पहाड़ और मेरा जीवन – 50
(पिछली क़िस्त: दसवीं बोर्ड परीक्षा में जब मैंने रात भर जागकर पढ़ा सामाजिक विज्ञान )
मुझे मुंबई में रहते हुए दस साल होने वाले हैं. यहां की कभी-कभी भयानक रूप ले लेने वाली बारिश को छोड़ दिया जाए, तो इस शहर में सबकुछ अच्छा ही है. यहां न बहुत गरमी होती है और न बहुत सर्दी. आप पूरे साल लगभग एक जैसे कपड़े पहन सकते हैं.
मैं दिल्ली से यहां आया था, सो स्वाभाविक है कि मेरे पास सर्दियों के बहुत कपड़े थे, पर मुझे कभी यहां एक हाफ स्वेटर भी नहीं निकालनी पड़ी. शुरू में तो अच्छा लगा कि दिल्ली की सर्दी नहीं झेलनी पड़ रही. वहां मैं ठंड से बचने के लिए एक के ऊपर एक चार-चार कपड़े पहनता था, जो कई बार दो-दो दिन तक नहीं उतरते थे क्योंकि नहाना मुल्तवी करने के चलते उन्हें उतारने की जरूरत नहीं पड़ती थी.
मुंबई में यह सजा नहीं थी. लेकिन यहां तीन-चार साल गुजर जाने के बाद मैंने महसूस किया कि ठंड को लेकर मेरे मन में हूक उठ रही है. मेरा शरीर ठंड को महसूस करना चाहता था. पहाड़ों में रहते हुए मेरे शरीर में ठंड की जाने कितनी स्मृतियां थीं. इसलिए तीन साल पहले मेरा जब ठंड में देहरादून जाना हुआ तो वहां बेसाख्ता मेरे मुंह से निकला कि मैं ठंड सेंकने आया हूं.
मुंबई में लगातार तीन-चार साल रहने के बाद कोई भी आदमी यही कहेगा, पर मैं जब तक पहाड़ों में रहा, तो ठंड में हमेशा मैंने धूप ही सेकी. उस पीली, मुलायम, ऊनी धूप की ऐसी यादें हैं कि याद करते हुए ही शरीर में उस धूप की मीठी ऊष्णता भरने लगती है.
जब तक मैं सद्गुरू निवास रहा, सुबह की धूप के लिए मुझे सुबह अपना कमरा छोड़ना पड़ा. हमारे उस छोटे से कमरे में शाम को ही धूप आती थी. सुबह की धूप के लिए हमें बीस-तीस मीटर ऊपर मकान मालिक की बिल्डिंग की शरण लेनी पड़ती. इस बिल्डिंग में ग्राउंड फ्लोर के सभी कमरे किराएदार छात्रों से भरे हुए थे.
जिस कोने में सबसे पहले धूप आती थी, उस कोने पर अमूमन वहां किराए पर रहने वाले एक लोहाघाट के डी. डी. जोशी जी कब्जा कर लेते थे. वे बेहद भीरू स्वभाव के थे और अपने स्वभाव के अनुसार ही महाविद्यालय से इतिहास में एमए कर रहे थे. मैंने उन्हें कमरे में हमेशा कुरते-पाजामे में देखा. कॉलेज निकलते तो एक बैलबॉटम टाइप पैंट के ऊपर कमीज बाहर निकली हुई रहती. लगभग वैसे ही जैसे अस्सी के दशक की कई फिल्मों में हमने अमोल पालेकर और विजय मेहरा जैसे कलाकारों को देखा है.
वे उस धूप के टुकड़े के नमूदार होते ही उस पर आ बैठते और दस-पंद्रह मिनट तक तो ब्रश ही करते रहते. ब्रश पूरा होते ही उनका स्टैंड वाला शीशा सामने खुल जाता और अब वे इत्मीनान से शेविंग करना शुरू करते. वे एक आराम कुर्सी में बैठे होते और सामने एक स्टूल रहता.
वे धूप के टुकड़े पर कुर्सी रखने के बाद ही अपना रेडियो भी चालू कर देते. पहले भजन चलते और फिर पुराने फिल्मी गीत. उस धूप के टुकड़े पर सभी की नजर रहती थी, पर जोशी जी उस पर कब्जा जमा लेते और जब तक वे छोड़ते तब तक कॉलेज जाने का समय हो जाता.
जोशी जी जिस तरह नियमित उस टुकड़े पर बैठते थे, उसे देखते हुए बाकी सभी लोगों ने मन ही मन यह मान लिया कि जैसे उस पर उन्हीं का पहला अधिकार है क्योंकि एक-दो बार मेरे जैसा कोई उनसे पहले भी उस टुकड़े पर पहुंच जाता, तो उन्हें कुर्सी पकड़ अपने कमरे से बाहर आते देखकर स्वयं ही टुकड़ा छोड़कर खड़ा हो जाता.
