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दाड़िम के फूल – इस कहानी की एक कहानी है

मेरी कहानी ‘दाड़िम के फूल’ की भी एक मजेदार कहानी है. आनंद तब आए जब इससे पहले मेरे दोस्त बटरोही की कहानी ‘बुरांश का फूल’ पाठकों को पठने को मिले. तब यानी सन् 60 के दशक में हम नैनीताल के डीएसबी कालेज में पढ़ रहे थे. मैं विज्ञान का विद्यार्थी था और मित्र बटरोही कला-साहित्य का. एक दिन बटरोही ने बताया कि उसने एक नई कहानी लिखी है ‘बुरांश का फूल’. उन दिनों की रवायत के अनुसार हम एक चाय की दूकान में गए और चाय पीते-पीते बटरोही के मुंह से वह पूरी कहानी सुनी. उस कहानी का नायक खड़क सिंह अपनी ठकुराई के दंभ में कहता है ‘मैं थूक कर नहीं चाटता. मधुली को मैं वापस नहीं लाऊंगा.’

बटरोही और देवेन मेवाड़ी. 1960 का दशक
‘माध्यम के अंक’

मुझे कहानी बहुत अच्छी लगी. हम दोनों कहानी के बारे में बातें करने लगे. बातों-बातों में बटरोही ने बताया कि यह घटना तो उसकी जान पहचान में ही हुई थी.

तब मैंने बड़ी संजीदगी से उससे पूछा, ‘तो क्या खड़क सिंह सचमुच मधुली को वापस नहीं लाया?’

उसने कहा, ‘नहीं, नहीं, वह वापस तो ले आया था. यह तो कहानी की बात है.’

यह सुनकर मुझे बहुत धक्का लगा कि नायिका के साथ अन्याय हुआ है. इस बात ने मुझे बेचैन कर दिया. जब वापस किलार्नी काटेज के अपने कमरे में पहुंचा तो ‘बुरांश के फूल’ के जवाब में मैंने भी एक कहानी लिखना शुरू किया. मैं चाहता था कि उसमें मैं नायिका के साथ न्याय करूं.   मैं कहानी लिखता गया. रात भर नींद नहीं आई. कहानी पूरी हुई तो मैंने सोचा, इसका शीर्षक क्या रखूं? ख्याल आया, बटरोही की कहानी नायक प्रधान है. इसलिए उसने कहानी का नाम ‘बुरांश का फूल’ रखा है. मेरी कहानी नायिका प्रधान है, इसलिए इसका शीर्षक मैं ‘दाड़िम के फूल’ रखूंगा.  मुझे याद आया बचपन में लड़कियां दाड़िम के फूलों की बारात सजाती हैं.

रॉक हाउस, नैनीताल में देवेन मेवाड़ी (1963)

बटरोही ने अपनी वह कहानी इलाहाबाद की प्रसिद्ध साहित्यिक पत्रिका ‘माध्यम’ को भेज दी जिसके संपादक साहित्यकार बालकृष्ण राव थे. वहां से जल्दी ही स्वीकृति पत्र आ गया और फिर कहानी छप भी गई. क्योंकि मैंने उस कहानी की प्रतिक्रिया में ‘दाड़िम के फूल’ लिखी थी इसलिए मैंने भी अपनी कहानी ‘माध्यम’ को ही भेजी. मेरी कहानी भी वहां स्वीकृत हो गई और एकाध माह बाद छप भी गई. उन दिनों बिना किसी राग-द्वेष के हम में इस तरह की रचनात्मक प्रतिस्पर्धा चलती रहती थी. बल्कि, इससे हमारी दोस्ती के तार और मजबूत हो जाते थे. एक दूसरे की कहानी सुनकर हम बेबाक राय देते थे और कहानी की कोई कमी पता लगने पर खुश होते थे और उस अंश पर विचार करके जरूरी हुआ तो उसे फिर लिखते थे.

