कला साहित्य

उमेश तिवारी ‘विश्वास’ की कहानी चूहा

वहाँ ज़रूर कुछ अनोखा था. ड्राइव वे की तरफ़ वाला दरवाज़ा आधा खुला और मेरी पत्नी ने दबी ज़ुबान में पुकारा, “ओ सुनो..जल्दी बाहर आओ, तुमको एक चीज़ दिखाती हूं.” मामला फल-सब्ज़ी का होता तो निश्चित ही इस ड्रामाई अंदाज़ की आवश्यकता न पड़ती. उसके स्वर में छुपे कौतूहल को पढ़ना मेरे लिए ज़्यादा मुश्किल न था. वहाँ सचमुच कुछ अनूठा होना चाहिए, मैंने सोचा. हम थोड़े समय के लिए बंगलुरु आ गए थे. मैं कंपनी के काम से यहां आया था. यही कोई छह-एक महीने का असाइनमेंट था. कंपनी का मुख्य कार्यालय नागरभावी इलाक़े में था दूसरा हेब्बाल में. हम लोग ऑफिस के आसपास एक सर्विस अपार्टमेंट खोज रहे थे कि दफ़्तर में   मनीष सनवाल से मुलाकात हो गई. उसका परिवार अरसे से बंगलौर में निवास कर रहा था. भाई ने आर टी नगर में, अपने घर के पास ही विला टाइप घर दिलवा दिया. गृहस्वामी अमेरिका में रहते थे, कोई झंझट  नहीं था. यहाँ से मेरे दोनों ऑफिस लगभग बराबर दूरी पर थे. पत्नी इसलिए ख़ुश कि नैनीताल से इतनी दूर आकर भी पहाड़ के लोग मिल गए. मैं चप्पलों को लगभग घसीटता हुआ बाहर को लपक लिया.
(Stroy by Umesh Tiwari)

सामने कन्नन अंकल का पूरा परिवार गेट के बाहर जमा था. दृश्य मज़ेदार  था, कन्नन जी एक चूहे को पूँछ से लटका कर पकड़े हुए थे. उनकी पत्नी, बहू, बेटा और पोता-पोती उनको घेरे हाथ जोड़ कर खड़े थे. सभी सदस्य कुछ  बुदबुदा रहे थे. टेक पद की तरह दोहराया जा रहा ‘हे गणेशा’ आसानी से हमारी पकड़ में आ गया पर शेष संवाद तमिल में थे जो स्वाभाविक रूप से हमारी समझ से बाहर थे. चूहा जीवित था और असहज मुद्रा में होने से बीच-बीच में बिलबिला कर हाथ से छूटने का प्रयास करता तो कन्नन अंकल होंठों को सिकोड़ कर पुच्च-पुच्च कर देते मगर पकड़ यथावत बनी रहती. शेष सदस्यों पर भी इसका कोई विशेष असर न होता, बस, बच्चे दबे स्वर में ‘उइ-उई’ कर रिएक्ट करते. एक बार लगा चूहे ने उनकी पकड़ से छूटने का ज़ोरदार प्रयास किया जिसपर अंकल के मुंह से क्षमाभाव के साथ ‘हे गणेशा’ उच्चारित हुआ और उन्होंने चूहे को बाँये हाथ की हथेली पर बिठा कर दायीं से ढक लिया. अन्य सदस्यों के सिर श्रद्धा भाव से कुछ अधिक झुक गए. 

