पहाड़ और मेरा जीवन – 66
(पिछली क़िस्त: वो शेर ओ शायरी, वो कविता और वो बाबा नागार्जुन का शहर में आना
एक बहुत ही लंबा बेवकूफी भरा और ईगो से संचालित जीवन जी लेने के बाद अब जाकर मैं हर तरह के नशे से मुक्त हूं, वह चाहे तंबाकू, सिगरेट, शराब का हो या ईगो का. मुझे इनकी गिरफ्त से निकलने में तीस साल लग गए. हालांकि पहली बार तो मैंने शायद तेरह की उम्र में ही बीड़ी पी ली थी, जिसका किस्सा मैं पहले बता चुका हूं. मैंने यह कारनामा गांव के सुनसान रस्ते पर बाज्यू के उन दिनों बिगड़े हुए बेटे भूपाल के सान्निध्य में चक्की से गेहूं पिसाने जाते हुए किया था. पर वह बीड़ी पीना कौतुहल से उपजी क्रिया थी, जो खांसी उठने तक ही जीवित रह पाई. (Sundar Chand Thakur Memoir 66)
हमारे संस्कारी समाज के मुताबिक जिसे बिगड़ना कहते हैं, वह क्रिया तो बारहवीं के इम्तहानों के बाद शुरू हुई. बारहवीं की परीक्षाएं मैंने कुजोली गांव में किराए के दो कमरों में रहते हुए ही दी थी. यहां संडास की व्यवस्था तो तीस-चालीस मीटर दूरी पर ही थी, जहां टिन के दरवाजे वाला दो गुणा दो फुट का भारतीय शैली का पाखाना बना हुआ था, लेकिन नहाने के लिए मुझे दो-तीन सौ मीटर की ढलान उतरने के बाद गधेरे में बने एक नौले तक पहुंचना होता था, जहां कपड़े धोने और नहाने के लिए भरपूर पानी मिल जाता था. पुनेठा जी की जिस इमारत में मैं रहता था, वहां कम से कम इंटर में और कॉलेज में पढ़ने वाले दर्जन भर लड़के किराए पर रहते थे. इनमें से ज्यादा नेपाल से आए थे.
उन दिनों नेपाल से पढ़ने आने वाले लड़कों का तांता लगा रहता था. नौले तक पहुंचने के रास्ते में ऐसे कई घर थे, जिनमें नेपाल और पिथौरागढ़ के ही सीमांत इलाकों के गांव से आए से आए लड़के किराए पर रहते थे. क्योंकि सब दूरदराज से आकर अपने माता-पिता का पैसा खर्च करते हुए पढ़ाई कर रहे थे, सभी पर परीक्षाओं में अच्छा प्रदर्शन करने का नैतिक दबाव था. इसलिए बोर्ड की परीक्षाओं के दौरान सबने बहुत मन लगाकर पढ़ाई की. मन लगाने के लिए लड़के तंबाकू खाते थे. उन दिनों उनके बीच खैनी का बहुत प्रचलन था क्योंकि वह बनी बनाई आती थी. अपने तंबाकू सेवन को उचित साबित करने के लिए बहुत से लड़कों ने यह बात फैला दी थी कि उसे खाने से एकाग्रता बहुत बढ़ जाती है. खासकर गणित में अच्छे नंबर लाने के लिए तो उसका सेवन अनिवार्य है.
मैं शायद इसी अफवाह का शिकार बना क्योंकि मुझे याद है कि पहली बार मैंने गणित में अच्छे नंबर लाने के लालच में ही खैनी की कड़वाहट झेली थी. वह कड़वाहट कब मिठास में बदल गई पता ही नहीं चला और मैं एक खैनीबाज बन गया. हालांकि उसका सेवन मैं बाकी लड़कों की तुलना में कम करता था. उसकी तलब मुझे पढ़ने के दौरान ही होती थी. लेकिन बिगड़ने का सिलसिला शुरू हो चुका था.
