मैं उस रोज नैनीताल के रामगढ़ स्थित महादेवी सृजन पीठ के बाहर साथियों के साथ गप्पें लड़ाने में मशगूल था कि तभी गाँव से पिताजी का फोन आ गया. पिताजी को अमूमन मैं ही फ़ोन करता हूँ. वे तभी फोन करते है जब उन्हे कोई बहुत जरूरी बात करनी या बतानी होती है. कुशल क्षेम के पश्चात पिताजी असल मुद्दे पर आते हुए कहने लगे कि तुम जितना जल्दी हो सको, सिद्धार्थ को लेकर गाँव आ जाओ. इस तरह से अचानक गाँव आने का कारण पूछने पर पिताजी बताने लगे कि हमारे पडौस के जिले शिमला की चौपाल तहसील के एक गाँव में एक आदमी पर देवता अवतरित हुआ हैं और वह चमत्कारिक रुप से असाध्य रोगों का ईलाज कर रहा है. हम भी सिद्घार्थ को उसके पास लेकर संग जाएंगे.
मैं पिताजी के इस प्रस्ताव को टालने की फ़िराक़ में था. फिर कभी उधर जाने की बात कहकर मैं पिताजी से खेत- पशुओं की सार खबर पूछने लगा. पिताजी समझ गए कि मैं टालमटोल कर रहा हूँ. पिताजी मेरे द्वारा खेत पशुओं की पूछताछ को नज़र अंदाज़ कर अपनी बात पर ज़ोर देते हुए कहने लगे कि हमारे गाँव के बगल के फ़लाँ गाँव के फलाँ लोग, जो उनकी जान पहचान के हैं, कह रहे हैं कि उस दैवीय शक्तियों से लैस व्यक्ति के पास जितने भी लाइलाज बीमारियों से ग्रस्त मरीज़ जा रहे हैं, भले चंगे होकर लौट रहे है. बस, जितना जल्दी हो सके हम भी सिद्धार्थ को लेकर गाँव पहुँच जाएं ताकी उसे भी वहाँ ले जाया जा सके. हमारे आस पास के सीमान्त पहाडी क्षेत्र में, चाहे वो हिमाचल में हो या उत्तराखंड मे, समाज का एक बडा तबक़ा इंसानी शरीर पर अवतरित होने वाले देवताओं में अगाध श्रद्धा रखता है. इसमें कोई दोराय नही है कि अंधविश्वास की यह पराकाष्ठा इस क्षेत्र के अधिकतम लोगों को मानसिक ताकत देती है और वे इसके सहारे बडी से बडी विडंबनाओं और संकटों से पार पा जाते है.
मैं पिताजी से इस मामले में अभी बहस नही करना चाहता था. पिताजी का जीवन आडंबर रहित है. वे धर्मपरायण तो है लेकिन धर्मांध नही हैं. धर्म और देवताओं को लेकर तार्किक तौर पर मुझे सबसे पहले यदि किसी नें संशय करना सिखाया तो वो मेरे पिताजी थे. लेकिन आज पिताजी को न जाने क्या हो गया था. मैं इस यात्रा का हासिल जानता था लेकिन मेरे लिए फिलहाल पिताजी की बात इसलिए सर्वोपरि थी कि उनकी संतुष्टि मुझे खुशी देती है. मैने उनकी हाँ में हाँ मिलाई और पिताजी से दिल्ली लौटते ही सिद्धार्थ को साथ लेकर गाँव पहुँचने की हामी भर दी .
मेरा इकलौता बेटा सिद्धार्थ ‘माइल्ड मेंटल रिटारडेशन’ से पीड़ित है. उसके बचपन का दौर उसके लिए ही नहीं बल्कि उसकी माँ सहित पूरे परिवार के लिए भी बहुत तकलीफ दायक रहा है. अपने अब तक के जीवन में उसका शारिरिक विकास तो फिर भी काफ़ी हद तक औसत के करीब है लेकिन मानसिक तौर पर वह अभी भी अपनी उम्र से पीछे चल रहा है. सिद्धार्थ की पैदाइश कानपुर की है. उस दौरान मैं कानपुर के एक सरकारी दफ़्तर में नौकर हुआ करता था. डाक्टरों के मुताबिक़ गर्भावस्था के दौरान ऑक्सिजन की कमी हो जाने पर शिशु के मस्तिष्क का जो एक भाग प्रभावित हो जाता है उसकी वजह से वह कई किस्म की शारिरिक और मानसिक विकलांगता का शिकार हो जाता है.
डाक्टरों के अनुसार सिद्धार्थ के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ था. हमे इसका अंदाज़ा तभी हो गया था जब सिद्धार्थ लगभग साल भर का होने को था. शारीरिक रूप से ठीक ठाक दिखने के बावजूद उसकी प्रतिरोधक क्षमता बहुत क्षीण थी. वह इतना कमज़ोर था कि जरा-जरा से मौसमी बदलावों के चलते भी सख्त बीमार पड जाता. ऐसा लगता था कि जैसे निमोनिया तो उसे वरदान में मिला हो. इन परिस्थितियों के चलते हम लोग महीने में दस से पंद्रह दिन डाक्टरों की शरण में रहते. तब उसकी स्थिति देखकर लगता ही नही था कि ये बच्चा भी कभी पनप पाएगा. हारी बीमारी के उस दौर मे सिद्धार्थ एक औसत बच्चे के आस पास भी नही था.
