17 जुलाई, 1969 को ठीक पचास साल पहले, आज ही के दिन. Tara Chandra Tripathi Memoir by Batrohi
डिग्री कॉलेज के इन्टर सेक्शन के प्रिंसिपल कुद्दूसी साहब ने मुझे एक रजिस्टर थमाते हुए कहा, ‘त्रिपाठीजी को पूछ लेना, वो ही बताएँगे, आपको किस क्लास में जाना है, क्या पढ़ाना है.’ हमारे ज़माने के हास्य अभिनेता मुकरी के रूपाकार के कुद्दूसी साहब हमेशा हड़बड़ी में रहते थे. उनकी आधी बात समझ में आती थी, आधी नहीं. यह मेरी नौकरी का पहला दिन था, इसलिए कुछ घबराहट स्वाभाविक थी. यह तो समझ गया था कि कमरा कहीं आसपास ही होगा, पास में खड़े दो-तीन छात्रों के समूह से पूछा, ‘ताराचंद्र त्रिपाठीजी कहाँ बैठते हैं?’ Tara Chandra Tripathi Memoir by Batrohi
‘चाणक्य सर?’, उनमें से एक लड़का मुझे पोस्ट ऑफिस के बगल में छः गुणा सोलह के एक बेतरतीब कमरे में छोड़ गया. कमरे में कुछ शिक्षक बैठे थे, एक मेरी ओर पीठ करके खड़े थे. रूपाकार से मुझे लगा कि यही खड़े वाले होंगे, मैंने उनके सहस्रार चक्र पर उगी चाणक्य वाली चुटिया खोजनी चाही जो वहां नहीं थी.
‘नमस्कार, त्रिपाठीजी’, उस छात्र के बताये बगैर मैं बिना चोटी के ही उन्हें पहचान गया था. चुटिया तो नहीं, मैंने उनके चेहरे पर उस वक़्त भी किसी ज्ञानी का-सा तेज महसूस कर किया था.
उन्होंने भी बिना किसी भूमिका के पूछा, ‘आप क्या पढ़ाएंगे? … आप तो कहानीकार हैं, गद्य से ही शुरू कीजिये,’ उन्होंने अपनी अलमारी से गद्य-संकलन निकालकर मुझे थमाया, ‘आप बी सेक्शन को पढ़ाइए, साइंस वालों का सेक्शन है, क्लास को कंट्रोल करने में परेशानी नहीं होगी. ए सेक्शन आर्ट्स वालों का है, बहुत शरारती बच्चे हैं. आपको एक मिनट शांत नहीं बैठने देंगे.’
उनका कहना सही था. कभी-कभी मुझे ए सेक्शन की क्लास भी लेनी पड़ी. सचमुच उन्हें कंट्रोल करना मुश्किल होता था.
पहली मुलाकात में ही मुझे त्रिपाठीजी के चेहरे पर हिंदी वालों का ठप्पा नहीं दिखा, इसलिए उनसे घुलने-मिलने में दिक्कत नहीं हुई. उम्र में मुझसे छः-सात साल बड़े थे, मगर उनके व्यवहार में अनौपचारिकता थी जो उम्र का अन्तराल ख़त्म कर देती थी. मेरे साथ दिक्कत यह थी कि अध्यापन का मुझे न कोई अनुभव था और न शौक. प्रिंसिपल डॉ. पन्त की ज़िद पर मैंने ज्वाइन तो कर लिया था मगर समझ में नहीं आता था कि कैसे पढ़ाऊँ. मैंने त्रिपाठीजी को परेशानी बताई तो उन्होंने कहा, जब-कभी दिक्कत हो, मुझे बता देना, वो क्लास मैं ले लूँगा.
मगर यह तो कोई समाधान नहीं था. एक-दो दिन की नहीं, सारी जिन्दगी का मामला है, इसलिए मैंने हम दोनों के सम्मिलित आदर्श डॉ. वी. एन. उपाध्याय के सामने समस्या रखी.
