फ्रैंकफर्ट में जहाज बदला और हंगरी के स्थानीय समय के अनुसार पूर्वाह्न साढ़े दस बजे, जिस वक़्त भारत में दोपहर के दो बज रहे होंगे, मैं उस नई दुनिया में पहुंचा जिसे साक्षात महसूस करते हुए भी जिसकी उपस्थिति पर मुझे यकीन नहीं हो पा रहा था. यकीन हो भी कैसे सकता था; कहाँ भारत के विराट हिमालय की तलहटी पर बसा अनगढ़ पहाड़ी वनांचल गुमदेश, जहाँ मेरे पुरखे पैदा हुए थे, और कहाँ यूरोप के मध्यपूर्व में बसा महान रोमन साम्राज्य का शुरुआती खूबसूरत देश हंगरी.
दूतावास से जो व्यक्ति मुझे लेने के लिए हवाई अड्डे पर आया हुआ था, अपनी गाड़ी सरपट दौड़ाता हुआ बुदापैश्त के अंतर्राष्ट्रीय अतिथिगृह ‘मेनेशी उत’ में रुका. ‘मेनेश’ (घोड़ों का झुंड) में ‘ई’ विशेषण लगे इस शब्द का अर्थ है, ‘घोड़ों के झुंड वाली सड़क’. दोनों ओर खूबसूरत पेड़ों से घिरी मेनेशी-उत के मोड़ पर चर्च शैली में बनी कॉटेज के स्वागत-कक्ष पर ज्यों ही मैंने कदम रखा, खिड़की से लगे बेड़ू के पेड़ पर बैठी घुघुती का स्वर कानों में पड़ा, ‘घूघूती… बासूती…!
मैं चौंका! हंगरी की धरती पर पाँव रखते ही पहली जिज्ञासा मेरे मन में उठी कि सुदूर हिमालय के वनांचल से उड़कर रोमन साम्राज्य में यूरोप की सबसे बड़ी नदी दुना (डेन्युब) के किनारे बसे शुरुआती शहर बुदापैश्त में प्रवेश करने के बाद भी क्या बेड़ू के पेड़ पर बैठी घुघुती भी मेरे साथ यात्रा कर रही थी? क्या यहाँ के पक्षी भी हमारे पहाड़ों की तरह स्वागत करते हैं? संसार भर के पक्षी क्या मेरे गाँव की ही भाषा बोलते हैं?
यह कैसे संभव है कि मेरे गाँव की घुघुती अपने कंठ से जो स्वर निकालती हो, हंगेरियन घुघुती भी वही शब्द बोलती हो! मेरे गाँव की भाषा कुमाऊनी और हंगरी की भाषा ‘मज्यार’ (हंगेरियन) में जमीन आसमान का फर्क है, हालांकि हंगरी पहुँचने के साल भर बाद ही जब उस विश्वविद्यालय की 125वीं जयंती मनाने के उपलक्ष्य में तत्कालीन भारतीय मानव-संसाधन मंत्री मुरली मनोहर जोशी बुदापैश्त पधारे थे और वो मेरी पत्नी के साथ कुमाऊनी में बतिया रहे थे, हमारी विभागाध्यक्ष मारिया नेज्येशी एकाएक चौंकी थी, ‘अरे, मंत्री जी, मुझे लगा, जैसे आप लोग हंगेरियन में बातें कर रहे हैं!’