इसी दौरान मैं नई नौकरी के सिलसिले में दिल्ली आ गया. मेरे लिए दिल्ली तब अपरिचित जगह थी. लिहाज़ा परिवार को गाँव छोड कर एक तेज़ भागते शहर से साथ क़दमताल करने लगा. गाँव की आबो हवा से सिद्धार्थ की सेहत में सुधार होने लगा. वो अब मौसमी बदलावों के चलते कम बीमार होता था. इस दौरान मेरी धर्मपरायण माँ भी सिद्धार्थ को लेकर ग्राम देवताओं की देहरियों से लेकर स्थानीय सिद्धों के पास जाकर उसके इस लाइलाज मर्ज़ के ठीक होने की मन्नतें माँगने लगी थी. हमेशा बिस्तर पर पडे रहने वाले सिद्धार्थ नें गाँव की आबोहवा हवा में रहते हुए चलना बोलना शुरू कर दिया. अगले कुछ समय के दौरान जब दिल्ली में रिहायश का बन्दोबस्त हुआ तो मैं परिवार को दिल्ली ले आया.
सिद्धार्थ ने चलना और बोलना शुरू तो कर दिया था लेकिन उसकी तकलीफे कम नही हुई थी. उसकी परेशानियों को नजर में रखकर मैं एक बार फिर से डाक्टरों और अस्पतालों के चक्कर काटने लगा. जिस किसी ने भी कोई डाक्टर या अस्पताल सुझाया, मैं सिद्धार्थ को लेकर वहाँ पहुँच जाता. ऑफ़िस के एक बडे अधिकारी को जब मेरे बेटे की इस बीमारी का पता चला तो उन्होने मुझे अपनी पत्नी, जो एम्स में चाइल्ड साइकाट्रिस्ट थी, के पास भेज दिया.
नव आगंतुकों के लिए एम्स अपने आप में एक तिलिस्म है. लेकिन डाक्टर सविता सपरा भी हमारे लिए किसी चमत्कार से कम नही थी. वह नेक दिल डाक्टर सिद्धार्थ को गोद में लेकर लगभग पूरा-पूरा दिन एम्स के विभाग दर विभाग फिरती रही और उस वक़्त सिद्धार्थ के लिए स्वास्थ्य से संबंधित जितनी जरूरी जाँचे थी, उन्होने लगे हाथ सब की सब करवा दी. तकरीबन पाँच बार एम्स के विभिन्न विभागों में जद्दोजहद करने के बाद आयी रिपोर्टों के आधार पर डाक्टर सपरा इस नतीजे पर पहुँची कि सिद्धार्थ को ‘माइल्ड मेंटल रिटारडेशन’ है. इसी के चलते उसकी आँख़ें, मस्तिष्क और नर्वस सिस्टम प्रभावित हो गए हैं. उन्होने बताया कि सिद्धार्थ की शारिरिक ग्रोथ तो औसत के आसपास है लेकिन उसकी मानसिक ग्रोथ अपनी उम्र से पीछे चल रही है. जैसे-जैसे उम्र बढ़ेगी वैसे-वैसे उसकी मानसिक ग्रोथ के बीच का फ़ासला भी कम होता चला जाएगा. उन्होने बताया कि सिद्धार्थ को न्यूमेरिकल डिफिशिएंसी ताउम्र रहेगी लेकिन क़ुदरत इसे इसके बदले किसी न किसी विशेष गुण से जरूर नवाजेगी. आख़िरी बार एम्स से लौटते वक़्त डाक्टर सविता सपरा नें हमे सिद्धार्थ के लिए स्पेशल स्कूलिंग के साथ-साथ उसके भविष्य को लेकर निश्चिंत रहने की सलाह के साथ विदा किया.
सिद्धार्थ की स्कूलिंग में आने वाली परेशानियों पर एक पूरा ग्रंथ लिखा जा सकता है. एक अक्षम बच्चे के अभिभावकों के साथ इस देश का समाज और शिक्षा तंत्र कैसे व्यवहार करता है, जो कोई इस अनुभव से गुजरा हो, उसकी आत्मा को पता होगा. बहरहाल, आने वाले दिनों में हम सिद्धार्थ द्वारा किए जा रहे प्रयासो से खुश थे. वह स्कूल और निजी जीवन में जितना और जैसा कर पा रहा था, हम उसके अतीत को यादकर उससे संतुष्ट थे. बतौर अभिभावक सिद्धार्थ को लेकर हमारे सामने कई प्रकार की चुनौतियाँ और कठिनाईंयाँ थी. लेकिन हमने भी बिना किसी परेशानी के उनको स्वीकार किया और उनसे पार पाने की तमाम कोशिशें जारी रखी.
