अपने बचपन के गाँव को ठीक-ठीक आज न स्मरण कर पाने का एक बड़ा कारण शहर आने के बाद उत्तराखंड राज्य को लेकर चलनेवाला जन-आन्दोलन और उसमें कुछ हद तक मेरी अपनी हिस्सेदारी भी थी. (Uttarakhand poor des... Read more
महादेवी वर्मा हिन्दी साहित्य के महत्वपूर्ण छायावादी आन्दोलन के चार बड़े नामों में से एक थीं. इस समूह में उनके अलावा जयशंकर प्रसाद, सुमित्रानंदन पन्त और महाप्राण सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ थे... Read more
मेरा और खड़कुवा का बचपन
खड़कुवा और मेरी मांओं ने हमें ऐसे ही मिट्टी लिपे फर्शों पर जन्म दिया था और हमें गाँव किनारे के उसी पोखर पर नहलाया था जहाँ आज भी औरतें अपने बच्चों को नहलाती हैं. फर्क यह आ गया है कि अब वहाँ प्... Read more
नैनीताल की मिसेज बनर्जी
‘हमारा जैसा बोलेंगा तो हिंदी कैसे बनेगा राष्ट्रभाषा, बोलो?’ ठीक तारीख याद नहीं है, 1978-79 के किसी महीने में एक दिन सुना कि मिसेज रेनू बनर्जी की लगभग छिहत्तर साल की उम्र में मृत्यु हो गई है.... Read more
1841 में पीटर बैरन द्वारा बसाये गए इस नैनीताल शहर (history of Nainital) में ठीक 146 साल और अपने स्कूल शेरवुड काॅलेज की पढ़ाई छोड़ने के करीब अठारह सालोें के बाद 1987 की शरद् ऋतु में सांसद-अभिने... Read more
भगवान तुलसीदास गलत नहीं लिख सकते
बुआजी के एक विधुर जेठ थे, जिन्हें घर के सब लोग ‘बड़े बाबजी’ पुकारते थे. मझोले कद के बड़े बाबजी एक गुस्सैल अधेड़ थे, जिनकी भौंहें हमेशा तनी रहती और बिना बात गुस्सा करना उनका शगल था. कभी असावधानी... Read more
बंपुलिस… द एंग्लो इंडियन पौटी – बटरोही की कहानी
काफल ट्री में नियमित कॉलम लिखने वाले लक्ष्मण सिंह बिष्ट ‘बटरोही’ का जन्म 25 अप्रैल 1946 को अल्मोड़ा के छानागाँव में हुआ था. अब तक अनेक कहानी संग्रह, उपन्यास व लघु उपन्यास लिख चुके... Read more
उत्तराखंड में रजस्वला स्त्रियों का गोठ-प्रवास
मकानों के गोठ में हर महीने के चार-पांच दिनों तक मवेशियों के साथ-साथ खड़कुवा और हमारी मां और भाभियां भी रहती थीं. मिट्टी-गोबर से सनी हुई ये औरतें गोठ-प्रवास के पांचवे दिन मील भर की दूरी पर स्थ... Read more
उत्तराखंडी चेतना की नई शुरुआत या पटाक्षेप
फरवरी 2014 में, जब उस वक़्त के मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा के त्यागपत्र के बाद हरीश रावत को मुख्यमंत्री की कमान सौंपी गई थी, खतरनाक सियासती उठापटक का सिलसिला तभी से शुरू हुआ था. जैसा कि होना ही... Read more
मोत्दा-च्चा-बड़बाज्यू की दैहिक कहानी का अंत
फरहत का परिवार हमारे पड़ोस में रहता था. चूल्हे-चौके की तमाम गोपनीयता के बावजूद दोनों परिवार लगभग एक ही छत के नीचे थे. ब्रिटिश प्रशासकों ने तालाब के किनारे के बाज़ार बनाए ही उन भारतीयों के लिए... Read more
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