चार प्रकार का सलाद, तीन प्रकार की चरचरी-बरबरी भुजी, पियर अरहर की दाल, खट्टे आम का अचार, घर्रा भंग्जीर और पुदिने की चटणी, पैल्वाण भैंस की छाँस में तुमड़े का रायता, पापड, पूड़ी, सूजी, हलवा, और मिट्ठा भात जिसमें केशर भी डाल रखा था बल. खूब चखल पखल. सारा गाँव सपोड़ी-सपोड़ चटखारे ले रहा था. छोटे बच्चे तो होंठों को चुम्मा देने की मुद्रा में सी-सी करते हुए पंगत से उठते-उठते पतल चाट रहे थे. (Story Balbir Rana)
आहा! कैसी रस्यांण आई ठैरी आज. तेरहवीं खाई तो गमुली दादी की खाई. स्वोरे भारे हो तो ऐसे हों. रामसैंणी का ऐसा प्रीतभोज पहली बार देखा. वो बेचारी जीवन भर अधीती रही लेकिन उसके पुण्य ने आज पूरे गाँव को छक के धीता दिया बल! आज तो वो लोग भी चटखारे मारते गमुली दादी की प्रशंसा और गुणगान करते नहीं थक रहे थे जिन्होंने कभी उस विचारी पर गाँव के दर-कर में एक ढेले की माफी नहीं दी और न उस दिन उनके पास बेचारी को एक लकड़ी देने का समय निकला. वाह रे जमाना मनखियत का आखरी सत भी हैसियत देख निभाया जाता है. पस्तो तो दूर की बात थी.
उस जमाने में व्यक्ति विेशेष की जीजीविषा जैसी भी हो लेकिन गात्र में मानव क्षति होने पर स्वोरे, भारे के मर्द, नमान दशगात्र में जैसे-तैसे मुंड मूंडने और सुल्टे होने पहुँच जाते थे चाहे दिल्ली, बम्बे, देहरादून कहीं भी हो. तेरहवीं के पित्र प्रसाद के बाद ही सहज जीवन चलता था. रौत मौ ने विधि-विधान से क्रियाकर्म निभाया, नाक का सवाल जो ठैरा. काटे में महंगा सामान दिया. बल सब समान स्टैंडर्ड भानी, बक्सा, छाता, रजाई, गद्दा-चादर, अंगवस्त्र फौजी जैसे बिस्तरबन्ध में पैक करके दिया था. भले रौत मौ ने यह कारिज नाक के लिए किया हो लेकिन उस बेचारी प्रेत का मिलन पित्रकुड़ी में पितरों के साथ तो करा दिया था. खैर गमुली के जीते जी रौत मौ ने कभी नहीं समझा कि यह हमारे कुल की विधवा दुख्यारी है. चलो स्वार्थ का भला हो कभी-कभी इन्सान को पुण्य काम करने के लिए प्रेरित कर देता है. अस्सी नाली जमीन का सवाल भी इस भव्य शौक रस्म का कारण था गमुली के वारिस के तौर पर अब वही रौत मौ ही थी.
इस तेरहवीं की धकाधूम देख बामण ज्यू भी मन ही मन बोल रहा होगा कि साल में दो चार ऐसे जजमान झटक जाये तो सुदामागिरी से मुक्ती मिल जाय. पित्रदान में एकदम जवान कलौड़ी मिली, एक साल बाद ही ब्या जायेगी. अगले महीने बामणी बौ बोल रही थी कि ‘एरां द्यूरा सुदी लाल पाणी छाँ पीणा गोरु बुडया ह्वेगी, अजक्याल जमानु हाथ ध्वोंण पर ऐग्यों लो, क्या कन, काटा मा त खाली मरण्यां बछुरा छिन देणा, अरे़ जौं पितरों परताप तुम राजन बाजन हुँयां वूंन मथि स्या मरण्यां ग्वैरूं ढांगा चबाण क्या.’ पर आज गमुली दादी के काटे में तो जवान गाय मिल गयी थी, बहुत दिनों बाद आज बामणी बौजी शय्या दान सामान देख खुश नजर आ रही थी.
हप्ते भर तक गमुली दादी के तेरहवीं के चटकारे गांव भर चले. ऐरां उस बिचारी को ‘जिन्दे में नहीं मिला मांड मरने के बाद मिला खांड.’ कभी एक सुकिली रोटी नहीं चखी, देह ने कभी दोहरा कपड़ा नहीं देखा, औंस सग्रान्द को खौंजले से धुले बालों को कभी एक पौली तेल नसीब नहीं हुआ रामसैंणी को, कहाँ तेल, कहाँ बाती. कुम्यांणी के जाने के बाद कंघी भूल गयी, एक बची पापड़ी के कंगुले के चार दांत उन उलझे बालों को संवारने मे अक्षम थे.