-देवेन मेवाड़ी

‘सारिका’ संपादक चंद्रगुप्त विद्यालंकार के साथ देवेंद्र मेवाड़ी और बटरोही

अब पढ़िए कहानी  ‘दाड़िम के फूल’

फोटो: अशोक पाण्डे
दाड़िम के फूल
-देवेंद्र मेवाड़ी

दो बांस दिन चढ़ आया था. वैशाख का मौसम. मधुली को गेहूं के लंबे- चौड़े खेतों में मुंह-अंधेरे ही पहुंच जाना था. कुछ घबराहट के साथ उसे स्वयं पर थोड़ी झुंझलाहट-सी हो आईः हुंह! और रातें ही कौन सी लंबी होती हैं आजकल, जो दो घड़ी आराम की नींद ही ली जा सके. उसने लोहार के यहां से आई हुई नई-नई दराती ली और पत्थर पर खूब घिस कर उसकी धार तेज की. फिर रस्सी ले कर वह मील दो मील की दूरी पर अपने गेहूं के खेतों की ओर चल दी.

पकी हुई फसल लहलहा रही थी. जहां तक दृष्टि जाती लंबी-चौड़ी बालें ही नजर आ रही थीं. आस-पास के खेतों में न जाने कब से लोग आ कर काम में जुट गए थे. मधुली ने रस्सी एक तरफ फेंकी और उसके हाथ तेजी से गेहूं काटने में लग गए. कभी पुरवाई का एक झोंका आता और फसल से भरा सारा खेत चादर-सा हिलने लगता. कितनी भरी हुई फसल है- उसने सोचा…और भैरव देवता की कृपा से अगर अच्छी तरह सम्हाल ली गई तो सभी भकार (संदूक) भर जाएंगे. फसल की एक विशेष सुगंध के नशे में वह झूम-सी गई. वह काट-काट कर पूले बनाती जा रही थी. दुतरफा काम करना पड़ रहा था- एक तरफ बालें काटने का और दूसरी ओर सुओं (तोतों) पर नजर रखने का. जरा नजर चुकी नहीं कि दुश्मनों की एक ही दांग (सूंड) सारा खेत चौपट कर सकती है. इसलिए एक आंख सदा बिल्कुल खेत की फैली हुई छाती पर, और इधर कटाई का दूसरा काम. धूप तेज होने लगी. सबेरे-सबेरे जिसने जितना काम कर लिया सो कर लिया, फिर तो सूरज सामने आ जाता है और सिर तपने लग जाता है. बहुत देर बाद वह कमर सीधी करने के विचार से खड़ी हुई; एक ढेला उठाया और नीचे के खेतों की ओर भनभनाता हुआ फेंक दिया- हाट्……….ले ऽऽऽऽ….

आवाज सुन कर दो-चार लोग सजग हो उठे और खेतों की मेंड़ों पर टहलने-फिरने लगे. वहीं से फसल पर दो-चार बातें करते-करते मधुली ने भी सोचा जरा आराम कर लूं, लेकिन फिर विचार आया कि अभी तो फसल में हाथ लगा ही रही हूं और लोग तो न जाने कितनी रात से काम में लगे हैं. यह सोच कर वह फिर अपने काम में जुट गई.

दो-चार खेत ऊपर से उसे किसी के खांसने-खंखारने की आवाज सुनाई दी. तभी पत्तों की सुलपाई (हुक्के) में तंबाकू डालते हुए मेंड़ पर से जिबुवा की आवाज आई, “हो भौजी, इस बार तो फसल काफी भरी हुई है.” मधुली ने आवाज सुनी लेकिन उसे टाल देना ही ठीक समझा. सुना-अनसुना कर वह काम में लगी रही.