रामगढ़ से अगले दिन मुझे रानीखेत एक्सप्रेस से वापस दिल्ली लौटना था. मैने पिताजी से हाँ तो कह दिया था लेकिन गाँव कब और कैसे जाना है, यह तय नही कर पाया था. पत्नी से राय मशविरा किया तो यह तय हुआ कि मेरे नैनीताल से लौटते ही हम लोग गाँव चले चलेंगे. क्योंकि पिताजी के अनुसार जिस युवक पर देवता अवतरित हुआ है वो केवल रविवार को ही आगंतुको के लिए उपलब्ध होता है. जबकि एक और दिन के बाद सप्ताहांत शुरू होने वाला था. सप्ताहांत की छुट्टियों के मद्देनज़र हमने मेरे दिल्ली पहुँचते ही गाँव की ओर निकलने का प्लान बना दिया. मैं अगले रोज रानीखेत एक्सप्रेस से अल सुबह दिल्ली पहुँचा और उसी वक़्त सपत्नीक बेटे को लेकर फिर से पहाड़ पर अपने गाँव की ओर निकल पडा.
दिल्ली से लेकर गाँव तक के मैराथन सफर में लगभग पूरा दिन ख़र्च हो गया था. पाँच बजे सायं के आसपास हम लोग गाँव पहुँचे होगें. क्योंकि अगला दिन शनिवार था इसलिए पिताजी ने सुझाया कि हम लोगो को अभी के अभी सराँह तक चले जाना चाहिए. सरांह में मेरी छोटी बहन का घर है. हिमाचल के चौपाल क्षेत्र में जिस युवक पर देवता अवतरित हुआ है उस गाँव तक कैसे पहुँचा जाय इसकी बेहतर मालूमात हमे सराँह से ही हासिल हो सकती है.
सराँह मोटर मार्ग से जुड़ा चौपाल क्षेत्र के अंतर्गत चूड़धार ट्रैक का बेस केंप भी है. चूड़धार एक रमणीय तीर्थ स्थल है जहाँ लोक देवता शिरगुल का मन्दिर है. वहीं नीचे सराँह मे भी शिरगुल के एक भाई बिजट देवता का भव्य मन्दिर है जिसकी वास्तुकला अपने आप में अनूठी और अद्भुत है. एक ही रास्ते में होने के कारण श्रद्धालु अमूमन सराँह और चूड़धार की यात्रा एक साथ ही करते हैं. तकरीबन आधे घंटे के विश्राम के बाद हम लोग अपने गाँव से अगले पडाव सरांह के लिए निकल पडे और दो घंटे के अन्दर सराँह पहुँच गए थे.
हमारे सरांह पहुँचने तक खासी रात हो चुकी थी. छोटी बहन के परिवार वालों से जब पिताजी ने उस युवक पर देवता अवतरित होने की बात और उसके द्वारा चमत्कारिक रूप से बीमारों के ठीक होने की बात का ज़िक्र किया तो उन्होने भी उसके बारे पिताजी की ही तरह ही सुनी सुनायी बात के मालूम होने का ज़िक्र किया. हमें वहीं मालूम पडा कि उस चमत्कारी शक्तियों से लेस युवक के गाँव का नाम थुण्डल है. अब सरांह से थुण्डल कैसे पहुँचा जाय, यह जानकारी हमे वहाँ से लगभग स्पष्ट रूप से हासिल हो गयी थी.
सरांह से थुण्डल पहुँचने के दो रास्ते थे. एक, सरांह से लगभग तीन से चार घंटे बाम़शक्कत पैदल चलकर थुण्डल पहुँचा जा सकता था, दूसरे, सड़क के द्वारा वाया चौपाल,सैंज और पुलवाल से होते हुए. सड़क से लगभग यह दूरी सवा सौ किलोमीटर के आसपास थी. जबकि पैदल मात्र 20 किलोमीटर. पैदल का रास्ता क्योंकि घनघोर जंगल से होकर गुज़रता था इसलिए सभी लोग सड़क के रास्ते जाने ही की ज़िद करने लगे. यह सब तय हो जाने के बाद अब समस्या इस बात की थी कि वहाँ तो सुबह जल्दी पहुँचना होता है और पहाड में खराब सड़क पर सवा सौ किलोमीटर सफर तय करने का मतलब लगभग छ: से सात घंटे. अगर वहाँ समय से पहुँचना है तो एक दिन पहले यानि कि शनिवार को ही कहीं नज़दीक पहुँच कर अगले दिन सुबह-सुबह थुण्डल पहुँचा जा सकता है. वहाँ आस पास में ठहरने की कहीं कोई व्यवस्था हो सकती है या नही, इस बात को लेकर हमारे वो रिशतेदार भी असमंजस की स्थिति में थे.
इसी उधेड़ बुन के दौरान मुझे मेरे एक फ़ेसबुक मित्र शेरजंग चौहान याद हो आए जो राजगढ क्षेत्र के रहने वाले हैं. पेशे से पत्रकार और शौक से पर्यावरणविद् शेरजंग चौहान सिरमौर और अपर शिमला क्षेत्र के इनसाइक्लोपिडिया है. क्षेत्र के भूगोल, समाज, संस्कृति तथा स्थानीय रीति रिवाजों को लेकर उनके सिलसिलेवार और ब्योरेवार लेख स्थानीय पत्र पत्रिकाओं और सोशल मीडिया पर अक्सर पढ़ने को मिलते रहते हैं.
