‘आज फिर उधार करना पड़ा बेटा’… उनकी आवाज़ में कुछ बूँदें थीं. फोन पर एक घरघराहट थी जो निस्संदेह फोन की नहीं थी.वकील साहब फोन पर कम ही बात करते थे. (Story by Amit Srivastava)
आज माँ शायद किचेन में थी इसलिए उठा लिया. या शायद कुछ कहना चाहते थे… बेटे से बात करते-करते वो बैठ गए… अपनी आवाज़ के साथ! वो इस तरह बैठते नहीं थे.—
‘पिछले हफ्ते दवा ले आए थे… उधार पर… आज फिर गए… सूरज मेडिकल वाले के वहां से ही लेते हैं. आज बोला महीने भर की ले जाइए हमेशा की तरह… पैसे बाद में दे दीजियेगा. पर बेटा पहले कभी मैंने उधार…’ आख़िरी शब्द मिटते चले गए… लिखा तो कुछ भी नहीं था फिर क्या मिटता चला गया… -‘मैं जानता हूँ पापा… कुछ दिनों की बात है…’ मैं कहना चाहता हूँ, हाँ, यही कि ये कुछ दिनों की बात है… लेकिन नहीं जानता कि ये कुछ दिन कितने दिन चलने वाले हैं. जानता हूँ कि उधार शब्द पापा को कितना तोड़ देता है. नफरत है इससे. पुराने ज़माने के हैं वो, खुद्दारी से जीने की लत है.
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उस ज़माने में भी याद है मुझे आज की तरह महीने भर का राशन खरीदने के पैसे नहीं होते थे, तब जिस दिन जितने पैसे हुए उतना सामान आता था. सौ ग्राम, पाव या आधा किलो. इससे बड़ा पैमाना नहीं था. पत्ती, चीनी, सब्ज़ी, कड़ुआ तेल लगभग रोज़. वकालत में ईमान बरतने वालों के घर रोज़ कुआँ खोदा जाता था, रोज़ पानी पीते थे. लोगों ने कितना समझाया कि वकालत का तरीका बदल लीजिये, थोड़ा व्यावहारिक हो लीजिये, लेकिन किसी की दलील नहीं सुनी. कहते व्यावहारिक मतलब क्या? भ्रष्ट न?
बैंक से पैसे निकालने के लिए लगातार तीन दिन लाइन में खड़े होकर आज फिर खाली हाथ लौट आए हैं वकील साहब. एटीएम है लेकिन चलाना नहीं जानते. डरते हैं गलत बटन दब गया तो. वैसे ही जैसे फोन के बटन दबाने में. फोन अब भी नॉन एंड्राइड है. ‘जिसमे बड़े फ़ॉन्ट्स हों… साफ़ दिखता हो… ऑपरेशन के बाद आँख पर ज़ोर लगाओ तो दर्द हो जाता है…
‘जानता हूँ बहाना करते हैं. डरते हैं कहीं गलत कॉल चली जाए और पैसे कट जाएं तो? कहना चाहता हूँ आप इतना डरते क्यों हैं पापा… कहता नहीं, जानता हूँ ये डर नहीं है, गर्व है… खुद्दारी का अभिमान! जो एक डर की शक्ल में आता है कि अगर कभी किसी के आगे हाथ फैलाना पड़ा तो… जानता हूँ आप कभी नहीं डरे पड़ोस में चढ़ते मकान देखकर, रिश्तेदारों के कपड़े, गाड़ियां कभी आपको हताश नहीं कर पाए, दोस्तों की बदलती जीवन शैली कभी आपको चिढ़ा नहीं पाई लेकिन…
लेकिन ये एक महीने की उधार की दवा… -‘खाना खाए बिना तो चल जाता है बेटा, पर दवा न लो तो… ‘ कहना चाहता हूँ ‘नहीं पापा.. नहीं चलेगा… अब तो आप उम्र के उस पड़ाव पर हैं कि खाना खाए बिना भी नहीं चलेगा… मैं यहीं से कुछ कोशिश करता हूँ रुपए भिजवाने की… दुकान वाले का उधार मत समझिये आप कौन सा खाकर भूल जाने वाले हैं… कुछ दिनों की बात है… ‘ कह नहीं पाता। कोई फायदा भी नहीं, जानता हूँ… वकील साहब आज भी कोई दलील नहीं सुनते!
जौनपुर में जन्मे अमित श्रीवास्तव उत्तराखण्ड कैडर के आईपीएस अधिकारी हैं. अमित के गद्य की शैली की रवानगी बेहद आधुनिक और प्रयोगधर्मी है. उनकी तीन किताबें प्रकाशित हैं – बाहर मैं … मैं अन्दर (कविता), पहला दख़ल (संस्मरण) और गहन है यह अन्धकारा (उपन्यास).
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