(प्रकृति करगेती की यह कहानी उनके कहानी संग्रह ‘ठहरे हुए से लोग’ में शामिल है. कहानी संग्रह को अमेजन से खरीदा जा सकता है. लिंक यह रहा : ठहरे हुए से लोग – Thahre Huye Se Log)
मोड़ काटने के बाद बस वहीं आकर रुकती थी. हर रोज़. हर रात. रात जल्दी आती थी वहाँ, पर वो क़स्बा तब तक सोता नहीं था. बस फुसफुसाने लगता था. सभी कामों की गति धीमी हो जाती थी. क़स्बा जो सुबह मुर्ग़ियों की चें-चें, कुत्तों की भौं-भौं, गाय-भैसों के रँभाने, आती-जाती गाड़ियों के हॉर्न, लोगों के शोर से कोलाहल के मटके ज़ोर-ज़ोर से फोड़ रहा होता, रात होते ही अँधेरे की तरफ़ रेंगता हुआ एक विशाल काले घोंघे में बदल जाता. (Thahre Huye Se Log)
वो एक पहाड़ी क़स्बा था. और उस क़स्बे में आने जाने वाली, वो आख़िरी बस होती थी.
बस के कंडक्टर को सब लक्चौरा बुलाते थे. बस का चालक रामसिंह भी. असल में रामसिंह की वजह से ही बस वहीं आकर रोकी जाती. उस क़स्बे की एक औरत के पास रामसिंह जाया करता था. लक्चौरा ने कभी उसके बारे में नहीं पूछा, बस सुना था कि वो औरत एक विधवा थी. लक्चौरा को इन सबसे कोई ख़ास मतलब था नहीं. पर हाँ, बस के न्यूट्रल पर आते ही रामसिंह के बदले अंदाज़ और तेवर पर वो ख़ूब चुटकी लिया करता.
कहता, “ये वाला थोड़ा लंबा चल गया. कहो तो रूट बदल लें?”
रामसिंह बाल सँवारते हुए बिना लक्चौरा की तरफ़ देखे बस से उतर जाता. सड़क पर पहुँचते ही उसकी चाल में एक उछाल आ जाता, और टूटी-फूटी सीटी मुँह से छूटती.
लक्चौरा प्यार में पागल अपने इस दोस्त को रास्ते में गुम हो जाने तक देखता रहता और फिर बस के अंदर वो अकेला हो जाता. पर लक्चौरा ख़ुद को अकेला नहीं मानता था. उसकी अपनी एक संगिनी थी, जिसे वो हर सुबह बस की खिड़की से बाहर फेंक देता था- गुलाब ब्रांड की शराब की बोतल, जो गिरने पर टूटती नहीं थी. बाक़ी गुलाबों के साथ मिल जाती थी. और शराब जब उसके शरीर में मिलती, तब वो कुछ ही मिनटों में गवैया बन जाता. गुलाब की चार घूँट टिकाने के बाद कैकेयी का पाठ खेलता था और गाता था-
‘देहूं पिया मोहे दुई वरदानू,
देने कहा था जो दुई वरदानू’
शराब धीरे-धीरे चढ़ती थी. सुर आता था. इसी सुर की क़ायल थी वो अकेली ‘बस-हो-चली-बुढ़िया’. वो ‘बस-हो-चली-बुढ़िया’ इसलिए थी क्योंकि वो ६८ की हो चुकी थी पर अब भी डाय लगाती थी. गाँव के लोग उसे इस नाम से नहीं, पर बहुत से और नामों से बुलाते थे– अमा, बुढ़ी और कुछ मसख़रे रिश्ते के देवर उसी के मुँह पर उसे ‘डायन’ बोल जाते. ‘बस-हो-चली-बुढ़िया’ बुलाने वाला तो बस एक ही था. वो था उसका दिवंगत पति, जो (बुढ़िया की मानें तो) उसके दाएँ पाँव की सूजन में अब भी ज़िंदा था. सूजन तो उस उम्र में लाज़मी बात थी. और हमारी इस ‘बस-हो-चली-बुढ़िया’ के लिए सूजन में भूत होना भी कोई बड़ी बात नहीं थी. वो तो उसका मुँह फुलाया हुआ बूढ़ा था, जिसने उसके सामने आजीवन मुँह फुलाए रखा और अब मौत के बाद भी उस अनुभव की कमी महसूस नहीं होने दे रहा था. आ जाता था बीच-बीच में तंग करने. ख़ासकर तब जब उसे लगता कि बुढ़िया अपना विधवा होना भूल रही है.
बुढ़िया का घर रोड के पास ही था. वो रोज़ रात को खाने के बाद कुल्ला करते हुए कंडक्टर के कैकेयी पाठ को सुनती थी. कभी कुल्ला करने की लय कंडक्टर के गाने से सुर मिलाती थी. कभी कुल्ला थूकने की लय.
‘गुड़-गुड़…गुड़-गुड़…गुड़-गुड़…पुच्च!’
‘गुड़-गुड़…गुड़-गुड़…गुड़-गुड़…पुच्च!’