मैने उन्हें फोन किया और उन्हें अपनी हालिया स्थिति से अवगत करवाते हुए उनसे मदद की दरकार की. क्योंकि वह गाँव, जहाँ वह तथाकथित चमत्कारी पुरूष रहता था, शेरजंग चौहान के गृह क्षेत्र से काफ़ी दूरी पर था, बावजूद इसके भी, उन्होने थोड़ा समय माँगते हुए मुझे हर प्रकार की मदद का आश्वासन दे डाला. लगभग एक घंटे बाद शेरजंग चौहान का फोन आ गया. इस बार उनके पास मेरे सभी सवालों के जवाब थे. उन्होने मुझे थुण्डल पहुँचने के दोनों रास्तों की पूरी-पूरी जानकारी मुहैया करवायी. लेकिन हम लोग तो पहले ही सड़क मार्ग से जाने की योजना बना चुके थे. उन्होने बताया कि थुण्डल गाँव के जिस युवक पर देवता अवतरित हुआ है वह पास ही के उस गाँव की प्राथमिक पाठशाला में शिक्षक है जहाँ उनकी भतीजी का ससुराल भी है. क्योंकि थुण्डल गाँव का वह युवक, जिस पर देवता अवतरित होता है, रविवार को सुबह से आगंतुकों के लिए उपलब्ध रहता है इसलिए आपको वहाँ के लिए शनिवार को ही निकलना पड़ेगा ताकि वहाँ रविवार को समय रहते अपनी उपस्थित दर्ज करवाई जा सकें. शनिवार की रात कहाँ गुज़ारी जाय, इस सवाल के एवज में उन्होने बताया कि थुण्डल गाँव के नज़दीक में ठहरने के लिए छैला के बाद कोई होटल तो नही है लेकिन पुलवाल में जंगलात का एक डाक बंगला है, आप चाहें तो वहाँ रूक सकते है. उन्होने मुझे अपने दामाद का फोन नंबर दिया तथा साथ ही इस सफर में हर संभव मदद के आश्वासन की बात को भी फिर से दोहरा दिया. मैने जब शेरजंग चौहान द्वारा उपलब्ध कराए नंबर पर फोन किया तो उन्होने भी वही सब बातें दोहरायी.
हम लोग शनिवार को तकरीबन एक बजे दिन में सरांह से पुलवाल के लिए निकल पडे. इस नए सफ़र के दौरान चौपाल तक तो सड़क ठीक ठाक मिली लेकिन वहाँ से आगे की सड़क बेहद खराब थी. सेब के लिए मशहूर चौपाल तहसील के इस क्षेत्र से हजारों टन सेब देश भर के बाजारों को सप्लाई किया जाता है. फ़ल घाटी होने के बावजूद यहाँ सड़क इतनी खराब स्थिति में थी कि जो सफर तीन से चार घंटे में पूरा किया जा सकता था उस सफर को पूरा करने में पूरे छः घंटे लगे.
पुलवाल तीन ओर से उतरते गदेरों के संगम के किनारे निकल आयी एक ऐसी उबड खाबड़ जगह का नाम है जहाँ पर एक बारहवें दर्जे तक का स्कूल, बैंक, पोस्ट आफिस, जंगलात जैसे सरकारी प्रतिष्ठान, रिहायशी ईमारतें, कुछ दुकानें-ढाबे और शराब का एक ठेका है. यहाँ देश दुनिया की बसासतों को एक दूसरे से जोड़ने वाला सड़क मार्ग ख़त्म हो जाता है. थोड़ा आगे तक जंगलात महकमे की एक कच्ची सड़क जाती तो है लेकिन वह किसी को मंज़िल तक नही पहुँचाती. पुलवाल से फर्लांग भर पहले नदी पार को निकली सड़क कुछ एक दूसरे गाँवो बस्तियों को एक दूसरे से जोड़ती हुई थुण्डल गाँव तक जाती है. जब हम पुलवाल पहुँचे तो शाम लगभग ढलने को हो चुकी थी. उस वक्त हमे वहाँ हिमाचल परिवहन की दो बसें, और तीन जीपें खड़ी मिली जो शायद वे वहाँ से पलट कर आस पास के गाँवों की ओर जाने की तैयारी में थी. थोड़ा देर इधर का जायज़ा लेने के बाद एक सज्जन से जंगलात के डाक बंगले की बावत पूछा तो उसने सामने एक टूटे गेट की तरफ कर इशारा कर दिया. टूटे गेट के पास पहुँचने को हुआ ही था कि एक और सज्जन ने बग़ैर पूछे ही मुझे सामने खडी बस की तरफ इशारा कर एक निकलते हुए आदमी को दिखाते हुए कहना शुरू किया कि यह डाक बंगले का चौकीदार है जो अपने गाँव को निकलने वाला है. मैं पलट कर उसके पास गया और उसको अपनी व्यथा बताते हुए डाक बंगले में कमरा उपलब्ध करवाने का अनुरोध किया.
सरकारी डाक बंगले अमूमन बिना पूर्व अनुमति के उपलब्ध नही हो पाते. एक घुम्मकड़ के तौर पर पहाड़ के जंगलों में बसासतों से हट कर आबाद यह आराम गाहें मेरी पसंदीदा जगहों में से एक है. जैसे भी, जब भी बन पड़ता है मैं अपने दोस्तों के साथ शहर से दूर ऐसे ठिकानों की और निकल आता हूँ. निकलने से दो चार दिन पहले ही संबंधित वनाधिकारी को एक अर्ज़ी लिखकर उसकी अनुशंसा पर काफ़ी सस्ते में तकरीबन हर जगह रहने की व्यवस्था हो ही जाती है. लेकिन इस बार, जब परिवार साथ मे था और दिल्ली स्थित दफ़्तर में सप्ताहांत के चलते छुट्टियाँ थी, ऐसे में डाक बंगले की उपलब्धता पूरी तरह है से डाक बंगले के चौकीदार के रहमो करम पर निर्भर थी.
