अब तो लोग बाग अपने खेत इन डोटियाल परिवारों को दे खेती पाती साग सब्जी का काम भी साल भर करा रहे. पूरा कुनबा पूरा परिवार ले आते हैं और यहां की खेती पाती चमका रहे हैं.
अब पढ़ लिख गये लोग कलम घिसेंगे कोई हल में हाथ थोड़ी लगाएंगे? बारिश थम गई थी. अंधेरा भी बढ़ गया था तो सभी चर्चाएं आज छुट पुट ही रहीं.
अगला दिन इतवार था पर कॉलेज जाना था. वहाँ अगले दिनों होने वाले फंक्शन की तैयारी होनी थी. हाल में सीटें लगाने, माइक व्यवस्था आदि आदि. मैं लाइट एंड साउंड वाले ग्रुप में था जिसके बॉस थे केमिस्ट्री के प्रवक्ता श्री जे एन पंत जी जो हमें फिजिकल और आर्गेनिक केमिस्ट्री भी पढ़ाते थे. असली कर्ता धर्ता थे चार्ली बाबू. चार्ली बाबू जो फिजिक्स में प्रयोगशाला सहायक थे और तारों की जोड़ जंतर में माहिर. ऐसी खुचुर-बुचुर में मेरा भी खूब मन लगता था पर चार्ली बाबू ने मुझे ऐसे टोटके थमा दिए थे जिनसे लाइन चले रहने पर भी बिजली का काम किया जा सकता था और एग्जाम में जो प्रैक्टिकल में दिया जाता उसके नमूनों को में बाकी अपने सहपाठियों को समझाने में कुशल हो गया था. फिजिक्स प्रैक्टिकल की क्लास दो पीरियड वाली शाम को होती जब वह रूम ठंड से भर जाता और बची खुची धूप का आनंद लेने चार्ली बाबू मुझे व गिरीश को समझा बाहर झिकड़े-मिकड़े बीन आग का भी सहारा लेते.
चार्ली बाबू की तल्ली ताल बस स्टेशन से कॉलेज जाती रोड पर हिमालया होटल के नीचे आटा चक्की भी थी. जहाँ घर का गेहूं पिसाने की जिम्मेदारी मेरी ही होती थी. वहां भी उन्होंने मुझे चक्की के पाट एडजस्ट कर ऊपर से गिरने वाले गेहूं की गति समायोजित करने में कुशल बना दिया. वह तो नाक में रुमाल बांध लेते और मुझे उससे बड़ी असज होती तो वैसे ही शौकिया कइयों के गेहूं पीस तोल छीजन काट रख देता.
ऐसे ही एक दिन खाना खाते बप्पाजी भड़क गये, “क्यों अब चार्ली की चक्की में छोकरे बनोगे?साइंस मैथ्स पढ़ने में ध्यान है नहीं, कभी नाटक हो रहा कभी शराब बंदी पर डिबेट में भाग ले रहे. सब मालूम है मुझे जे एन पंत जी बता रहे थे कि इंऑर्गनिक केमिस्ट्री में छमाहि एग्जाम में फेल हो तुम.”
पर फिजिकल और आर्गेनिक में तो बढ़िया किया है. मैंने प्रतिवाद किया.
अगर फर्स्ट क्लास नहीं आई तो ड्राप करो इस साल. और सुनो जे एन पंत जी से मेरी बात हुई है. ये जाड़े की छुट्टी में उनके घर जाओ सुबह आठ बजे पहुँच जाना. वो सब रीवाइज कराएंगे.
“वो तो बिरला वाले रास्ते बड़ी दूर रहते हैं. वो भी इतने सुबह . रास्ते में बरफ की खांकड़ जमा रहती है. जूता फिसलता है.”
सुबह से शाम डोलीते रहते हो.हिंदी साहित्य पढ़ो पर मैथ्स साइंस पर भी तो मेहनत करो. वो महेश को देखो. रूस से पी एच डी कर के लाया. एस्ट्रोनोमर है. तुम लेखक बनोगे. वो मझेड़े वाले त्रिपाठी सर से खूब बनती है ना?
हीरा लाल के यहां से टायर वाला जूता बनवा लो. वो नहीं फिसलता. ये बाटा फ्लेक्स सब बेकार हैं. पंत जी के यहां जाओ और वो तारा कह रहा था कि मैथ्स वो पढ़ा देगा शाम को.
शाम को? यानी लाइब्रेरी जाना शहर का एक चक्कर लगाना सब बंद
कुछ तो जुगाड़ भिड़ाना पड़ेगा तारी मम्मा के साथ. वो कॉलेज में फिजिक्स के लेक्चरर थे और उनकी दीदी पोखरखाली अल्मोड़ा में रहती थीं. बप्पाजी जब भी अल्मोड़ा जाते उनके और कई और रिश्तेदारों के यहां हम भाई बहनों को भी ले जाते. तारी मम्मा तो फिजिक्स वाले हैं. फिजिक्स तो जीवन दा पढ़ाते हैं मुझे सब समझ में आती है.
अबे! तारी फोर फर्स्ट क्लास है. उसने कहा है पढ़ा देगा तो बस चले जाना.
हूं…
बहुत सारे अपने सर याद हैं जिन्होंने मुझे पढ़ाया. बचपन में जब दर्जा छह में गोरखा लाइन हाईस्कूल नैनीताल में मेरा एडमिसन हुआ तो मेरी गणित मजबूत हो और अंग्रेजी में भी में मैं गिट पिट कर सकूँ इसके लिए बप्पाजी ने बड़े खास प्रबंध कर दिए थे. गणित के अंक, बीज और रेखा की माकूल जानकारी के लिए जो पहले मास्साब घर आ कर मुझे और मेरी छोटी बहिन गंगोत्री को पढ़ाने रखे गये उनसे पहले ही कह दिया गया कि ये बिल्कुल डोली है पढ़ाई लिखाई में मन नहीं लगाता बस कॉपी में ड्राइंग बनाता फिरता है. इसे जरा कस कर रखना. गुरू जी थे नारायण दत्त पांडे जी, छ फुट से भी अधिक लम्बे तगड़े और आवाज बड़ी तगड़ी. जब वह शाम के ठीक पांच बजे घर में हाजिर हो चाय के घूंट के साथ जोड़ गुणे भाग शुरू करते तो मुझे बार बार पिशाब लग जाती. अब जरा सा गलत हो तो एक चंकट पड़े और पिछले दिन का होम वर्क पूरा न हो तो पेंसिल उँगलियों के बीच फंसा दबाते भी थे. ऐसे ही विद्यालय में पढ़ाने वाले गणित के मास्साब थे जिनका नाम चटढम था. वह गलती करने वाले लड़के को सीधा खड़ा करते, कॉपी में गलती की काटपीट करते और फिर सर के पिछले भाग पर उनकी उंगलियां पड़ती जो करती चट फिर कुछ ही सेकंड के बाद उनकी वज्र मुस्टिका पीठ पर पड़ती और आवाज निकलती ढम्म. गणित बड़ा दुरूह हो गया मेरे लिए बहिन के लिए नहीं क्योंकि वह खटा खट जोड़ घटाने कर डालती और लड़की होने के खातिर सम्भवतः मार भी न खाती. नारायण दत्त पाण्डे जी का गांव मझेड़ा ही था मेरे मामा से भी वह बखूबी परिचित थे.