हमारे घरों के बीच की सड़क पर रह-रह कर गुज़रते वाहनों की ओट बनाकर पत्नी खित्त से हंस लेती. मैं इस खेल में शामिल था,पर जता रहा था जैसे प्रदूषण की जांच करने घर से बाहर निकला हूं. चोरी-छुपे बेगाने आयोजन में ताक-झाँक करना मेरी सुघड़ रुचि को शायद जँच नहीं रहा था. उनके घर का चूहा, उनकी श्रद्धा, पड़ोसी कौन होते हैं लुत्फ़ उठाने वाले! हाँ, बगल के डबल स्टोरी मकान की बुर्क़ाधारी युवती फ़ोन पर ज़ोर-ज़ोर से कन्नड़ में बतियाती जिस तरह बारम्बार छज्जे में पलट आ रही थी, उससे लगता था कनखियों से इस तमाशे का मज़ा ले रही है. मेरी पत्नी स्वभाव से उत्सवप्रिय कुमाऊनी महिलाओं जैसी ही है, उसके कौतूहल का कोई ओर-छोर न था.

हमें कॉलोनी में आए पंद्रह-बीस दिन ही हुए पर अब तक वो आसपास चार उत्तराखंडी परिवारों को खोज चुकी थी. सेना के पूर्व अधिकारियों की सोसाइटी होने से उत्तर से दक्खिन तक लगभग सभी प्रांतों का प्रतिनिधित्व था यहाँ. गढ़वाल के मूल निवासी रिटायर्ड कर्नल चमोली, कन्नन साहब के दूसरे पड़ोसी थे जिनके माध्यम से मेरी पत्नी कन्नन साहब के परिवार तक परिचय का दायरा पहले ही बढ़ा चुकी थी. “देखो गणेश भगवान को कितना मानते हैं यहाँ!”, मुस्कुराती हुई वह मेरे कान में फुसफुसाई. जितना मैं अपनी पत्नी को जानता हूँ, वो धार्मिक प्रवृत्ति की अवश्य है पर चूहा सामने पड़ जाए तो पटकाने में शायद देर नहीं लगाएगी. ठीक है, चूहा है, गणेश जी का वाहन है, इसका मतलब ये थोड़ी न है कि हर चूहे को गणेश जी की तरह पूजा जाए. हमारे नार्थ में महादेव शंकर जी के वाहन साँड को श्रद्धा और प्यार से नंदी बैल कह कर बुलाते हैं. उसे भगाना हो तो डंडे मारने के बजाय पानी के छींटे मारते हैं पर उसकी पूजा करने सड़कों पर नहीं उतर आते, न ही उसके गोबर की शिकायत लगाने से गुरेज़ करते.
(Stroy by Umesh Tiwari)

सच तो ये है ख़ुद मुझे, चूहों के मुक़ाबले सांड अधिक पसंद हैं. ये मौक़ा-ए-वारदात से झट ग़ायब नहीं हो जाते. चूहों के बाबत जितना ज्ञान मुझे है; ये देखते-देखते जानी-पहचानी जगह भी एक अनदेखे छिद्र में अलोप हो जाते हैं. बाई द वे, मैं ये ज़रूर सोच रहा था कि दबोचने से पहले, अंकल ने किस विधि से उसे अधमरा किया होगा… पत्नी धीरे से सड़क क्रॉस कर कन्नन फ़ैमिली गैदरिंग का हिस्सा बन गयी.