डाक बंगले के चौकीदार निहाल सिंह पास ही के गाँव के रहने वाले थे. क्योंकि अगले रोज रविवार को सरकारी अवकाश था इसलिए वो आज अपने गाँव की ओर निकलने की तैयारी में थे. निहाल सिंह से बात हुई तो उन्होने मेरी मुँह ज़ुबानी दरख्वास्त, मेरे यहाँ आने के कारण और दफ़्तर के पहचान पत्र के आधार पर हमारे डाक बंगले में रात गुज़ारने की उम्मीदवारी पक्की कर दी.
पुलवाल कस्बे को लगभग एक ओर छोड़ते हुए एक टीलेनुमा जगह पर 1905 में बना यह डाक बंगला समय-समय पर होने वाली मरम्मतों के बावजूद भी जर्जर हालत में था. देवदार की लकड़ी, बलुए पत्थरों और लोहे की चादरों की जुगलबन्दी से बना यह जर्जर डाक बंगला एक अद्भुत जगह पर मौजूद है. डंकन शैली से निर्मित इस डाक बंगले में रसोई सहित दो शयन कक्षों और एक बैठक के साथ-साथ बाहर को एक बरामदा है. बरामदे के सामने पत्थरों की उबड़ खाबड़ चार दीवारी के भीतर एक छोटा सा प्राकृतिक मैदान है जहाँ से खडे होकर चूड़धार के पूर्वी ढाल को पूरा का पूरा देखा जा सकता हैं.
रात होने को थी. निहाल सिंह ने सबसे पहले एक ढाबे वाले को हमारे खाने के इंतज़ामात के लिए तलब किया. खाने की व्यवस्था होने के बाद उन्होने हमें रसोई में रखे बर्तन दिखा दिए और हमें सुबह निकलने से पहले एक गुप्त स्थान दिखाया जहाँ वो अक्सर चाबियां रखते थे. सारी व्यवस्था होने के बाद उन्होने हम से विदा ली. मैने उन्हें डाक बंगले के किराए की एवज में पैसे पूछे वो तो मुस्करा कर कहने लगे,
“आप इतनी दूर से आए हैं. बस, आपके बच्चे को फ़ायदा मिलना चाहिए. मेरा गाँव रास्ते में ही पडता है. सुबह तो आप जल्दी में होगें, वापसी में चाय पीकर जाइयेगा. तभी हिसाब किताब की बात कर लेंगे”
पहली ही मुलाकात में इतना भरोसा जताने वाला आदमी मैने अपनी जिन्दगी में पहली बार देखा. निहाल सिंह के जाने के थोड़ी देर बाद ढाबे वाले ने खाना पहुँचा दिया. पुलवाल की शांत वादियों से गुज़रते गदेरों के शोर ने जहाँ शुरूआत में हमे थोड़ा असहज कर दिया था वहीं थोड़ी देर बाद हम इसके आदी हो गए थे. अगले रोज हमें पौ फटते ही थुण्डल गाँव की और निकलना था इसलिए हम लोग खाना खाकर तुरंत सो गए.
सुबह लगभग छः बजे हम लोग पुलवाल से थुण्डल की ओर रवाना हो गए. कुल मिलाकर सोलह किलोमीटर के इस सफर में जहाँ शुरू की चार पाँच किलो मीटर सड़क तो ठीक ठाक थी लेकिन उसके बाद खड़ी चढ़ाई और बड़े-बड़े गढ्ढों ने गाडी की रफ़्तार को पैदल के बराबर कर दिया. लगभग डेढ़ घंटे की मशक़्क़त के बाद हम लोग थुण्डल पहुँच गए.
जहाँ सड़क की हद ख़त्म होती है वहीं से थुण्डल गाँव शुरू होता है. पहाड की धार पर बसा थुण्डल गाँव अपर हिमाचल के बाकी गाँवो के जैसा ही सेब के बाग़ों और खेतों के साथ एक छोर से दूसरे छोर तक फैला हुआ है. गाँव से नीचे की ओर उतरते बटोहियों से पूछने पर पता चला कि जिस युवक पर देवता अवतरित होता है उसका घर गाँव के दूसरे छोर पर स्थित है. तकरीबन एक मील चलने के बाद थुण्डल गाँव के शांत वातावरण में बड़े-बड़े लाउड – स्पीकरों पर बजते भक्तिमय गीतों ने हमें इस बात से प्रति आश्वस्त कर दिया था कि हम लोग ठीक जा रहे हैं. थोड़ा और पैदल चलने के बाद हम उस गाँव की देवदार के वृक्षों से आच्छादित चोटी के एक तरफ वाले एक खाली मैदान पर पहुँचे जहाँ एक चबूतरे पर एक कृतिम शिवलिंग और बाजार में मिलने वाली कुछ पौराणिक देवताओं की मूर्तियाँ रखी थी. हमारे पहुँचने से पहले ही वहाँ काफ़ी लोग जमा हो चुके थे.