ये देख उसका सूजन वाला बूढ़ा ज़्यादा ही तंग करता. वो ग़ुस्सा नहीं होता था पर शांति भरी चेतावनी देता, “ओ ‘बस-हो-चली-बुढ़िया’, इतना मत कर कुल्ला. मैंने सुना है नरक कुल्ला करने वालों से भरा पड़ा है. उनका मुँह वहाँ हमेशा पानी से भरा रखते हैं. एक भी बूँद छूटती है तो कोड़े पड़ते हैं कोड़े!”
इस पर बुढ़िया ख़ूब हँसती और उसे याद आता कि कैसे वो हमेशा अपने पति को खाने के बाद टोका करती थी कि वो बिना कुल्ला किए क्यों सीधे सोने चला जाता था. इसी का नतीजा था कि बूढ़े की पोपली मौत हुई और वो स्वर्ग सिधारा. और अगर बुढ़िया की मानें तो सूजन-सिधारा.
ख़ैर, उनके बीच कभी कंडक्टर संबंधी बात नहीं छिड़ी थी. खुले तौर पर तो बिलकुल भी नहीं. बुढ़िया को डर रहता कि पता नहीं कब छेड़ दे. इसलिए हमेशा उसे कुल्लों के वार से तंगकर के भगा देती. और कैकेयी विलाप में रम जाती.
बुढ़िया की नज़र कमज़ोर थी, पर कान करारा सुनते थे. वो हैरान थी कि अब तक जितने शराबी उस सड़क से गुज़रे, सब-के-सब लफंगे क़िस्म के रहे, जिनका खाना बिना गाली दिए गले से नीचे नहीं उतरा. पर एक लक्चौरा था कि गाली की एक बूँद भी उसके मुँह से टपकी नहीं थी. बल्कि वो तो रामायण का पाठ पढ़ता था. और शराब के नशे में वो कोप-भवन में जाना पसंद करता और कैकेयी की तरह गाना गाने लगता-
‘भूलि गए हो कि सुधि बिसराई
देने कहा था जो दुई वरदानू’
उसे सुनते हुए बुढ़िया को अपना पुराना प्रेमी याद आता था, जो उसके गाँव में कैकेयी का पाठ खेलता था. रामलीला देखने, वो इसीलिए जाती थी. उस समय वो बुढ़िया नहीं थी, बल्कि एक सुंदर सुडौल जवान लड़की थी जिसे सभी प्यार से ‘प्रेमा’ बुलाते थे. लोग जहाँ कैकेयी को देखने और उस पर हँसने के लिए आते, प्रेमा, अपने प्रेमी बीरू को नज़र भर देखने और उसे अपनी साड़ी में सजा-धजा देखने आती. बीरू दसरथ के मरने पर ऐसे रोता था जैसे भैंस रँभा रही हो. उसी पर लोग ठहाके लगा रहे होते, सीटी बजा रहे होते. और प्रेमा उसे बस निहार रही होती, हँसी-ठहाकों को नज़रंदाज़ करते हुए. कुछ सालों तक यही सिलसिला चलता रहा. और प्रेमा की शादी दूसरे गाँव में होने के बाद ये सिलसिला बंद भी हो गया. और रामलीला होना भी. उसके प्रेमी-कैकेयी का ब्याह भी कहीं और हो गया.
और उसी दिन… प्रेमा अपने ससुराल में फिसली.
प्रेमा उस समय पेट से थी, इसलिए सबने शुक्र मनाया कि बच्चे को कुछ नहीं हुआ था. लेकिन उसके टखने की हड्डी में ऐसी मोच आई कि बीरू की याद बन वो मोच हमेशा के लिए टखने की गाँठ बनकर रह गई. पर उस गाँठ का दर्द कुछ ही दिनों में ग़ायब हो गया था.
लेकिन अब कुछ दिनों से, उसकी शिकायत थी कि इतने सालों बाद उसकी गाँठ फिर से ‘टस्स टस्स’ करने लगी थी. क्योंकि अब लक्चौरा का गाना सुनते हुए, हर रात बुढ़िया अपने बेसुरीले प्रेमी के बारे में सोचती थी. उसे लगता कि वो अब सोच सकती थी. उसके पति को मरे कुछ साल हो चुके थे न. ज़िंदगी के इस पड़ाव में आकर अब उसे इस बात की ख़ुशी रहती कि लक्चौरा के गाने में उसे कैकेयी मिल जाती. हाँ पर अपने पुराने प्रेमी का बेसुरीलापन नहीं. लक्चौरा का गला सुरीला था. फिर भी बुढ़िया को कोई शिकायत नहीं थी. देसी शराब में मिला हुआ सुर, बुढ़िया के लिए मनोरंजन का एक मात्र साधन जो था. उस गाँव में रामलीला नहीं होती थी. घर में एक पुराना टीवी था, जिससे बुढ़िया कब की ऊब चुकी थी. उसके सभी बच्चे बाहर रहते थे. भूले बिसरे कभी-कभी आ जाया करते. केवल एक बस ही थी, जो रोज़ शाम आया करती उसके घर के पास.
बुढ़िया ने कई बार सोचा कि वो कंडक्टर से मिलने जाए. उसके साथ गाए. पर ऐसा कभी हो न सका. उसका बूढ़ा भी तो था, जो उसे बिन दाँतों के भूत-अवस्था में भी कच्चा चबाने को तैयार रहता. साथ ही वो ये भी नहीं चाहती थी कि रामसिंह और उसकी विधवा प्रेमिका की तरह उसका नाम भी गाँव में उछले.