पचीस का था तभी घर वाली को छोड़ दिया था. दस साल हो गए वैसे ही सांड जैसा पड़ा है. श्मशान जैसे सुनसान घर में अकेला भूतों जैसा न जाने कैसे रातें काट लेता है. बिना औरत के मरद कैसा? खबीस है पूरा….सोचते-सोचते मधुली को एकाएक पुरानी स्मृतियों ने घेर लिया. हृदय में टीस-सी उठी-बिना औरत के मरद कैसा?….यही विचार उसके मस्तिष्क में चक्कर काटता रहा. सामने देखा, अभी तो पूरा खेत पड़ा है. कितने धीरे चल रहे हैं उसके हाथ! धूप तेज हो चली थी. अंगुलियों से माथे पर का पसीना पोंछा और फिर एक पूला हाथ में लेकर वह खड़ी हो गई और उसे बांधने लगी. उधर जिबुवा ने अंतिम कश लिया और सुलपाई को एक ओर फेंक कर अंगड़ाई लेते हुए उठ कर खड़ा हो गया. इस बार मधुली को देखते ही वह बोला, “अब तो थक गई होगी हो भौजी, थोड़ा सुस्ता लो न!”

मधुली ने मन में सोचा कि उलट कर कह दे कि तुझे क्या पड़ी है मेरी थकान से. अपना काम कर ना! लेकिन न जाने क्या कह बैठे उलट कर. वैसे ही गांव वाले बदनाम करने पर तुले हैं. कहीं मुझको ही दो-चार खरी-खोटी सुना दीं तो….? यही सब सोच कर उसने सहज भाव से कहा, “कहां, अभी-अभी तो आ रही हूं. तुम तो न जाने कब से काट रहे हो.”

“अकेला परान क्या-क्या करे. मैं तो आज पछता रहा हूं, हो भौजी! सचमुच तिरियाहीन घर नरक हो जाता है.”

मधुली को फिर एक चोट सी लगी. उसे लगा, कहीं दूर से एक सुओं की दांग उसके खेतों की ओर चली आ रही है और पल भर में ही वह सारी बालें उड़ा ले जाएगी. अनमने भाव से उसने एक डेला खेतों की ओर फेंक दिया- हाट…..हाऽऽ …और फिर उसी के बारे में सोचने लगी……आखिर वह काम क्यों नहीं कर रहा है? धूप सिर पर चढ़ी आ रही है. उंह! मेरा लगता ही कौन है?….न बात का, न बिरादरी का!….भाभी कहता है मुझे. और फिर एक हल्का सा ठिठोली भरा वाक्य, “तुम लोग मरद थोड़े ही हो. खबीसों की तरह बस दिन काट रहे हो.” कह कर वह फिर अपने काम में जुट गई. जिबुवा भी हंसते हुए अपने खेत में घुस गया.  

सूरज की किरणें सिर में सुई जैसी चुभने लगी थीं. कपाल तपती धूप से फटने सा लगा. मधुली उद्धिग्न हो उठी और थोड़ा विश्राम करने के लिए पास के दाड़िम के बोट (पौधे) के नीचे छाया में बैठ गई. बैठे-बैठे उसने चारों ओर दृष्टि दौड़ाई. लोग अपने-अपने खेतों में काम कर रहे थे. ऊपर जिबुवा अपने भाग्य को कोसता हुआ पुले बांधता जा रहा था. दाड़िम के बोट पर लाल-लाल फूल समाप्त हो चले थे. उसने उन फूलों की ओर देखा और उसे लगा कि उसका धड़कता हुआ हृदय पनार के पानी में कहीं दूर तक अंदर की ओर धंसता जा रहा है. स्मृति जीवन के अठारह-उन्नीस साल पहले के धुंधले अतीत में भटकने लगी….अपनी झगुली के फेंट में ढेर सारे लाल-लाल दाड़िम के फूलों को बटोर कर वह अपने आंगन में लाती थी. सबसे सुंदर लाल फूल को वह ब्योली (दुल्हन) बनाती थी और दूसरे को दूल्हा. शेष फूल बराती होते थे. धूम-धाम से उनकी शादी रचाती थी और फिर उसके ब्योली और दूल्हा साथ-साथ रहने लगते थे. आज, उसे लगा कि वह सब झूठा था. काश! वह सच होता- उन्हीं दाड़िम के फूलों की-सी बारात और उन्हीं दाड़िम के फूलों जैसा जनम-जनम का साथ!….लेकिन आज तो वह सब झूठा साबित हो गया है- वह दाड़िम का फूल!….खिन्न और अलसाई सी वह उठ खड़ी हुई. दाड़िम के बोट की ओर रिक्त निगाहों से देखा और फिर गेहूं काटने में लग गई. स्वप्न की तरह उसके सामने कभी खड़क सिंह, कभी दाड़िम के फूल घूम रहे थे. और वह जिबुवा…खबीस!