सड़क मार्ग के रास्ते मेरे गाँव से यह जगह लगभग सौ मील की दूरी पर है. लेकिन मुझे यह देख़कर अचम्भा हुआ कि यहाँ पहुँचे हुए अधिकतर लोग हमारे आस पास के गाँवों के रहने वाले थे. यह सब लोग भी अपने-अपने गाँवों से किराए की जीपों में रात भर चल कर यहाँ पहुँचे थे. ऐसा नहीं कि इन लोगों ने बीमारी से निजात पाने के लिए आस पास के कस्बों के अस्पतालों के चक्कर नहीं काटे होंगे, ये वहाँ कई बार जाकर हो आए थे लेकिन डाक्टरों की उदासीनता और अनुपस्थिति के चलते इन्होने वहाँ जाने से तौबा कर ली थी. जिस देश का एक डाक्टर औसतन एक मरीज को दो मिनट का समय भी न देता पाता हो, जिस देश में स्वास्थ सेवाएं बुनियादी सुविधाएं न रह कर व्यवसाय के रुप में फ़ल फ़ूल रही हो, वहाँ पहाड़ के इन अपढ और नीरीहों के हिस्से एक डाक्टर कितना आता होंगा और उन्हें बीमारी के बारे में क्या समझा पाता होगा, यहाँ की स्वास्थ्य सेवाओं को देख़कर आसानी से समझा जा सकता है. इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि हिमाचल और उत्तराख़ण्ड के जिस सीमान्त क्षेत्र से मैं आता हूँ वहाँ किसी दुर्घटना या गंभीर बीमारी के ईलाज हेतु लगभग दिन भर की दूरी पर स्थित शिमला, चंडीगढ, और देहरादून से पहले कोई विश्वसनीय अस्पताल नहीं है. दूसरी तरफ आपको यहाँ ख़ुद को दैवीय शक्तियों से लेस बताने वाले पारंपारिक टोटकेबाज बिना किसी बड़े खर्चे के हर मोड़ पर आसानी से उपलब्ध हो जाते हैं. एक समय में इस प्रकार के दैवीय आश्वासन हारी बीमारी के समय मानसिक रुप से ईलाज और न्याय के प्रमुख कारक जरूर रहे होंगे लेकिन आज जब विज्ञान नें पूरे के पूरे मानव शरीर को उसमे होने वाली ब्याधियों सहित परिभाषित कर दिया है तब भी देश के शिक्षित लोगों का एक बड़ा धड़ा अपने पूर्वाग्रहों के चलते इसके लिए धार्मिक कर्मकांडों देवताओं और मन्दिरों का पिछलग्गू बना हुआ है. ऐसे में गाँव में रह रहे अपढ या अर्द्ध शिक्षित व्यक्ति से मानव देह के प्रति वैज्ञानिक दृष्टिकोण रखने की उम्मीद आखिर किस आधार पर रखी जाए.
यह सब जानने और अंध विश्वास को लेकर हमेशा मुखर रहने के कारण मैं खुद को बहुत लज्जित महसूस कर रहा था. हालांकि मैं यहाँ केवल पिताजी का मन रखने के लिए आया था लेकिन मुझे यह बात बहुत भीतर तक काट रही थी कि मैं दूसरों के अंधविश्वास की आलोचना या भर्त्सना करने से तो कभी नही चूकता लेकिन अपने पिता के अंधविश्वास के फेर में पड़ कर दिल्ली से इतनी दूर यहाँ आ पहुँचा हूँ. बहरहाल, मैने खुद को खुद सांत्वना देते हुए इस यात्रा को एक अंजाने क्षेत्र की आँखो देखी जानकारी का जरिया मान कर दिमाग से परे झटक दिया.
हम लोग सुबह के सात बजे थुंडल पहुँच चुके थे. पूछताछ के दौरान पता चला कि जिस व्यक्ति में देवता अवतरित होता है वह आठ बजे अपना आसन ग्रहण करते हैं. बहरहाल, थोड़ी देर में आठ भी बज गए और नीयत समय के भीतर वह तथाकथित चमत्कारी पुरुष बाक्सिंग के रिंग की तरह बने चबूतरे पर विराजमान हो गया. उसके साथ उसकी एक पूरी टीम भी थी जो आगंतुकों का हिसाब किताब दर्ज कर रही थी. पिताजी नें भी लगे हाथ मरीजों के नाम दर्ज कर रहे एक कार्यकर्ता के रजिस्टर में फरियादी के तौर पर सिद्धार्थ का नाम लिखवा दिया. जैसे जैसे दिन बढ रहा था , वैसे-वैसे आगंतुकों की भीड़ भी बढती जा रही थी लेकिन अच्छी बात यह थी कि यह भीड़ स्वनियंत्रित थी. गुजरते समय के साथ बढ रही इस भीड़ में हम लोग भी शामिल थे और अपनी बारी का इंतजार कर रहे थे.