पिथौरागढ़ महविद्यालय के इतिहास विभाग द्वारा आयोजित अधिवेशन में तारा चंद्र त्रिपाठी जी ने इतिहास पर जो व्याख्या की उसने कई मानों में मेरी समझ दानी खोल दी. 1990 के उस दौर में डॉ टोलिया ने एक के बाद एक कई लघु परियोजनाओं पर मुझसे काम करवाया था. खुद वह ब्रिटिश भारत में कुमाऊँ के इतिहास पर काम में जुटे थे. मुझसे उन्होंने कई बार कहा कि मैं उसके आर्थिक पक्ष की खोजबीन करुँ. लगा तो मैं था पर रफ़्तार बड़ी धीमी थी. उत्तराखंड के इतिहास को कायदे से पढ़ा भी न था. इस दौर में मैं डॉ वीरेंद्र कुमार के साथ धौली व गोरी गंगा परियोजना के एनवायरनमेंट असेसमेंट पर भी जुटा था. महाविद्यालय में नाटकों की भी अच्छी टीम जुटी थी सो उनमें भी लगा रहता. महाविद्यालय में प्राचार्य डॉ के एन जोशी थे जो अंग्रेजी के धुरंधर तो थे ही उत्तराखंड की लोक संस्कृति पर उनका खूब काम था. प्रकाश बुक डीपो से छपी अपनी नई किताब उन्होंने घर बुला बड़े स्नेह से मुझे दी थी और बताया था कि हरिश्चन्द्र जी मुझसे कहते रहते कि इतनी बड़ी लाइब्रेरी है इसका खूब फायदा उठाओ खूब लिखा करो. आज बरसर साब होते तो बड़ा खुश होते. तुम्हें बताऊँ कि इस किताब के लिए गांव गांव जा मैंने लोक गीत, जागर इकट्ठा किये कितने बुढ़ बाडों के मुँह से गाथाएं सुनी. उस किताब की एक जागर गाथा का मंचन मेरी टीम ने इतिहास अधिवेशन की सांस्कृतिक रात्रि में किया था. जिसके पीछे बजेठी के निवासी व इतिहास के विद्यार्थी भूपेंद्र तिवारी का खेला था. सब कुछ वैसा ही जैसा असल में होता है. हुड़के थाली वाले भी और प्रदर्शन की रात स्टेज पर गाय के गोंत की गोंत्योली भी हो गई. दर्शकों में कुछ औरतों को देवी भी चढ़ गई तो उनके कपाल में अक्षत भी वारे गये.
त्रिपाठी जी ने अपने संवाद में बताया कि इतिहास से हमारा आरंभिक परिचय दादी, नानी की कहानियों, विभिन्न धार्मिक संस्कारों और सम्पर्क से बनता है है. यह इतिहास वस्तुगत इतिहास न होकर सामाजिक आस्थाओं और धारणाओं से अनुरंजित इतिहास होता है. उसमें अपनी जाति के खलनायक भी नायक के रंग में रंगे दिखाई देते हैं तो प्रतिपक्ष के सूरमा खल पात्र बना दिए जाते हैं. क्या इसी इतिहास को ले कर हम आगे बढ़ते हैं?
जब स्कूल में पढ़ते हैं तो इतिहास के उस रूप से सामना होता है जो सत्ताधारी वर्ग के नायकों, उनके रीति रिवाजों और परंपराओं के प्रति मोह जगाए. इस पर इतिहास का बखान करने वाले शिक्षक की धारणाओं की भी छाया पड़ती है इस प्रकार हमारे दिमाग में निर्मित अतीत का प्रतिबिम्ब श्वेत श्याम न हो कर किसी न किसी पूर्वाग्रह के रंग में अनुरंजित रहता है.
उन्होंने कहा कि यह परिपाटी चली आई है कि जिसने भी शंका की या तर्क किया तो गुरूजी ने अपने मनमाने अर्थ के साथ गीता सामने रख दी तो अन्य उस्तादों ने अपने धार्मिक ग्रंथ सामने रख जताया यही कि संशय मत कर, दुविधा में रहने वाला व्यक्ति अपने लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर सकता बात जो कही जा रही उस पर यकीन कर.तर्क करने वाले व्यक्ति का तो नाश हो जाता है वह मारा जाता है. यह मध्य युगों में ही नहीं, आज भी हो रहा है जिसने भी इस कुबड़े विराम का सहारा लिया उसकी कमर ही तोड़ दी गई.
” जो मारा गया है उसके भी बोली थी लोग भूल जाते हैं लोग भूल जाते हैं. “
त्रिपाठी जी का वक्तव्य सुनते मुझे हावर्ड फ़ास्ट का उपन्यास याद आ रहा जिसका अनुवाद अमृत राय ने आदि विद्रोही के नाम से किया और इस पर आधारित नाटक को पूरे तीन महिने की रिहर्सल के बाद हमने महाविद्यालय सभागार में किया. नाटक की भाव भूमि ही व्यवस्था के प्रति विद्रोह की थी. और इसे कराने की अनुमति स्वयं तत्कालीन प्राचार्य डॉ के एन जोशी ने दी थी.
गोष्ठी में उत्तराखंड के नाम और स्वरूप को ले कर खूब वाद विवाद हुआ था. त्रिपाठी जी जब बोले तो फिर से असलियत पर्त दर पर्त हुई. उन्होंने अपनी बात रखते कहा कि उत्तराखंड नाम गलत है इसीलिए किसी शुद्धतावादी ने ‘उत्तराँचल’ नाम रखने का सुझाव दिया होगा. पौराणिक दृष्टि से पांडवों की शरण स्थली होना इस इलहाम का पुख्ता आधार हुआ ही.