फिर उसे याद आया कि बूढ़ों की गाँव में क्या हैसियत होती है. एक ओहदा होता है. इज़्ज़त होती है. और अपने बूढ़े का मिमियाना तो बाद में भी देखा जा सकता था. है तो आख़िर भूत ही न. इंसान जैसे दाँत होंगे, पर उनमें नोक नहीं होगी. एक दाँव खेला जा सकता था.
तो ये सोचते हुए कि एक बूढ़ी औरत, एक अधेड़ उम्र आदमी से मदद तो माँग ही सकती है और वो उम्र का लिहाज़ करके ख़ुशी-ख़ुशी मदद कर भी सकता है, बुढ़िया मदद माँगने की युक्तियाँ सोचने लगी. मदद में क्या पानी की गगरी से छलकता ‘उचे दियो, बिसे दियो’ जैसा कुछ पहाड़ी संवाद होना चाहिए? पर अब वो प्रेमा नहीं रही थी, जिसने कभी बीरू से बात करने के लिए नल के पास जा इसी संवाद का सहारा लिया था. सर पर गगरी रखवाने के लिए ‘उचे दियो’ और गगरी सर से उतरवाने के लिए ‘बिसे दियो’. इन्हीं दो कथनों के बीच उन्होंने अपना-अपना ‘प्यार करता हूँ/ करती हूँ’ का कथन बड़ा सहेजकर रखा था. प्रेमा ने तो शादी के बाद भी. गिरने के बाद भी. और गाँठ का दर्द जाने के बाद भी, गाँठ बचाए रखी. और अब वो अपने सहेजे हुए प्यार को चीनी-मिट्टी के बर्तन की तरह बहुत एहतियात से उठाकर अपने पास रखना चाहती थी. इसीलिए उसने एक सरल युक्ति सोची.
जब अगली शाम मोड़ काटकर बस वापस बुढ़िया के घर के सामने लगी, तो बुढ़िया तुरंत बस के पास गई. अंदर जाने की हिम्मत उसने नहीं की क्योंकि उसके पाँवों के नीचे गुलाब ब्रांड की बोतलें फैली पड़ी थी. हो सकता है, कैकेयी कंडक्टर का नित्यकर्म शुरू होने वाला हो. इसलिए उसने बस आवाज़ लगाई, “कैकेयी!”
आवाज़ लगाते ही अपनी ग़लती का एहसास हो गया. बल्कि उसका सूजन वाला बूढ़ा भी बाहर निकलकर ज़ोरों से हँसने लगा. बुढ़िया थोड़ा डर गई.क्योंकी ग़लत समय पर आया था. पर बुढ़िया ने शुक्र तब मनाया जब उसने बोलना शुरू किया. वही अपनी अटपटी बातें.
कहता, “चिंता मत कर. उसने सुना नहीं होगा. लगाई हुई आवाज़ों का एक नियम होता है. वो ये कि आवाज़ लगाने में हर बार पहली आवाज़ अनसुनी ही जाती है. सुनने के लिए कम-से-कम दो या तीन आवाज़ों का सहारा चाहिए .”
बुढ़िया ने दुतकारते हुए कहाँ, “चल! कुछ भी बोलता है.”
सूजन वाला बूढ़ा बोला, “अरे सच में. तुझे याद नहीं? मुझे तू कैसे बुलाती रहती थी? पर कभी भी पहली आवाज़ में मैंने सुना? तू कहती, ‘पानी गर्म हो गया’, पर मैं पहली ही बार में नहाने को खड़ा थोड़ी हो जाता था. मुझे तो दो-तीन आवाज़ें और चाहिए होती थीं.”
बुढ़िया याद करते हुए बोली, “नहा लो, वरना पानी ठंडा हो जाएगा.”
सूजन वाले बूढ़े ने भी याद किया, “मैं तब भी नहीं उठता था.”
बुढ़िया आगे जोड़कर बोली, “हाँ, मुझे धमकाना पड़ता था कि अगर पानी ठंडा हो गया तो फिर से गर्म नहीं करूँगी.”
बुढ़िया और सूजन वाला बूढ़ा दोनों थोड़ी देर के लिए इस अतीत में रहे. जब वापस आए तब बुढ़िया को एहसास हुआ कि कहीं सूजन वाला बूढ़ा उसे ऐसी बातों में फँसाकर रोकना तो नहीं चाहता. इसलिए उसने फिर से आवाज़ लगाई.
“कंडक्टर!”
तब बूढ़े ने फिर से टोका, “तूने इस बार भी इस तरह आवाज़ लगाई जैसे वो पहली आवाज़ हो. दो शब्दों से आवाज़ लगाएगी तो काम बन जाएगा.”
इसलिए बुढ़िया ने अबकी बार आवाज़ लगाई तो कहा, “ओ कंडक्टर!” फिर जब उसने कहा, “अरे ओ कंडक्टर!” तो इस बार कंडक्टर उसके सामने आ गया. और सूजन वाला बूढ़ा ग़ायब हो गया.
