लोगों के नौनिहाल स्कूल पढ़ने जाते और गब्दू गुएरों (ग्वालों) के साथ गुच्छी खेलने सामने के चरागाह पर जाता. लोगों के बच्चों ने सीखा पढ़ना लिखना. गब्दू ने सीखा गाड़ (छोटी नदी) की गडियाल (मछली) मारना और जंगल की कलझींट पकड़ना. औरों के बच्चों ने कक्षाएं पास की, गब्दू जाल, जिबाला (फ़ांस) बनाने में हो गया सब का उस्ताद. अर हो क्यों न नरकोट के नत्थू पधान (मालगुजार) का एक मात्र लड़का था गबदू. सब कुछ गदबद ही गदबद. ना कोई बोलने वाला न कोई सुनने वाला. नत्थू प्रधान भी कोई ऐरा-गैरा न था. था भी तो पुराना भड़ (योद्धा). चांदी से चमचम बाल. कानों में झल्लरदार सोने की मुरखियां हाथों पर पाव-पाव भर चांदी के धुगुले (कड़े) और सीधे दस नाली (चार बीघा) के खेत को जोत कर ही, दम लेता. और पूरा एक लोटा शुद्ध घी बिना पाणी की छांछ की तरह गटक जाता. गांव भर में ऐसा दबदबा कि मनुष्य तो दूर, चिड़िया तक भी नहीं चूं कर सकती थी.
(Story by Bhagvati Prsaad Joshi)
एक दिन मौजी राम मास्टर ने बोल ही दिया, “पधान जी इस गब्दु को की पढ़ाई-लिखाई पर रखो ध्यान. नहीं तो पछताओगे!”
“अरे भाई मास्टर” नाथू प्रधान ने कहा “हम कौन से पढे थे? ना सीखी सीखी हमने अ,आ,इ,ई न पढ़ी हि, ब्बे, सी, डी पर क्या फर्क पड़ा. गौ वंश से गोठ भरा हुआ है. अन्न का भंडार है. दो पैसे भी हाथ में है. और पांच गांव का हूं मैं नत्थू पधान ! फिर हमने गबदू से कौन सी नौकरी चाकरी करवानी है. ऐसी बात सुनकर गब्दु की छाती हो जाती चौड़ी और बेफिक्र सांड की तरह निर्द्वन्द घूमता रहता. रात दिन बीड़ी फूंकते-2 भांग पर आ गया. कहां भी गया है कि आज सीखी ककड़ी, कल सीखेगा बकरी. फिर तो दारू, जुए का भी लग गया शौक. अब नत्थू प्रधान को भी खाने लगी चिंता कि हो ना हो छोरा हाथ से ना निकल जाए!
नत्थू पधान का खास आदमी था बिरजू बामण. एक दिन चुपचाप उसने बिरजू से पूछा ही लिया, “अरे ओ बिरजू दा! अकल्कंड लग गे अकल्कंड. (गले-गले आ गई.) ये जो गबदू है ना. यह बहुत उत्पाती हो चुका है. कैसे आएगा रास्ते पर?”
(Story by Bhagvati Prsaad Joshi)
“बेफिक्र रह तू पधान! सब हो जाएगा.” बिरजू वामन अपनी चुटिया की गांठ ठीक करते हुए बोला,
“अरे गब्दू है क्या चीज! जब उद्दंड से उद्दंड सांड तक साधा जा सकता है. इसकी औकात है ही क्या!
यह तो अभी सिर्फ एक बछड़ा है और वह भी एकदंतु बछड़ा! बछड़े के कंधे पर धरना पड़ेगा असली सांधण (सागौन) का जुआ.. फिर देख अपने आप आ जाएगा रस्ते पर….
“मतलब”
“अरे मतलब साफ़ है धर गृहस्थी का जुआ धर इसके कंधे पर! चीं न बोल जाय…पट्ठठा… कर दे इसका विवाह प्रबंध!”