घुघुती के स्वागत-स्वर के बाद मुझे अपनी और उस देश की संस्कृति की समानता का फिर से तब अहसास हुआ जब मैंने विश्वविद्यालय में अपनी पहली कक्षा ली. पहले दिन मेरे विद्यार्थियों ने मुझसे अपना परिचय देने के लिए कहा तो मैंने उन्हें अपने इलाके के मशहूर लोक-गायक नैन नाथ रावल की आवाज में उन्हें यह कुमाऊनी गीत सुनाया :
ओ हिमुली/ ह्यो पड़ो हिमाला डाणा/ ठंडों लागोलो क्ये?/
वारा चांछे, पारा, चांछे/ दिल लागोलो क्ये?/
ओ हिमुली/ वारा भिड़ा चड़ी बासी/ पार भिड़ा करौली/
भरिया जोवन त्यर/ तसी जै क्ये रौली/ ओ हिमुली/
ठंगरी में चड़ी बासी/ हरिया रंगे की/
चाने छै, तौ हौसी कसी/ चाने छै संगै की/ ओ हिमुली/
कुमू बै कुमाया ऐरौ/ सोर बै सोर्याला/
किलै खिती गैछे सुवा/ तसो मायाजाला/ ओ हिमुली…
(ओ हिमुली, पर्वत शिखरों पर बर्फ पड़ चुकी है, क्या ठंड आरंभ हो चुकी है!/ इस तरह तू आर-पार किसे तलाश रही है हिमुली/ क्या तेरा दिल बेचैन है?/ शिखर के इस पार्श्व में मधुर आवाज वाली चिड़ी गा रही है और उस पार्श्व में कर्कश आवाज वाली करौली/ ओ हिमुली, सोचो तो, तेरा भरा-पूरा यौवन क्या हमेशा ऐसा ही बना रहेगा?/… लंबूतरे सूखे-उदास खंभे पर हरे रंग की चिड़िया गा रही है/… तू ऐसे आशा भरे उत्साह के साथ किसे तलाश रही है हिमुली?/ क्या इस एकांत में तुम्हें अपने साथी की तलाश है?/… देखो, काली-कुमाऊँ से कुमइय्या आ चुका है और सोर-पिथौरागढ़ से सोर्याल/ ओ हिमुली, लेकिन तूने ऐसा मायाजाल क्यों फैला रखा है?)
मैंने विद्यार्थियों को गीत का अर्थ विस्तार से हिन्दी में समझाया तो एमए तीसरे वर्ष का छात्र हिदश गैरगेय बड़े उत्साह के साथ बोला, ‘आपका इलाका स्केंडीनेविया से मिलता है. पिछले साल मैं अपने पिताजी के साथ वहाँ गया था.‘ गैरगेय की इस प्रतिक्रिया से मैं इतना प्रभावित हुआ कि मैंने उस साल उपन्यास के पर्चे में अज्ञेय का उपन्यास ‘अपने-अपने अजनवी’ शामिल किया.
नहीं, मैं यहाँ आपको हंगरी के अपने संस्मरण सुनाने नहीं जा रहा. अलबत्ता यह है तो मेरी बुदापैश्त यात्रा का ही विवरण, जिसने एकाएक कहानी का जामा पहन लिया.
मैंने अपने विद्यार्थियों को बताया कि बुदापैश्त में प्रवेश करते ही मेरा स्वागत मेरी जन्मभूमि से मेरे साथ लगातार यात्रा कर रही घुघुती ने किया और उन्हें उससे जुड़ी लोक कथा ‘घूघूति-बासूति’ सुनाई. उन्हें पक्षी को पहचानने में तो नहीं, ‘घुघुती-बासुती’ पद को समझने में दिक्कत हुई.
दरअसल यह कहानी मेरी यूरोप यात्रा की तरह इसी लोककथा से शुरू होती है. लाख हम पढ़-लिख लें, कितना ही ज्ञान प्राप्त कर लें, अपने आगामी पलों के बारे में विश्वास के साथ कुछ भी नहीं कह सकते. गाँव से शहर की ओर चला था तो इस बात का अनुमान कहाँ लगा पाया था कि इतनी भारी-भरकम किताबों को अपने दिमाग में घुसा लूँगा. बरसों तक विद्यार्थियों को पढ़ाता रहा, इस उम्मीद में कि अपने पिछड़े इलाके में ज्ञान की ज्योति जला सकूँ; कि तभी संयोग आया, एक नयी दुनिया से बुलावा आया और नैनीताल से इस अनजाने देश हंगरी आ गया. अपरिचित भाषा-संस्कारों वाले विद्यार्थियों को पढ़ाने लगा. जिस भाषा का मेरे देश में कोई सम्मान नहीं था, उसे सिखाने के लिए गोरे छात्रों की भीड़ जमा हो गयी. मेरी जिंदगी का नया अध्याय शुरू हो गया.
