संसाधनहीनता के कारण उत्तराखण्ड के नायक-नायिकाओं को वो स्थान नहीं मिल पाया; जिसके वे पात्र थे. इसमें इतिहासकारों की कंजूसी भी शामिल है. जिस प्रकार झांसी की रानी लक्ष्मीबाई का नाम स्वतंत्रता संग्राम के पृष्ठों पर सुर्खियों में अंकित है, उसी प्रकार एक उत्तराखण्ड की रानी भी है. उसका नाम जिया रानी है. वह खैरागढ़ के कत्यूरी सम्राट प्रीतमदेव (1380-1400) की महारानी जिया थी. उसका नाम प्यौंला या पिंगला भी बताया जाता हैं. कथनानुसार वो धामदेव ब्रह्मदेव (1400-424) की माँ थी और प्रख्यात लोककथा नायक मालूशाही (1424-1440) की दादी.
लिखित इतिहास न होने के कारण इतिहासकारों और अन्वेषकों ने अलग-अलग टुकड़ों को जोड़कर कुछ गाथाएँ तैयार की हैं. फिर भी रिक्त स्थान बहुत हैं. कई लोग जिया को मालव देश के राजा की पुत्री कहते हैं. मालव मध्य प्रदेश और पंजाब में दो स्थान हैं. हो सकता है तब मालवा कोई छोटा पहाड़ी राज्य रहा हो, जिसकी कन्या जिया हो. जिया को अधिकतर खाती (राजपूत) वंश की बेटी माना जाता है. वे कुमाऊँ के बड़े राजपूत थे.
इतिहासकारों के अनुसार सातवीं शताब्दी के उत्तराध में उत्तराखंड में कत्यूरी राज स्थापित हुआ. राहुल सांकृत्यायन तो पहले से कहते हैं. कहा जाता है जब आदि शंकराचार्य जोशीमठ पहुंचे, तो उन्होंने मठाधीश से शास्त्रार्थ का अवसर चाहा. उसमें शर्त थी, जो जीतेगा, उसकी बात दूसरे पक्ष को माननी होगी. सात दिन के शास्त्रार्थ के बाद मठाधीश हार गये. शर्त के अनुसार शंकराचार्य जी ने अयोध्या के राजा के अनुज को आमंत्रित किया. उसका राज्याभिषेक किया. यह भी कहा गया है कि कत्यूर काबुल के कछोर वंशी थे. अंग्रेज पावेल प्राइस कत्यूरों को ‘कुविन्द’ मानता है. कार्तिकेय पर राजधानी होने के कारण कत्यूर कहलाए. कुछ कत्यूरों व शकों को कुषाणों के वंशज मानते हैं. बागेश्वर बैजनाथ को घाटी को भी वो कत्यूर घाटी कहते हैं.
दन्त कथाओं के आधार पर प्रीतमदेव (पृथ्वीपाल, प्रीतमशाही, पिथौराशाही, राजा पिथिर) ने बुढ़ापे में जिया से शादी की. दोनों में अनबन रहती थी. रानी बड़ी आस्तिक, दानी, पुण्यकर्मी थी. जिया गौला (गार्गी) और पुष्या नदियों के संगम पर एक खुबसूरत चौड़े मैदान में रहने लगी. (यह स्थान हल्द्वानी और नैनीताल के बीच है) वहीं एक गुफा हैं. उसमें जिया तपस्या करती थी. एक कथा के अनुसार सुतप ब्रह्म ने यहाँ 36 वर्ष तक तपस्या की, तब ब्रह्मा, विष्णु, महेश से मनवांछित वर पाए. गौला फाट पर एक पत्थर है, जो बेल बूटेदार है. इसी के नाम पर इस जगह का नाम चित्रशिला पड़ा. यहाँ जिया का जनराज था.
उत्तरी भारत में गंगा-जमुना-रामगंगा के दो आबों में तुर्कों का राज स्थापित हो चुका था. उन्हें रूहले (रूहेलखण्डवाले) भी कहते हैं. रूहले राज्य विस्तार या लूटपाट के इरादे से पर्वतों की ओर गौला नदी के किनारे-किनारे बढ़े. रानी बाग में गौला के नीले-नीले जल में विशाल केशी विशालाक्षी, स्वर्णवदनी, जिया स्थानमग्न देखी. वे लालायित हुए. जिया ने समर्पण से साफ इंकार कर दिया तब युद्ध हुआ. जिया स्वयं मैदान में लड़ी. तुर्को के छक्के छूट गये और वे जान बचाकर भागे. कुछ गफलत हुई और जिया तुर्कों की रणनीति नहीं समझी. रूहेलों ने एकाएक (कोई कहते हैं रात में) हमला किया. रानी लड़ते-लड़ते शहीद हुई. कहते हैं पत्थर पर जिया का हीरे-मोती जड़ा हुआ लहंगा फैला था. तुर्कों ने उसे उठाना चाहा तो वह पत्थर हो गया. ये पत्थर आज भी है. जिया पहली भारतीय रानी थी, जो अपनी इज्जत की खातिर बलिदानी बनी. इतिहासकारोँ ने जिया को वह स्थान नहीं दिया, जिसकी वह अधिकारी थी. हालांकि मांग भी उठी उसे लक्ष्मीबाई के समकक्ष माना जाये पर ये सब राजनीति है.
प्रतिवर्ष उत्तरायणी संक्रांति 14 जनवरी को चित्रशिला में सैकड़ों ग्रामवासी परिवार आते हैं और जागर लगाते हैं. सारे दिन—सारी रात जै जिया, जै जिया के स्वर गूंजते हैं. जिया को पूजते हैं. जिया कुमाऊँ की जनदेवी और न्याय की देवी बन गयी है. गाँव के कई परिवारों में चैत्र और अश्विन की नवरात्रियों में जागर होती है, जिसमें प्रशस्ति गायी जाती है. ढोल—दुमवे बजाकर देवी-देवता अव॑तरित होते हैं. अब जिया कुमाऊँ की सांस्कृतिक विरासत बन गयी है.
– गोविन्द सिंह असिवाल
(‘पुरवासी’ के अंक से साभार)
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जय जिया मैय्या
नौ लाख कत्यूरौं की जय
गढवाल क्षेत्र में लगने वाले कंत्यूर देवता के जागरों में कत्यूरी वंश की गाथा गाई जाती है क्या? जानकारी हो तो बतायें कृपया।
Ha mujhe yad hai jb hm bachpan m jagar sunte the to jagro m jiya maa or katyuri devtao ko jagrat krte the ...jai maa jiya
राज्य सरकार को शहीद का दर्जा दे कर मान सम्मान देना चाहिए और उनसे जुड़े तथ्यों को एकत्र कर मान्यता देनी चाहिए