सदियों से इस पर्वतीय प्रदेश में हुआ क्या? यहां की भूमि पर अपना वर्चस्व लहराने को सामंतों की मार धाड़ और उच्च कुलीन वंशो की कूटनीति चली. खण्ड खण्ड विभाजित क्षेत्रीय विद्वेष और इससे परेशान हैरान जनता. ऐसे परिवेश में ऐसी जनभावना जो हिमालय के इस भू भाग को अखंड देखना चाहती रही होगी उससे जाने अनजाने इस लोक में जहाँ देवता निवास करते हैं जिसे देवभूमि कहा जाता है का नाम उत्तराखंड प्रचलित हुआ होगा. लेकिन अतीत में कितने षड्यंत्र थे कितनी दूरभिसन्धियां थी,राज पाट बनाए रखने के कितने कुचक्र थे उनका सिलसिला तो जारी ही रहा. बाहर के आतताई आए और फिर यहां के संसाधनों की लूट का साम्राज्यवादी सिलसिला शुरू हुआ. आजादी की लहर चली. गाँधी भी आए और नेहरू भी यहां जेल में बंद होने का गौरव पा गये. स्वाधीनता का बिगुल बजा वह मिली पर अतीत में ही नहीं आज भी इसे खण्ड ही बनाये रखने के लिए नेता निरंतर दो टप्पे का खेल खेलते दिखाई देते हैं.’उत्तरपथ’ जब ‘उत्तरापथ’ हो गया तो उसकी देखा देखी ‘उत्तर खण्ड’ को लोक में ‘उत्तराखंड’ होना ही था.
विश्वामित्रों की कृपा हुई उत्तराखंड पर.’विश्वामित्र’ भी ऐसा ही है,’ विश्व ‘ और ‘अमित्र’ का योग. दोनों जगह ‘अ’ ने टांग अड़ाई है अर्थात विश्व धन अमित्र, पर ज्ञानी ध्यानी कहते हैं कि विश्वामित्र यदि किसी ऋषि का नाम है तो मध्य में ‘अ’ के दीर्घ (आ) हो जाने पर भी उसका अभिप्राय विश्व का मित्र ही होगा. क्या यह नाम किसी अन्य व्यक्ति का हो तो इसका अर्थ विश्व का अमित्र या शत्रु होगा.
हास परिहास करते त्रिपाठी जी फिर निशाना साधते कि विश्वामित्र के माता पिता ने जन्म के समय तो उनका नामकरण यही किया तदन्तर लोक में भले मानस के रूप में प्रतिष्ठित वशिष्ठ की नाक में दम कर देने वाले, उनके सौ पुत्रों (समर्थकों) की हत्या करने, सत्यवादी राजा हरिश्चंद्र की दुर्दशा करने और त्रिशंकु को अधर में लटकाये रखने जैसी उद्दण्डता और उटपटांग हरकतों से परेशान लोगों ने उन्हें यथा नाम तथा गुणे वाला विश्वामित्र ही समझ लिया. अब शास्त्र कुछ भी कहें, लोक ने कहीं न कहीं उन्हें विश्व अमित्र के रूप में याद अवश्य रखा है.ऐसे ही विश्वामित्रों की कृपा से अधर में लटका त्रिशंकु सा उत्तराखंड.
कई कई सालों बाद तराई में मास्साब की स्मृति में कराई गई गोष्ठी जो उनके काबिल जुझारू सुपुत्रों और त्रिपाठी जी के खास चेले पलाश विश्वास के द्वारा कराई गई थी में उत्तराखंड की राजनीति और जन सरोकार के मुद्दे पर काफी बहस हुई में त्रिपाठी जी को सुना. प्रसंग वही था कि राज्य के जन्म के उन पिछले सात सालों में फिर वही नाम का क्रन्दन हुआ. जनता की सुध लेना तो भूल गये, बिना किसी आधारभूत तैयारी के राज्य की घोषणा हुई जो उत्तराँचल से विभूषित हुआ, नेता नौकरशाही के लिए सब सुविधा युक्त देहरादून चुना गया. स्थायी राजधानी का पेंच फंसाया और अपने अगले बसंत की बहार के लिए फिर से उत्तराखंड का झुनझुना पकड़ा दिया.
वही तराई वैसा ही भाबर और वैसा ही पहाड़ पलायन का दंश झेलता बुनियादी सुविधाओं से मरहूम. उस पर अपने अपने स्वार्थो के मद में उतरे बाहु बली, धन बली, बुद्धि बली. कोई ऐसा छात्र नेता न उभरा जिसकी सोच ठेकेदार बनने से आगे की रही हो. जो थोड़े जुझारू थे वह भी लोभ और प्रलोभनों के आगे न टिके. जो टिका, नशा नहीं रोजगार दो की मांग करता नाक का बाल बना निर्मल पंडित,उसका शरीर जली अवस्था में देश की राजधानी के अस्पताल में पड़ा रहा, आखिरकार खाक हुआ पंच तत्व में विलीन हुआ. जिनकी सामर्थ्य थी यहां से खिसक लिखाई पढ़ाई के बूते अपना लेख रच सकते थे वह गये. जाते तो पहले से रहे. आजाद हिन्द फौज में गये, ब्रिटिश फौज में गये, सर्वोदय का भी झंडा पकड़ा, गाँधी का साथ दिया. नेहरू की नीतियों के वाहक बने.
सबसे बढ़ अपनी काठी अपनी मेहनत के बूते सेना पुलिस अर्ध सैनिक बलों में नाम कमाया. पहाड़ में मनी आर्डर इकॉनमी का फैलाव किया.
पहले पहाड़ी भनमजुवा संस्कृति के भी दर्शन कराते थे साथ ही बाबू वर्ग फैला लखनऊ में सचिवालय के घेरे तो इलाहाबाद में एजुकेशन और एकाउंट्स से ले राजधानी के सरकारी दफ्तर में कर्तव्य निष्ट माने जाने वाला पहाड़ी. साहित्य, विज्ञान, प्रोद्योगिक, मनोरंजन जगत में अपनी योग्यता से घुसपैठ करता पहाड़ी अब भी अपनी स्थायी राजधानी की खोज करता है. पहाड़ अपने गांव की याद करता है. पूजा के बहाने अपने देवता को प्रसन्न करने यहां चरण धरता है. चारधाम की यात्रा अपने बूढ़े मां-बाप को कराना कर्तव्य समझता है.गिने चुने पहले से चले अंग्रेजों के जमाए स्थानों पर पर्यटन हर मौसम के बदलते बढ़ता दिखता है. व्यापारी खुश स्थानीय परेशान.