कक्षा में हिन्दी पढ़ने वाले कुल चौदह विद्यार्थी थे, जिनकी उम्र बीस-बाईस साल के बीच थी. नौ लड़कियाँ और पाँच लड़के. मैं पिछली सदी के आखिरी दशक में हंगरी गया था, जब वहाँ शिक्षा का ढांचा पूर्व-सोवियत संघ का था. अठारह साल की उम्र में बारहवीं तक की स्कूली शिक्षा पूरी करने के बाद कोई भी विद्यार्थी चार साल में दो विषयों में एमए की डिग्री ले सकता था. इंडोलॉजी में एमए कर रहे इन विद्यार्थियों में से ज़्यादातर बच्चे दर्शनशास्त्र में भी एमए कर रहे थे.
हिन्दी के अपने विद्यार्थियों को लेकर मुझे कई नयी जानकारियाँ मिली, उनके पारिवारिक ढाँचे और आपसी सरोकारों के बारे में. संसार के एक छोटे-से भाषा-परिवार फिनो-उगरिक में से जन्मी भाषा मज्यार की लिपि तो रोमन ही है, मगर दूसरे यूरोपीय भाषाओं की लिपियों की अपेक्षा यह अधिक वैज्ञानिक है. खुद को हूणों का वंशज स्वीकार करने वाले हंगरीवासी दूसरी प्राचीन जातियों की तरह मध्य एशिया की घुमंतू शिकारी और पशु-पालक जाति के साथ खुद को जोड़ते हैं. लंबे समय तक पूर्व सोवियत संघ का हिस्सा रहने के कारण परिवारों का ढांचा इस तरह का रहा है कि स्कूली शिक्षा तक बच्चों पर माता-पिता का (मुख्य रूप से माँ का) नियंत्रण रहता है, विश्वविद्यालय में आते ही वे अपनी आजीविका खुद तलाशते और आत्मनिर्भर हो जाते थे. अधिकतर बच्चों के माँ और पिता से जुड़े दो सम्बोधन होते थे, जिन्हें वे क्रमशः ‘माँ’ के अलावा ‘मेरे पिताजी की पत्नी’ और ‘पिताजी’ के अलावा ‘मेरी माँ के पति’ के नाम से पुकारते थे. मैंने उन्हें समझाने की कोशिश की कि ऐसी माँ को भारत में ‘सौतेली माँ’ कहते हैं, वे उसे ‘माँ’ कहने के लिए किसी भी हालत में राजी नहीं थे. “जो हमारी माँ नहीं है, उसे हम ‘माँ’ कैसे कह सकते हैं?… वह तो मेरे पिताजी की पत्नी है!”
पहाड़ी औरतों की कठिन जिंदगी और अकेलेपन की प्रतीक घुघुती तथा उससे जुड़ी लोककथा के आशय को समझने में मेरे विद्यार्थियों को ही नहीं, कुछ हद तक मुझे उन्हें समझाने में भी दिक्कत हुई. असल में, ‘घुघुती-बासुती’ ऐसा सार्थक पद नहीं है कि उसका कोई सीधा-सीधा अर्थ बताया जा सके. कबूतर के परिवार का, उसकी अपेक्षा कहीं छोटे आकार का पहाड़ी पक्षी घुघुता वसंत ऋतु की दस्तक देते ही किसी पेड़ की ऊंची टहनी या मकान की छत की धुरी पर बैठा उदास-मधुर आवाज में लगातार टेर लगाता है, ‘घूघूती… बासूती’… कबूतर की ही तरह घुघुती अपने गले में हवा भरकर जो आवाज निकालती है, पहाड़ी औरतें उस ध्वनि को ‘घुघुती-बासुती’ नाम देती हैं. संभव है, घुघुती अपनी भावना व्यक्त करने के लिए किन्हीं और शब्दों का प्रयोग करती हो, लेकिन औरतों ने उसे अपने शब्द देकर अपनी पीड़ा की अभिव्यक्ति बना डाला. उस आवाज में करुणा और उदासी बहुत साफ झलकती है मानो वे दोनों – घुघुती और औरतें – अपने शाश्वत अकेलेपन को चारों ओर के शांत वायुमंडल में अनंत तक फैला देना चाहती हों!