नत्थू प्रधान ने अपने बाबुल जैसी मूंछों पर अंगुलियां फेरी. आंखों में एक चमक सी आई. गब्दू की मां का देहांत होने के बाद घर बिना धरणी के शमशान सा हो गया था. इसलिए बिरजू की बात उसके मन में भीग सी गई.
“तो ठीक, खोज भाई, कोई खानदानी लड़की और वह भी जल्दी बिना किसी देर किये! नाथू प्रधान ने बोला और बिरजू धोती की लांग संभालते हुए बढ़ गया आगे.
एक दिन बिरजू बामण लाल गमछे पर लिपटी पोथी-पत्री लेकर पहुंच गया पधान के चौक. चटाई पर बैठकर अत्रि-पतरी पल्टा-पल्टी कर उंगलियों पर गणत करके नाड़ी देखी, गण देखा और फौरन वह चटाई पर मेंढक की तरह उकड़ूं हो निश्चिंत हो गया.
ले भाई प्रधान, आज मैं ला गया बड़कोठ्यों (बड़ी कोठीवालों) की बेटी की जन्म पत्री. घर-बार, गाय-गोठ, खेती-पाती सब कामों में होशियार है. नाम है सतवंती. और गब्दू की जन्मपत्री भी मिल गई फिट-फोर. फिर तू थोकेदार तो वे भी हैं बड़कोठ्या (बड़ी कोठी वाले) कमीण (खानदानी) तो गबदू निर्द्वंद सांड से जिम्मेदार बैल बन जाएगा. फौरन कर दे इसका मुंड काल़ा (शादी). गृहस्थी की बेड़ियो में बंध जाएगा. बंध!
(Story by Bhagvati Prsaad Joshi)
बड़कोठ्या ‘कमीण’ बात नत्थू पधान के दिल में भींग गई. तब एक दिन सतवंती का डोला आ गया गब्दू के चौक पर लंबी छड़छड़ी सुन्दर मुखड़ी (मुखमंडल) वाली सतवंती हर तरह से सलीकेदार थी जिसने भी उसे देखा सराहा. नत्थू पधान हो गया धन्य धन्य. नत्थू पधान भड़ जरूर था लेकिन अमृत पी के नहीं आया था. इस संसार में बस जब तक जिंदा रहा गब्दू की घर गृहस्ती का घराट घूमता रहा फर्राटे के साथ. पर जैसे ही एक दिन नत्थू प्रधान दुनिया से कूच कर गया. कठपिंजरा खाली हो गया. भीतर का तोता उड़ गया आसमान में! वैसे ही घर गिरहस्थी के घराट के पतनाले का पानी सूखने लगा. पानी क्या सूखा फर्राटेदार घराट करने लगा धरड़-३ और थम सा गया. लेकिन बिन पानी के घराट चला न चला हो माया की मशीन तो पतनाले और बिना पानी के चलती ही रही है हमेशा से.
तो घर गृहस्ती चरमराने लगी. गब्दू पर इसका कोई असर न था. बस फिर वही बेचैनी थी..बदस्तुर, एक लोकोक्ति भी है की ‘फुरफ़तें मेरी कुंडली’ यदि सतवंती उसे कुछ कहती तो बरसाती जूते की तरह अकड़ जाता. उसने उसे संभालने के लिए क्या कुछ नहीं किया. और इससे अधिक वो कर भी क्या सकती थी. बस दोपहर का भात खाना आराम करना और फिर साम के ठीक पांच क्या बजे मदरिया खाल मकड़ू की दुकान में पहुंच जाना गब्दू की दिनचर्या थी.