बेचारा भला सा नैनीताल, गर्मी पड़े तो पर्यटक आएं फिर दशहरे के बाद दुर्गा पूजा तक बंगाली पर्यटक और श्रद्धालुओं से भरा नैनी सरोवर. अपने सीमित व्यय से मोल भाव करते माछी भात और रस गुल्ले तलाशते. धोती कुरते वास्कट बंद गले का कोट मफलर टोपी सब के साथ हिमालय की उन्नत पहाड़ियों में घूमने की साध पूरी करने वाले. खूब बोलते बहस करते. स्थानीय भी उनके प्रदर्शन प्रभाव से कुछ सीखते. दुर्गा पूजा में जिस भक्ति भाव से लाल किनारे वाली तंतुजा साड़ी पहने भद्र महिलाएं श्रद्धावनत दिखतीं. नगर पालिका पागल जीमखाना के सरस आयोजन कराता. रात्रि में नाटकों का भव्य प्रदर्शन होता तो दोपहर बाद से हॉकी की अखिल भारतीय प्रतियोगिताएं.
तमाम नए फैशन और अंग्रेजी की गिट पिट से भरा नैनीताल. बड़े नामचीन अंग्रेजी स्कूल. हफ्ते में एक दिन सेंट मेरी और दूसरे गर्ल्स के कॉलेज से अनुशासित लाइन में कोट स्कर्ट पहने चलती बालिकाएं जिनका नयन सुख लेने तल्ली ताल पोस्ट ऑफिस की रेलिंग पर जम गये किशोर बड़ी हसरतें लिए मचलते रहते.
वहीं नैनीताल, पृथक राज्य बना तो बेचारा भला सा नैनीताल शिक्षा और पर्यटन के बोझ तले दम तोड़ रहा था. बड़ी खास पहचान बनाई थी ठाकुर देव सिंह दान सिंह बिष्ट राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय यानी डी एस बी ने,1951 में नामी गिरामी डॉ ए एन सिंह जैसे प्राचार्य और खास वेतन मान पर आकर्षित धुरंधर विद्वान शिक्षक. गुणवत्ता तो बढ़नी ही थी. गांव घर के बच्चों को भी उच्च शिक्षा का वरदान मिला. अंग्रेजों को भी श्रेय था कि इसे गुणवत्ता युक्त शिक्षा केंद्र के रूप में विकसित करें. फिर बाद में उत्तर प्रदेश में पहाड़ विरोधी ऐसी मानसिकता फैली कि चंद्र भानु गुप्त की सरकार ने डी एस बी के प्राध्यापकों के विशेष वेतन मान भी आम सरकारी कॉलेज वाले कर दिए. जो सरकारें अनाप शनाप भत्तों और फर्जी टी ए बिलों के साथ अपनी नौकरशाही को साधती हो वह इतनी दूरदर्शी भला कैसे हो कि शिक्षा पर परिव्यय की गुणवत्ता से एक संस्था एक इलाके और क्षेत्र के विकास की सोच रखे. पहाड़ के विकास के लिए काम चलाऊ पर्वतीय विकास विभाग को जरूर अमली जामा पहना दिया गया.
पृथक पर्वतीय राज्य की अवधारणा में आरम्भ में जुझारू युवा, प्रबुद्ध जन और आम जनता की सोच बलवती थी. इसको ले उत्तराखंड क्रांति दल बना, संघर्ष वाहिनी अस्तित्व में आई पर मैं डाल -डाल तू पात पात ने सब गुड़ गोबर कर दिया. पृथक राज्य के घुर विरोधी ही यहां की अफरातफरी में बिना किसी प्रारूप को निर्मित किये मठाधीश बन गये.
भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए भी यह संक्रमण काल था तो पृथक राज्य निरन्तर पलटते दलों की हेकड़ी सहन कर रोपा गया तो पानी देने वाले बदल गये और संसाधनों की बंदरबाँट करने वाले सभी. प्रादेशिक दल अंततः बिजुके से खड़े दिखे. पहाड़ की जमीन की यहां के संसाधनों की बंदर बाँट चालू हुई जो आज तक जारी है. कोई सम्यक नीति नहीं. कभी हिमाचल मॉडल तो कभी गोवा मॉडल के साथ यहां के विकास के लिए नेताओं और सरकारी अमले के विदेशी दौरे. कंप्यूटर व संचार क्रांति जो सैम पित्रोदा के दिमाग की उपज थी ऐसे तुरतफुरत लागू की गई कि न चलाने की जानकारी न स्कूल में बिजली, बस डब्बे रख दिए फिर एक तो सजावट के लिए प्रधानाध्यापक के कक्ष में रखना ही है. यही हाल खेती किसानी का कभी क्लस्टर योजना पर बल कभी नए बीजों, खाद और कीट नाशक के संयोग पर भले ही सिंचाई की सुविधा हो न हो. पहाड़ के परंपरागत बीज लगातार विलुप्त होते गये और ब्वारियों का मन भी घा काटने उखल कूटने से हटते गया. हालत यह भी कि शादी कर गांव में रहने की बात पर उनकी साफ ना सुनाई देती.
पहाड़ की दुर्दशा और मनोरम पर्यटन स्थलों की हालत पर त्रिपाठी जी लिखते हैं कि मसूरी और नैनीताल शहर की जन वहन क्षमता तो चुक ही गई. नैनीताल में तर्पण की मुद्रा में वकीलों को तृप्त करने के लिए उसके लिए उच्च न्यायालय की अंजलि दे दी. अब धारक क्षमता के चुक जाने में नैनीताल नगरी का जो हाल हुआ वह तो साफ दिखाई ही देता है. मुकदमे में जो गरीब फंस गये उनके लिए तो यह प्रणान्तक हुआ ही. उसका आधा स्वर्गारोहण तो उच्च न्यायालय पहुँचने में ही हो जाता है. मजबूरी में कई रात टिकना भी पड़ता है तो न्याय मिले न मिले होटल का भारी किराया, ऊपर नीचे चढ़ना उतरना, पड़ रही ठंड के कारण देह से छुटकारा पाने की सम्भावनाएं तो हुई ही.