पहाड़ों में परिवार और समाज-आर्थिकी का सारा भार स्त्री पर होने के कारण घुघुते को सदियों से पहाड़ी औरत की करुणा भरी जिंदगी का रूपक माना जाता रहा है. यही कारण है कि अपने सूने-शांत जीवन में जब भी स्त्री को अवकाश मिलता है, वह अपने बच्चों या छोटे भाई-बहनों को पीठ के बल लेटकर अपने पाँवों की कुर्सी बनाकर झुलाती है… ‘घूघूती… बासूती…
यही वह रूपक था, जिसे मैंने बचपन से सुनी जाती रही घुघुते की आवाज को अपनी माँ और बहनों की स्नेहयुक्त करुणा के रूप में सँजो कर रखा था और जिस संगीत ने मुझे अपने बचपन के गाँव से लेकर भारत से हजारों मील की दूरी पर बसे बुदापैश्त में अकेला नहीं होने दिया और मुझे हमेशा पारिवारिक स्नेह की धारा से जोड़े रखा.
मगर यह तो मेरी कहानी है, जिसे आप मेरा अनुभव-क्षेत्र कह सकते हैं… इसे मानवीय करुणा की कहानी तो नहीं कहा जा सकता. मुझे नहीं मालूम कि आदमी के अनुभव और कहानी में क्या फर्क होता है; होता भी है नहीं; मगर मुझे लगता है, एक रचनाकार की जिंदगी का सारा संघर्ष इन्हीं दोनों को एक-दूसरे में चक्राकार गूँथने में ही व्यतीत होता है.
नैन नाथ रावल के द्वारा गाये गए लोकगीत के दो बिंबों ने मेरे विद्यार्थियों को उनके अनुभव जगत से कहीं दूर ले जाकर खड़ा कर दिया. एमए के तीसरे साल में पढ़ रहे इन बच्चों को मानो पहली बार अहसास हुआ कि जिंदगी के यथार्थ के समानान्तर एक और भी यथार्थ है, जो लगता तो वास्तविक है, मगर उसे कैसे छुवा जाए, इसे वे नहीं जानते. अनुभव के इसी छायाभास को महसूस करने के लिए दो छात्र – हिदश गैरगेय और चाबा किश अपना अधिकांश वक़्त मेरे साथ बिताने लगे और हम लोग जल्दी ही दोस्त बन गए.
नैन नाथ रावल के गाए लोकगीत में अनेक बिम्ब थे, जिनमें से दो ने तो मानो मेरे इन नए दोस्तों को बेचैन ही कर दिया था. कक्षा के अलावा भी वे लोग ज़्यादातर अपना समय मेरे साथ बिताने लगे. अपनी बेचैनी को वे लोग जिज्ञासा के रूप में व्यक्त करते थे, हालांकि हिन्दी पर अधिकार न होने के कारण खुद को पूरी तरह व्यक्त नहीं कर पाते थे.
… “पर्वत शिखरों पर बर्फ पड़ चुकी है, क्या ठंड आरंभ हो चुकी है!… इस तरह तू आर-पार किसे तलाश रही है हिमुली/ क्या तेरा दिल बेचैन है?” यह तो उनके लिए एक परिचित बिम्ब था, शायद इसे वे समझ भी गए थे;
काफी हद तक इस दूसरे बिम्ब को भी कि, “शिखर के इस पार्श्व में मधुर आवाज वाली चिड़ी गा रही है और उस पार्श्व में कर्कश आवाज वाली करौली/ ओ हिमुली, तेरा भरा-पूरा यौवन क्या हमेशा ऐसा ही बना रहेगा?…”
यह बिम्ब भी शायद उनके लिए अपरिचित नहीं रहा होगा कि “लंबूतरे सूखे-उदास खंभे पर हरे रंग की चिड़िया गा रही है/… तू ऐसे आशा भरे उत्साह के साथ किसे तलाश रही है हिमुली?/ क्या तुम्हें भी अपने संगी-साथी की तलाश है?…”
मगर अनेक कोणों से समझाने के बावजूद मेरे ये हंगेरियन छात्र गीत की इस पंक्ति के आशय को नहीं आत्मसात कर पाये: “देखो, काली-कुमाऊँ से कुमय्या आ चुका है और सोर-पिथौरागढ़ से सोर्याल…” वे दोनों कुमइयों (काली-कुमाऊँ क्षेत्र के निवासी) और सोर्यालों (पिथौरागढ़ के वासी) को शेष पहाड़ी समाज की अपेक्षा दिये गए महत्व को नहीं समझ पा रहे थे. “उनमें ऐसी क्या खासियत है, जिसके कारण आप उन्हें विशेष महत्व दे रहे हैं!” चाबा किश कह रहा था, “क्या यह कोई अलग किस्म का राष्ट्रवाद है?”
