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सैंणी के दबाव में किशनी शहर में किरायेदार बन गया

किशनी बचपन से होशियार चालाक बच्चा था, गांव वाले बचु  पदान को कहते भगवान किसी को औलाद दे तो किशनी जैसा, किशनी व्यवहार कुशल मिलनसार सबके सुख-दुःख का साथी सारथी रहता क्या नाते-रिश्ते क्या गाँव भर में. 17वें बसंत में 12 वीं करने तक किशनी गाँव की पहचान और भविष्य का हितैषी बन गया था. अब बाप ने अपनी गरीबी का वास्ता देकर आगे की पढ़ाई से मना कर दिया और साथ में गृहस्थी के काम-धाम में हाथ बांटने का कह दिया. क्योंकि पधान जी के पास पुश्तैनी पदानचारी की खूब जमीन थी, करने के लिए खूब पर आमद न के बराबर. वैसे भी पहाड़ों की उखड्या जमीन जैसे तैसे पेट तो भर सकती है लेकिन आमदनी न के बराबर देती. वहीं वर्तमान जरूरतों पर घुटने टेकती नजर आती है. गाँव में जिन लोगों की पौ-पगार वाली नौकरी होती उनके बच्चे आगे पढने कस्बों में चले जाते और जो गाँव में पुश्तैनी खेती-किसानी पर थे उनके बच्चों का गाँव से बाहर पढ़ना ऐवरेस्ट चढ़ना जैसे होता. (Story Balbir Rana)

किशनी पधान का बेटा तो था लेकिन आगे की पढाई के लिए बाप ने असमर्थता दिखा दी थी. किशनी की घर से बाहर जाकर पढ़ने या और काम करने की बहूत इच्छा थी. लेकिन गरीबी मुँह बाएं खड़ी थी और बाप के सामने आज्ञाकारी पुत्र जाने की हिम्मत भी नहीं जुटा पाया. इसी ललक के चलते किसी के सुझाव पर खूब दौड़भाग की और फ़ौज में भर्ती होने की तैयारी करने लगा. देखा जाय तो औपनिवेशकाल से ही पहाड़ के कर्मठ और मेहनती युवाओं के सैन्यसेवा ने आजके जागरुक और शिक्षित उत्तराखंड की नींव रखी. तब की मनीऑर्डर अर्थव्यवस्था से ही लोग बाहर शहरों की तरफ आये जिससे बच्चों की शिक्षा और आर्थिकी की राह खुली. खैर आज भी ज्यादा बदलाव नहीं हुआ यही सब चल रहा है. एक आध साल में किशनी के मन की दुविधा को थाह मिली, भूमियाल देव देणु (कृपा) हुआ और किशनी भारतीय सेना में भर्ती हो गया.

ट्रेनिंग पूरी करने पर छुट्टी में माँ ने इशारों में सास सुख लेने का संकेत दे दिया. तब बच्चों की शादी कम उम्र में ही हो जाया करती थी. माँ ने कहा बुबा मेरे से भी अब अकेले नहीं होता, उम्र तू देख ही रहा है. लाटा अब तू नौकरी लग गया सयाना हो गया अब अपनी माँ को कमर सीधी करने का अवसर दे दे. इन हड़गों ने कब तक घिसना इतनी बड़ी जमीन और घर जंगल में. जैसा तुम करोगे कल तुम्हारे भी वैसा करेंगे ‘मुच्छायलु जगी पिछने आन्दू बाबा’ अब मेरे बस का नहीं तुम्हारे इन सैंचारों को खैनी करना. छुट्टी खत्म होने के बाद लड़की ढूंढने का दौर शुरू हुआ. बचु सिंह की पुश्तेनी पदानचारी की धाक तो थी ही, साथ में लड़का गुणी और सरकारी नौकरी वाला. रिश्ते  मुंह मांगे आने लगे.

पड़ोसी गांव के सभ्रांत रौत परिवार से रिश्ता तय हुआ, दादा फ़ौज से ऑर्डिनरी कैप्टन रिटायर और बाप सरकारी ठेकेदार. लड़की ने भी जैसे तैसे इंटर कर बाप दादा की साख बचा ली थी कि रौत खानदान की च्येली पढ़ी लिखी है. च्येली का आधुनिक सब्ज-बाग़ नाक-नक़्शे चरम पर थे, कारण इकलौती बेटी और परिवार की आमदनी औरों से ठीक ठाक होना. किशनी साल भर बाद बॉर्डर से शादी के लिए छुट्टी आया, धूम-धाम से शादी हुई. पधानों और रौत खानदान के इस रिश्ते की तारीफ कई दिनों तक इलाके में मुंह जुबानी वायरल रही.