मन कहता है कि अगर उच्च न्यायालय हरिद्वार में होता तो हारने वाला कम से कम गंगा स्नान का पुण्य तो कमा ही लेता. धनबल और हथकण्डों के बल पर जीतने वाला, किसी घाट पर ऊपर वाले से भी क्षमा दान का जुगाड़ लगा रहा होता.
अब तो सरोवर नगरी सप्ताह अंत की छुट्टी हो या कोई पर्व त्यौहार, गर्मी या सर्दी का कोई कौतुक, बरफ पड़ने के अंदेशे के साथ रानीबाग चित्रशिला घाट की सड़क से ही रेंगती हुई लोगों की भीड़ को ठेलती है. बलदियाखान से आगे तब जाओ जब होटल में बुकिंग हो. नगरपालिका का टोल चुका आगे बढ़ो तो डी एस ए मैदान में कार पार्क की सुविधा मिलेगी. यह वही अभिशप्त मैदान है जो सदियों पहले आए एक जलजले के बाद बना. फिर इसमें बजरी बिछी और सदियों तक यहां की जनता इसमें खेल खेलती रही, बड़े बड़े हॉकी के आयोजन, देश विदेश में नाम कमा गये हॉकी क्रिकेट के खिलाड़ी इसी मैदान में हुई रियाज से फले फूले. इसके एक छोर से झील में विचरती नौका दिखे पाल वाली बोट दिखे. अंग्रेजी संस्कार से पला बढ़ा बोट हाउस क्लब रंगीन हो. वह भी जमाना था कि बैंड स्टैंड पर राम सिंह का बैंड बजे. सामने कैपिटल सिनेमा उसके बगल रिंक थिएटर जहाँ स्केटिंग सीखती नवयौवनाओं को सामने से घिरे कांच की खिड़कियों से गांव कसबों से आये नई नई मूँछ उगे जवान हसरत से ताकें. अब रिंक गायब है और यह गली चरसियों, स्मेकियों, शराबियों की नव संस्कृति से भरी हो गई. बस तरह तरह के फड़ आगे तिब्बती बाजार तक फैले जिनके बीच गुरूद्वारे की अरदास और माँ नयना देवी में बजती घंटिया जरूर सुनाई दे जाती है. इस मैदान की परिक्रमा से ऊपर राजभवन को जाती सड़क और नीचे बड़ी मनमोहक मस्जिद जिसके ठीक आगे पुलिस थाना. अशोक सिनेमा के खंडहर जिसमें पार्किंग के साथ दर्जनों दुकाने खुलती बंद होती दिखाई देतीं हैं.
इस शहर की खूबी यह कि साँझ पड़ते तल्ली ताल दर्शन घर से शुरू कर एक चक्कर लगा लो तो भेट घाट हो, आशल -कुशल पता चले, सौल -कठोल हो. सब चेहरे नमूदार हों. भवाली जाती सड़क पर अशोक होटल में नैनीताल समाचार के दफ्तर तमाम जुझारू देश विदेश और पहाड़ की चिंता -दुश्चिंता में सरोबार नजर आएं. अपने हिस्से की नई प्रति कांख में दबा मल्ली ताल जहूर के अड्डे और अपने इंतखाब तक साहित्य संस्कृति नाटक की परिचर्चा हो.
उत्तराखंड की राजधानी के डंडा गाढ़ कर बैठ जाने वाली गति पर तारा चंद्र त्रिपाठी जी का लेख छपा है. अवस्थी मास्साब भी वहीं बैठे हैं. पूरा अखबार पलट बंद गले के कोट की ऊपरी जेब में ठुसी कई पेनों से लाल पैन निकाल अब वह सूत्रधार की मुद्रा में आ वह कुछ चुनिंदा अंश का पाठ कर रहे हैं. स्वर में आरोह -अवरोह है तो उनकी मोटे चश्मे से ढकी और बड़ी दिखने वाली आँखें डोल भी रही हैं.
हाँ तो अं sss.. अब यहां उत्तराखंड में नेता गिरी स्थाई.. लखनऊ सचिवालय से आयातित दुष्ट परंपराएं स्थाई.. चील की तरह अपने शिकार का दोहन करने की अफसरी प्रवृति स्थाई पर राजधानी अस्थाई. नेताओं के छद्म संकल्प तले, केवल अफसरों की विलासिता की मार झेलता, पल पल बढ़ती घुटन और जनकीर्णता के बोझ तले दम तोड़ता, असकोट हो या आराकोट, सबके लिए बेगाना, अस्थाई राजधानी के विष की बूंद बूंद पीने को अभिशप्त देहरादून. इलाज मुहम्मद तुगलक के पास. दौलताबाद नहीं तो गैरसैण चलो. कहावत है बहू खाएगी ही नहीं, यदि खाएगी तो खाने के साथ साथ सास को भी खा जाएगी. तभी तो श्यामा चरण पंत कह गये :
को सूवा काथ कौ,
के कूँ सारंगी?
निरबुद्धि राजेकि काथे काथ.
कब मिलेगा उत्तराखंड को परमार जो यहां उभर गई वेरिकॉस वेन्स के गुच्छे सुलझा देगा.राजीव ने पूछा?
क्यों तब नहीं आया कोई तुम्हारा लीडर जब मुजफ्फर नगर में गोली चली कुछ हुआ आई किसी को सुध?
यहीं इसी नैनीताल में जनता इकट्ठा हो गई, हुड़का बजा, जन गीत की आवाजें इतनी मुखर कि इन पहाड़ियों ने भी सोख लीं.
ट्रक में भर भर शैले हाल से आंदोलकारियों को ठूंस जब पीटा गया बेइज्जत किया गया तब?
आखिर हुआ क्या, अभी भी जारी है दो टप्पे का खेल. उत्तराखंड के नामे क्रांति करने तुमने भी बनाया था दल इंटरनेशनल फेम के वैज्ञानिक की अगुवाई में. सब फुस्स बात करेंगे हिमाचल की अब. अरे ऐसा बूता हिमाचल का कि जब पंजाब से बंटवारे में उसके हिस्से मैदानी इलाका आया तो उसने उसे शामिल करने से इंकार कर दिया और यहां देखो वह इलाके आसानी से ले लिए कि क्या हुआ जो कल्चरल शौक देते हैं पर फरटाइल तो हैं. परमार ने तो जड़ पकड़ी बागवानी की और कुछ ही साल बाद भर गये पेड़ सेव से. अपनी जमीन बाहर न जाने दी और यहां?