दाड़िम के बोट की छाया सिकुड़-सिमट कर छोटी होती गई. दूर पनार का पानी गले की चांदी की हंसुली-सा चमक रहा था. अनायास ही मधुली का ध्यान अपने सूने गले की ओर चला गया, फिर हाथों और पांवों की ओर. ये सभी बातें उसे बेकार सी जान पड़ीं और वह उनसे घ्यान हटा कर गेहूं की बालें काटने में उलझने का प्रयत्न करने लगी.

आधा खेत कट चुका था और सूरज सिर पर चढ़ आया था. वह ऊब कर उठ खड़ी हुई और दाड़िम के बोट की छाया में सम्हाल कर रखे हुए लोटे से पानी पिया. फिर कटी हुई बालों के पूलों को समेट कर गट्ठर बनाने में लग गई. तभी मन में फिर अतीत गूंज उठा- ‘पूलों को रस्सी में कस कर बांध लेना, कहीं रास्ते ही में न बिखर पड़ें.’…उसे आज से सात साल पुराना एक बैशाख याद हो आया….तपती दुपहरी का वैशाख! चिलचिलाती धूप में वह आज की तरह खेत में अकेली नहीं थी! इसी गट्ठर की तरह प्रेम की डोर से वे भी तो कस कर बैठ सकते थे- स्मृति की चपला उसके मस्तिष्क में कौंच गई…..लेकिन खड़क सिंह….वह तो बस अपने ठकुराई उन्माद में ही इतरा गया था! अपने पर भी उसे पश्चात्ताप हुआ कि वह स्वयं भी तो जा सकती थी उसके पास. लेकिन उस समय मति में न जाने क्या फरक़ पड़ गया था. खैर, वह तो औरत जात ही थी, लाज-शरम से भी डर गई थी, पर खड़क सिंह तो बड़ा ठाकुर बना फिरता था. खुद ही आ जाता, बुला ले जाता उसे. क्या कर लेते गांव वाले? कोई भला-बुरा कहता तो बाल पकड़ कर भुट्टे जैसा तोड़ डालता उसे. इतना भी दम नहीं था तो फिर एक औरत को घर में रखने का विचार ही कैसे आया उसके मन में….! खैर, अब उसका क्या सोच, लंबे सात साल गुजर चुके हैं…

वह एक गड्ठा बांध कर दूसरे गड्ठे के लिए पूले समेटने लगी. ऊपर के खेतों में काम करता हुआ जिबुवा फिर उसके विचारों में सरक आया…..अकेला कैसे रहता होगा उस मनहूस घर में! खैर, ये मरद चाहें अकेले रह भी लें, लेकिन एक औरत कैसे अकेले जिंदगी गुजारेगी?….पहले स्त्री, फिर मां और फिर सास के सपने उसकी आंखों के सामने तैर आए. वह एक बार फिर खड़क सिंह को कोसने लगी. शादी के पहले कौन लड़की ऐसा नहीं करती? बड़ी सयानियों तक से भी तो ऐसी भूल हो जाती है. फिर वह तो सत्रह की ही थी. जिबुवा भी कैसे रख लेता उसे? खड़क सिंह के नाम से थर्राता जो था. गांव वाले अलग उसे काट कर फेंक देते. ठाकुर ही तो हैं! ब्याह से पहले नादानी में उसका जिबुवा से मेल-जोल था, लेकिन उससे क्या! तब तो वह बच्ची थी. फिर भी, किसी बुरे विचार से तो भाग नहीं आई थी….उसने एक बार फिर सोचा कि वास्तव में भूल खड़क सिंह की ही थी. वह अब उसे लेने कभी नहीं आएगा….सहसा स्मृतियों को परे झटक खेत की मेंड़ की सहायता से उसने बालों का गट्ठर सिर पर उठाया और दराती कमर में खोंस, बाएं हाथ से लोटा उठा कर घर की ओर चल पड़ी.