सुरु सुरु में किशनी की ब्वारी गांव में नयी गौड़ी के नौ पुळै घास वाली रही थी, जिसको देखो वही तारीफ के पुल बांधता था. बल खानदान की बेटी जो ठैरी. जेठानी, देवरानी, ननद सबकी पसन्द किशनी की सरिता, क्योंकि दहेज़ में बहूत कुछ आ रखा था. सबको ब्वारी ने मनपसंद गिप्ट भी दिया था.

शुरुवात के एक वर्ष ब्वारी को पहाड़ी बहू धर्म निभाना कंटकों की सेज जैसा रहा. मायके की नकचड़ी लाडली ने मायके में ज्यादा काम किया नहीं था. सासू की सास सुख तम्मना, तम्मना ही रही. उस बेचारी का सुबह से शाम तक गृहस्थी में खटना यथावत रहा. साल भर में ही बहू के पांव भारी हो गए. डिलीवरी से पहले किशनी छुट्टी आ गया. पुत्र रत्न हुआ था, कुछ दिन पधान मवासी नये मेहमान की खुशी में सरोबार रहा.

दो महीने छुट्टी पूरी होते ही सरिता ने साफ शब्दों में कह दिया – बाल-बच्चे वाले हो गए अब बच्चे की पढ़ाई भी देखनी है. गाँव का माहौल आपको पता ही है जुंगड़े से ही बच्चे गाली सीख जाते हैं. बच्चा तो बहाना था शहरों की चकाचौंध ब्वारी को गाँव में बैठने नहीं दे रही थी. गर्मियों की छुट्टियों में गाँव आयी कतिपय जेठानियों के शहरी ठसके-मसके से वह बहूत प्रभावित होती थी. बहू ने किशनी को साफ शब्दों में बता दिया मेरे बस का नहीं तुम्हारी सैंचारों का कोदा गोड़ना, मैंने अपने मायके में एक सोल्टी गौबर की नहीं उठायी. ऊपर से तुम्हारी ब्वै की दिन-रात की कचर-कचर. मेरी सारी सहेलियाँ शहरों में शिफ्ट हो गयी. अकसर कभी किसी की भी नहीं मानने वाला मर्द सैंणी के आगे भीगी बिल्ली बनते देखा जाता है; किशनी तो बचपन से सादगी व्यवहार वाला आदमी जो ठैरा कैसे नहीं मानता. सैंणी के दबाव के चलते उसने माँ-बाप की ममता, आकांक्षाओं और माटी प्रेम पर पत्थर रखा और साल भर बाद ही डेरा-डम्फरा उठाकर शहर में किरायेदार बन गया.

माँ ने उनकी सुगबगाहट सुन एक महीने पहले ही बातचीत बंद कर दी थी और जाने के दिन बोग (किनारे) लग गयी थी. पर बाप दुनिया की लाज के बसीभूत नाती को गोदी रखकर शहर छोड़ आया था.

सब द्वकुले के यकुले हो गए, घर में बुड्ढा-बुड्डी शहर में ब्वारी नाती. दिन, हप्ते, महीने के साथ समय की उड़ान गतिमान रही. शहर में सरिता परफेक्ट मॉडर्न मेम बन गयी और गांव का होशियार किशनी जोरू का गुलाम किशन सिंह.

किशनी की सीमित आमदनी घर की बेसिक जरूरतों से ज्यादा साज-श्रृंगार, घूमना-फिरना, फ्रेंडशिप, किट्टी पार्टी इत्यादि में घुरमुन्डी खाने लगी. परिवार भारतीय परिवार व्यवस्था के अनुरूप हम दो हमारे दो ही हुए, बच्चों की पढ़ाई को सरकारी स्कूल के बनस्पत प्राइवेट अंग्रेजी मीडियम में तवज्जो दी गयी क्योंकि वर्चस्व के लिए अंग्रेजी जरूरी थी. सरिता अब मैडम पुकारे जाने पर गौरवान्वित होती थी. गांव में माँ-पिता खोखली इज्जत पर खुश रहते थे कि लड़का शहर बस गया है लेकिन बुढ़ापे में नातियों के प्रेम की आग में रातें तप्त रहती. खर्चे के नाम पर पुत्र ऋण अपंग. हाँ, दादा-दादी आने-जाने वालों के हाथ महीने में एक बार घर की दाल और सेर-तामी घी पोतों को भेज दिया करते थे. खून की पीड़ा असहनीय होती साब.