गमुली दादी बचपन से स्वभाव से सीधी थी लोग गमुली लाटी पुकारते थे, जैसे लगुली ठंगरे पें चड़ी वैसे बाप बादर सिहं गंगा नहा गया. बगल के गांव में पच्चास पार के अधेड़ सौंणु को बिवा दी. टके की शादी की, ठया में पैंसों के साथ जेवर भी मांगे. गमुली देह और रंग रूप में भले पदानी घर के लाइक थी लेकिन बाप के लालच ने कंडाली के झखल्यांण फेंक दी गयी. जमाना बाप भग्यान वाला था जिसकी ज्यादा बेटियां वो उतना सेठ.
सौणु की पहली पत्नी कुम्यांण से बच्चे नहीं हुए. सौणु बचपन से उटंगरी रहा. जवानी में कुछ दिन कुमाँऊ में जंगलात में चपरासी रहा, वहीं कुम्यांण से माया मुस्क हो गया और उठा लाया था. सूत-बैंत की जैसी रही हो लेकिन बेटा इतनी दूर से ले आया तो बाप ने दुनियां का मुँह बन्द करने के लिए चार फेरे अपने ही घर में लगवाये थे. कुम्यांण के घर वालों ने कोई खोज खबर नहीं की. आजकल के जैसे संचार व्यवस्था थी नहीं और आम आदमी का इतने दूर कुमाऊँ की तल्लीरौ पट्टी से गढ़वाल के दशोली पट्टी सहज आना-जाना सम्भव नहीं था. कुम्यांण का असली नाम पार्वती था कुम्यांण नाम कुमाँऊ की होने से हो गया. तब अकसर गांव में लोग ऐसे ही स्थान विषेश पर बहुओं के नाम रख देते थे. आजीवन वही निकनेम उनकी पहचना बन जाती. जैसे नागपुर की नागपुर्या, सलाण की सलाण्यां, रामणी की रम्वाली, सेमा की स्यम्वाली, फरखेत की फर्खत्या इत्यादी.
कई उच्यांणा-परखणा, पूजा-पाठ, नीम-हकीम के बाद भी कुम्यांण की गोद हरी नहीं हुयी, कुन्डली मे पुत्र योग लिख था. दोनों ने कुन्डली के चक्कर में मुंडली नहीं देखी. पच्चास पहुंचने के बाद होश आया की दूसरी शादी का भी विकल्प है. दोनों की राजामन्दी से सौंणु पल्ली गांव के बादर सिंह को लालच दे कर जवान गमुली को आस-औलाद के लिए ब्या लाया. दो-एक साल तो सौतन कुम्यांण का ब्यवहार नयीं गाय के नौ पुले घास जैसा रहा. लाटी ब्यंगणी जैसे भी है कोई बात नहीं. जवान है, आस-औलाद हो जाये तो जशीली रहेगी. पर सौंणु की कमी के कारण इस पुंगड़े में भी बीज नहीं जमा. गुस्से और निराश में सौणु कुंडली को कानधार रखके आया था. बेचारी गमुली भी औती की जमात में खड़ी कर दी गयी. पुरुष प्रधान समाज में औरत पर चाहे जो दोष मढ़ दो.
जब पुरानी को लगा कि अब कोई आशा नहीं बुड्ढा थोबड़ा रखने लायक ही रह गया, तो वह सौतन वाली चाल में आ गयी. आजकल का कहें तो लव मैरिज थी मालिक पर शुरू से पूरा कंट्रोल था. गमुली ठैरी एकदम सीधी, लाटी, खस्यांण मोहानी कला उससे कोसों दूर रही. सौणु एक रात्रि पहर का साथी रहा, बाकी जिठाणा समझो. इसलिए सौणु पुरानी की मुट्ठी में रहा. अब गमुली कुम्यांण की अंगुलियों में नाचती रहती थी, अंदर घर, बण सब जगह. बेचारी गमुली नियति मान सब सहती रही, करती रही, कभी किसी के मुँह नहीं लगी, किसी को आँख उठाकर नहीं देखा. माँ-बाप ने विदा करते समय समझा-बुझा के कहा था भगवान ने तुझे खूब खस्यांण जैसा बनाया है, खूब काम करना ससुराल में, हमारी नाक मत कटाना. अपने सत पर रहना. सौणु और कुम्यांण दोनों झण औलाद के दंश में कुछ साल बाद एक-एक कर अन जल तौड़ गये थे. जैसा भी हो ‘सूनी गुठ्यार से मर्खू बल्द भला.’ गमुली जवानी में ही रामस्वैंणी (विधवा) हो गयी. उस जमाने में रामस्वैंणी का जीवन घिंघारू के कांटों की राह था. आज की तरह कहाँ राम राज्य? विधवा पेंशन सस्ता गल्ला-पल्ला अलग.
जवान विधवा पर कई इक्वांणों (विधुरों) की नजर पड़ी रिश्ते की कोशिश भी की लेकिन गमुली अपने सत पर रही उसने सब ठुकरा दिये. अनुसुया, रामी बौराणी की धरती की नारी जो ठैरी. पहाड़ की पहाड़ जैसी नारी ने अडिग रहते हुए जीवन की गाड़ी अकेली खींची और जीवन के आखरी संध्या तक उस घर को धुवाँ लगाती रही. सौणु के हिस्से में जमीन तो बहुत थी लेकिन ज्यादातर ढौ ढंगार वाली थी, जहाँ मेहनत ज्यादा अनाज कम. उपर से खौ-बाग, गुणी-बन्दरों का राज था. इसी जमीन की बन्दर बाँट के लिये आज स्वोरे भारों ने क्रियाकर्म में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी थी या लोक-लज्जा भारी रही हो. जो भी हो मुंडीत होने का फर्ज अच्छी तरह निभाया था साब रौत मौ ने.