मुझे इसका एक स्ट्रैटेजिक फायदा हुआ. मुख्य मंच पर गेस्ट अपीयरेंस मारती धर्मपत्नी के अनुगमन के बहाने मैं सीन दर सीन उद्घाटित होते ड्रामा का भी बोनाफ़ाइड दर्शक बन गया. हसन साहब के छज्जे पर अब एक और उम्रदराज़ महिला नमूदार हुईं, जो भूतल पर मंचित हो रही नाटिका का बिंदास नज़ारा लेने लगीं. कन्नन अंकल की बहू से सटकर खड़ी मेरी पत्नी ऐसा भाव झलका रही थी मानो सत्यनारायण कथा के निमंत्रण में आई हो. मुस्कान दबा कर वो यथासंभव कातर स्वर में ख़ुद भी, “माफ़ करना गणेशा… माफ़ करना”, दोहरा रही थी. प्रोटोकॉल के अनुरूप घेरे की कड़ी बनी मेरी फन लविंग पत्नी अपने जुड़े हाथों की मुद्रा में मामूली फेरबदल कर, मुझे भी सड़क पार के इस अनुष्ठान में शामिल होने का आमंत्रण दे रही थी. इस मरहले पर घर के अंदर मेरा सेल फोन बज उठा. मैं पलट कर अंदर आ गया. अख़बार के बचे पन्नों को देखने का ये अच्छा अवसर था. आधे घंटे बाद वो वापस लौटी तो हंस-हंसकर दोहरी हुई जा रही थी, “ओ सुनो.. कमाल ही हो गया, तुम तो घर में घुस गए. असली मज़ा तो बाद में आया. तुमने ज़िदगी में ऐसा नहीं देखा होगा. अंकल चूहे को घर के मंदिर में ले गए, जहाँ सबने बारी-बारी अंकल की बाँह पर अपनी मुंडी छुआ कर “हे गणेशा माफ़ करना-माफ़ करना हे गणेशा” बोला. फिर काफ़ी देर आपस में जाने क्या ‘इकड़े-दुकड़े’ हुआ. बहू ने मुझे बताया कि चूहे को केसरवानी गल्ला स्टोर के पिछले गेट पर छोड़ने का तय हुआ है. उसके बाद चूहे को हथेलियों में छुपा कर अंकल आगे-आगे और पीछे से पूरा परिवार पिछले दरवाज़े से निकल गया, मैं इधर को खिसक आई.“ अब वो फ़िर खित-खित हँस रही थी.

इस समूचे ऑपेरशन का मंतव्य मेरी समझ में कुछ यूं आ रहा था; कन्नन साब चूहे से छुटकारा तो चाहते थे पर किसी क़िस्म के पाप के भागीदार बने बिना. चुहिया की क़िस्मत में जीना लिखा हो तो अनाज के बोरों से पटी लाला की दुकान में मौज करे और जो मरना हो तो किसी भूखे बिल्ले का निवाला बने. बस, उसे घर-बदर करने या मार डालने का पाप उनपर न चढ़े. धन्य है अपना हिंदुस्तान ! सहसा वो गंभीर हो गई, “ओ सुनो, मैंने कम से कम तीन या चार तो मारे ही होंगे… क्या सोचते हो, मुझे पाप लगेगा ?” आम तौर पर इस श्रेणी के प्रश्नों के उत्तर में वो ‘अरे छोड़ो, मस्त रहो’ सुनती आई है पर मुझे शरारत सूझी,  “सोचना क्या, पाप तो लगता ही है. तुमने जैनियों को देखा है ? वो नाक-मुँह ढक के रखते हैं, कहीं कोई छोटा सा कीट भी अनजाने में उनके मुँह में न प्रवेश कर जाये. कहा है जीव हत्या से बड़ा कोई पाप नहीं है, अहिंसा परमो धर्म:.” “रहने दो, घर के कॉकरोच, चूहे और मच्छर-मक्खी मारने में कोई पाप-साप नहीं होता. वो अगले जनम में उच्च योनि में आते हैं बल.” वो लगभग गंभीर हो गई. मुझे अफ़सोस हुआ कि उसके अच्छे-खासे मूड का कबाड़ा कर डाला. मेरा सेल फ़ोन बजा. दफ़्तर की  कॉल थी. लंच बाद की मीटिंग का टाइम साढ़े छह बजे हो गया था. अब ड्राइवर को मेरे पास पाँच बजे आना था.

