सुदूर पहाड़ी गाँव में पठाली से छाये लाल मिट्टी और गोबर से लीपे गए एक घर के कोने मे लगाई जान्द्री (चक्की) में झुरझुराती पूस की बर्फीली झुसमुसी भोर में उस घर की बूढ़ी दादी घुर्र-घुर्र गेहूं पीस रही थी.
उम्र की मारी जब पीसते-पीसते ऊँघने लगती तो घुर्र-घुर्र थमने लगती. घर की मुखिया अपने बिस्तर से सटा कर रखे टिमरू के लम्बे सोंटे से बूढ़ी पिस्वार की पीठ को कोंच देती. सोंटे की कोंच से बिलबिलाती पिस्वार हाथों को तेजी से घुमाने लगती – घुर्र-घुर्र.
मुखिया ने तरकीब निकाली. अगर पिस्वार बुढ़िया के गले में बैलों वाली घंटी बांध दूं तो जितनी देर ये पीसती रहेगी गले में बंधी घंटी टन्न-टन्न बजती रहेगी.
तो दूसरे दिन से झुसमुसी भोर जान्द्री की घुर्र-घुर्र के साथ घंटी की टन्न-टन्न भी गूंजने लगी.
एक दिन घंटी गायब. पूरे घर का ओना-कोना छान मारा. घंटी के तो जैसे पैर लग गए. घर में मची सरबरी में घर का चार-पांच बरस का बच्चा भी शामिल हो गया पर बच्चे को ये समझ नहीं आया कि पूरा घर ढूंढ क्या रहा है.
जब उसे पता चला कि घंटी की खोज हो रही है तो वह बोला – “अरे घंटी तो मैंने छिपाई है.”
लो भई घंटी हाजिर.
“अरे माँ ये घंटी मैंने तेरे लिए छिपाई है. बूढ़ी होकर जब तू पीसेगी तो यही घंटी मैं तेरे गले में बांधूंगा!”
-गीता गैरोला
देहरादून में रहनेवाली गीता गैरोला नामचीन्ह लेखिका और सामाजिक कार्यकर्त्री हैं. उनकी पुस्तक ‘मल्यों की डार’ बहुत चर्चित रही है. महिलाओं के अधिकारों और उनसे सम्बंधित अन्य मुद्दों पर उनकी कलम बेबाकी से चलती रही है. वे काफल ट्री के लिए नियमित लिखेंगी.
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1 Comments
Anonymous
भिन्न प्रकार से यह लोक कथा मालवा में भी है।