कुमारस्वामी और काम के वे दिन
कहो देबी, कथा कहो – 45 पिछली कड़ी – कहां थे मेरे उजले दिन “हां, तो कहो देबी. फिर क्या हुआ? तुम किसी नाटक की बात कर रहे थे?” “हां तो सुनो, मैं नाटक की बात करने आला अफसर हरवंत सिंह जी के... Read more
कहां थे मेरे उजले दिन
कहो देबी, कथा कहो – 44 पिछली कड़ी – तोर मोनेर कथा एकला बोलो रे सांझ ढल गई थी और अंधेरा घिरने के साथ-साथ ट्रेन से दिखाई देते गांवों और नगरों में बिजली की बत्तियां जगमगाने लगीं. शताब्दी ट... Read more
कहो देबी, कथा कहो – 37 पिछले कड़ी- कहो देबी, कथा कहो – 36 बैंक की नौकरी के दौरान मैं जिस इलाके में जाता, खाली समय मिलने पर किसी साथी से दिल की बात कहता कि आसपास किसी से मुलाकात करा दें, किसी... Read more
अनजाने संपेरे, नट और जादूगर
कहो देबी, कथा कहो – 36 पिछले कड़ी- कहो देबी, कथा कहो – 35 “कहो देबी, कहां चले गए थे? हम तो कान लगाए हुए थे, कथा सुनने के लिए.” “क्या बताऊं, जाना पड़ा कहीं और कथा सुनाने के लिए. दिल्ली से मुंबई... Read more
साथ चलती हुई चीजें : वे तखत, जड़ें और जैकेट
ललछोंह लकड़ी की इस टीवी ट्रॉली और किताबों की इन दो छुटकी रैकों को जब भी देखता हूं तो राजपुरा, हल्द्वानी में बयालीस वर्ष पहले ठेकेदार राम सिंह मेवाड़ी जी से खरीदा वह पहाड़ी तुन का मोटा, सूखा तना... Read more
वह डायरी, ट्राजिस्टर और स्टोव
कतिपय कारणों से हमारे प्रिय लेखक देवेन मेवाड़ी की सीरीज कहो देबी, कथा कहो इस सप्ताह प्रकाशित नहीं की जा सकी है. सीरीज का अगला हिस्सा अगले सप्ताह नियत दिन प्रकाशित किया जायेगा. इस सप्ताह देवेन... Read more
मेले में अकेले
कहो देबी, कथा कहो – 35 पिछले कड़ी- कहो देबी, कथा कहो – 34 उन्हीं दिनों एक लंबी यात्रा पिथौरागढ़ तक की भी की. जिन वरिष्ठ क्षेत्रीय प्रबंधक शर्मा जी ने मुझे बैंक के माहौल में खुद को खपाने की आत्... Read more
कहो देबी, कथा कहो – 34 पिछले कड़ी- कहो देबी, कथा कहो – 33 वह नई शाखाओं के खुलने और ऋण मेलों का दौर था. गांव-गांव और घर-घर तक बैंकिंग सुविधाएं पहुंचाने की चर्चाएं की जाती थीं. उस माहौल में लखन... Read more
नाटक में नाटक
कहो देबी, कथा कहो – 33 पिछले कड़ी- कहो देबी, कथा कहो – 32 नौकरी की आपाधापी में ही जब पता लगा कि हमारे बैंक में खेलकूद और सांस्कृतिक प्रतियोगिताओं की भी परंपरा है तो मन उत्साह से भर उठा. तय कि... Read more
इल्म-ओ-अदब का शहर लखनऊ
कहो देबी, कथा कहो – 32 पिछले कड़ी कहो देबी, कथा कहो –31 काम भी खाना-खज़ाना भी, यह सब तो ठीक मगर इल्म-ओ-अदब के गलियारों में भी तो पहुंचना था, जहां बातें हों, मुलाकातें हों और मेरी कलम चलती रहे.... Read more
Popular Posts
- हो हो होलक प्रिय की ढोलक : पावती कौन देगा
- हिमालयन बॉक्सवुड: हिमालय का गुमनाम पेड़
- भू कानून : उत्तराखण्ड की अस्मिता से खिलवाड़
- यायावर की यादें : लेखक की अपनी यादों के भावनापूर्ण सिलसिले
- कलबिष्ट : खसिया कुलदेवता
- खाम स्टेट और ब्रिटिश काल का कोटद्वार
- अनास्था : एक कहानी ऐसी भी
- जंगली बेर वाली लड़की ‘शायद’ पुष्पा
- मुसीबतों के सर कुचल, बढ़ेंगे एक साथ हम
- लोक देवता लोहाखाम
- बसंत में ‘तीन’ पर एक दृष्टि
- अलविदा घन्ना भाई
- तख़्ते : उमेश तिवारी ‘विश्वास’ की कहानी
- जीवन और मृत्यु के बीच की अनिश्चितता को गीत गा कर जीत जाने वाले जीवट को सलाम
- अर्थ तंत्र -विषमताओं से परिपक्वता के रास्तों पर
- कुमाऊँ के टाइगर : बलवन्त सिंह चुफाल
- चेरी ब्लॉसम और वसंत
- वैश्वीकरण के युग में अस्तित्व खोते पश्चिमी रामगंगा घाटी के परम्परागत आभूषण
- ऐपण बनाकर लोक संस्कृति को जीवित किया
- हमारे कारवां का मंजिलों को इंतज़ार है : हिमांक और क्वथनांक के बीच
- अंग्रेजों के जमाने में नैनीताल की गर्मियाँ और हल्द्वानी की सर्दियाँ
- पिथौरागढ़ के कर्नल रजनीश जोशी ने हिमालयन पर्वतारोहण संस्थान, दार्जिलिंग के प्राचार्य का कार्यभार संभाला
- 1886 की गर्मियों में बरेली से नैनीताल की यात्रा: खेतों से स्वर्ग तक
- बहुत कठिन है डगर पनघट की
- गढ़वाल-कुमाऊं के रिश्तों में मिठास घोलती उत्तराखंडी फिल्म ‘गढ़-कुमौं’