बारहवीं की परीक्षाएं खत्म होने के बाद सारे लड़के चिड़ियाघर से छूटे जानवरों की तरह खुद को आजाद महसूस कर रहे थे और इस आजादी का भरपूर लुत्फ लेना चाहते थे. हमें समझ नहीं आ रहा था कि भरपूर लुत्फ कैसे लें. मुझे तब मालूम चला कि कुछ सीनियर हमारे लिए एक खास आयोजन कर रहे हैं. इसके लिए हमसे बीस-बीस रुपये मांगे गए. पता चला कि सूर्यास्त के बाद एक नेपाली लड़के के कमरे में आयोजन है. मैं वहां पहुंचा तो हाउसफुल हो चुका था.
सामने एक बड़ा वाला कलर टीवी रखा था और उसके बगल में ही एक स्टूल पर वीसीआर था. जब सारे लड़के आ गए तो दरवाजे में अंदर से सांकल लगा दी गई. कमरे में एक छोटी-सी खिड़की थी, उसे बंद कर दिया गया. एक सीनियर ने सबको श्श्श्श्शश करते हुए घोषणा की – शालों सब चुप रहोगे. सिर्फ देखना है मुंह से कुछ नहीं बोलना. अब तक मुझे भनक लग चुकी थी कि आज हम कोई बहुत ही गलत, घिनौना, अनैतिक काम करने जा रहे हैं, जिसके लिए हमें भगवान ताउम्र माफ नहीं करने वाला था.
सीनियर ने वीसीआर चालू किया तो टीवी में पहले तो रंगीन धारियां आईं और फिर सब गड्डमड्ड हो गया और अचानक हमारे सामने ऐसा दृश्य था कि हमारा मुंह खुला रह गया. डेढ़ घंटे तक वहां उपस्थित सारे लड़कों के मुंह खुले ही रहे. हमने जीवन में पहली बार वह देखा जिसकी कभी कल्पना भी नहीं की थी. औरों के बारे में कुछ नहीं कह सकता पर उस फिल्म ने कई दिनों तक मुझे भयाक्रांत रखा क्योंकि मुझे बार-बार लगता रहा कि मैंने एक ऐसा काम कर दिया, जिसकी हमारा धर्म इजाजत नहीं देता. भले ही मां-बाप को इसके बारे में पता न चला हो, लेकिन भगवान से तो यह छुपा न रहा होगा.
संस्कारी नजरिए से बुरा बनने का सिलसिला अभी तो शुरू ही हुआ था. अगला नंबर था सिगरेट का. मैंने घर में बचपन से ही अपने पिता को बीड़ी-सिगरेट पीते देखा था पर कभी मेरे दिमाग में यह बात न आई कि मैं भी कभी बड़ा होकर इस लत का शिकार हो जाऊंगा. खैनी खाने के पीछे तो चलो मान लिया कि गणित में ज्यादा नंबर लाने का बहाना था, पर सिगरेट के लिए कोई बहाना नहीं था. अलबत्ता मैंने जब पहली बार तिवारी पान भंडार की दुकान पर जाकर पनामा की सिगरेट जलाई, तो पहली ही फूंक के साथ खांसी का दौर उठा. अगली फूंक लेने के लिए मुझे दो-तीन मिनट इंतजार करना पड़ा. अगली फूंक के बाद फिर जबरदस्त खांसी उठी. शरीर साफ मना कर रहा था मुझे कि रहने दे बेटा ये शौक तेरे वश का नहीं.
मुझे याद नहीं पड़ता कि ऐसी सनक मुझमें आई कहां से कि चीत्कार उठे गले को नजरअंदाज करके भी सिगरेट पीता रहूं. सिगरेट के प्रति आकर्षण की बात की जाए तो हो सकता है उसके लिए रेड एंड व्हाइट, पनामा, विल्स जैसी ब्रैंड्स के विज्ञापन कुछ हद तक दोषी रहे हों क्योंकि सिनेमा हॉलों में फिल्म से पहले इनके खूब विज्ञापन आते थे. इन विज्ञापनों में सिगरेट पीने वालों को असली मर्द बताया जाता था.