जब ‘बस-हो-चली-बुढ़िया’ ने कंडक्टर को देखा तो एक धड़कन रुकने के अलावा कुछ ज़्यादा नहीं हुआ. पर बुढ़िया को लगा जैसे भूस्खलन हुआ हो. 68 में धड़कन का न महसूस होना प्रेम संकेत से ज़्यादा मृत्यु संकेत भी हो सकता था. तभी तो बस-हो-चली-बुढ़िया को कंडक्टर के पीछे यमराज की झलक दिखी तो उसने मन-ही-मन सोचा–‘सही कहते हैं लोग. प्यार में उम्र का लिहाज़ तो करना ही चाहिए.’ पर तभी कंडक्टर, जो नशे में धुत्त था, वो बड़े ग़ुस्से से ये पंक्तियाँ गा पड़ा–
“होत प्रात मुनिबेष धरि
जौं न रामु बन जाहिं
मोर मरनु राउर अजस…”
कंडक्टर का रिकॉर्ड गाते-गाते अटक गया. इधर अपनी ‘बस-हो-चली-बुढ़िया’ ज़रा सहम गई थी. पर उसके बायें पाँव की गाँठ फिर से ‘टस्स-टस्स’, करने लगी. उसने भागने का सोचा, लेकिन वो मंत्रमुग्ध-सी वहीं रुकी रही.
और रुके हुए कंडक्टर में वापस लय भरने के लिए उसने अधूरी पंक्ति को पूरा किया-
“…नृप समुझिअ मन माहिं!”
कंडक्टर का नशा तो नहीं टूटा, पर वो ज़रा सँभल गया. कहता, “वो अमा, कैकेयी की लाइन याद करना ही सब कुछ नहीं होता. थोड़ा कैकेयी वाला ग़ुस्सा लाओ. थोड़ा चिल्लाओ. थोड़ा हक़ से बोलो. ऐसे बोलो जैसे दुनिया ने आपका कर्ज़ चुकाना हो.” और इसी तर्ज़ पर, ग़ुस्से में गाया- “…नृप समुझिअ मन माहिं!”
‘बस-हो-चली-बुढ़िया’ को संकेत मिल गया था. संकेत में वही उमड़ती-घुमड़ती मीठी भावना थी, ‘टस्स-टस्स’ की. इसलिए बुढ़िया ने तुरंत बोला, “कल मैंने बाहर जाना है. मुझे उल्टी होती है. पीछे की सीट में उछल जाती हूँ. मेरे लिए आगे की अच्छी-सी, खिड़की वाली सीट रख देगा?”
कंडक्टर ने बुढ़िया की बात पर सिर हिलाते हुए हामी भरी. वही ‘उम्र का लिहाज़’, जिसकी बुढ़िया को अपेक्षा भी थी. वैसे अपेक्षा तो उसे कुछ और बातों की भी थी. जैसे ये कि, वो हाँ कहकर और कुछ भी बोले. थोड़ी लंबी बात हो. पर वो सीधे वापस चला गया. अपेक्षा इस बात की भी थी कि सिर्फ़ नशे में ‘हाँ’ न बोला हो. सुन लिया हो और कल उसे सीट मिल जाए. अपेक्षा उसे पहली मुलाक़ात को यादगार बनाने की भी थी. शायद इसीलिए उसने वो गुलाब ब्रांड की शराब की बोतल उठा ली. बहुत बदबू मार रही थी, फिर भी साथ ले आई. उसे धोकर सिरहाने रखकर सो गई. इस उम्मीद में कि शायद उसे कंडक्टर का कोई प्यारा-सा सपना आ जाए. हो सकता है आया भी हो. पर आँख खुलते ही शायद सपना भाग गया था. बुढ़िया ने इस बात का ये मतलब निकाला कि प्यार को पकने में अभी समय था.
वो तड़के ही उठ गई थी. तैयार भी हो गई साढ़े छह बजे तक. बस 7 बजे निकलती थी. ये आधे घंटे की बेचैनी उससे झेली नहीं जा रही थी. क्या करे?
बसंत की खिली-खिली सुबह थी. उसके बग़ीचे के पेड़ों पर नारंगी लगे थे. तो उसने सोचा दो-तीन नारंगी तोड़कर सफ़र के लिए रख लिए जाएँ. बस के घुमावदार रास्तों में उबकाई आने पर काम आते थे. बुढ़िया ने ये भी सोचा था कि जब कंडक्टर टिकट काटने आएगा, तो उसे भी एक नारंगी देगी. लगेगा कि बुढ़िया मिलनसार है. व्यावहारिक है. सीट बचाने के बदले इतना तो कर ही सकती थी.
बस ने हॉर्न बजाया और सभी पैसेंजर बस में चढ़ने लगे. बुढ़िया को आगेवाली सीट मिली. उसे इसकी कोई ख़ुशी नहीं हुई. क्योंकि बस में भीड़ ही नहीं थी. कंडक्टर को सीट बचाने की ज़रूरत ही नहीं पड़ी. अगर ज़रूरत पड़ती तो बाक़ियों से वो थोड़ा अलग महसूस कर लेती. लगता कि उसके लिए कोई लड़ा, भले ही दो मिनट के लिए ही सही. और खिड़की वाली सीट पर बैठने में भी ख़ुशी नहीं महसूस हुई. क्योंकि खिड़की की सीट मिलना भी ऐसे तालाब तक ले गया जहाँ पर ढेरों कंकड़ों बाद भी तरंगें नहीं उठी. खिड़की से उसने देखा कि कुछ लोग, अपने नाते-रिश्तेदारों को छोड़ने आए थे. सभी की आँखें नम थी. उसे अपने बच्चे याद आए जो उसे ऐसे मिलने बिछड़ने का मौका भी नहीं देते थे.