हिमाचल के प्रसंग में त्रिपाठी जी का लिखा लेख स्मरण हो जाता है कि पहले इसका नाम त्रिगर्त था जी रावी, व्यास और सतलुज की तलहटी में था. यह एक स्वतंत्र गणराज्य माना गया. चन्द्रगुप्त ने हिमाचल के छोटे-छोटे गणतंत्रों पर कब्जा किया पर वह सीधे इन पर शासन नहीं करता था, उसके पोते अशोक ने अपनी सीमाओं का विस्तार हिमालय क्षेत्र तक कर लिया तो साथ ही बौद्ध धर्म का प्रचार भी किया. उसके बनाए अनेक स्तूपों में एक कुल्लू में भी है. फिर सातवीं सदी में हर्ष के उदय के साथ गुप्त साम्राज्य की समाप्ति हुई व क्षेत्र में ठाकुर व राणाओं के छोटे छोटे राज्यों ने उसकी अधीनता स्वीकार की.1857 तक यह पंजाब राज्य के सीबा इलाके को छोड़ महाराजा रणजीत सिंह के शासन के अधीन रहा.1956 में यह केंद्र शाषित प्रदेश व 25 जनवरी 1971 को भारत का अठारहवां राज्य बना. परमार जैसे मुख्यमंत्री की जमीनी स्तर की कार्य योजना ने यहां के निवासियों की आधारभूत जरूरतों को समझा और तेजी से स्वयं स्फूर्ति अवस्था तक पहुँचाया. उत्तराखंड की जमीनी सच्चाईयों से भरे उनके अनेक लेख व प्रसंग बड़े धारदार थे.
पिथौरागढ़ में इतिहास कांग्रेस द्वारा आयोजित सेमिनार में उनसे बड़ी लम्बी बातचीत हुई. डॉ रामसिंह और डॉ श्याम लाल साथ थे. त्रिपाठी जी ने अपनी बात शुरू की इस स्वीकारोक्ति से कि हम आज भी अपने बच्चों को ऐसा इतिहास दोहरा रहे हैं जिसका मानव की वास्तविक विकास यात्रा से कोई जुड़ाव दिखता ही नहीं. जो पढ़ाया जा रहा है वह ऐसा कथानक है जिसमें एक सी घटनाओं को जैसे अलग-अलग नाम से दोहरा दिया गया है. राजा, नरेश, मंत्री, सामंत के नाम, उसने अपने अहंकार को पूरा करने के लिए कितनी लड़ाईयाँ जीतीं. कितने लोगों की हत्या की, कितनी बसासत लूटी. कितना बड़ा महल बनाया फिर वैसा न बन सके तो कारीगरों के हाथ काटे, सिर कलम किये. कितने मकबरे बनाए. कितने मंदिर तोड़े उनकी मूर्तियों का अंग-भंग हुआ. कितनी दौलत मिली? कितना बड़ा रनिवास था और कितनी रानी पटरानियाँ बेहिसाब बाँदियाँ. कितने चाटुकार अभिन्न बने, मालामाल हुए. यह प्रसंग हैं बहुतेरे, चितेरे.
सम्राट अशोक को छोड़ दें तो विश्व के हर छोर के इतिहास में यही कहानी बार – बार दुहराई गई. सच कहें, तर्क की कसौटी पर परखें तो यह इतिहास, इतिहास न हो कर बाहु बलियों, धन बलियों और बुद्धि बलियों के उन कारनामों की पुनरावृति की ऐसी गाथा है जो भविष्य में भी बार बार इनके रक्त रंजित कारनामों की पृष्टभूमि तैयार करती है.
“वह सृजन की छट-पटाहट से भरा शिल्पी ही था जिसने थकान से भरे एकांत पलों में अपने निवास की गुफाओं में दृश्यमान जगत की अनुकृति की. पर मानव की इस विकास यात्रा में उसकी अंतहीन उपेक्षा ही दिखाई दी गई जब धरती पर मिश्र के फराउनों से ले कर मायावती तक सब मकबरे ही बनाते रहे.”. और ये रचना धर्मिता जारी ही दिखती है.
लोगों को विचार से क्या मतलब उसे तो सूरत याद रखवानी है की यह ही था वह धीरोदात्त पात्र. समाज के बदलाव का आदर्श. अब दक्षिण में राजनीति के पुरोधाओं के संग चलचित्र के महानायकों की सूरत मूरत पर दूध नहीं चढ़ता क्या? पुष्पवर्षा नहीं होती क्या? रंग कोई भी हो भगवा हो हरा या सफेद चढ़ावा तो चढ़ना ही है, चढ़ाने को प्रेरित करना ही है, उनके द्वारा उनके निमित्त…
“जो छान्दस या वेदों की भाषा से पीढ़ियों पहले अनभिज्ञ हो जाने के कारण प्राचीन ऋषियों द्वारा वैदिक ऋचाओं में अपने युग के अनुरूप अंकित स्थितियों और उनके विचारों के मंतव्य से सर्वथा अनभिज्ञ थे. उन पुरोहितों ने अपना अज्ञान छुपाने के लिए फतवा जारी कर दिया कि वेदों के मन्त्र जानना जरुरी नहीं है उनका सस्वर उच्चारण ही फलदायी होता है”. हर धर्म हर संप्रदाय में यही परिपाटी नहीं है क्या?
“अर्थ ऑंखें खोलता है, शंकाओं का निवारण करता है.इसी कारण भ्रान्तियों का निवारण उन तत्वों के हित में नहीं होता जिनके स्वार्थ जनमानस के अज्ञान पर टिके होते हैं. यह भारतीय परंम्पराओं में ही नहीं, विश्व के उन सभी तथाकथित सभ्य समाजों की परंपराओं में दिखाई देता है जिनके हित आम आदमी को शास्त्र या विधानों से अनभिज्ञ रहने पर टिके होते हैं”.