गाड़ी में बैठे, सुबह का एपिसोड मेरे मस्तिष्क में फ़िल्म की तरह चल रहा था. कैसे अद्भुत वाशिंदों और उनकी अनोखी सोच से बनता है मुल्क हमारा ! गणेश का वाहन होने के नाते चूहे की भी पूजा की जाती है. चूल्हे से निकलने वाली पहली रोटियाँ अग्नि, गाय और श्वान की होती हैं. सूरज, चंदा, तारे, नदी, पर्वत सब हमारे पूजनीय हैं. इतने धर्म, हज़ार भाषा-बोलियां, विश्वास, त्यौहार, रीति-रिवाज, आस्थाएं, पूजा पद्यतियाँ. कितने सहिष्णु और शांतिपूर्ण सहअस्तित्व में विश्वास रखने वाले हैं हम हिंदुस्तानी ! के आर मार्केट को पीछे छोड़ गाड़ी मैसूर रोड पर आ गयी थी. “डेनियल हाऊ इज यौर वाइफ नाउ ?” उसकी नर्स पत्नी कुछ दिनों से बीमार थी. “अबी ठीक है सार. ऑफिस से थ्री डेज़ का लीव मिल गया”, वह ख़ुश लग रहा था.
(Stroy by Umesh Tiwari)

मीटिंग आरम्भ होने में थोड़ी और देर हुई. दिल्ली से कंपनी के वाईस प्रेसिडेंट को ला रही फ्लाइट लेट थी. आख़िरकार मीटिंग शुरू हुई और ख़त्म भी. कॉन्फ्रेंस रूम से बाहर आते-आते साढ़े आठ बज गए. रिसेप्शन के पास असामान्य अफ़रातफ़री देख कर मुझे थोड़ी हैरानी  हुई. तभी एच आर इंचार्ज मेरे बहुत क़रीब आकर बोला, “सर आपका ड्राइवर आलरेडी गाड़ी में है. सुना है पीछे सड़क पर गोली चली है, इससे पहले पुलिस इधर का रास्ता कॉर्डन ऑफ करे, आप निकल लें. फॉलोअप मीटिंग कल हेब्बाल ऑफिस में करेंगे, आई विल कन्वे टाइम आँन फ़ोन सर.” मैंने अधिक दरियाफ़्त करना उचित नहीं समझा और नीचे उतर कर सीधे गाड़ी में बैठ गया. पार्किंग से बाहर निकलते ही मैंने ड्राइवर से पूछा, “ये गोली किधर चली है डेनियल, किसी को लगी क्या?” “पीछे स्ट्रीट में गोली चला सार. दो यांग्स्टर एक लेडी को मार कर भाग गया. हेल्मेट पहना हुआ था…  साला चूहा !” वो काफ़ी उत्तेजित था, ग़ुस्से में लगा. “कुछ मालूम लेडी की हालत कैसी है?” मुझसे रहा नहीं गया. “उसको हॉस्पिटल लेके गए. तीन-चार गोली मारा, एक गोली हैड में लगा है करके बोलते, रासकल्स !” वो  भभक उठा. मैं चुप हो गया, डेनियल को ज़्यादा कुरेदना ठीक नहीं था अब. मेरा फ़ोन बजा, पत्नी ही थी, “ओ सुनो राज राजेश्वरी नगर तुम्हारे औफिस के पास ही है क्या?… वहाँ किसी ने एक औरत को सड़क पर गोली मार दी है. कोई कन्नड़ पत्रिका की संपादक बता रहे हैं लेडी को, छि ये भी कोई तरीका हुआ! टी वी में आ रहा है… उज्या, गौरा नाम है, गौरा महेश. नाम भी कितना सुंदर है. शिबौ-शिब क्यों मारा होगा उस बिचारी को? गोली मार कर मोटरसाइकिल में भग गए बल दुष्ट.” मैं स्तब्ध रह गया. गौरा महेश की शख़्सियत को दुनिया जानती है. वो अंग्रेज़ी और कन्नड़ की एक जानी-मानी पत्रकार, समाजसेवी और वामपंथी एक्टिविस्ट रही हैं. सुबह मेरा मानस, देश की जिस विविधता और सहिष्णुता के क़सीदे पढ़ रहा था, वही शाम को मेरे सामने विकृत, औंधे मुँह पड़ी थी. लगा ये हमला एक सांस्कृतिक आघात है जिसका घाव  लंबे समय तक दुखता रहेगा.  