लेकिन बस के अंदर कंडक्टर को देख, बुढ़िया मुस्कुराए बिना नहीं रह पाई. और इस तरह प्रेम और मृत्यु संकेत एक साथ देता हुआ दिल फिर से धड़का.
बुढ़िया ने कंडक्टर को पहली बार अच्छे से देखा. जितना उसकी नज़र अनुमति दे सकती थी उतना. कंडक्टर छोटे क़द का एक अधेड़ उम्र का आदमी था, जिसके चेहरे पर हलकी मूँछें थीं. चेहरा गहरा साँवला था. उसने धारीदार नीली शर्ट और भूरे रंग की पेंट पहनी थी. वो लोगों के टिकट काटता, धीरे धीरे पास आ रहा था. बुढ़िया की धड़कनें बढ़ती जा रही थीं. इस बार भूस्खलन नहीं, चक्रवाती तूफ़ान उमड़ रहा था. जब कंडक्टर पास आया तो बुढ़िया और हड़बड़ा गई. वो हड़बड़ी में टिकट के लिए झोले से पैसे निकालने लगी. इतनी हड़बड़ी में थी कि झोले से कुछ नारंगी भी छूट गए. गेंद की तरह उछले और नीचे गिर गए. दोनों ने उन्हें पीछे लुड़कते हुए देखा. वो एक पाँव पर जाकर रुके. वो पाँव था रधुली का. रधुली ने नारंगी उठाए और बुढ़िया की तरफ़ देखकर लगभग चीख़ पड़ी, “प्रेमुली!”
बुढ़िया ने मन-ही-मन कहा–‘सत्यानास हो!’ उसने देखा नहीं था कि रधुली भी बस में बैठी थी. रधुली उसी के गाँव की थी. और बहुत बातूनी थी. आस-पास मिल जाती थी तो पीछा छुड़ाना मुश्किल होता. घर आ जाती तो चाय पर चाय पीती रहती. अब अगले दो-तीन घंटे वो पास ही बैठी रहेगी. ये ख़ौफ़नाक ख़याल था.
कंडक्टर ने उसके ख़यालों पर एक रोड़ा लगाते हुए पूछा, “कहाँ का काटूँ टिकट?”
बुढ़िया को तो आख़िरी पड़ाव का ही लेना था. पर फिर रधुली भी आ गई, इसलिए उसने पहले रधुली से पूछा, “बता न, कहाँ तक का टिकट लेगी तू?”
रधुली बोली, “मैं तेरे से पहले आ गई थी. ले लिया मैंने टिकट. हरड़ा का. तेरे से पूछ रहा है वो.”
ये सुनकर कि रधुली पहले उतर जाएगी, बुढ़िया की जान में जान आई और वो तुरंत बोली, “मेरा रामनगर तक का कर दो!”
कंडक्टर ने बड़ी बेपरवाही से एक पर्ची काटी और बुढ़िया को थमा दी.
बस चलने लगी. बुढ़िया की नारंगी देने की योजना चौपट हो गई. सारी व्यवहारिकता अब उसे रधुली पर निछावर करनी होगी. इसलिए बड़े बेमन से उसने दो नारंगी रधुली को दे दिए. जिसने ‘ओह्ह हो हो हो! खट्टे हैं! खट्टे हैं!’ कर सारे चट कर दिए. और जब तक स्टेशन नहीं आया, रधुली इधर-उधर की गप्पे हाँकती रही. क़िस्से सुनाती रही. ज़्यादातर में वो बड़ी कठोर बहुओं के बीच एक मार्मिक सास थी. और कुछ में अपने इलाक़े की सबसे समझदार औरत. उसकी बातों से पता चला कि गाँव वाले बस के कंडक्टर के बारे में क्या सोचते थे. उनके हिसाब से इस कंडक्टर का दिमाग़ी संतुलन ठीक नहीं था. तभी तो कैकेयी का पाठ करता था.
कहती, “नहीं मतलब, रामलीला में कितने अच्छे-अच्छे तो पात्र जो हैं. अब राम-लछमन जैसी तो इसकी शकल है नहीं. पर सुग्रीव, विभीषण, बाली, अपने हनुमान… ये सब तो हैं. इनका करता. गला सुरीला दिया है, पर ले-देके कैकेयी! अब बताओ?”
‘बस-हो-चली’ को जलन का एहसास हुआ तो पूछ बैठी, “क्यों? तू भी सुनती है?”
रधुली तपाक से बोली, “मैं क्या, पूरा इलाक़ा सुनता है. अरे ये ड्राइवर जिसके पास जाता है… वो गोपिया की ईजा, वो तक सुनती थी मेरे घर आकर… जब ड्राइवर सो जाता था तब. सुना है एक बार लड़ाई हो गई थी ड्राइवर और गोपिया की ईजा की इसी बात पर.”
बस-हो-चली ने बड़ी उत्सुकता से पूछा, “फिर?”