अब क्योंकि शरीर के भीतर से मर्दानगी जोर मारना शुरू कर चुकी थी, हो सकता है मेरे अवचेतन में स्क्रीन पर सिगरेट पीकर लड़कियों के दिलों पर कब्जा करने वाले नायकों की छवि घर कर गई हो. असली जीवन में मेरे लिए इन नायकों की बजाय कॉलेज की बाउंड्री के बाहर बनी कैंटीन में पढ़ने-लिखने में कम रूचि लेने वाले और कॉलर ऊपर कर सस्ती कमीजें और उन पर काले रंग के चमड़े के सस्ते जैकेट चढ़ाकर और एक अदद मोटरसाइकल (बुलेट होने पर दर्जा बढ़ जाता था) लिए उबले अंडों के साथ छोले-चने खाते हुए सिगरेट पीने वाले लड़के ही प्रेरणा का स्रोत थे.
मैंने तिवारी पान भंडार में तीन दिन लगातार जाकर और लोगों से थोड़ा छिप-छिपाकर खांसते गले के बावजूद दिन में तीन-तीन सिगरेटें पीकर अंतत: खुद में धुम्रपान की आदत डाल ली, हालांकि शुरुआती दिनों में पूरे दिन में एक-दो सिगरेट ही पिया करता था, लेकिन जैसे-जैसे ट्यूशन पढ़ाकर और बाद में फौज में नौकरी लग जाने से पैसा आना शुरू हुआ, सिगरेटों की क्वॉलिटी और संख्या भी बढ़ती गई. मैंने बहुत समय तक तो छिप-छिपाकर सिगरेट पी पर फौज में जाने के बाद से जैसे कि मुझे सर्टिफिकेट मिल गया हो. मैं घर में भी सिगरेट पीने लगा. लेकिन मामला सिगरेट तक ही सीमित नहीं था. शराब पीने का सिलसिला भी कॉलेज में ही शुरू हुआ.
मुझे पहली बार शराब पीने के बाद जो दिव्य अनुभूति हुई थी, उसकी स्मृति आज तक ताजा है. चूंकि मैं मन से बहुत संवेदनशील था इसलिए मुझे कविताओं, गीत-संगीत से बहुत लगाव था. पिथौरागढ़ में मेरे एक बहुत ही खास दोस्त है ललित अधिकारी. उसकी कपड़ों की एक दुकान है पुराने जमाने के केमू स्टेशन से बिल्कुल सटी हुई. उस दुकान में कभी वह तो कभी उसके बड़े भाई बैठते थे. ललित हालांकि कॉलेज में मुझसे एक साल सीनियर था पर हम साथ बैडमिंटन खेला करते थे और कविताएं सुनाते थे. मैं अक्सर उसके घर चला जाता. उसकी दुकान में भी अक्सर बैठना होता था. वह गाता भी अच्छा था और हारमोनियम बजाता भी अच्छा था. उसकी सुनाई एक गजल के बोल मुझे आज तक याद हैं – जब न माने दिल दीवाना, ढूंढकर कोई बहाना, तुम चले आना. उसके बड़े भाई भी संगीत के उतने ही शौकीन थे.
एक बार मुझे ललित ने होली के मौके पर अपने घर बुलाया. होली से पहले वहां घरों में बैठकी जमा करती थीं. हमारे ही कॉलेज में शायद कैमिस्ट्री के प्रोफेसर थे कर्नाटक साहब. वे हारमोनियम के साथ गजलें बहुत अच्छी गाया करते थे. उन्हें भी बुलाया गया था. वहां गया तो मैंने देखा कि एक लंबी टेबल पर चाय पीने वाली छोटी-छोटी शीशे की गिलासें सजी हुई हैं और पास ही बैगपाइपर की बोतलें रखी हुई हैं. वहां कई लड़के जमा थे. इधर कर्नाटक सर ने अलाप लगाने शुरू किए और उधर मेज में रखी हुई चाय पीने वाली छोटी-छोटी गिलासों में भरी शराब हमारे हलक में उतरने लगी. थोड़ी ही देर में कर्नाटक जी के सुर इतने दिव्य लगने लगे कि उनके हर अलाप के बाद मेरे मुंह से वाह वाह की लड़ी फूट पड़ती. सुर और शराब दोनों का मिलना जीवनभर न भूलने वाला अनुभव बनने वाला था. उस दिन वहां गाए होली के गीतों की लय, धुन और रस आज तक मेरे भीतर जस के तस अक्षुण्ण हैं. जीवन में कभी मुझे कुछ और उस तरह आनंद से सराबोर न कर सका. आज भी जब कभी मैं होली का ये गीत सुनता हूं – जल कैसे भरूं जमुना गहरी, ठाढ़े चलूं घर सास बुरी है, ढलके चलूं छलके गगरी, जल कैसे भरूं जमुना गहरी.