मकड़ू की मदरिया खाल में एक द्विखंडी (दो कमरों वाली) दुकान थी. काली कलूटी भट्टी के ऊपर मैल से चमकता काला कोट और काला सलवार पहने सांवली सूरत का ही मकड़ू लाला बैठा रहता था. भट्टी के ऊपर काले ही रंग की चाय की केतली दिनभर खदबद-खड़बड़ उबलती रहती. एक कलझींठी रंग का पिचका हुआ बाचाल रेडियो भी भट्टी के एक कोने पर लगातार फिल्मी गाने गाने गाता रहता. न मकड़ू को शरम थी, न रेडियो को. कमबख्त दिन रात गाता और खूब सेल खाता! पर रेडियो था तो तिलस्मी! उसके न कोई कान थे, न खिसकने वाली सुई और ना कोई घूमने वाली घुंडी. बस वह मकड़ू के हाथ की थपाक से ही मनचाहा स्टेशन बदलता था.
हाँ… उसके पेट में कैसेट बजाने का टेप रिकॉर्ड भी था. साथ ही वक्त बेवक्त टाइम बता कर वह घड़ी का काम भी करता. इसके अलावा मकड़ू के यहां एक काले रंग का चलता फिरता जक्स (शैतान) और था. जिसका नाम भोटू था… गर्मियों के मौसम में वह अपनी भयानक दांत, लंबी जीभ निकले पास की झाड़ी में घुसा रहता और जाड़ों में भट्टी की आग के सामने पड़ी राख को अपना बिस्तर बनाकर पड़ा रहता. मकड़ू की दुकान को देखकर दिन में चलने वाले राहगीर सोचते ‘अरे काहे को बैठा होगा यह बेवकूफ इस उबड़-खाबड़ धार में, जहां न कोई बिक्री और न बट्टा.’
(Story by Bhagvati Prsaad Joshi)
पर जानकार जानते थे मकड़ू की इस तिलिस्मी निशाचरी माया को. बस जैसे रेडियो ने बताया ‘साम के पांच बजे हुए जाते हैं’… वैसे ही भट्टी से उतर जाती, केतली और चढ़ जाती भुटवे की कढ़ाई. कढ़ाई का चढना क्या हुआ कि बदन की राख झाड़कर भोटू अंगड़ाई लेकर हो जाता तैयार और गांव-गांव के शराबी, जुआरी, भंगेड़ी, जान जाते और फटाफट जुटने लगते दुकान के भीतरी अदृश्य खंड में. गिलासों की खंनखनाहट और प्लेटो की टनटनाहट हो जाती शुरू. भांग-गांजा की नशीली सुगंध से अन्दर का वातावरण महक जाता और शमा रंगीन हो जाती, तब रास्ते चलते अच्छे भले लोगों पर भोटू भौंकता लेकिन जुआरी शराबियों के आने पर पूंछ हिलाता. जूते तक चाटने लगता. चाटता क्यों नहीं? उन्हीं की कृपा से तो उसे रात देर तक हड्डी और गोस्त की मिल पाते. इसलिए मनुष्य तो मनुष्य, सभी पशु पक्षी तक अपना भला-बुरा स्वार्थ के तराजू से नापा करते आए हैं. इसमें भोटू का भी कोई कसूर नहीं था.
जब गब्दू मकड़ू की दुकान में फिल्मी हीरो की तरह एंट्री लेता और उसका फैन न सिर्फ भोटू बल्कि उसका मालिक तक बिछ जाता उसके स्वागत में, “लो भाई आ गए गब्दु थोकदार जी” फिर पलक झपकाते व्यंगात्मक ढंग से खित-खित हंसता. तब उसके सौले (सेही) की तरह के पैने दुरंगी दांत बाहर की ओर निकल आते और भोटू तक उसके पीछे-पीछे पूंछ हिला-हिला कर दुकान के भितरी खंड तक छोड़ने जाता. दुकान रंगत पर आती और भीतर तिपत्ति चलने लगती और देर रात तक रावण का दरबार चालू रहता. आधी रात के बाद टिट्हि- टिट्हि करते हुए लावा पक्षी आकाश में मंडराने लगते. तब जा के कहीं चांडाल चौकड़ी उठती और फिर धार धार में चट्टानों पर चढ़ती उतरती, कहीं लोप हो जाती. आधी रात में गब्दू जब भी घर लौटता. सतवंती को मारता पीटता और खा पी के सो जाता.
