बुआजी के एक विधुर जेठ थे, जिन्हें घर के सब लोग ‘बड़े बाबजी’ पुकारते थे. मझोले कद के बड़े बाबजी एक गुस्सैल अधेड़ थे, जिनकी भौंहें हमेशा तनी रहती और बिना बात गुस्सा करना उनका शगल था. कभी असावधानीवश हाथ पर से पानी का गिलास गिर पड़े तो वे चाहे घर के किसी भी कोने में हों, न जाने किस तीसरे नेत्र से उनको पता चल जाता था और वे उसी अदृश्य स्थान से चिल्लाने लगते, क्यों गिराया गिलास ? वे तब तक पूछते रहते जब तक कि उनको जवाब नहीं मिल जाता. हर बार वे मेरे लिए विशेषण के रूप में किसी नई भद्दी गाली का प्रयोग करते और विशेषणों की अश्लीलता हर अगले सवाल में बढ़ती जाती. उनके इन सवालों का कोई उत्तर ही नहीं हो सकता था, इसलिए जवाब तो कभी नहीं दिया जाता, अलबत्ता सवाल की पुनरावृत्ति और गालियों के विशेषण बढ़ते चले जाते. गिलास कोई जानबूझ कर तो गिराया नहीं गया जाता था, लेकिन वह इस बात को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं होते. मेरी विवशता थी कि मेरे पास उनके सवालों के जवाब नहीं होते थे, उनकी विवशता थी कि वे बिना उत्तर सुने चिल्लाना बंद नहीं करते थे. वे पढ़े-लिखे नहीं थे, मगर उन्हें भ्रम था कि वह संसार के सारे विषयों के बारे में जानकारी हैं, इसलिए उनके पास प्रत्येक सवाल के उत्तर हमेशा मौजूद रहते, भले ही उसका संबंध मूल प्रश्न से हो या नहीं. उनको मुझे हर सुबह ‘रामचरित मानस’ और रात को ‘गीता’ का पाठ सुनाना होता था. खास बात यह थी कि उनको इस बात की पूरी छूट थी वे कभी भी, किसी भी प्रसंग में मुझे टोक सकते थे या सुझाव दे सकते थे, जब कि मुझे उनके सुझावों को अंतिम निर्णय की तरह स्वीकार करना पड़ता था.
उदाहरण के लिए ‘मानस’ की इस पंक्ति, ‘कीर के कागर ज्यों नृप चीर’ सुनते ही वे आगबबूला हो जाते. कोई अश्लील गाली मेरे माथे पर डंडे की तरह पड़ती और वे अपनी सदाबहार गर्जना में चिल्लाते, ‘अब आँख भी फूट गई हैं तेरी, साले… ‘कागज’ को ‘कागर’ बोल रहा है. ठीक से होश में पढ़ जरा… इतने दिन पढ़कर तो उल्लू के सिर में भी दिमाग पैदा हो जाय!’ मैं हिम्मत करके बड़बड़ाता, ‘मगर इस किताब में तो ‘कागर’ ही लिखा हुआ है बड़ेबाबजी…’ बिना रुके उनका जवाब तैयार रहता था, ‘अरे सुअर की औलाद, भगवान तुलसीदास गलत नहीं लिख सकते. ये तुम्हारे छापने वाले ने गलत लिख दिया होगा.’ मैं उन दिनों सातवीं कक्षा का छात्र था, मुझे खुद ‘कागर’ का अर्थ मालूम नहीं था, इसलिए बड़ेबाबजी का अर्थ स्वीकार करना पड़ता. मुझे खुद बहुत बाद में ‘कागर’ का वास्तविक अर्थ मालूम पड़ा.
बड़ेबाबजी के लिए संसार का सारा ज्ञान अंग्रेज़ी में समाया हुआ था और उनके अनुसार सारे संसार में एक ही सभ्य जाति थी, अंग्रेज़. हम लोगों के मुँह से वे जब भी अंग्रेज़ी का शब्द सुन लेते, हमारी तारीफों के पुल बाँध देते. कभी कोई अंग्रेज़ी का वाक्य सुन लिया, फिर तो समझो, पूरे दिन की डाँट से छुट्टी. बाद में हम लोगों ने अपनी यह आदत बना ली थी कि जब भी किसी गलती का अंदेशा होता, उनके सामने से अंग्रेज़ी के वाक्य गुनगुनाते हुए निकल जाते, भले ही उसका आपस में कोई संदर्भ हो या नहीं. वह वाक्य कुछ भी हो सकता था – ‘नाउन इज द नेम ऑफ़ ए पर्सन, प्लेस ऑर थिंग’ या ‘बाबर वाज़ द फादर ऑफ़ हुमायूँ एंड ग्रांडफादर ऑफ़ अकबर.’ कभी-कभी वह यहाँ भी नहीं चूकते. एक गाली के साथ उनका जुमला जुड़ जाता, ‘ग्रैंड फादर कहते हैं उल्लू, किस बेवकूफ से पढ़ते हो तुम अंगरेजी ?’
एक बार उन्हें किसी काम से अंगरेज की कोठी में जाने का मौका मिला, जो किसी हिंदू भजन को पूरा गाकर सुनना चाहता था. उन्होंने उस दिन तीन-चार दफे ‘ओम जय जगदीश हरे’ का इतनी जोर-जोर से गायन किया कि अंगरेज ने उन्हें शिकार के वक्त पहनी जाने चाली ‘बिरजिस’ इनाम के तौर पर भेंट की. वे उस पैंट को खास मौकों में पहनते और उस अंगरेज का गुणगान ऐसे करते मानो वह संसार का सबसे कृपालु और उदार व्यक्ति हो.
जीवन के अंतिम दौर में वे एकदम शांत और उदार हृदय हो गए थे; मानो उन्हें अपनी गलतियों का अहसास हो गया हो. मैं जब इलाहाबाद विश्वविद्यालय में शोधकार्य कर रहा था, वह संगम नहाने प्रयाग आए और प्रयाग में अपने इलाके के पंडे को अपना अंतिम संस्कार करने के लिए भारी धनराशि भेंअ कर गए थे. घनघोर कर्मकांडी बड़े बाबजी की संगम-यात्रा के दौरान सईद उनके साथ था. तब उन्होंने उसके हाथ से ढोई गई पूजा सामग्री को ग्रहण करने में जरा भी आपत्ति नहीं की, न उन्हें क्रोध आया था. अंतिम समय में तो मानो उनमें जबरदस्त संयम घर कर गया था.
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लक्ष्मण सिह बिष्ट ‘बटरोही‘ हिन्दी के जाने-माने उपन्यासकार-कहानीकार हैं. कुमाऊँ विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग के अध्यक्ष रह चुके बटरोही रामगढ़ स्थित महादेवी वर्मा सृजन पीठ के संस्थापक और भूतपूर्व निदेशक हैं. उनकी मुख्य कृतियों में ‘थोकदार किसी की नहीं सुनता’ ‘सड़क का भूगोल, ‘अनाथ मुहल्ले के ठुल दा’ और ‘महर ठाकुरों का गांव’ शामिल हैं. काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.
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2 Comments
राजेंद्र
सर को पढ़ के हमेशा ही अच्छा लगता है |
जितना मुझे याद आ रहा है ऊपर तुलसीदास की जिन पंक्तियों का जिक्र है वो “कवितावाली” की हैं
navin chandra pant
बहुत सुंदर श्रीमान. यूं ही आपकी लेखनी चलती रहे हमेशा