अब आएं साहित्य पर, तो साफ दिखाई देता है कि साहित्यकारों ने देश के तथाकथित स्वर्णिम अतीत का रुमानी रूपांकन किया. अपने देश को ही देखें. अधिनायक वादी ताकतों से, सम्राज्यवादी विस्तार की नीतियों से गुलामी की बेड़ियों से मुक्त होने की प्रचंड लहर उसे अपनी स्वतंत्र अस्मिता की ओर ले गई. आजादी मिली तो उसका स्वरूप खंडित. लड़ाई तो एक हो कर लड़ी थी फिर विभाजन? अपना अभीष्ट लक्ष्य पा चुकने के बाद भी हम वहीं पर ठहरे रह गये.अतीत का बखान करने और उससे आगे बढ़ कर विकास की प्रक्रिया में अपने आने वाले कल का एक ठोस आधार, सुदृढ़ प्रारूप बना पाए क्या? अपने निहित स्वार्थ और मजबूरियों में घिर कर संकीर्ण सी राजनीति करते रहे.
सवाल तो यह भी है कि क्या इतिहास में इस धरती को मानव के जीवन योग्य बनाने वाले मनुष्य का कोई उल्लेख है. कितने ऐसे दृष्टांत हैं कि उसने किस तरह इस धरती को उर्वर बनाने के हर सम्भव प्रयास किये.अपने परिवेश में जान जोखिम में डाल खाद्य व अखाद्य का परीक्षण किया. फिर बोया उगाया. वनस्पतियों के गुणों की पहचान की. उन्हें नाम दिए. ईश्वर की कल्पना की और अपनी आकांक्षाओं के अनुरूप उसका रूपांकन किया.फिर विकसित हुए कर्मकाण्ड जिसके नाम पर लूट खसोट हमेशा से चली आई जिसमें हिंसा भी निहित है. समाज में प्रतिष्ठा सम्मान पाने वाला पुरोहित वर्ग और धन सम्पन्नता का घालमेल है उनकी मन मानी है. हर युग में धार्मिक परंपराओं में घुस आए अन्धविश्वासों को दूर कर सत्य को सामने लाने वाली तर्क संगत बात से धारणा बनाने वाले, इनके आधार पर संकल्पनाएं निर्मित कर अनुभवसिद्ध अवलोकन से इन पर विश्वास करने वाले मनीषीयों ज्ञानियों को धर्म के ठेकेदारों के निहित स्वार्थो के घोर विरोध का सामना करना पड़ा.धर्माचार्यों का तो ऐसा आतंक दिखा कि वह किसी भी नई उदभावना को, भले ही वह तर्क की दृष्टि से संगति रखे, सत्य को पुष्ट करे, उसे प्रकट करने से बचने का निर्देश देते रहे.उदाहरण देते त्रिपाठी जी बताते हैं कि तुलसीदास को ही लें जिनके जीवन काल में काशी के प्रकांड विद्वानों ने रामचरितमानस को केवल इसलिए नष्ट करने का प्रयास किया गया कि वह धर्म के लिए निर्धारित भाषा संस्कृत में न हो कर जनभाषा में थी. यह स्थिति केवल भारत में ही नहीं बल्कि विश्व की लगभग सभी धर्म साधनाओं में देखी गई. ‘अनलहक’ यानी ‘सोsहमस्मि’ कहने पर सूफ़ी संत मंसूर की हत्या कर दी गई.ईसाई परंपराओं में निहित भ्रान्तियों का निवारण कर प्रयोगों के माध्यम से सच को सामने लाने पर गैलीलियो को चर्च का कोपभाजन बनना पड़ा. औषधियों की खोज करने वाले शैतान घोषित किये गये और उनको चर्च द्वारा जिन्दा जला देने का फतवा जारी हुआ.
“सच को क्या किसी एक अकेले वचन या एक वचन में बंद किया जा सकता है, चाहे वह बाइबिल हो, वेद हो या कुरान अथवा ण किसी एक मजहब में ही. ईश्वर सनातन है, सार्वभौम है और अनंत है. क्या वह मात्र मुसलमानों या सामी मजहबों की संपत्ति हो सकता है? या उनकी ही, जो बाइबिल की की परंपरा में रहे हों और जिनके संस्थापक यहूदी अथवा अरबी पैगम्बर थे.. हिन्दू, कन्फयुशी और ताओवादी हों या अन्य सभी धर्मों के अनुयायी, सभी को ईश्वर से सम्बन्ध स्थापित करने और अपने अपने तरीके से सत्य की खोज करने का उतना ही हक है. जितने भी विधान हैं उनमें कुछ न कुछ तो सत्य होगा ही पर किसी में भी पूरा सत्य कैसे संभव होगा क्योंकि सभी समय पर सृजित किये जाते हैं और अंत में ह्रास हो कर नष्ट हो जाते हैं. सत्य इन सब धारणाओं से आगे रहता है और प्रकृति की प्रज्ञा जैसा चाहती है, उस तरह से या किसी स्वरूप में फिर से अपने को प्रकट करती है क्या ऐसे में ईश्वर को अपने संकरे दिमाग की बंदिशों में जकड़ा जा सकता है? या उस चेतना का इस दृष्टि से अनुभव किया जा सकता है कि कैसे या कहाँ या किसके जरिये वह प्रकट होगी. वह लोग जो सोच के आधे अधूरे पन से ग्रस्त हैं या परंपरा से चले आई कुछ धारणाओं और विसंगतियों के दुश्चक्र में फंसे हैं वह वास्तविकताओं को नकारते चले जाते हैं.
माना कि वह युग विश्व के इतिहास का अज्ञान व अंधकार से भरा मध्य युग था. विज्ञान की नवीनतम उपलब्धियों के सहारे सौर मण्डल के कोने पर बैठे प्लूटो से हाथ मिला प्रयोगशाला में की गई शोध से अनंत के रहस्य को अनावृत करने की दिशा में अग्रसर इस युग में भी तथाकथित धार्मिक सहिष्णुता का ढोल पीटने वाली भारतीय संस्कृति व इस्लामी रूढ़ियों के झंडाबरदार अपनी धारणाओं से सहमति न रखने वालों की बलि लेते जा रहे हैं.ये सिलसिला आज भी जारी है.
सच तो यह है कि ये हत्यारे दोषी नहीं हैं. दोषी तो है वह इतिहास जिसने निहित स्वार्थ हमारे दिमाग में ठूंसा है. ये मानसिकता किसी संप्रदाय विशेष में विश्व में महानतम जाति होने और महानतम संस्कृति होने का दम्भ पैदा करता है तो दूसरे संप्रदाय को उसके आचार-विचारों को निकृष्ट सिद्ध करता है. ऐसी मानसिकता विकसित हो गई है कि लोगों को भविष्य के उजाले की ओर नहीं अतीत की उस अँधेरी गुफा की ओर मुड़ने के लिए प्रेरित किया जाय जिसे उन्होंने अपने अज्ञान व अधकचरी जानकारियों से निर्मित किया है. इस अदने से इतिहास का अधकचरा बोध अतीत की गहराई में बैठ कर सचाई का अनावरण करने वाले लोगों के लिए ही नहीं, मानव मात्र के लिए कितना भयानक हो सकता है यह बार बार सिर उठाती हिटलरी और तालिबानी प्रवृतियों में दिखाई देता है”.