(Story by Bhagvati Prsaad Joshi)
नत्थू प्रधान कोई कुबेर नहीं था की वह अक्षय कोष छोड़ जाता वह तो सिर्फ एक मेहनती किसान था. लेकिन अब गब्दू की काहिली से नत्थू प्रधान का घर बार लगभग उजाड़ सा हो गया था. सुंदर कुमैय्या बैलों की जोड़ी दुदंती भी नहीं हुई थी कि बिना अलास-पलास के ढांगे(बूढ़े बैल) से हो गये. बिना किसी देखभाल के गाय-बच्छियों का चमड़ा रूखा हो गया और दूध भी सूख गया. गोठ में ऐसा लगता जैसे गाय-बछिया नहीं सिर्फ उनके सींग हों बंधे. एक दिन गाय बच्छियों के सिंग पर तेल लगा कर गब्दू ने उन्हें औने-पौने दाम पर गुन्दरू गलेदार के हाथ बेच दिया. सिर्फ काली चाय सफेद करने के वास्ते एक गाय रहने दी. तो बिना हल और बैल, खाद पानी के पधान के समय की हरी-भरी खेती एकदम बंजर बन गई और एक दिन कमजोर दुधारू गाय ने दूध देना बंद कर दिया और फिर वह भी गहरे खड्ड में जा गिरी. कोढ़ में खाज की तरह रही-सही फसल पर ऐन मौके पर ओले गिर पड़े और एक दाना अन्न तक भी हाथ ना लगा. गांव पट्टी में त्राहि-त्राहि मच गई. सरकार ने राहत के लिए सड़क का काम खोला तब जा के मज़दूरी से काफी लोगों की जीविका चलने लगी.
लेकिन गब्दू का अनुष्ठान बदस्तूर जारी था. बस मकड़ू की दुकान जाने या वह जाने. घर की हालत खस्ता हो गई. एक दिन दोपहर का भात खाने के बाद सतवंती ने गब्दू को झाड़ लगाईं “चूहा मारने को ग्वालू( जहर) नहीं है और तुम्हें सूझी है मटरगश्ती. अरे कम से कम इन नादान बच्चों के खातिर, कुछ कर! पौधार में सरकारी सड़क का काम और पैसा भी मिल रहा है और अनाज भी. सभी लोग जा रहे हैं गांव पट्टी के.. तुम भी जाओ. नहीं तो, कल से चूल्हा नहीं जलेगा और हो जाएगी मुश्किल”
“अरे बंद कर बकवास’ गब्दू ने अकड़ कर कहा “मैं नत्थू प्रधान का बेटा हूं पांच गांव का थोकदार समझे और मैं करूंगा बेगारी-मजदूरी! नकट्टि तू तो नाक कटी है मेरी भी नाक कटवायेगी”
“अरे घुटनों घुटनों तक जल गया… पूछ रहा है कि किराण (कपडे जलने की गंध) कहां से आ रही होगी.” सतवंती भी गुस्से में थी. “यदि तुम हो थोकदार के बेटे… तो मैं भी कोई कम नहीं हूं बड़कोठियों वालों की बेटी! तुम नहीं जाते तो घर बैठो. बच्चे भूख से बिलबिला रहे हैं भूख से! अब मैं जाऊंगी काम पर. तब तो हो जाएगी तुम्हारी थोकदार वाली नाक बड़ी?”