रधुली बोली, “फिर क्या? ड्राइवर दिखा दिया होगा पैसा या लठ्ठ. तबसे तो नहीं आई मेरे घर.”
बस-हो-चली के अंदर ना जाने कैसा मनोवैज्ञानिक और रासायनिक बदलाव हुआ कि बस में बैठकर हमेशा उल्टी करने वाली को उस समय उबकाई तक नहीं आई. वो तो उल्टा चेत गई थी. जैसे कुछ आवाज़ों पर कुत्ते-बिल्ली सचेत हो जाते हैं.
फिर रधुली का पड़ाव आ गया. बुढ़िया को नहीं लगा था कि वो रधुली के जाने में दुखी होगी, पर वो हुई. क्योंकि कंडक्टर से बात करने का मौक़ा आया और गया. जब तक रधुली थी तब तक वो कंडक्टर के बारे में कम-से-कम बात तो कर सकती थी. बिलकुल किसी हाईस्कूल में पढ़ने वाली लड़की जैसी मनःस्थिति थी. ऊपर से उसे कुछ नई जानकारी भी मिल रही थी. अब चली गई तो किससे बात करे? कंडक्टर से बात करने की हिम्मत वो फिर भी नहीं जुटा पायी इसलिए सो गयी.
जब नींद खुली तो कंडक्टर उसके सामने खड़े हो ‘अम्मा, ओ अम्मा’ कर लगभग चिल्ला जैसा रहा था. तभी बुढ़िया उठने लगी तो सूजन-सिधारा बूढ़ा टपक पड़ा और उस पर हँसने लगा.
“अरे ‘बस-हो-चली’, आज कैसे डाय लगाना भूल गई? ऐसे तो लोग सफ़ेद बाल गिनेंगे ही न. अम्मा ही तो बुलाएगा बेचारा. अब इस पर मत चिल्ला जाना जैसे तेरी उम्र याद दिलाने पर तू मुझ पर चिल्लाती थी.”
कभी-कभी तो बुढ़िया को लगता कि बूढ़ा उसे खुली सहमति दे रहा था. पर मन नहीं मानता था. कौन पति, भले ही दिवंगत ही सही, कहेगा कि जाओ जाओ, तुम इश्क़ लड़ाओ. स्वर्ग से थक गया हूँ. अब मैं नरक में ज़रा कोड़े खाकर आता हूँ.
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ख़ैर, रामनगर में अब उसे उतरना ही पड़ा. अब उसके पास पूरा दिन था . वापस इसी बस में जाना था. इसलिए उस छोटे से शहर में उसने नाश्ते-पानी से शुरुआत की. बहुत देर वहीं बैठी रही. और फिर चली गई कोसी नदी के बाँध पर. वो ही एक इकलौती जगह थी, जहाँ घंटों बैठा जा सकता था. और कोई कुछ नहीं कहता था. वैसे तो हमेशा ही अकेली रहती थी, पर इतने आवेग से आती हुई नदी की आवाज़ के पास बैठकर जो शांति मिलती है, वो पहली बार मिली. इसी शांति में उसने तय किया कि वो सूजन-सिधारे की परवाह नहीं करेगी अब से. उसने तय किया कि वो अब सूजन का इलाज करेगी. और अपनी अटकी हुई ज़िंदगी को उस नदी के आवेग की तरह आगे बढ़ाएगी. नदी उस आवेग से बिजली बनाती है. वो अपनी ज़िंदगी बनाएगी.
थोड़ा समय बचा था बस निकलने में. इसलिए बुढ़िया ज़रा बाज़ार घूमी और एक आयुर्वेदिक डॉक्टर के पास अपनी सूजन दिखाने चली गई. आयुर्वेदिक डॉक्टर जो बोलने वाला था, वो उसे पता था. वही वात-पित्त-कफ़ की त्रिकोणीय समझ से वो बुढ़िया की सूजन को वात संबंधी समस्या बताता. उसे थोड़े ही सूजन-सिधारा बूढ़ा दिखने वाला था. फिर भी वो अपनी तसल्ली के लिए डॉक्टर के पास गई. जैसा सोचा था वैसा ही हुआ. हाँ, कुछ बेहतरीन नुस्ख़े साथ ले आई. तिल का तेल, तिल के गर्म बीजों से सेक, ठंडी चीज़ों से परहेज़ और एक पीले रंग का बदबूदार लेप दे दिया था लगाने को. इन्हीं सबके साथ बुढ़िया ने संकल्प लिया और जैसे एक विज्ञापन बना दिया, “मुँह फुलाए, सूजन में बैठे बूढ़े से निजात पाएँ, आज ही बेवफ़ा ज़ालिम लोशन अपनाएँ.” उसे अपने ही मज़ाक़ पर हँसी आयी. इसी दंत-मुस्कान के साथ वो बस में जाकर वापस बैठी. कंडक्टर ने बिना पूछे ही वापसी का टिकट काटकर दे दिया. बुढ़िया ख़ुश हुई कि उसे कंडक्टर पहचान गया था. वो भी बस एक बार मिलने पर.
