पहाड़ और मेरा जीवन – 46
(पिछली क़िस्त: मुझे जिंदा पाकर मां ने जब मुझ पर की थप्पड़ों की बरसात)
एनसीसी से अपने संबंध के बारे में मैं बता ही चुका हूं. मैंने एनसीसी के कुल सात कैंप अटैंड किए. तीन कैंप तो मैंने एक ही साल में कर डाले. यह वही साल था जिसमें मुझे दसवीं की बोर्ड परीक्षाएं भी देनी थीं. अक्टूबर-नवंबर से लेकर जनवरी का महीना खत्म होने तक मैं एनसीसी के कैंपों में ही था और मार्च में बोर्ड परीक्षाएं थीं. मैं मात्र तीन अंकों से प्रथम श्रेणी यानी फर्स्ट डिविजन लाने से वंचित रहा. उन दिनों फर्स्ट डिविजन का बहुत ज्यादा महत्व था. पूरी क्लास में पांच-छह छात्रों की ही फर्स्ट डिविजन आ पाती थी और उन्हें पूरे जिले में बहुत सम्मान से देखा जाता था. उन दिनों मोबाइल नेटवर्क न होते हुए भी किसके कितने नंबर आए यह लोगों को पता लगने में देर नहीं लगती थी. ये वे दिन थे जबकि मेरे लिए जीवन का अर्थ मेरा वर्तमान होता था. वह अगर अच्छा है, तो सब अच्छा है. भविष्य के बारे में मैंने बारहवीं करने के बाद ही सोचना शुरू किया. (Sundar Chand Thakur Memoir 46)
मेरा पहला एनसीसी कैंप रानीखेत के पास मजखाली नामक जगह पर लगा था. एक और कैंप रातीघाट में लगा. इसके बाद एक कैंप बनबसा में भी लगा. पर सबसे बड़ा कैंप, जिसे कि हम प्रि रिपब्लिक डे कैंप कहते थे, लखनऊ में लगा. इन कैंपों के बड़े किस्से हैं. इन कैंपों में एक पांच किमी की दौड़ हुआ करती थी. बहुत लंबे समय तक इस दौड़ पर हेमराज और बाद में मेरे साथ ही फौज में अफसर बने दीपक उप्रेती का कब्जा रहा. क्या दौड़ते थे ये लोग. पांच किमी की दौड़ सत्रह-अठारह मिनट में ही पूरी कर देते. मुझे याद नहीं वे लोग जूते कौन से पहनते थे, पर मैं उन भूरे रंग के सरकारी पीटी शूज में ही दौड़ता था. ( Sundar Chand Thakur Memoir 46)
लखनऊ के कैंप में जब मुझे यह मालूम चला कि यहां बेस्ट कैडेट का चुनाव होने वाला है, जो दिल्ली के गणतंत्र दिवस कैंप में दूसरे राज्यों के बेस्ट कैडेटों से मुकाबला करेगा, तो मैंने मन ही मन फैसला किया कि मैं हर हाल में सबसे आगे रहूंगा. चुनाव के लिए बहुत सारे मानदंड थे, जिनमें सांस्कृतिक कार्यक्रमों में भागीदारी, वादविवाद प्रतियोगिता, कैंप के दौरान अनुशासनपरक बर्ताव के साथ पांच किमी की दौड़ भी शामिल थी. कुछ कर दिखाने के जज्बे से भर जब मैंने अगले दिन दौड़ की प्रतिस्पर्धा में दौड़ना शुरू किया, तो तेज दौड़ने की कोशिश में थोड़ी ही दूरी के बाद मेरे पेट में मरोड़ उठने लगी. संयोग से उस दिन ठंड के चलते मैं मफलर बांधकर दौड़ रहा था. मैंने उसी मफलर को कमर पर बांधकर खींच दिया ताकि पेट दब जाए और उसमें उठ रही मरोड़ें बंद हो जाएं. मरोड़ें बंद तो नहीं हुईं, पर मनोवैज्ञानिक रूप से मुझे लगा कि वे कुछ तो कम हो गई थीं. इस अहसास ने कम होती गति को थोड़ा बढ़ाने में मेरी मदद की.