गब्दू का मुख गुस्से से जैसे भट्टी के में तपते लोहे की तरह लाल हो गया, “ज्यादा बकबक मत कर. नहीं तो हड्डियां तोड़ दूंगा”
और वह फिर बड़बड़ाता हुआ सीधे निकला और पहुंचा मकड़ू की दुकान की तरफ. गब्दू का मूड आज खराब हो गया था. वैसे ही बिकी गाय-बच्छी के रुपये भी खत्म हो गए थे. और उस पर सतवंती का ताना. उसने चारों तरफ देखा तो सारी धरती आकाश अकाल के कारण भंगार बन सांय सांय करने लगी. लेकिन भट्टी के ऊपर बैठे मकड़ू लाला के मुख पर काल की कोई छाया नहीं थी और ना भोटू की सेहत पर कोई फर्क पड़ा. वह वह कमिना कलझीट रेडियो भी आज नई-नई कैसेट बजा रहा था…. दम मारो दम…. मिट जाए गम… फिर गढवाली डिस्को भी चालू हो गया. इस पर भी गब्बू ग़मगीन था. सो गम गलत करने के लिए उसने सुल्फे की तगड़ी चिलम भरी, साफी लगाया फिर ऐसी एंगल जोत खींची की मकड़ू के भीतरी अंधेरे कमरे में जैसे दो सौ वाट का बल्ब जल गया हो. मिट्टी की चिलम चटाक के साथ चटक कर उसके हाथ में रह गई. मकड़ू खित-2 कर हंसा. उसके सोलॉ जैसे दुरंगी दांत बाहर निकल आये. भोटू की समझ में कुछ नहीं आया तो वह सड़क चलते एक निर्दोष विकलांग पर भौंकने लगा. उत्पाती रेडियो मस्ती के कैसेट बजाने में मस्त था. धीरे-धीरे रोज की निशाचरी लीला शुरू हो गई.
(Story by Bhagvati Prsaad Joshi)
जैसे-2 शाम की काली छाया गहरी होने लगी. लाचार सतवंती के कलेजे में भी काल की काली धुंध गहरी होने लगी. उसके सामने भूख से व्याकुल बच्चे किसी सूखे तले की गड्यालों (पहाड़ी उथली नदियों में पाई जाने वाली छोटी-2 मछलियाँ.) की तरह मंडराने लगे. कौन करेगा विश्वास कि ये होंगे नत्थू पधान के नाती. जो एक ही सांस में पानी की तरह एक माणी घी पी के करता था बात. आज घी-दूध तो दूर, उनको एक बूंद तेल तक भी नसीब न था. गहने गब्दू ने पहले ही स्वाहा कर दिए थे. वक्त बेवक्त की डिमांड से मायके वालों ने भी हाथ खड़े कर लिए थे! उधार भी किस से मांगा जाए. सभी तो अकाल की मार खाते, किसी तरह से अपना पेट पाल रहे थे. सतवंती ने सोचा अगर भूखा नहीं मरना है तो कुछ ना कुछ करना ही पड़ेगा… यदि बाघ खड़ा हो सामने, प्यासा काकड़. करे तो क्या करे? नदी की तरफ तो दौड़ना ही होगा. इसलिए सतवंती ने कोठार देखें काकर देखा सारे घर को छाना..टटोला. सब खाली! बड़ी मुश्किल से एक तुमड़ी (गोल लौकी सुखाकर बना पात्र) में उसे एक मुट्ठी कोणियाल (मोटा अन्न) मिले और दूध के डब्बे में एक चुटकी पाउडर. कोणि की खिचड़ी खिलाकर और गर्म पानी में पाउडर छोलकर किसी तरह उसने बच्चों के पेट की अग्नि शांत की और वह भी जैसे-तैसे भूख और माँ की मजबूरी समझ तुरंत पी गए.
