अब से चालीस एक साल पहले हल्द्वानी क़स्बा खनन माफिया, भू-माफिया किस्म के लोगों का शहर नहीं हुआ करता था. अलबत्ता छोटे-मोटे अपराधी खैर और शराब की तस्करी जरूर किया करते थे और इसे अपराध ही माना जाता था. इस तरह के कामों में लिप्त लोगों को बुरी नजर से ही देखे जाने का चलन था.
इन दिनों हल्द्वानी क़स्बा पहाड़ और मैदान की जरूरतों का सामंजस्य भर बिठाने का माध्यम हुआ करता था. ढेर सारा माल यहाँ से पहाड़ों को बेचा जाता था और कुछ पहाड़ों से यहाँ आता और ठिकाने लग जाता. इन जरूरतों को पूरा करने के उपक्रम में लगे लोग यहाँ बस गए थे. इनमें से ज्यादातर खुद को कस्बे का अस्थायी नागरिक माना करते थे, ख़ास तौर पर पहाड़ी.
यहाँ से बहुत सारा माल इधर-उधर हुआ करता सो ट्रांसपोर्ट से जुड़े विभिन्न कारोबार भी फल-फूल रहे थे. आज जहाँ भोटिया पड़ाव की चौकी है वहां से लेकर तिकोनिया चौराहे तक मोटर मैकेनिकों के ठीहे कतारबद्ध थे. ये कतार नैनीताल रोड के पीछे वाली सड़क से बरसाती नहर तक फैलती चली जाती थी.
तब शराब इस बुरी तरह चलन में नहीं थी. मगर ड्राइवर और मिस्त्री नियमित पियक्कड़ और मांसखोरों के रूप में कुख्यात थे. शायद इसी बाजार को संधान कर भीमताल से आये शंकरदत्त बेलवाल ने शिकार-भात बेचने का इरादा किया. तिकोनिया चौराहे के पास मौजूद वन विभाग के दफ्तर के पहले गेट के सामने सड़क पार एक आम के पेड़ के नीचे नए कारोबार की नीव रखी गयी.
सुबह 10 बजे शंकर वहां रिक्शे में लादकर अपना कच्चा-अधपका माल लेकर पहुँच जाते. बकरे का गोश्त सिलबट्टे पर पिसे मसालों के साथ ईंटों से बने अस्थाई जुगाड़ चूल्हे पर पर चढ़ा दिया जाता. इसी समय रसिया भी जुटने शुरू हो जाते और शंकर उन्हें स्टील के गिलास में अधपके मांस की तरी परोसते. इस गरमागरम-मसालेदार तरी से पियक्कड़ों को हैंगओवर से राहत मिलती और अब दिमाग दिन का सामना करने के लिये तैयार होता. तरी सुड़कने का सिलसिला तब तक चलता रहता था जब तक कि गोश्त और चावल पककर तैयार ना हो जाये.
अब तक इकठ्ठा हो चुके ग्राहकों को मजा परोसना शुरू करते वक़्त शंकर इस बात का बहुत ध्यान रखते थे कि उनके आने के क्रम में ही उनको गोश्त-चावल की प्लेट परोसी जाये. हमेशा गंभीर मुखमुद्रा बनाये रखने वाले चुप्पे शंकर जैसे हर आने वाले को अपने दिमाग में क्रमवार बैठा लिया करते थे. यह क्रमबद्धता किसी भी हाल में भंग नहीं हो सकती थी, चाहे ग्राहक कोई भी तुर्रमखां हो.
पंजाबी और मुगलई से अलग गोश्त के इस स्वाद की दीवानगी तेजी से बढती गयी और जल्दी ही शंकर बेलवाल ख्यातिलब्ध खानसामों में गिने जाने लगे. जल्द ही यहाँ पर शुद्ध शाकाहारी घरों के मांसाहारी बिगडैलों के साथ कई तरह के लोग आने लगे. उस वक़्त तक सुबह-सुबह गोश्त का भोग लगाना आज के मुकाबले ज्यादा बुरा समझा जाता था, खासकर हिदुओं के बीच. इसके बावजूद शंकरदत्त एक ब्रांड बन गये. उनकी अनियमितता से पैदा हुई रिक्तता का लाभ उठाने की गरज से कुछ और मांस के ठेले-वैन यहाँ लगने लगीं. देर सवेर यह जगह कस्बे से शहर बनते हल्द्वानी की फ़ूड मार्किट के रूप में विकसित होती गयी. शंकरदत्त बेलवाल की मृत्यु के आठ साल बाद भी इस बाजार में किसी भी दुकान, वैन या ठेले में पसरे भगौनों का ढक्कन तभी उठता है जब शंकर के वहां शो ख़त्म हो जाता है. उनके बेटों के वक़्त तक भी शो की टाइमिंग वही है—दस से एक.
सुधीर कुमार हल्द्वानी में रहते हैं. लम्बे समय तक मीडिया से जुड़े सुधीर पाक कला के भी जानकार हैं और इस कार्य को पेशे के तौर पर भी अपना चुके हैं. समाज के प्रत्येक पहलू पर उनकी बेबाक कलम चलती रही है.
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2 Comments
Prasann
Is bar meet bhaat yahi khayngey. 10 se 1 ki jankari k liye shukriya !☺️
Kafi acha likha hai
Ashutosh Joshi
भो बढ़िया दाज्यू