थुंडल गाँव के ठीक उपर देवदार से घिरे मैदान में उमड़ी दुखियारों की भीड़ किसी मेले का भान करवा रही थी. लोग अपनी-अपनी गरज से यहाँ पहुँच रहे थे. थोड़ी देर में मालूम पड़ा कि बहुत सारे लोग ऐसे थे जिन्हें दूसरी बार बुलाया गया है. टीम के लोग भीड़ के बीच घूम-घूम कर सर सरी नजरों से यहाँ लाए गये मरीजों की हालात का मुआयना कर रहे थे और उनकी तकलीफों के हिसाब से उन्हे छांट-छांट कर चबूतरे की तरफ़ ले जा रहे थे. उधर आसन पर विराजमान व्यक्ति पर देवता सवार हो चुका था और वह मरीजों से संवाद कर उनकी तकलीफों का कारण बताते हुए उन्हे उससे निजात पाने हेतु जरूरी हिदायतों के साथ-साथ प्रसाद के रुप में चावल के दाने भी दे रहा था.
व्यक्तियों की देह पर देवताओं का अवतरित होना महासू क्षेत्र में कोई नई बात नहीं है. इस क्षेत्र के ग्राम देवताओं की सदियों से ऐसे ही स्थानिकों से संवाद की परंपरा रही हैं. देवताओं द्वारा हर समस्या के निदान के लिए चावलों का प्रयोग भी यहाँ कोई नई बात नहीं है. लेकिन अगर यहाँ कुछ नया था तो वो था अवतरित होने वाले देवता द्वारा खुद को शिव बताना. स्थानीय देवताओं के अलावा किसी अन्य पौराणिक देवता का, जिसका अतीत में यहाँ के लोक से कोई लेना देना नही रहा है, मानव शरीर पर प्रकट होना मेरे लिए कौतूहल का विषय था. शिव के इस औतारिक के बारे में और ज्यादा जानकारी हेतु मैं अपने आस पास के लोगों से मालूमात करने लगा. बातचीत के दौरान पता चला कि दैवीय शक्तियों से लैस इस व्यक्ति का एक भाई पत्रकार है और वह भी आज यहीं पर है. मैं तुरंत उसकी खोज में निकल पड़ा और पूछते ताछते उस तक पहुँच गया.
सुरेन्द्र से परिचय हुआ तो मालूम पड़ा कि वह वैसे तो पत्रकारिता के सिलसिले में सोलन में रहता है और वहाँ से निकलने वाले एक हिन्दी दैनिक के लिए काम करता हैं लेकिन जब से उसके भाई पर देवता अवतरित होने लगा हैं तब से वह अक्सर रविवार को श्रद्धालुओं की भीड़ होने के चलते गाँव वालों की मदद हेतु अक्सर यहाँ आ जाता है. किसी किस्म की कोई अव्यवस्था न हो, इसके लिए गाँव के लोग यहाँ पूरी तन्मयता के साथ अपने-अपने मोर्चों पर डटे रहते हैं. चाहे दूर दराज से आए लोगों की भीड़ को चबूतरे से एक निश्चित दूरी पर रोकना हो, उनका पंजीकरण करना हो या ख़ाने पीने हेतु लंगर की व्यवस्था करनी हो, थुंडल गाँव के लोग यह काम मिलकर करते हैं. सुरेन्द्र के भाई पर अवतरित होने वाले देवता के संबंध में मैने जब बतौर पत्रकार उसके विचार जानने चाहे तो उसका सार वर्तमान धार्मिक चलन और स्थानीय मान्यताओं का घालमेल भर निकला. सुरेन्द्र ने अपने भाई को प्राप्त होने वाली आलौकिक शक्तियों की जो कहानी सुनाई, वह सदियों से सुनाई जा रही हिंदू धर्म की दंत कथाओं और किंवदंतियों से अलग नहीं थी. व्यक्ति के तौर पर सुरेन्द्र बहुत भले और नेकदिल इंसान निकले लेकिन एक पत्रकार के तौर पर समाज और प्रकृति के प्रति उनका दृष्टिकोण वैज्ञानिक बिलकुल नहीं कहा जा सकता.
गुजरते दिन के साथ दूर-दूर से आये लोगों से बातचीत होने लगी. अभी तक मुझे ऐसा लग रहा था कि यहाँ आने वाले सभी लोग अपने गंभीर रोगों से पीड़ित नजदिकियों को लेकर आए हैं लेकिन मेरा यह विश्वास तब भ्रम में तब्दील हो गया जब मुझे ऐसे बहुत से लोग मिले जो मंदिरों की तर्ज पर मन्नत मांगने हेतु यहाँ आए थे. इस फेरहिस्त में राजगढ से आए एक महानुभव से मुलाकत हुई जो अपने पोस्ट ग्रेजुएट बेरोजगार लड़कों के सरकारी रोजगार की बावत यहाँ आए थे. इस भीड़ में बड़ा हिस्सा उन लोगों का था जो मंदिरों की तर्ज पर यहाँ मन्नत मांगने हेतु आए थे.