फिर सतवंती कल की चिंता में परेशान हो, घर के छज्जे पर बैठ कर चारों ओर निहारने लगी. पूर्णमासी की चांदनी से भीगी रात. ऐसा लगता जैसे फ्यूंली के पीत पुष्पों से सजी चदरी सी बिछी हो. चारों ओर. सब साफ़ दिख रहा था. गाड़ गधेरे, खेत-खलियान, रौतों के केलों के बगीचे, सेठों के बगवान. घट-पनघट और संगम का श्मशान, चांदनी रात में धान के खेतों के बीच निकली गूल का पानी ऐसा चमकता जैसे धरती पर बिखेर दिया हो किसी ने सोने का नौलखा हार. पर दुनिया में सब कुछ भरे पेट ही सुंदर लगता है. लेकिन सकल पदार्थ भी तो हैं इस दुनिया में! रौतों का केले का बागीचा, सेठों का बगवान भी. जब सब कुछ यहीं है तो क्यों कोई भूखा रहता है. यह सब होते हुए भी रामायण में कहा भी गया है, ‘करमहीन नर पावत नाही.’ बिना कर्म किए कोई पदार्थ नहीं मिल सकता इस दुनिया में!
तो सतवंती ने फिर आंखें फैलाकर चारों तरफ देखा. कहीं-कहीं खेतों में कौणी की बालियां दिख रहीं थीं. केले के बगीचे में कोई-कोई केले का हरा फिरका (गुच्छा) चमक रहा था और फिर सावन का महीना भी तो था. सेठों के बगवान में अभी भी जरुर कुछ आम होंगे, पक कर गिरे हुए. उसने सोचा तो क्या चोरी कर ली जाए! नत्थू पधान की बहू, बड़ी कोठिवालों की बेटी, क्या बन जाए चोर! फिर उसने अपने आप से पूछा, क्या चोरी करना कोई कर्म नहीं? जवाब मिला ‘जरूर चोरी भी एक कर्म है’ चोर योजना बनाते हैं, दिमाग लगाते हैं, खतरा मोल लेते हैं और साथ में मेहनत भी तो करते हैं. तब ही तो होता है उसे पदार्थ प्राप्त. लेकिन समाज इसको बेशर्मी का कार्य मानता है. कभी सुना था उसने नीति वाक्य, बुभुक्षित किम न करोति पापं. (भूखू क्य पाप नि करदू) क्षीण मनुष्य में तो कोई करूणा ही नहीं होती. फिर ये भी है. धर्म की रक्षा भी तो तभी होगी जब शरीर रहेगा. इसीलिए प्राण रक्षा के वास्ते जब उधार-पगार, कर्ज-पात तक भी न मिले तो चोरी-चकोरी करनी भी उचित है. ऋषि विश्वामित्र ने अकाल के दिनों में सड़क में पड़ा हुआ एक मरा कुत्ता खा लिया था. कि भई प्राण रक्षा के वास्ते भक्ष्याभक्ष्यं तक पाप नहीं है और ना ही आपातकाल में कोई मर्यादा ही होती है. तो किसी तरह से सतवंती छज्जे से उठी. टोकरी उठाई. उसके भीतर एक रस्सी रखी. हाथ पर एक लाठी ले और कमरबंद में दरांती खौसी. एक नजर बच्चों पर डाली. फिर चुपचाप किवाड़ भेड़ कर वह छज्जे से होकर सीढी उतर रही थी. तभी उसकी नजर संगम के श्मशान में एक अध जले मुर्दे के पंजर को नोचते, लड़ते दो शियारों पर पड़ी. उसका सारा शरीर झर-झर करने लगा और बदन में जैसे टिमरू (कटीले रोम युक्त झाड़ी) से, रोऐं खड़े होने लगे. कपाल पर पसीना छलक गया था और वह टोकरी लेकर सीढी पर ही बैठ गई अमावस और पूनम की रात में वैसे ही प्रेत बाधा बढ़ जाती है. कभी सुनी थी उसने की घटकारों में अहेड़ की चीख की कथा. हुँकारने वाले मसाण के किस्से, बिना सिर चलते-फिरते काले खाबेस की कहानी. जलती मशाल (रांका) लिए भूत की बातें. बिना कर्म के मरे लोगों की करहाती आवाज के साथ, लकड़म-लकड़म घिसट कर चलता मसाण. गब्दू आज वैसे भी गुस्से में घर छोड़ निकला था. उधर सारा गांव गहरी नींद में सो रखा था. बस सिर्फ कभी-कभी स्वां-स्वां करती नदी की ठंडी हवा थी चल रही थी. जिससे पीपल के पत्ते कभी-कभी खड़खड़ते और हर तरफ शांति. फीकी सी हंसी लिए चांदन.