लोग आ चुके थे, या फिर जा रहे थे. दूर पहाड़ की तरफ से कफुवा पक्षी की आवाज आ रही थी- कुक्कू….कु कू…….. उसको लगा कि वह नीले आसमान और इस विशाल धरती के बीच बिल्कुल अकेली है. गेहूं की भरी फसल के बीच भी उसे सब खेत सूखे-से प्रतीत हुए. सोचने लगी कि कब घर पहुंचेगी और कब खाना पकाएगी. दुपहर ढलते ही तो फिर खेत में आ जाना है! इस बीच सुओं की दांग फसल पर बैठ गई तो? खेतों में ढेले पकड़े खड़े छोटे-छोटे लड़के-लड़कियां सहसा उसके मस्तिष्क में घूम गए. रीती कोख की एक कसक ने उसके मन को झकझोर दिया. उसको लगा जैसे वह गेहूं मांड़ने के खलिहान में बैलों की जगह जोत दी गई हो. उसने एक बार फिर खेतों की ओर नजर डाली. न चाहते हुए भी उसकी दृष्टि जिबुवा के खेत की ओर घूम गई. कैसा पक्का शरीर था उसका. आज पैंतीस वर्ष हो गए, किसी औरत से हंसी-मजाक तक करते नहीं देखा! सिर पर गेहूं का एक भारी गट्ठर रखे खेत की मेंड़ ही मेंड़ जिबुवा चला आ रहा था. न जाने क्यों मधुली को पांव थके-थके से लगने लगे, कदम अनायास ही धीमे पड़ गए. पचास हाथ भी मुश्किल से नहीं गई होगी कि जिबुवा के कदमों की आहट साफ सुनाई देने लगी. वह कुछ बोली नहीं, लेकिन उसको लगा जैसे पनार का पानी कहीं पर किसी ने बांध दिया है और वह इधर-उधर से बाहर निकलने का प्रयत्न कर रहा है. संकरी राह- इसलिए जिबुवा मधुली के पीछे ही चल रहा था. एकाएक बोल पड़ा- ‘आजकल भूख भी जल्दी लग जाती है. चूल्हे पर तो इस वैशाख में बिल्कुल झुलस जाते हैं. क्यों भौजी?“

मधुली ने सोचा, सच ही तो कह रहा है. औरतों का तो खैर रात-दिन का काम ही है, लेकिन मरद बेचारा चूल्हे के आगे कैसे बैठ सकेगा! उसे लगा कि वह भी उसी की तरह अकेला खेत में न जाने क्या-क्या सोचता होगा. चाहे बाहर से कुछ ही दिखाए, मन तो घरवाली के लिए तरसता ही होगा. गांव की आखिरी सरहद पर, सारी बिरादरी से दूर उस सुनसान भुतहे घर में कैसे दिन काटता होगा बेचारा? उसे जिबुवा और स्वयं में काफी समानता दिखाई दी. वह सोचने लगी कि उतनी बूढ़ी रांड़ कैसे ऐसे मजबूत आदमी को छोड़ कर घर से भाग गई! आज बेचारा किसी के शादी-विवाह में भी शरीफ नहीं होता. हो भी कैसे! कलेजा फटने लगता होगा उसका. सोचते-सोचते वह हलके से बोली, “क्यों, खाना पकाने में भी मुश्किल होती है? घरवाली रखने में तो तुम लोगों के परान निकलते हैं.”