पढ़ा – लिखा और पेशे से शिक्षक यह युवक खुद पर भले शिव के अवतरित होने की बात करता हो लेकिन बड़ी उम्मीद से आए गिनती भर के मानसिक, दैहिक रोगों से पीड़ित और प्राकृतिक अपंगताओं से ग्रसित श्रद्धालुओं के लिए उसके पास पारंपारिक आश्वासनों के अलावा कुछ नही था. दुनियां भर के समाजों में अंध विश्वास के बहुत से कारण हो सकते हैं लेकिन हिमाचल और उत्तराखंड में फैले इस क्षेत्र की एक बड़ी आबादी को प्रकृति की कठोर और दुराग्रही ताकतों ने घोर अंधविश्वासी बना कर रख दिया है. हालांकि पहाड़ का यह क्षेत्र अब शिक्षा के महत्व को समझने लगा है लेकिन वैज्ञानिक शिक्षा की बजाय, किताबों में काल्पनिक आदर्शों और उनके चमत्कारों को कुतर्कों के आधार पर गढना और धर्म के नाम पर उनको प्रचारित प्रसारित करना मानव मस्तिष्क के विकास में एक बड़ी बाधा बनते जा रहा है. रोजगार के लिए देवताओं की शरण में जाने वाला व्यक्ति अर्थ शास्त्र और देश की अर्थ व्यवस्था को कितना समझ पाता होगा, यह प्रश्न अपने आप में विचारणीय है. थुंडल गाँव में एकत्र हुई यह भीड़, जिसमें मैं भी शामिल था, उसी अंध श्रद्धा का लघु रूप था जो मानव इतिहास के अतीत में तर्कों और तथ्यों पर आधारित वैज्ञानिक समझ की अवरोधक बनती आई है.
सुबह सात बजे पहुँचने के बावजूद भी यदि सुरेंद्र की सिफारिश न होती तो शायद ही हमारी बारी आ पाती. रात के आठ बजने को थे. मैं सिद्धार्थ को लेकर चबूतरे पर उस दिव्य वक्ता के सम्मुख बैठ गया. दैवीय शक्तियों से लैस होने का भ्रम पाल रहा वह व्यक्ति जब मुस्कराते हुए हमारी तरफ पलटा तो वह पस्त नजर आ रहा था. लालटेन की मंद रौशनी में उसके चेहरे पर थकान के भाव स्पष्ट दिखाई दे रहे थे. उसने हमारे गाँव और कुल देवता का नाम पूछा, मैने जवाब दिया तो वह कहने लगा कि आपका गाँव तो उत्तराखंड में है और आपका कुल देवता तो मेरा ही अंश है.
खुद को आलौकिक शक्तियों का वाहक बताने वाले ऐसे दिव्य वक्ताओं को मैं बचपन से लेकर देखता आया हूँ. इनके वक्तव्य का आधार सामने वाले की भौगोलिक और सामाजिक परिस्थिति होती है. सबसे पहले अपने देवत्व का प्रभाव डालने के लिए यह सामने वाले के घर गाँव के आस पास की किसी वस्तु, पेड़ या किसी प्राकृतिक चिन्ह या स्थान की बात कहते हैं जो अमूमन पहाड़ के गाँव व घरों के पास होते ही है. मसलन वो कहेगा कि आपने घर के पास जो पानी का नल है या आपकी जमीन के अगल बगल जो खड्ड या गदेरा है. पहाड़ में पानी का नल हर घर में या उसके आस पास होता ही है और पहाड़ की बसासतों और खेतों के आस पास खड्ड या गदेरे प्राकृतिक रूप से पाए ही जाते हैं. लेकिन समस्याओं से छुटकारे की आस लिए सामने बैठा व्यक्ति दिव्य वक्ता के कयासों को उसकी दिव्य दृष्टि मान लेता है और सोचना समझना बंद कर उसकी हाँ में हाँ मिलाना शुरू कर देता है. कुछ देर के लिए ही सही, समस्याओं और तकलीफों पर आस्था भारी पड़ जाती है. वैसे इस विधि को मानसिक रूप से हारे हुए और अवसाद ग्रस्त व्यक्तियों के उपचार की संभावनाओं के तौर पर तो देखा जा सकता है लेकिन आज के वैज्ञानिक युग में भौतिक और प्राकृतिक व्याधियों के लिए ऐसी टोटके बाजियों पर निर्भर रहना खालिस मूर्खता के अलावा और कुछ नहीं है.
रात होने लगी थी और भीड़ धीरे-धीरे छंटनी शुरू हो गयी थी. हम लोग तुरंत ही वापस अपने गाँव के लिए निकल पड़े थे. हमारे आस पास के रहने वाले बहुत से परिचित लोग अभी भी किसी चमत्कार की उम्मीद में वहीं डटे पड़े थे. वापसी के दौरान हमारे सामने पूरी रात का सफ़र पड़ा था. रास्ते भर जहाँ पिताजी अंध विश्वास के चलते खुद को कोस रहे थे वहीं मैं अपनी इस बेमकसद यात्रा को लेकर कुछ लिखने के मंसूबे बाँध रहा था.
स्वयं को “छुट्टा विचारक, घूमंतू कथाकार और सड़क छाप कवि” बताने वाले सुभाष तराण उत्तराखंड के जौनसार-भाबर इलाके से ताल्लुक रखते हैं और उनका पैतृक घर अटाल गाँव में है. फिलहाल दिल्ली में नौकरी करते हैं. हमें उम्मीद है अपने चुटीले और धारदार लेखन के लिए जाने जाने वाले सुभाष काफल ट्री पर नियमित लिखेंगे.
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