गैरगेय का कहना था, “असीम प्रकृति के बीच तलाशते अपने साथी के लिए बिछाया गया मायाजाल क्या कोई जादू-टोना है?” हालांकि अंततः उसकी समझ में भी आ गया कि यह उनके एकांत को पाटने के तलाश की प्रक्रिया है, मगर यह बात उसकी भी समझ में नहीं आई कि एकांत को पाटने के लिए ‘कुमय्ये’ और ‘सोर्याल’ को ही औरतें क्यों चुनती हैं?…
ऑत्वौश लोरांद यूनिवर्सिटी! संसार के सबसे खूबसूरत शहरों में से एक बुदापैश्त का एक ज्ञानसंपन्न विश्वविद्यालय. यहीं पर मुझे हंगेरियन विद्यार्थियों को हिन्दी पढ़ानी थी और यहीं मुझे हूणों-मंगोलों की मिलीजुली मुखाकृति के दो प्यारे विद्यार्थी मिले थे, हिदश गैरगेय और चाबा किश. बाकी विद्यार्थी भी उतने ही आत्मीय थे, पर ये दो ज़्यादातर वक्त साथ रहने के कारण मुझसे घुलमिल गए थे. उनकी इसी आत्मीयता के कारण मेरी विभागाध्यक्ष मुझसे कहती थीं, ‘बिष्टजी, आपने क्या जादू कर दिया हमारे छात्रों पर; हमारे कहने पर तो ये एक गिलास पानी भी नहीं ला देते, आपके पीछे तो हर वक़्त लगे रहते हैं.‘… अब तो विश्वविद्यालय की नई इमारत बन गयी है, जिन दिनों मैं वहाँ गया था, तब भी वह आकाश छूते विशाल चर्च के आकार की इमारतों वाला भव्य परिसर था.
ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी में हिन्दी का पहला प्राध्यापक इमरे बंघा इसी विश्वविद्यालय का विद्यार्थी रहा है जिसने यहाँ से एमए करने के बाद शांतिनिकेतन जाकर रीतिकालीन कवि घनानन्द पर पीएचडी की थी. (इमरे घनानन्द को उसके वास्तविक नाम ‘आनंदघन’ के नाम से पुकारता था और इसी नाम से उसने शोध कार्य किया था.) अपने खून में योद्धाओं का संस्कार लिए, पुख्ता कद-काठी के हंगेरियनों को इमरे बंघा यूरोप के क्षत्रिय कहता है. उसी ने बताया कि पुराने समय में मध्यपूर्व यूरोप की सेना के महत्वपूर्ण जिम्मेदार पदों पर उसके ही देशवासियों को नियुक्त किया जाता था. उसके साथ बातचीत के दौरान मुझे हिमालय वासियों और हंगेरियनों के चरित्र में एक और समानता भी देखने को मिली : वचन के पक्के और निर्भीक लोग. शायद यही कारण है कि बुदापैश्त का विश्वविख्यात वीरों का स्मारक ‘हुशुक तेर’ (हीरो स्क्वायर) उस देश के वीरों की सच्ची बानगी प्रस्तुत करता है.
यह भी एक संयोग ही था कि 1999 के कारगिल युद्ध में जब मेरा भांजा शहीद हुआ था, मुझे इसकी सूचना हुशुक तेर में अपने दोनों छात्रों – गैरगेय और चाबा – के साथ चहलकदमी करते हुए मिली थी. उसी समय मुझे मालूम हुआ कि हमारे तमाम परिजनों के द्वारा सरकार पर इस बात का दबाव डाला जा रहा है कि उसके बलिदान को प्रादेशिक स्तर पर शहीद दिवस के रूप में मनाया जाय और उसके शहर पिथौरागढ़ में उसकी प्रतिमा स्थापित की जाय.