उस शाम जब वो घर पहुँची तो उसके चेहरे पर अलग ही मुस्कान थी. उस दिन उसका ध्यान ड्राइवर रामसिंह पर भी गया. जैसे वो ख़ुशी-ख़ुशी कंडक्टर के बारे में सोचती हुई अपने घर जा रही थी, रामसिंह भी सीटी बजाता हुआ अपनी विधवा प्रेमिका के पास जा रहा था. सीटी तो वो हमेशा ही बजाता था, पर बुढ़िया ने ग़ौर आज किया था. बुढ़िया ने भी कोशिश की. यही सुनकर शायद सूजन-सिधारा बूढ़ा भी निकल आया था बाहर. वो भी शुरू हो गया. अब उस क़स्बे में तीन अलग-अलग क़िस्म की सीटियाँ बज रही थीं–
एक ड्राइवर की : बिलकुल सीधी और साफ़
एक बुढ़िया की : थकी हुई और ऊबड़खाबड़
एक सूजन-सिधारे की : बिन दाँतों की हवा भरी ठुस्स
अपनी बेइज़्ज़ती देखी (और सुनी) नहीं गई शायद दोनों से. दोनों एक ही साथ बोले, “अपना काम तो कूकर की सीटी से है. खिचड़ी खाएँ आज?”
बुढ़िया अक्सर जब थकी हुई होती, तो काम जल्दी निबटाने के लिए खिचड़ी बना देती थी. बूढ़ा नाक तो सड़ाता था, पर खा भी लेता था. आज भी बुढ़िया थकी हुई थी. इसलिए उसने ख़ुद के लिए भी खिचड़ी ही बनाई. खा-पीकर वो आँगन की क्यारी वाले ठिकाने पर बैठ गई जहाँ से वो कैकेयी का पाठ सुनती थी. कुल्ला भी हो गया. एक-दो बार सूजन-सिधारा भी आया तंग करने. उसके आते ही, बुढ़िया ने बड़ी देर तिल के तेल से मालिश की. फिर वो बदबूदार लेप भी लगाया. इस सबके बीच कैकेयी कंडक्टर की आवाज़ नहीं आई एक बार भी. बोतल गिरने की आवाज़ संकेत होता था कि कैकेयी पाठ शुरू होने वाला है, पर वो आवाज़ भी नहीं आयी. शायद वो जल्दी सो गया था. बुढ़िया यही सोचते हुए ख़ुद भी सोने चली गयी.
अगली सुबह वो उठी तो बस पहले ही जा चुकी थी. पिछली रात मालिश इतनी अच्छी हुई थी कि बुढ़िया देर तक सोती रही. सूजन के दर्द के कम होने की ख़ुशी, वो बस के जल्दी चले जाने के कारण महसूस नहीं कर पायी . शाम होने का इंतज़ार हुआ कि बस फिर से आएगी, कंडक्टर आएगा. सब कुछ हुआ. लेकिन कंडक्टर के कैकेयी पाठ के समय क़स्बे में सन्नाटा छा गया. बुढ़िया ने तेल मालिश की, पाँव सेका, कुल्ला किया. पर ये सभी काम कैकेयी के पाठ से लय मिलाए बिना हुए. और ऐसा कई दिन तक चलता रहा.
इस बीच सूजन वाले बूढ़े का आना कम हो चुका था. सूजन धीरे-धीरे जा रही थी. इसलिए अब उसके लिए जगह नहीं बची थी . या तो स्वर्ग-सिधार गया होगा या किसी और सूजन में जाकर बैठ गया होगा. उसके जाने से बुढ़िया के एक पाँव का दर्द तो कम हुआ था. पर दूसरे पाँव में ‘टस्स-टस्स’ बहुत बढ़ गयी थी. और उस दिन कुछ ज़्यादा ही बढ़ गयी, जब रात को कहीं ऊपर किसी के दरवाज़ा खुलने की आवाज़ आयी. उसके खुलते ही, ‘टस्स-टस्स’ की लय कैकेयी के पाठ से जा मिली. पर इस बार आवाज़ किसी औरत की थी. और उस आवाज़ के पीछे थी वही जानी-पहचानी मर्दानी-सुरीली आवाज़. कंडक्टर की आवाज़. बुढ़िया ये सुनकर करती भी क्या? वो दर्द की परवाह किए बग़ैर घर के अंदर ऐसे भागी जैसे कोई भूत देख लिया हो.
और अगली सुबह वो उठी. नींद के साथ. एक बुरे सपने को जीती हुई.
सपने में रधुली आयी. उसने चाय की चुस्कियों के साथ उसे बताया कि एक दिन ड्राइवर नशे में कंडक्टर को गोपिया की ईजा के घर ले गया था. तैश में उसने गोपिया की ईजा से दोनों में से किसी एक को चुनने को कहा. आगे कहती, “अब तू तो गोपिया की ईजा को जानती है. कैसे मीठी छुरी है. नहीं? ख़ून-ख़राबा न हो, इसलिए उसने गाने का मुक़ाबला रख दिया दोनों के बीच.”
बुढ़िया सपने में भी सवाल पूछने से नहीं रह पायी . उसने पूछा, “तुझे किसने बतायी ये अंदर की बातें?”
रधुली बोली, “सोते हुए भी चारों कान खुले रखती हूँ.”
बुढ़िया को चार कान वाली बात अटपटी तो लगी. पर सपने में तर्क ढूँढती तो बात अधूरी रह जाती और रधुली का सपने में रहना लंबा हो जाता. इसलिए चुपचाप आगे की बात सुनती गयी.