“क्या कहूं हो भौजी! अब तुमसे क्या छिपाना. उसके जाने के बाद पंद्रह दिन तक तो किसी चीज में मन ही नहीं लगा मेरा, न रात में नींद, न दिन में चैन. जितना सुख मैंने उसे दिया, भगवान ही जानता है. उमर क़सम, रत्ती भर भी दुख नहीं दिया. सीधों के दिन फिर गए हैं भौजी! न जाने किनके कहने-सुनने में आ कर चली गई. शरम के मारे मुझको मुंह तक नहीं दिखाएगी कभी. मेरा जरा भी कसूर हो तो मुझे….” वह अपने को एक गंदी-सी गाली देने ही जा रहा था कि मधुली ने बात काट दी, “कैसी बातें करते हो. अब छोड़ों, जो हो गया सो हो गया.”

“आदमी भी कितना निर्दयी होता है भौजी!….खड़कुवा तो क्या ही आया होगा तुम्हारे यहां. बड़ा वीर बनता है, इतनी हिम्मत नहीं हुई कि आ कर ले जाता तुम्हें. बदनामी से डर गया.”

मधुली के कदम कुछ तेज होने लगे. गट्ठर का बोझ गर्दन तोड़े दे रहा था. एक कांटा जैसे उसके दिल में रह-रह कर चुभ जाता था. वह फिर सोच में डूब गई….बड़ी डींग मार रहा है. खुद ही तो घरवाली को भगा कर अकेला पड़ा सड़ रहा है! तभी जिबुवा ने खुद ही जैसे उसके मन की बात का उत्तर दे दिया, “मैं तो दो-तीन बार गया भी उसके पास, मगर कभी घर पर मिली ही नहीं. मिलती तो चुटिया पकड़ कर खींच लाता. अंत में उसकी मां कहने लगी कि बहुत दुख दिए हैं तूने मेरी लड़की को. अब तुम्हीं बताओ भौजी, कैसी दशा हुई होगी मेरी उसकी बात सुन कर. गुस्से में वहीं पर कसम खा आया कि ठाकुर का बच्चा नहीं कुत्ता कहलाऊं जो फिर कभी तेरे दरवाजे पैर रखूं और तेरी लड़की को ले जाने की बात भी करूं.” 

बात करते-करते अलग-अलग रास्ते आ गए. जिबुवा अपने रास्ते और मधुली अपने रास्ते चली गई. सोचती रही कि सचमुच अब उसे लेने भी कोई नहीं आएगा. लाल-लाल फूलों से भरा दाड़िम का बोट उसे याद आया. उसे लगा कि बोट से तमाम फूल झर गए हैं और वह सबको बटोर कर एक कतार में सजाने लग गई है. लेकिन तभी उसे महसूस हुआ कि वह सब तो एक स्वप्न मात्र था और दाड़िम के सभी फूल सूख चुके हैं. तभी पछुवा का एक तेज झौंका उसके शरीर को झकझोर गया- खड़क सिंह उसे लेने अब कभी नहीं आएगा और जिबुवा की स्त्री भी अब कभी लौट कर नहीं आएगी. वैशाख की तपती दुपहरी में भी उसे कुछ ठंडक सी महसूस हुई. उसे अपना बचपन जिबुवा के साथ पनार के पानी के बीच लहरों के साथ बहता हुआ दिखाई दिया. वह मकान की छत पर चढ़ गई और वहां गट्ठर खोल कर लाइन में पूले सजाने में लग गई. बूढ़े पिता जी और भाई गायों के साथ बाहर गए हुए थे. घर में वह बिल्कुल अकेली थी. देर तक विचारों में उलझी काम में लगी रही और दोपहर ढलते ही फिर खेतों की ओर चल पड़ी.