दौड़ खत्म करने तक दस प्रतिद्वंद्वियों में मैं दूसरे नंबर तक पहुंच चुका था. सांस्कृतिक कार्यक्रम के नाम पर मैं पहाड़ी लोकनृत्य की टीम में शामिल हो गया और हमने ‘नरसिंह बाज्यो, तुतरी बाजी, नागड़ा बाज्यो, बाज्यो’ पर पहाड़ी नृत्य किया. मैं आज भी कह सकता हूं कि सभी भाग लेने वालों में से सबसे खराब नृत्य करने वाला मैं ही था. मैं शायद तब सनी देओल से भी ज्यादा खराब नृत्य करता था लेकिन लोकनृत्य में खराब नृतकों को छिपाने की पूरी गुंजाइश होती है. मुझे इसी गुंजाइश का लाभ मिला. वादविवाद प्रतियोगिता में मैंने जजों पर अपना असर जमाने के लिए अंग्रेजी में बोलने की कोशिश करने वाली अपनी गलती को सुधारा और हिंदी में ही बोला. हिंदी का जादू जजों के सिर चढ़कर बोला. मैं दूसरे नंबर पर रहा. अनुशासन के मामले में भी मुझे अच्छे अंक मिले क्योंकि मेरे खिलाफ एक भी शिकायत नहीं थी.
अनुशासन की बात पर मुझे बरबस एक घटना याद आ जाती है. पिथौरागढ़ में रहने वाले लोग जीतेंद्र यानी जीतू को जानते होंगे. वह पिथौरागढ़ के नामी व्यक्तित्व इतिहासविद डॉ. रामसिंह जी का छोटा बेटा है. उन दिनों वह स्कूल में मेरा जूनियर हुआ करता था. एक दिन जबकि सभी लड़के परेड के लिए ग्राउंड में जमा हुए थे, वह गायब था. किसी का गायब होना बहुत संगीन मसला था. अफरा-तफरी मची और सभी को उसे ढूंढने के काम में लगा दिया गया. कुछ देर बाद मालूम चला कि वह अपने टैंट में ही किट बैग के भीतर छिपा हुआ मिला. उसने ऐसा क्यों किया, यह तो पता नहीं, पर इस अनुशासनहीनता के चलते उसे तुरंत ही वापस भेज दिया गया. वह अगर रहता तो जूनियर डिविजन से गणतंत्र दिवस में शामिल होने वाला वह पिथौरागढ़ से दूसरा कैडेट हो सकता था.
जहां तक सीनियर डिविजन की बात थी, तो पिथौरागढ़ से दो लड़के थे और संयोग देखिए कि वे दोनों बाद में भारतीय सेना में भी मेरे साथी बने. संदीप सेन और दीपक उप्रेती. संदीप सेन मुंबई में आतंकी हमले में नरीमन हाउस में चले कमांडो ऐक्शन का कमांडर था और एक साल पहले ही सेवानिवृत्त हुआ है जबकि दीपक उप्रेती कर्नल साहब होकर अभी भी सेना को अपनी सेवाएं दे रहा है.
एक दूसरा किस्सा हेमराज सिंह, दीपक उप्रेती व उनके कुछ अन्य साथियों से जुड़ा है, जिनमें से अधिकांश के नाम मुझे याद नहीं. उनमें एक खड़ायत भी था, जो पूरे नाटक का सूत्रधार था. लखनऊ में वे ठंड के दिन थे. नवंबर के आखिरी दिनों में ठंड खासी बढ़ जाती है और पहाड़ में सूरज अस्त पहाड़ी मस्त का प्रकोप उन दिनों भी उतना ही फैला हुआ था, जितना कि आज. सीनियर डिविजन के लड़कें रात को यदा-कदा अपने तंबुओं में बैठकी कर लेते थे. उन दिनों किसी के पास पैसे तो होते नहीं थे, तो आपस में जमा करके बाहर से कोई सस्ती-सी बैगपाइपर किस्म की दारू लाई जाती थी और उबले हुए अंडों के साथ जैसे-जैसे वह उदर में उतरती थी वैसे-वैसे ही मन में उत्पात मचाने की इच्छा बलवती होती जाती थी.