अब गांव का किशनी, किशन सिंह शहर वाला हो गया. गाँव जाना तीन-चार साल में एक बार मुश्किल से कुछ जरूरी रस्म अदायगी तक सीमित रह गया. घर-गाँव यार-आबत के सुख-दुःख के लिए समय का टोटा पड़ने लग गया. असल में समय का टोटा इच्छा नहीं बल्कि टका ज्यादा डाल रहा था क्योंकि एक बार गाँव जाने से अतरिक्त वित्तीय बोझ बन जाता. चार दिनी गांव की यात्रा में मैडम और बच्चों का पिकनिकी मूड, रिश्तेदारों से भावनात्मक सदभाव में मिठाई, बिस्किट, छोटा-मोटा कैंटीन का सामान आदि; दुनियादारी की देखा-देखी करनी ही पड़ती थी. अब जाने के कई नाम से न जाने का एक ही नाम होना हितकर लगा. अब वह हरफनमौला किशनी नहीं अनर्गल जरूरतों का जोरू बन सर पर अनियंत्रित बेलगाम झूठी प्रतिष्ठा के बोझ को उठाये चल रहा था.

अब घर-गांव में भी तब के नये पौधे पेड़ बन गए थे. पुराने बृक्ष जिन्होंने प्यार की छांव में सींचा था, कुछ टूट चुके थे कुछ ढोर बन गए थे. कुछ साल बाद माँ बाप भी अपनी सांसारिक यात्रा पूरा करके चले गए. यार-रिस्तेदार सब अपनी-अपनी गृहस्थी में निमग्न थे. संसार की रीति-नीति आउटपुट-इनपुट के सिद्धान्त पर काम करती है साब! किशन सिंह का नाते रिस्तेदारी में आउटपुट जीरो था इसलिए इनपुट का ब्लैंक होना लाजमी था. कभी आउटपुट देने की कोशिश भी की पर सरिता मैडम के आगे घिघ्घी बंध जाती. समय अपनी चाल से चलता रहा और किशन को पता नहीं चला कब नौकरी पूरी हो गयी. चौबीस साल तक भारत के चारों क्षितिजों का भ्रमण कर पेंशन आ गया. अब वह एक्स फौजी हो गया. जमा पूंजी ने शहर में अपना घर होने की लाज बचा ली थी. बच्चे घर के हवाई हाइटैक माहौल के चलते पढ़ाई में ज्यादा अचीव नहीं कर पाए मात्र प्राइवेट में जेबखर्चे की पूर्ति कर रहे थे. घर का खाना-खर्चा और सांसारिक दायित्व पेंशन पर आश्रित रह गए.

अब सरिता मैडम को बढ़ती उम्र और खट्टे-मीठे अनुभवों से जवानी की दिनचर्या की गलती का अहसास होने लगा था क्योंकि जवानी की चहल-पहल ‘कम तेल में ज्यादा चिबड़ाट वाला ही रहा.’ पास-पड़ोसियों ने बच्चों पर ज़्यादा ध्यान दिया और उनके बच्चे अच्छी पढ़ाई कर अच्छी नौकरी पर थे. उनके सामने अपने घर की स्थिति देख शर्मिंदगी महसूस होती. दोस्ती और उठना-बैठना कम कर दिया था. अब वह एक मजे हुए ड्राइवर की तरह जीवन की गाड़ी उबड़-खाबड़ रस्तों पर संभाल कर चला रही थी.

जीवन के इसी क्रम में किशन सिंह एक दिन शहरी जीवन को हट कर हिम्मत बांध चौथी अवस्था में गाँव की कूड़ी संवारने निकला. जिस कूड़ी में अब चूहे भी रहने से डर रहे होंगे. किसी जमाने में पधानों की सजी तिबारी आज जीर्ण हो गयी थी.  यकुलांस की पीड़ा में रो-रोकर उस डंडयाली के आँसू सूख चुके थे. पधानों का जो चौक एक घड़ी भी उठने-बैठने वालों से खाली नहीं रहता अब उस चौक में जाने से लोग डरते थे कि कहीं सांप बिच्छू न खा जाय. उसने फिर से पित्रों की धरोहर जीवंत करने का मन बनाया और दुबारा पच्चास साल पीछे का किशनी बनने गांव चला आया. लेकिन अब तक समय अपने मजबूत पंखों के साथ इतनी दूर उड़ चला था कि गाँव में किशन को किशनी बोलने वाला कोई नहीं मिला. वे चेहरे हमेशा के लिए विलुप्त हो गए थे जो ड्यूटी पर जाने के दिन गाँव की आखरी मुंडेर तक आँसुओं के साथ सुखी शांति रहने का आशीर्वाद दे विदा करते थे.