“विश्व का इतिहास इस बात का साक्षी है कि विजेता पराजित जाति की विरासत को नष्ट भ्रष्ट करने का प्रयास करता है यह मुस्लिम आक्रांताओं ने ही नहीं किया बल्कि आर्यो से ले कर अमरीका का उपनिवेशीकरण करने वाले यूरोपियों तक सभी विजेता मानी जाने वाली कौम ने किया. यह भी साफ दिखाई देता है कि जिन देशों में प्रजातंत्र अपनी शैशवावस्था में होता है, उनमें भी राजनीति सामंती सोच से मुक्त नहीं होती. वंशवाद बार बार अपना सर उठाता है. दरबारी संस्कृति हावी होती रहती है. जीतने वाला दल पराजित दल की सांस्कृतिक सोच के स्थान पर अपनी सोच को आरोपित करने का हर संभव प्रयास करता है. परिणाम स्वरूप इतिहास का पाठ्यक्रम बार बार प्रभावित होता है कभी देश के निवासियों का अतीत में आगमन अंकित किया जाता है तो कभी उनका मूल निवासी होना. कभी शास्त्रों का महिमा मंडन होता है तो कभी उनकी निंदा. यही नहीं तथ्य व साक्ष्य विजेता की मान्यता के हिसाब से ढाल दिए जाने के हर संभव प्रयास किये जाते हैं. इसका कारण यह है कि मानवी ज्ञान कि कोई भी अन्य विधा आने वाली पीढ़ियों की सोच को बदलने में इतनी समर्थ नहीं होती जितना कि इतिहास होता है.
तभी हमारे दिमाग में निर्मित अतीत का प्रतिबिम्ब श्वेत श्याम न हो कर किसी न किसी पूर्वाग्रह के रंग में अनुरंजित होता है.एक जाति के लिए एक महान होता है तो दूसरे के लिए आततायी. अपनी जाति की परम्पराएं महान लगती हैं तो प्रतिपक्ष की परंपराएं गर्हित. शत्रु को किसी अर्ध पशु के रूप में चित्रित किया जाता है तो दूसरी ओर अपने पूर्वजों के किसी अनैतिक आचरण को परिमार्जित करने के लिए कई उपाय अपनाये जाते हैं. कहीं किसी देवता या ऋषि के शाप का बहाना बनाया जाता है तो कहीं उस घटना का औचित्य सिद्ध करने के लिए ‘अनुज वधू भगिनी, सुतनारी, सुनु शठ ये कन्या समचारी ‘का आधार लिया जाता है.
त्रिपाठी जी लिखते हैं कि, ” हमारे पौराणिक साहित्य में तो दुर्वासा (दूर्वाचा )ऋषि को किसी भी विशिष्ट पात्र के अनौ चित्य का कारण बनने का ही दायित्व सौंपा गया है. फिर जहाँ कुछ और समझ में न आए वहां ‘ मानव चरित करत भगवाना ‘ तो है ही. सच कहें तो यह इतिहास न हो कर उन धन बलियों, बुद्धि बलियों और बाहुबलियों के उन कारनामों कि पुनरावृति की ऐसी गाथा है जो भविष्य में भी बार बार इनके रक्त रंजित करनामों की पृष्टभूमि तैयार करती है.
इतिहास के अधूरेपन और दलगत सोच के अनुसार रूपांतरित ज्ञान उग्रवाद को जन्म देता है. इससे जातीय व सांप्रदायिक विद्वेष फैलते हैं जिससे राष्ट्रीय जीवन के मुख्य दायित्व-जनसामान्य के अभावों, कुपोषण, शिक्षा, रोग और व्याधियों का निवारण, विभिन्न समुदायों के बीच सौहार्द की भावना व स्थापना, शांति व्यवस्था व न्याय, जनसंख्या का नियंत्रण जैसे मुद्दे गौण हो जाते हैं. इस सारी अव्यवस्था की चोट किसी न किसी संप्रदाय पर पड़ती है न किसी जाति पर और न पूँजीपति पर, चोट पड़ती है उस आम आदमी पर जिसका अपना कोई ठिकाना नहीं होता. जब हमें यह पढ़ाया जाता है कि मुसलमान विजेताओं ने हिन्दुओं का भीषण उत्पीड़न करने के साथ साथ उनमें धार्मिक स्मारकों और परंपराओं को ध्वस्त किया तो स्वाभाविक है कि हिन्दू मन प्रतिकार को उन्मुख होगा. धर्म स्थल टूटेंगे, संप्रदाय आपस में भिडेंगे. शासन गोली चलाने के आदेश देगा. हजारों लोगों की जान जाएगी. लेकिन जब इस तार्किक सोच के साथ इस सचाई का बोध कराया जाय कि हर विजेता चाहे वह आर्य हो या अनार्य, यवन हो या शक कोई भी हो, उत्तरप्रदेश की उत्तराखंड आंदोलन विरोधी मुलायम सिंह सरकार हो या सत्ता पर हावी उद्योगपति, कोई भी विरोध का उत्पादन करने में पीछे नहीं रहता तो ऐसा इतिहास वर्तमान की शांति व व्यवस्था में कोई प्रतिकूल प्रभाव नहीं डालता.सच तो यह है कि समसामयिक परिस्थितियों के बखान में वह आज उग्र हैं, झिमोड़े की तरह चटकाते हैं.
समाप्त.
जीवन भर उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के कुल महाविद्यालयों में अर्थशास्त्र की प्राध्यापकी करते रहे प्रोफेसर मृगेश पाण्डे फिलहाल सेवानिवृत्ति के उपरान्त हल्द्वानी में रहते हैं. अर्थशास्त्र के अतिरिक्त फोटोग्राफी, साहसिक पर्यटन, भाषा-साहित्य, रंगमंच, सिनेमा, इतिहास और लोक पर विषदअधिकार रखने वाले मृगेश पाण्डे काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.
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