ऐसे ही किसी रोज जबकि उबले हुए अंडों के साथ बहुत सारी बैगपाइपर उदरस्थ कर ली गई थी और उत्पाती दिमाग को कुछ सूझ नहीं रहा था खड़ायत मेरे तंबू में आया. मैंने तभी खाना खाकर स्टील की प्लेट एक ओर रखी थी. उन दिनों बहुत ज्यादा पी लेने के बाद उम्रदार लोगों में तो दो ही किस्म के बर्ताव प्रचलन में थे- या तो बहुत ही भावुकता भरा कि यार दुनिया इधर की उधर हो जाए पर हम दोनों भाई कभी एक दूसरे का साथ नहीं छोड़ेंगे या बड़बोले गुस्से भरा जब बंदा पूरी दुनिया की ऐसी कम तैसी कर रहा होता है. लेकिन लड़के न ज्यादा भावुक होते थे और न ही गुस्सा करते थे. वे सिर्फ उत्पात मचाते थे. अब इसे क्या कहेंगे कि ठीक उस वक्त जबकि खड़ायत थोड़ी भावुकता में बकबयानी कर रहा था, तंबू में उप्रेती ने एंट्री मारी और इससे पहले कि हमें कुछ मालूम चलता है हमें तड़ तड़ थाली में पानी गिरने की आवाज सुनाई पड़ी. यार भाई माफ करना तेरी थाली में मूत रहा हूं! हमारी नजर पड़ने पर उप्रेती नशे से भरे चेहरे पर पूरे भोलेपन के साथ बोलता है. उसके ऐसा कहने तक तंबू में हेमराज के साथ एक-दो लड़के और प्रवेश कर जाते हैं और उप्रेती का कारनामा देख उसे मना करने की बजाय खुद भी चालू हो जाते हैं. शराब पीने के बाद ऐसी दुर्गति होने वाली हुई लौंडों की. भला हो हेमराज का जो उन्हें किसी तरह रोककर बाहर ले जाता है. उप्रेती आज भी जब-तब मेरे सामने सीनियर होने के दिखावटी फक्र के साथ उस घटना का जिक्र करता है और हर बार मैं उससे यही पूछता हूं कि भाई यह तो बता दे कि थाली में मूतकर तू साबित क्या करना चाहता था!
लखनऊ के कैंप के खत्म होने तक हर तरह की छंटनी हो चुकी थी. मुझे बेस्ट कैडेट का खिताब मिला था. मेरे पीछे एक सेकंड बेस्ट कैडेट भी था. अब हमें यूपी की ओर से दिल्ली में ऑल इंडिया बेस्ट कैडेट की प्रतिस्पर्धा में हिस्सा लेना था. दिल्ली पहुंचने तक कड़ाके की ठंड शुरू हो चुकी थी. देश के हर राज्य से कैडेट आए हुए थे. हर राज्य के पहले दो कैडेटों को अगली सुबह ही बुला लिया गया. उनमें से एक को ऑल इंडिया कमांडर बनाया जाना था. इसके लिए उन्हें परेड करने और कमांड देने का टेस्ट देना था. परेड करने में मेरा कोई सानी न था. जैसा कि आप लोगों ने वाघा बॉर्डर पर भारतीय और पाकिस्तानी जवानों को कदमताल करते देखा ही होगा, मैं उनसे थोड़ा ही कमतर था. मेरे पिताजी फौज में थे, मेरे दादाजी फौजी रहे थे, जाहिर है इसका कोई असर मुझ तक भी पहुंचा ही होगा.
गले की बजाय पेट से आवाज निकालकर कमांड देना मुझे एनसीसी के भैंसोरा सर ने सिखाया ही था. करीब चालीस कैडेटों का टेस्ट हुआ और टेस्ट के उपरांत मुझे सामने बुलाकर एक खास स्टिक दे दी गई. यह ऑल इंडिया कमांडर की स्टिक थी. हमारे साथ आए एनसीसी के अफसरों ने कहा यह उनके लिए बहुत फक्र की बात थी कि उनकी बटालियन (80 यूपी बटालियान, पिथौरागढ़) के कैडेट को यह खिताब मिला है. इस खिताब ने और भले ही कुछ किया हो या नहीं, पर मेरे आत्मविश्वास को इसने बहुत बढ़ा दिया. यही आत्मविश्वास आने वाले भविष्य में मुझे विपरीत स्थितियों के खिलाफ लड़ने को तैयार करने वाला था. बावजूद इसके कि एनसीसी में मुझे मिले सभी पदक और अवॉर्ड कोई बदमाश हमारे कमरे का ताला तोड़कर चोर ले गया, गणतंत्र दिवस कैंप में ऑल इंडिया कमांडर बनने से मुझे मिला आत्मविश्वास हमेशा बना रहा.
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सुन्दर चन्द ठाकुर
कवि, पत्रकार, सम्पादक और उपन्यासकार सुन्दर चन्द ठाकुर सम्प्रति नवभारत टाइम्स के मुम्बई संस्करण के सम्पादक हैं. उनका एक उपन्यास और दो कविता संग्रह प्रकाशित हैं. मीडिया में जुड़ने से पहले सुन्दर भारतीय सेना में अफसर थे.
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