डॉ. उपाध्याय ने मुझे कोई उपदेश नहीं दिया. उपदेश देने वाला टेम्पर उनका था भी नहीं. न त्रिपाठीजी का. दोनों का व्यवहार दोस्ताना था. मगर मेरे साथ वही पुरानी दिक्कत थी. शास्त्रीय ज्ञान और काव्यशास्त्र के मामले में मैं जीरो था. शायद त्रिपाठीजी ने ये परेशानी भांप ली थी. वो मुझसे नयी प्रकाशित हो रही कहानियों और कहानी-आन्दोलनों के बारे में पूछते, कहानियों को ढूंढकर पढ़ते और फिर हम लोग डिस्कस करते. हम दोनों का ही फायदा हुआ. साहित्य, और शास्त्र की मेरी समझ बढ़ी और नए साहित्य में त्रिपाठी जी गहरी रूचि लेने लगे. वैसे त्रिपाठीजी की ज्यादा दोस्ती उपाध्यायजी के साथ थी जो डिग्री कॉलेज के हिंदी विभाग के स्टाफ में नंबर 2 थे. उनका त्रिपाठीजी के घर भी आना-जाना था और बहुत अराजक किस्म के व्यक्ति डॉ. उपाध्याय को सँभालने में भी उनकी बड़ी भूमिका थी. अराजक मैं भी था, मगर छोटा होने के कारण मैं उनसे छूट नहीं ले सकता था. मगर आज लगता है, मुझमें जो शिक्षक-जनित अनुशासन आ पाया, उसके पीछे त्रिपाठीजी की ही प्रेरणा रही होगी. मजेदार बात यह थी कि त्रिपाठीजी भी हमारी ही तरह मुक्ति चाहते थे मगर भीतरी दबावों से जुड़ा कोई अनुशासन था जो उन्हें एक सीमा से अधिक बाहर नहीं निकलने देता था. यह बहुत बाद में जाकर मालूम हुआ कि घर का सबसे बड़ा सदस्य होने के कारण उनमें इस तरह का जिम्मेदाराना अंदाज़ समय से पहले आ गया था. Tara Chandra Tripathi Memoir by Batrohi
त्रिपाठीजी के साथ एक सहयोगी के रूप में मैं करीब आठ महीने रहा, फ़रवरी, 1970 में मेरी नियुक्ति उसी कैम्पस में डिग्री सेक्शन में हो गयी और हम दोनों अलग हो गए. लेकिन इन थोड़े-से दिनों में उनसे मैंने एक अच्छे अध्यापक के गुर सीखे. हम लोग ज्यादातर साथ ही रहते, ज्यादातर समकालीन साहित्य पर चर्चा करते हालाँकि त्रिपाठीजी की रूचि का क्षेत्र मुझसे कहीं व्यापक था.
यह बात धीरे-धीरे उजागर हो गयी कि मेरे डिग्री सेक्शन में आने के बाद त्रिपाठीजी को धक्का लगा था. स्वाभाविक था, शायद उन्हें दो बार यह धोखा मिला था. उनकी अपेक्षा कम योग्य शिक्षक रुवाली जी जी (मैं तो बहुत पीछे था) को उनके सामने डिग्री की सीढ़ी चढ़ा दी गयी थी; एक नयी पोस्ट आई तो उसमें मेरी नियुक्ति कर दी गयी. मुझे इस बात का अहसास तो था कि त्रिपाठीजी के साथ अन्याय हुआ है, मगर इतना महान मैं नहीं था कि अपनी जगह पर त्रिपाठीजी को बैठा देता. अलबत्ता उनके प्रति सम्मान बना रहा. हमारे संबंधों में भी कोई कटुता नहीं आई, हाँ, कभी अगर रुवालीजी के सामने त्रिपाठीजी का गुणगान करते हुए यह जोड़ता कि ‘वैसे रुवाली जी का भी भाषा विज्ञान के क्षेत्र में कोई मुकाबला नहीं है. रुवाली जी बिना एक पल की देरी किये कहते ‘सो आई एम.’ अनावश्यक रूप से अंग्रेजी में बोलने का उन्हें शौक था.
जिन्दगी में घटनाएं कितनी अप्रत्याशित रूप से घटित होती हैं. बीच में त्रिपाठीजी अवसाद में आ गए थे. मोहन निवास में रहते थे. भाभीजी अकेले बहादुरी के साथ सब कुछ झेल रही थीं. उन दिनों स्टाफ के बीच सम्बन्ध भी पारिवारिक हुआ करते थे. त्रिपाठीजी को उबरने में ज्यादा वक़्त नहीं लगा. रुवाली जी की तो मुझे याद नहीं है, मैं लगातार उनके संपर्क में रहा.