आगे रधुली बोली, “मैंने सिर्फ़ अपने चारों कानों से सुना ही नहीं. अरे वो तिरकाली गोपिया की ईजा मुझे अपने घर घसीट लायी. और कहने लगी–‘दीदी, आप और मैं दोनों गायकों को अंक देंगे कि कौन कितना अच्छा गाता है. आओ बैठो.’”
बुढ़िया ग़ुस्से से भर गयी थी. और तपाक से बोली, “अरे मना कर देती. तू क्यों पड़ी बीच में?”
रधुली अपनी सफ़ाई में बोली, “अब बता मैं मना कैसे करती? चल तू अपने दिल पर हाथ रखकर बता. कंडक्टर जैसा सुरीला गला जिसका हो, उसे एक बार तो सामने सुनने की इच्छा तो तेरी भी होगी.”
बुढ़िया को दिल पर हाथ रखने की ज़रूरत ही नहीं पड़ी. उसके दिल ने प्रेम और मृत्यु संकेत ऐसे ही दे दिया. शायद इसकी भनक रधुली को भी लग गई थी. उसने बड़ी चिंता जताते हुए पूछा, “तू ठीक है न रे?”
बुढ़िया अब रधुली की बातों से थक चुकी थी. उसने आगे की बात का भी अंदाज़ा लगा ही लिया था कि क्या हुआ होगा. इसलिए उसने रधुली को टरकाने की कोशिश की.
लेकिन रधुली तो पूरी बात बताने पर उतारू थी. वो एक साँस में कह गई, “बात तो यही थी न कि कंडक्टर ही जीतता. पर मैंने खेल के अलग-अलग पड़ाव बना दिए. किसी में फ़िल्मी गीत, तो किसी में रामायण का पाठ. कंडक्टर को ही जीतना था. उसकी ज़बान पर सरस्वती बैठी है री प्रेमुली, साक्षात सरस्वती!”
और एक गहरी साँस लेते हुए वो आगे बोली, “अब अच्छा हो गया मेरे लिए भी. हर रात को सोते हुए कंडक्टर के गाने की आवाज़ सुनाई देती है. ऐसा लगता है जैसे मेरी माँ लोरी गा रही हो. बहुत अच्छी नींद आती है.”
रधुली ने जैसे बुढ़िया की झुर्रियों में तैरता सवाल पढ़ लिया था. वो बोली, “गाँव वालों का क्या है! कल ड्राइवर के नाम पर गोपिया की ईजा को सुनाते थे. अब कंडक्टर के नाम पर सुनाते हैं. पर मैं जानती हूँ न, दिल-ही-दिल में ऐसा बदलाव उन्हें भी अच्छा लगा होगा शायद.”
तभी बुढ़िया की टिन की छत पर कुछ उपद्रवी लड़के कूदते हुए गुज़रे. बुढ़िया का ग़ुस्सा तो वैसे ही सातवें आसमान पर था. वो चिल्ला गई, “आपण मांक खसम हजाला तुम…”*
उसने ये इतने ग़ुस्से में बोला कि लड़कों से ज़्यादा तो रधुली डर गयी. थोड़ी देर में वो सहमी हुई-सी बुढ़िया से विदा लेकर चली गई. बुढ़िया चाहती तो यही थी.
उसके जाने के बाद बुढ़िया ने अपनी जगह का मुआयना किया. चारों तरफ़ नज़र दौड़ाई तो उस खिले आसमान के पहाड़ी क़स्बे में उसे बस अँधेरा महसूस हुआ. आत्मा का अँधेरा. ख़ालीपन में धकेले जाने का अँधेरा. और इस सब को एक बुरा सपना समझकर जीते रहने का अँधेरा. पर इन अँधेरों के बीच में भी उसने रोशनी के लिए एक सुराख ढूँढ लिया था. सूजन-सिधारे के वापस आने के इंतज़ार की रोशनी. जो शायद उसी सुराख के रास्ते किसी दिन बुढ़िया को ‘अरे ओ! बस-हो-चली-बुढ़िया’ कहता हुआ आए.
* आपण मांक खसम हजाला तुम- कुमाऊनी की गाली
मूल रूप से अल्मोड़ा के ‘बासोट’ की रहने वाली प्रकृति करगेती 2015 में ‘राजेंद्र यादव हंस कथा सम्मान’ से सम्मानित हैं. प्रकृति का पहला कविता संग्रह ‘शहर और शिकायतें’ 2017 में प्रकाशित हुआ, पहला कहानी संग्रह ‘ ठहरे हुए से लोग’ 2022 में. 2015 में बीबीसी की 100 वीमेन सूची में प्रकृति को शामिल किया गया. कई प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं, वेबसाइट और ब्लॉग में इनकी रचनाएँ प्रकाशित होती रही हैं. इंडिया टुडे, नेटवर्क 18 और बीबीसी में पत्रकार और प्रोड्यूसर की भूमिका में काम करने के बाद टी.वी.एफ़ (TVF) और कल्चर मशीन से जुड़कर पटकथा लेखन की भी शुरुआत करने वाली प्रकृति फ़िलहाल टाइम्स इंटरनेट में पटकथा लेखक के रूप में कार्यरत हैं.
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