हाँ! आज भी गाँव में सब थे, लेकिन किशनी ताऊ नहीं शहर वाला किशन सिंह ताऊ बोलने वाले थे. आज किशन सिंह ताऊ के संबोधन ने उसे प्रवासी होने का अहसास कराया. मेहमानदारी में भी कब तक खाता और अकेले गृहस्थी जमाने को जेब इजाजत नहीं दे रही थी. कुछ दिन अकेले खंडर पड़े घर की झाड़-पौंछ की, रहने लायक बनाया लेकिन गाँव के माहौल ने उसे फिर पचास साल पहले के किशनी बनने की आस नहीं दी. गाहे-बगाहे अब गाँव वालों की खुसर फुसर कानों में पहुंचने लगी कि बुड्डे की परिवार से नहीं बन रही होगी तभी तो बुढ़ापे में हडगे तोड़ने घर आया.

फिर एक बार दिल पर पत्थर रख उसने उसी शहर की बस पकड़ ली जिस शहर को उसने तिलांजलि देने की ठानी थी. आज चलते-चलते बस की खिड़की से वह असहाय सा उस गाँव, खेती, जंगल, गाड़-गदने, धार-कांठों को निहार रहा था जहाँ किसी समय का चुलबुल किशनी चहकता, कूदता-फांदता हर घड़ी का साक्षी बनता था. पता नहीं किन कर्मो का लेख था जो उसे वह थाती प्रवासी कहकर दुत्कार रही थी जो उसकी आत्मा में बसी थी. आज रह रहकर उसकी आँखों के सामने पिताजी, मांजी और गाँव के उन बुजुर्गों की सूरत नजर आती जिनका वह आँखों का तारा हुआ करता था लेकिन आज वही साये जैसे कह रहे हों जा किशनी जा रे बुबा! अब तू इस माटी लायक नहीं रहा रे. गाड़ी नीचे के लिए और उसकी नजरें ऊपर गाँव की ओर और आँखें खिड़की के शीशे से सटी डबडबा रही थी बाहर जोर से डाड़ मारकर रोने का मन कर रहा था लेकिन लज्जा से आँसुओं को आँखों में पीता रहा था. गाड़ी के हिचकोलों को तो हाथ काबू कर रहा था लेकिन मन के हिचकोले बेलगाम हो पूरे शरीर को उछाल-उछाल कर पटक रहे थे.

गढ़वाली शब्दों का अर्थ:-
उर्खड्या – बिना सिंचाई वाली खेती. पधान – अंग्रेजों द्वारा नियुक्त मालगुजार. सैंचार – मालगुजारी में मिले बड़े खेत. व्बारी – बहू. गौड़ी – गाय. पुळै -घास का गठ्ठा. जुंगड़ा -रिंगाल का टोकरी नुमा पालना. द्वकुले – दोहरे आदमियों का परिवार. यकुले -अकेले. कूड़ी – मकान. तिबारी – मकान का ऊपरी जंगला जिस पर काष्ठ कला की नक्कासी हुआ करती है. यकुलांस – अकेलापन. डंडयाली – मकान का दो मंजिला वाला छज्जा/कमरा.

ईजा कैंजा की थपकियों के साथ उभरते पहाड़ में लोकगीत

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‘मन के हारे हार है मन के जीते जीत’ को जीवन सूत्र मानने वाले बलबीर सिंह राणा ‘अडिग’ ग्राम-मटई (ग्वाड़) चमोली, गढ़वाल के रहने वाले हैं. गढ़वाल राइफल्स के सैनिक के तौर पर अपने सैन्यकर्म का कर्मठता से निर्वाह करते हुए अडिग सतत स्वाध्याय व लेखन भी करते हैं. हिंदी, गढ़वाली में लेखन करने वाले अडिग की कुछ किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं. विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में भी रचनाएं प्रकाशित होती रहती हैं. 

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Sudhir Kumar

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  • पहाङों में पलायन के दर्द को बयां करती सुन्दर व सजीव कहानी ।

  • आपको कुछ नही मिलता तो पलायन का सीधा आरोप स्त्रियों पर मढ़ देते हैं। मेरे लिए समझना मुश्किल है की पुरुष पहाड़ की मेहनत से घबराकर शहर जाता है तो बेचारा, मजबूर होता है लेकिन वहीं अगर स्त्री शहर की तरफ़ आकर्षित होती है तो बुरी और पलायन के लिए ज़िम्मेदार। दुनिया भर का काम करने वाली और सामाजिक असमानता से घिरी स्त्रियों की स्थिति को ठीक करने की बजाए उनका महिमा मंडन तो मत करिए

  • श्रेष्ठ और मर्मश्पर्शी कहानी है,,
    उत्तराखण्ड में कई परिवारों में ये कहानी मिल ही जाती है।

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