खड़क सिंह बहुत सोचता रहा. अंत में खीम सिंह की बारात घर पहुंच ही गई. तब उसने दुल्हन का मुंह देख कर अपने को हजार बार कोसा. इन सात सालों में जो-कुछ हो गया उसे अब वह भूल जाना चाहता था. बाहर पुरवाई के हल्के-हल्के झोंके चल रहे थे और उसके मन में एक अजीब कशमकश. पर जल्दी ही उसकी उलझन समाप्त हो गई और वह बाहर पगडंडी पर निकल आया.

पूर्णिमा का पूरा चांद निकल आया था और खड़क सिंह पनार को पार कर के ऊपर वाले गांव की ओर धीरे-धीरे चढ़ रहा था. पनार के पानी में वह देर तक संपूर्ण चंद्रमा का प्रतिबिंब देखता रहा था और जैसे ही उसके पांव पानी में पड़े, वह स्थिर प्रतिबिंब बिगड़ गया. वह चौंक कर उदास-सा हो गया, कभी चांद की ओर देखता, और कभी उसके टूटे हुए प्रतिबिंब की ओर.

तीन मील की चढ़ाई चढ़ कर वह गांव के समीप उस स्थान पर पहुंच गया वहां जिबुवा के मकान से गांव की सीमा शुरू होती थी. खड़ी चढ़ाई थी और उसका मन आशंकाओं से भरा हुआ था. थोड़ा सुस्ताने के लिए वह जिबुवा के मकान के पीछे एक पत्थर पर बैठ गया. आज बहुत दिनों बाद वह उसके विषय में सोच रहा था….कैसा मनहूस आदमी है, यह जिबुवा! गांव के किनारे सुनसान में अकेला पड़ा रहता है. फिर उसे याद आने लगा कि वह भी तो सात साल से इसी प्रकार मनहूसियत में दिन काट रहा था…जिबुवा को ब्याह कर लेना चाहिए अब. ऐसे कब तक काम चलेगा! तभी उसे भीतर से जिबुवा के खांसने की आवाज सुनाई दी. वह किसी के साथ बातें कर रहा था. दूसरी आवाज किसी स्त्री की थी. खड़क सिंह सोचने लगा कि इसकी शादी की तो इस बीच कोई खबर मेरे कानों में पड़ी नहीं, इसने आखिर घर कहां से बसा लिया! कौतुहलवश वह मकान के बिल्कुल पास खिसक आया. आवाज साफ सुनाई दे रही थी- “मैं तो खैर बच्ची ही थी. नादानी में भाग आई उसके पास से, लेकिन वह तो समझदार मरद था. उसे किसी का क्या डर था. ले जाता आ कर मुझे. पर उस पर ठकुराई का जोम सवार था. बोला कि जो चाहे मुझे रखे, वह कभी मुझको लेने नहीं आएगा.”

उस नारीकंठ को पहचान कर खड़क सिंह सन्न रह गया. उसे लगा कि वह खड़ा नहीं रह सकेगा, लड़खड़ा कर वहीं गिर पड़ेगा. मन की सारी उमंग विषाद और निराशा में बदल गई. रह-रह कर यही कचोट उठती रही कि उसने बहुत देर कर दी. आखिर मधुली कब तक प्रतीक्षा करती! और यह विचार आते ही उसका मन एक अजीब करूणा से भर उठा, आंखें छलछला आईं. वहां क्षण भर भी रूके रहना उसके लिए असंभव हो गया और सिर झुकाए, थके कदमों से चुपचाप वह उसी रास्ते से नीचे उतरने लगा.

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वरिष्ठ लेखक देवेन्द्र मेवाड़ी के संस्मरण और यात्रा वृत्तान्त आप काफल ट्री पर लगातार पढ़ते रहे हैं. पहाड़ पर बिताए अपने बचपन को उन्होंने अपनी चर्चित किताब ‘मेरी यादों का पहाड़’ में बेहतरीन शैली में पिरोया है. ‘मेरी यादों का पहाड़’ से आगे की कथा उन्होंने विशेष रूप से काफल ट्री के पाठकों के लिए लिखना शुरू किया है.

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