(Story by Bhagvati Prsaad Joshi)
सतवंती ने हनुमान जी का सुमिरन किया और फुर्ती के साथ सीढी उतर गई और फिर उसने तेजी से सगोड़ा पर किया सामने पीपल का पेड़ था सिर्फ घुऊ-घुऊऊ करते एक घुग्घू घु्र्रा रहा था. सतवंती के पांव से झाड़े पीपल की पत्तों में कुछ खड़खड़ाहट हुई तो बड़ के पेड़ में बैठी दो डांगण फटर-फटर करके उड़ गई और कुछ नहीं. गधेरा नजदीक आया तो मेंढकों की टरटराहट की आवाज तेज़ हो गई और नदी किनारे की झाड़ियों से निनारो (चिल्घटों) की झंकार तेज़ हो गई. सिर्फ बीच में शमशान का अंजर पंजर नोचते सियारों की उहां उंहां की चिल्लाहट और कुछ नहीं. भरपूर चांदनी और पानी की लहरों में हिलाता-डुलता गोते लगता चाँद उसने धोती थाम कर नदी पार की, दीवार फांद कर चढ़ने पर उसके हाथ की दरांती मशीनवत कौंणी के बोलियां को काटने लगी. आधी टोकरी भरी तो जल्दी-जल्दी वह दीवार फांद कर केले के खेतों में पहुंची लाठी पर रस्सी बांध केले का फिरके (गुच्छे) के डंठल पर फंसाकर खींचा तो गद्द से केले का एक गुच्छा गीले खेत पर आ गिरा तभी उसके दाहिने तरफ से खित-खिताहट की सी हंसी सुनाई दी .उसे कंप-कपी सी आ गई. पर वहां कुछ नहीं था सिर्फ मन का भ्रम था. खित-खिताहट की आवाज कूल के पानी की थी जो गड्ढे में गिर रहा था. इसे कहते हैं बहम का भूत. उसने मन ही मन में सोचा. केले का गुच्छा टोकरी में रखा और फिर पहुंच गई आम के बगवान उसका अनुमान सही था अभी बगवान के पके आम, डाली से टपक रहे थे. उन्हें देखकर उसके खाली पेट की भूख एकदम बढ़ गई. सबसे पहले उसने जल्दी-जल्दी कर आम चूसे तो शरीर में कुछ जान आई फिर वह टीपने लगी आम.
एक नजर उसने आसमान की तरफ डाला तो एक काला बादल का टुकड़ा धीरे-धीरे चाँद की रोशनी की तरफ लपक रहा था. उसने अंदाजा लगाया हो सकता है कि वह चांदनी को अंधेरे में करके हवा से किसी और दिशा की ओर मोड़ दे पर उसके आगे बढ़ने से पहले ही वह आम उठाकर बहुत जल्दी घर पहुंच जाना चाहती थी. पहले-पहले तो उसने बहुत जल्दबाजी की फिर वह किसी तरह आम देखकर उसे आनंद लगने लगा. इतनी जल्दबाजी होने लगी कि चाँद की तरफ तेज़ी से बढ़ते बादल का ध्यान ही नहीं रहा और अचानक घुप्प अंधेरा हो गया. मानों चारों तरफ भूरा काला कालिख सा पुत गया हो. और सियारों के रोने की आवाज एका-एक तेज़ होने लगी. चौतरफा जैसे भय के भूत सिंग उठाये खड़े थे. नदी किनारों की छलछिद्र चक्कर से काटने लगे. अब जैसे घाटे अपाटो में पल्ली गांव की आवाज गूंजने लगी (अब जन घाटों-बैटन माँ पल्ली गौण की आवाज़ गूंजना लगे)… समझ नहीं आया.