गाड़ी असामान्य रूप से तेज़ चला रहा था डेनियल. केंगेरी डायवर्जन पहुँचने में हमें अन्य दिनों की अपेक्षा काफ़ी कम समय लगा पर यहाँ भारी ट्रैफ़िक था. अचानक बाँये से आकर किसी ने गाड़ी तिरछी कर हमारे आगे लगा दी. डेनियल विचलित तो था ही, तेज़ी से उतर कर आक्रामक अंदाज़ में कार की ओर लपका. लगा वह ड्राइवर पर हाथ छोड़ देगा. मैंने उचक  कर ज़ोर से हॉर्न दबा दिया. डेनियल ने मुड़ कर मुझे घूरा और वापस आकर ड्राइविंग सीट पर बैठ गया. “लेफ़्ट ही ले लो डेनियल!” मेरे मुँह से निकला. घर के लिए तो सीधे मैसूर रोड पर जाना था. उसने सवालिया निगाहों से मेरी ओर देखा. मेरे दिमाग़ में पहले ही जाने कितने प्रश्न घुमड़ रहे थे. उलझे सवालों का ही दिन था आज. मेरी मान्यताएं ध्वस्त हो रहीं थी, विश्वास दरक रहे थे, एक हार का एहसास तारी हो चला था. “जस्ट लाइक दैट. एक चक्कर लगा कर वापस लौटते हैं.” मुझे कोई ढंग का जवाब नहीं सूझा. दरअस्ल मैं इस मूड में घर न जाकर,  कुछ देर अकेले किसी पार्क में शांति से बैठना चाहता था. डेनियल के व्यवहार से मैं कुछ चकित ज़रूर था. पूछ ही लिया, “डेनियल तुम इस शूट-आउट से कुछ अपसेट हो गए थे, है ना? क्या तुम मैडम को जानते थे?” “नहीं सार ऐसा कोई मैटर नहीं है, मैं मैडम को जानता नहीं. माहौल ख़राब हो जाता तो छोटा आदमी फालतू विक्टिम बन जाता. अभी जितना लोग पार्किंग लॉट में था, पोलिस सबको पकड़ कर पूछताछ करेगा.” उसकी आवाज भर्रा रही थी. ठीक ही तो कह रहा था वो. मुझे लगा कहने को कुछ और भी है उसके पास, “तुमने कुछ देखा क्या? डेनियल साफ़-साफ़ बताओ ना.” मैंने यथासंभव संयत होकर पूछा. “नहीं मैं कुछ नहीं देखा, प्लीज़ सार! मॉर्निंग को पेपर में सब पढ़ने को मिलेगा ना.“  उसका लहज़ा अब कुछ सख़्त था. तभी पत्नी की कॉल आ गई:

“… ओ हेलो, किससे बातें करने लगे थे? फ़ोन भी काटा नहीं, कहाँ हो ?”

“रास्ते में हूँ. आधे-पौने घंटे में पहुँचता हूँ. तब तक ज़रा अंकल की बहू के साथ दुकान जाकर उनके चूहे का सुराग तो लो…”

“पागल हो क्या ! वो दिखेगा भी अब ?”

“देखो, कहीं केसरवानी भोग न लगा रहा हो !”

वो हँस रही थी, हमेशा की तरह खिलखिला कर. उसने शायद तनाव की जड़, टी वी को बंद कर दिया था.
(Stroy by Umesh Tiwari)

उमेश तिवारी ‘विश्वास

हल्द्वानी में रहने वाले उमेश तिवारी ‘विश्वास‘ स्वतन्त्र पत्रकार एवं लेखक हैं. नैनीताल की रंगमंच परम्परा का अभिन्न हिस्सा रहे उमेश तिवारी ‘विश्वास’ की महत्वपूर्ण पुस्तक ‘थियेटर इन नैनीताल’ हाल ही में प्रकाशित हुई है.

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