ऐसी मीठी धूप में बैठने की बात चली है, तो ठुलीगाड़ तो मुझे बरबस याद ही आ जाएगा क्योंकि वहां आंगन धूप की कोई किल्लत नहीं थी और हम धूप में घंटों बैठे रहते. चाय पीने से लेकर नाश्ता करने, च्यूड़े खाने और अमूमन भांग की चटनी से सने चूख और खेत की मूली खाने का सुख ठुलीगाड़ के आंगन की धूप में ही लिया. प्लेट भर-भरकर हमने चूख और मूली के इस दिव्य मिश्रण का भाग किया.
आपको थोड़ा ज्यादा लग सकता है, परंतु मैं सहज ही बता रहा हूं कि बिना पहाड़ों की वैसी मीठी धूप के न तो यह मिश्रण दिव्य बन पाता और न हम इसका इतना सुख ले पाते. भांग की चटनी जरूर कुछ हद तक इसे दिव्य बनाने में भूमिका अदा करती थी, पर असली काम वह धूप करती थी, जिसे आप पहाड़ों के अलावा कहीं नहीं खोज सकते और वह भी सिर्फ सर्दियों में.
मुंबई में रहते हुए धूप कभी हमारे जेहन में आती ही नहीं. न धूप आती है न उसका खयाल आता है. इस शहर में धूप देखने तक की फुर्सत नहीं मिलती, सेंकने की तो बात ही दूर. लेकिन पिथौरागढ़ चले जाओ तो शहर में पहुंचने से पहले फुर्सत आपके जीवन में उतर आती है.
अगर टनकपुर के रास्ते जाओ तो टनकपुर से ही वह आपके साथ हो लेती है क्योंकि चंपावत, लोहाघाट में जो गाड़ी से उतरने के बाद धूप में आप अंगड़ाई भरकर दुकानों का मुआयना करोगे और अंतत: यह फैसला करते हुए कि चलो कुछ खा ही लेते हैं आप रेस्टोरेंट, ढाबे या खोमचे में बैठे हुए साफ महसूस करोगे कि फुर्सत भी आपके साथ ही बैठी हुई है क्योंकि आपको कोई हड़बड़ाहट नहीं होगी.
दिल्ली मुंबई में आप जितनी जल्दी गंतव्य तक पहुंच जाना चाहते हो, पहाड़ों में इसका ठीक उलटा होता है. आप खुद ही खुद को ड्राइवर को “भैया जरा धीरे चलाओ न” कहते हुए सुनोगे. ये अलग बात है कि आपकी बात का ड्राइवर के कान पर जूं तक नहीं रेंगेगी क्योंकि शहर के लोगों का वहां इस तरह ‘भैया धीरे चलाना जरा’ कहे जाने का वह अभ्यस्त है, पर उसे तो दिन भर का धंधा करना होता है.
अगर टनकपुर छोड़कर काठगोदाम की तरफ से आप पिथौरागढ़ आते हैं, तो वहां भी काठगोदाम से ही फुर्सत आपके साथ हो लेती है. दन्या पहुंचकर वह आपके साथ ही घी के पराठों और रायते का रसास्वादन करती है. पिथौरागढ़ पहुंचने तक रात हो जाना लाजिमी है. पर रात के बाद सुबह भी तो होनी होती है और सुबह होती है, तो धूप भी आती है.
मैं जब तक पिथौरागढ़ रहा, मैंने सर्दियों में इसी धूप का इंतजार किया. धूप आती थी और मैं अपनी फुर्सत के साथ उस पर निढाल हो जाता था. धूप में बैठने के लिए मेरे पास कुर्सी हमेशा रही. और कुर्सी पर बैठकर धूप सेंकने का पूरा मजा लेने के लिए रेडियो भी हमेशा रहा.
उन दिनों कड़क जाड़ों में अदरक वाली चाय से काम नहीं चलता था, तो कॉफी बनाई जाती. जाने कितनी देर तक कॉफी के पाउडर में चीनी मिलाकर चम्मच से उसे फेंटा जाता, यह मानते हुए कि जितनी देर तक उसे फेंटा जाएगा, कॉफी बनने के बाद उतना ही दिव्य स्वाद देगी. कई बार तो हमने कॉफी भी गुड़ या मिसरी की कटकी के साथ पी है.
पिथौरागढ़ की वह उजियारी धूप कभी मेरे जहन से जा न सकी. और मुंबई में रहते हुए तो उस धूप की इस तरह याद आती है जैसे नापसंद आदतों और वैसा ही भोजन करने वाले लोगों से भरे ससुराल में कुछ महीने पहले ही ब्याह कर आई चटोरी बहू को अपनी हंसमुख और उतनी ही चटोरी मां के हाथ के खाने की याद आती है.
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सुन्दर चन्द ठाकुर
कवि, पत्रकार, सम्पादक और उपन्यासकार सुन्दर चन्द ठाकुर सम्प्रति नवभारत टाइम्स के मुम्बई संस्करण के सम्पादक हैं. उनका एक उपन्यास और दो कविता संग्रह प्रकाशित हैं. मीडिया में जुड़ने से पहले सुन्दर भारतीय सेना में अफसर थे.
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