(Story by Bhagvati Prsaad Joshi)
अंधेरा बढा तो तभी शमशान की तरफ से एक रांका (तीखा प्रकाश पुंज) उठा और धीरे-धीरे उसकी ओर बढ़ता ही चला आ रहा था. पहले लाल-लाल, फिर पीला-पीला, कभी बुझाता कभी जलता. सतवंती पागला सी गई बगवान की तरफ सतवंती के दिल दिमाग में मशाल वाले भूध का भय व्याप्त था. और उसकी टोकरी जमीन पर गिर गई दांत जर्जर करने लगे. पसीने से लथपथ हो गई और साथ के पेड़ पर चिपक गई राका बढ़ते-बढ़ते उसकी तरफ आ रहा था. पहले पहले लाल, फिर पीला कभी बुझाता और कभी जलता सतवंती को घबराहट सी होने लगी उसकी आंखें जैसे मृत्यु भाव से अपने आप बंद होने भाति लगी और जैसे नस-नस का खून भी जम गया हो. तभी किसी ने पुकारा सतवंती… सतवंती! डर मत मैं हूं मैं! सतवंती ने छट आंखें खोली तो यह वाक्य देखकर चकित रह गई. उसके सामने भूत नहीं बल्कि चीड़ की लकड़ी की मसाल जलाए गब्दु था खड़ा. उसकी आंखों में पश्चाताप के आंसू थे. “हमको आज यह दिन देखने पड़ेंगे…” गब्बू की आवाज गदगदी हो गई थी. अब मैं गब्बू नहीं असली गजे सिंह छौं गजे सिंह… मैंने तुझे बहुत सताया… पर अब नहीं… अब मैं समझ गया की सुख का आधार है मेहनत! मेरा पिता नत्थू पधान मेहनत से ही बना था सफल किसान. अब मैं भी दस नाली के खेत को उसी की तरह जोतूंगा और फिर पियूंगा एक शेर घी और बन जाऊंगा सचमुच का कब गब्दू पधान – अब सतवंती घर जा बच्चों को देख और मैं…
“और तुम कहां इतनी रात को”
“फिलहाल में काल से निपटने के वास्ते जा रहा हूं सड़क के काम पर… चौधर… जल्दी जाऊंगा और जल्दी नाम दर्ज हो जाएगा मेरा… फिर शाम को पैसा लेकर घर आऊंगा पर. अरे मुझको रात क्या मैं तो निशाचर हूं निशाचर और गब्दू अब असली गजे सिंह बन गया था एक ही छलांग में नदी पार करके पहुंच गया दूसरे छोर पर स्वर्ग में आसमान के काले बादल हट गए और फिर धरती में फयूंली के फूल चादर की तरह फैल गयी फुलफट की चांदनी.
सतवंती को ऐसा लगा जैसे गब्दू के सिर पर चढ़ा हुआ भूत उतर गया हो.. और अब उस भूत का चमत्कारी चुफ्फा लग गया हो हाथ!
(Story by Bhagvati Prsaad Joshi)
भगवती प्रसाद जोशी की गढ़वाली कथा संग्रह ‘एक ढांगा की आत्मकथा’ की एक कहानी का हिंदी रूपांतरण. (हिंदी अनुवाद –जागेश्वर)
दुगड्डा, पौड़ी गढ़वाल में रहने वाले जागेश्वर जोशी मूलतः बाडेछीना अल्मोड़ा के हैं. वर्त्तमान में माध्यमिक शिक्षा में अध्यापन कार्य कर रहे हैं. शौकिया व्यंगचित्रकार हैं जनसत्ता, विश्वामानव,अमर उजाला व अन्य समसामयिक में उनके व्यंग्य चित्र प्रकाशित होते रहते हैं. उनकी कथा और नाटक आकाशवाणी से भी प्रसारित हो चुके हैं.
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