हुशुक तेर के विशाल चौक के बीच ही मैंने जब अपने हंगेरियन छात्रों को इस बात की सूचना दी तो उनकी जो प्रतिक्रिया थी, उसने तो मुझे चौंका ही दिया. अपनी जगह सही होते हुए भी मुझे छात्रों का पक्ष अजीब-सा, अमानवीय लगा.
मेरे दोनों छात्रों पर इस समाचार की कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई, उल्टे, उन्हौंने बताया कि मेरे परिवारजन एक फौजी की मृत्यु पर इस तरह का तमाशा क्यों करना चाहते थे!
चाबा ने कहा, ‘आपका रिश्तेदार फौज में नौकरी करता था, क्या नौकरी स्वीकार करते हुए उसने नहीं सोचा था कि उसके साथ कभी ऐसी दुर्घटना हो सकती है! आखिर वह बाकी दूसरी नौकरियों की तरह एक नौकरी ही तो कर रहा था, इस काम के बदले उसे वेतन मिलता था. सरकार उस पर अतिरिक्त कृपा क्यों करती?”
मैंने उन्हें बताया कि उसके नहीं रहने घर एकदम सूना हो जाएगा, बड़ा बेटा आस्ट्रेलिया में नौकरी करता है, जहां से वह वापस नहीं आना चाहता. छोटे बेटे की मौत के बाद उनका कोई सहारा नहीं बचेगा.
“इसमें सरकार क्या कर सकती है, हर रोज हजारों लोग दुर्घटना के शिकार होते हैं, आपका रिश्तेदार भी एक दुर्घटना का शिकार हो गया, इसके लिए सरकार कहाँ जिम्मेदार है?”
मैं अपने विद्यार्थियों की बातों से असहमत नहीं था, मगर राष्ट्रभक्ति को जो जज्बा मेरे संस्कारों में भरा था, उसे देखते हुए मैं उन दोनों से खुले तौर पर सहमत नहीं हो पा रहा था.
“उस लड़के के प्रति श्रद्धांजलि प्रकट करना आपके परिवार का काम है, देश का नहीं”, गैरगेय की समझ में मेरी भावुकता कतई नहीं आ रही थी. वह काफी रूखे अंदाज में बातें कर रहा था.
तीन साल के बाद जब में भारत लौटा तो देखा, चालीस साल की मेरी बहिन एकदम बूढ़ी लगती थी. रो-रो कर उसकी आवाज डूब गयी थी और आँखों में गड्ढे उभर आए थे. बड़ा बेटा स्थायी तौर पर आस्ट्रेलिया में बस गया था और वहीं एक जापानी लड़की से उसने शादी कर ली थी.
भारत लौटते हुए चाबा और गैरगेय मुझे बुदापैश्त हवाई अड्डे तक छोड़ने आए थे. अपनी अटपटी-सी मगर प्यारे उच्चारण वाली हिन्दी में उन्होंने अपनी कक्षा में मेरे द्वारा पहले दिन सुनाई गई कुमाऊनी कविता की याद दिलाई और उसी प्यारे अंदाज में गीत की पहली पंक्ति गाई, ‘ओ हिमुली…’
बुदापैश्त से फ्रेंकफ़र्ट और दिल्ली होते हुए जब मैं तीसरे दिन नैनीताल पहुंचा, वह आवाज भी लगातार मेरे साथ यात्रा करती रही.
( यह कहानी ‘पाखी’ मासिक के जून, 2019 अंक में प्रकाशित हुई है. )
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– काफल ट्री डेस्क
लक्ष्मण सिह बिष्ट ‘बटरोही‘ हिन्दी के जाने-माने उपन्यासकार-कहानीकार हैं. कुमाऊँ विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग के अध्यक्ष रह चुके बटरोही रामगढ़ स्थित महादेवी वर्मा सृजन पीठ के संस्थापक और भूतपूर्व निदेशक हैं. उनकी मुख्य कृतियों में ‘थोकदार किसी की नहीं सुनता’ ‘सड़क का भूगोल, ‘अनाथ मुहल्ले के ठुल दा’ और ‘महर ठाकुरों का गांव’ शामिल हैं. काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.
बंपुलिस… द एंग्लो इंडियन पौटी – बटरोही की कहानी
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