कहते हैं इतिहास खुद को दुहराता है, दो साल बाद एक दिन मेरी जगह ज्वाइन करने के लिए लोक सेवा आयोग से विद्वान प्राध्यापक डॉ. राम सिंह आ गए. राम सिंह भी मेरे प्रिय थे, उनमें और त्रिपाठीजी में सामान विशेषता यह थी कि दोनों साहित्य के अलावा इतिहास में भी अच्छा दखल रखते थे. राम सिंह को नहीं मालूम था कि वो डीएसबी में मुझे रिलीव करने आ रहे हैं, नैनीताल पहुँचने के बाद ही उन्हें मालूम पड़ा, इसलिए वो कार्यभार ग्रहण करते ही छुट्टी लेकर लखनऊ रवाना हुए और तभी लौटे जब उन्होंने मुझे नैनीताल में दुबारा स्थापित और खुद की बदली अपने पूर्व कॉलेज पिथोरागढ़ में न करवा ली. मजेदार बात यह कि राम सिंह जी ने मुझे इस बात का जरा भी संकेत नहीं दिया. क्या आज के समय में ऐसे आदमी की कल्पना की जा सकती है? Tara Chandra Tripathi Memoir by Batrohi
इतिहास ने फिर पलटी खायी. 1980 में विवि में रीडर हिंदी की एक पोस्ट आई जिसमें फिर चमत्कार हुआ. मेरी नियुक्ति उस पद पर हो गयी. रुवाली जी खुद को इस पद के लिए एकमात्र योग्य प्रत्याशी मानकर चल रहे थे, नियुक्ति न होने पर वो अवसाद में चले गए. मैं बार-बार उन्हें आश्वस्त कर रहा था, ‘आप विभाग में सबसे योग्य प्राध्यापक हैं डॉ. साहब; आज नहीं तो कल आपको अपना देय मिलेगा’. वो पुराने विश्वास से कहते, ‘सो आई एम.’ और फिर उदास हो जाते. इतिहास में फिर-से अनेक चमत्कारिक घटनाएँ होती रहीं, आगे भी होती रहेंगी; खास बात यह है कि हर आदमी को लगता है कि घटना का सफरर वही है.
सवाल यह है कि इस हारने-जीतने की दौड़ में किसी दूसरे की क्यों रूचि हो?
इस सब के बावजूद क्या वजह है कि इतने अरसे के बाद त्रिपाठीजी याद आ रहे हैं. मुझे लगता है, जिन्दगी में तीन सम्बन्ध कभी नहीं मिटते. जिसका आपने पहली बार दूध पिया था, जिसे आपने पहली बार प्यार किया था और जिसके साथ आपने पहली नौकरी की थी. Tara Chandra Tripathi Memoir by Batrohi
त्रिपाठीजी ऐसे ही पहले थे, इसीलिए शायद आज पचास साल बाद भी उसी ताज़गी से याद आ गए.
–बटरोही
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लक्ष्मण सिह बिष्ट ‘बटरोही‘ हिन्दी के जाने-माने उपन्यासकार-कहानीकार हैं. कुमाऊँ विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग के अध्यक्ष रह चुके बटरोही रामगढ़ स्थित महादेवी वर्मा सृजन पीठ के संस्थापक और भूतपूर्व निदेशक हैं. उनकी मुख्य कृतियों में ‘थोकदार किसी की नहीं सुनता’ ‘सड़क का भूगोल, ‘अनाथ मुहल्ले के ठुल दा’ और ‘महर ठाकुरों का गांव’ शामिल हैं. काफल ट्री के लिए नियमित लेखन.
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3 Comments
उमेश तिवारी 'विश्वास'
‘सवाल यह है कि इस हारने-जीतने की दौड़ में किसी दूसरे की क्यों रूचि हो?’ पर जैसा कि इतिहास का स्वभाव है वह हार-जीत को बड़े महत्व के साथ रेखांकित करता है। मज़ा आ गया गुरुजी!
Dr मृगेश पांडे
अद्भुत. दोनों मेरे गुरू.
Pradyumna
सारांश : “अपने मुँह मियां मिठू बाना”
महाराज !! इस लेख में आपका अभिमान ज्यादा और त्रिपाठी जी की की प्रशंसा कम दिख रही है। .
हैरान हूं कि आप उम्र के इस दौर में भी प्रतिद्वंदिता की पुरानी सीढ़ी पर लौट रहे हैं।