आनंद की जिन लहरों से मैं अंदर होली की सभा में झूम रहा था, कुछ देर बाद जब घर की ओर रवाना किया गया, क्योंकि देर हो रही थी और पहाड़ में पीने वाले कितने भी जहीन क्यों न हों लोग ज्यादा खतरा उठाते नहीं, मैं बाहर सड़क पर वैसे ही झूमता हुआ चल रहा था. सड़क पर सन्नाटा था और ठंड उतरी हुई थी. एक शराबी के गुनगुनाने के लिए इससे बेहतर समां और क्या हो सकता था भला. मैं एक एक कर अंदर गाए गाने गुनगुनाते हुए चल रहा था. कुछ दूर चलने पर मुझे सामने से आशुतोष पांडे आता दिखा था. लग रहा था कि वह भी मेरी तरह कहीं होली बनाकर आ रहा था. मेरे सामने पहुंच वह बहुत रहस्यमय तरीके से मुस्कराया जैसे कि उसे पता चल गया हो कि मैंने आज जीवन में पहली बार शराब पी थी. हालांकि वह मुंह से कुछ नहीं बोला. यह करीब सौ मीटर और पैदल चलने के बाद था कि अचानक मुझे अंदर से कुछ बाहर की ओर आता महसूस हुआ. अगले ही पल मैंने सड़क के किनारे नाली में एक लंबी सी याSSक की आवाज निकाली और खाया पिया सारा बाहर आ गया. आवाज लंबी थी इसलिए माल भी बहुत भीतर से बाहर आया. अंदर शायद ही कुछ बचा रह गया था. बाद में किसी अनुभवी ने मुझे बताया कि यह ठंडी हवा का कमाल था. उसने मुझे आगाह भी किया कि झूमने वाली स्थिति तक शराब पी लो अगर कभी, तो यह सुनिश्चित करो कि सिर पर ठंडी हवा न लगे. ठंडी हवा ही उलटी करवाती है. बहरहाल, उलटी का कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ा क्योंकि मेरे जेहन में उलटी की तुलना में जल कैसे भरूं जमुना गहरी के सुर की मिठास घुली रह गई. इस मिठास से बाहर निकलने में मुझे तीस साल लगने थे. (Sundar Chand Thakur Memoir 66)
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कवि, पत्रकार, सम्पादक और उपन्यासकार सुन्दर चन्द ठाकुर सम्प्रति नवभारत टाइम्स के मुम्बई संस्करण के सम्पादक हैं. उनका एक उपन्यास और दो कविता संग्रह प्रकाशित हैं. मीडिया में जुड़ने से पहले सुन्दर भारतीय सेना में अफसर थे.
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2 Comments
कमल लखेड़ा
बचपन से यौवन की ओर अग्रसर जीवन को सफलतापूर्वक उतार दिया लेखनी में ।
Prashant Nautiyal
बेरोजगारी, आर्थिक तंगी और सरकारी नौकरी की चाह ये तीन ही मुझे इस सुरचित कृती तक ले आये। जब से 18 का हुआ हूं दुनिया एक पहली सी लगने लगी,अब क्या करें,क्या ना करें,क्यूँ ना करें,वर्तमान को त्याग अनिस्चीत भविष्य की कठिन डगर पर चलें , या इन्ही गहरे गडढों (dark circle of eyes due to वो vCR )
के साथ सब कुछ समायोजित करते हुये। …….. गुरुवर ये सभी प्रश्न्न है उस किशोर के जो ग्रमीणअंचल से बहुत ख्वाबों के साथ बड़े सहर मे प्रवेश करता तो है जिन्दगी को जीतने के लिये परंतु लडाई उसके दिल और दिमाग तक ही सिमट के रह जाती है। ….. आपके मार्गदर्शन का आकाँक्षी …..prashant Nautiyal