भगवान ने गमुली को जैसी डीलडौल काया दी थी वैसी ही हिम्मत और सहनशक्ति. पत्थर की छाती ने लोगों का जमकर बोल किया और नाक के साथ अपने हिस्से की जमीन खैनी (आबाद) रखी. बोले ने गमुली को समय से पहले ही गमुली दादी बना दिया था. पूरे गाँव में गमुली दादी काम और माजक दोनों का पर्याय बनी रहती. सत इतना कि दरवाजे पर आये को खाली हाथ नहीं जाने दिया, चाहे रात को तवा रीता रहे. डो डड्वार, लेन-देन, जोगी-जगम दुनिया की देख-देखी खींचमखींच निभाती रही. गाँव में लोगों के हर सुख-दुःख को अपना समझ निभाती थी. किसी की शादी ब्याह में तो दादी स्याह पटटा के दिन से द्वार बाटे तक मदद करती थी. लेकिन समाज की हमेश से बिडम्बना रही कि सीधे लोगों को समाज ज्यादा उलाहना देता है और उन्हें बिना बात के तिरिस्कृत होना पड़ता है. क्योंकि सीधे लोग हाजिर जवाब नहीं होते, किसी के मुँह नहीं लगते. कहा भी जाता कि सीधा व्यक्ति और सीधा पेड़ पहले काटा जाता है. ओछे लोगों के तीखे वाण भी खूब सहे. ‘ये रांडो मुख कख बटिन दिखिन सुबेर-सुबेर,’ ‘चल जा अभी कल आना, कहाँ से आ जाती शुभ कार्यों में सबसे पहले?’ आदि. दुनिया की सीरत सूरत ऊपर वाला नहीं बदल सकता वो बेचारी क्या बदलती. अपने बैल की मार खाये जैसे चुप सहती रहती थी.
विधवा जीवन के विकट शूलों में सतित्व की परीक्षा में आजीवन प्रथम रही. उजड़े गृहस्थ में विधवा विलाप को अनहद बना लीन रही. अरे मायाबी ऊपर वाले! किसी की किस्मत पार्कर पैन से, किसी की रघड़ने वाली बॉल पैन से. तेरा भी अजीब कृत्य है. कुछ तो “अदला-बुस्यैला” कर देता उसके जीवन में. इंसान को किये का सिला न मिले तो इंसान टूटने के साथ बिखर जाता है. लेकिन वो क्या बिखरती, एक जान, एक शरीर दिन भर थकी रात कम्बल के अन्दर इकट्ठे घुटने सुबह दिवाकर की पहली किरण के साथ सीधे होते थे. उसके कर्मों का प्रारब्ध जीवन भर जेठ दुपहरी सूखता रहा, पूस की रात कुड़कुड़ाता रहा. आठ बच्चों की गोठ जन्म, बाप के लालच का बूढ़े बैल के साथ बाँधना, ऊपर से बिना दोष के बाँझपन की पैनी छुरी. किस्मत ने भरे स्तनों से दूध रिसाने का मौका ही नहीं दिया, उभार जितनी तेजी से उभरे थे उतनी तेजी से ललाट ने सिकुड़ने पर मजबूर कर दिया था. वह क्षत्राणी जीवन की लड़ायी नूरा नांग के जसवंत की तरह पिचहत्तर पूस की रात अकेली लड़ती रही. आखरी दिन जुकाम की शिकायत हुई. दिनभर घर, गुठयार का काम निबटाया. शाम को रोटी बनाने की हिम्मत नहीं आयी, भूखे पेट घुटने मोड़कर लेट गयी.
दूसरी सुबह घाम खूब आने पर जब सरुली गाय खूब रंभाने बैठ गई तब कहीं पड़ोसियों ने संज्ञान लिया. अंदर देखा बूढ़ी उस अनन्त लोक में चली गई जहाँ अब उसे कोई दुत्कारने वाला नहीं होगा. भगवान को सत्यनिष्ठ आदमियों के साथ इतना न्याय तो करते देखा कि बुढ़ापे में जीर्ण बीमारी से कुकर्म नहीं होने देता, इसलिए गमुली को भी चलते-चलते उठा ले गया था. सब अपना अपना भाग्य है साब! किसी का जीवन ‘तैला तपड़ किसी का शीला छप्पर.’ वैसे आम इंसानी नियती रास्ता बदली करना या रास्ता छोड़ने का ज्यादा दिखता है, पर उस मूर्ति ने न रास्ता छोड़ा न बदला था. ‘एक राह एक डगर, रहेंगे जब तक है जिगर’ को चरितार्थ करती रही. खैर उसकी तेरहवीं ने आज सबके कंठ और दिल के स्पन्दन खोल तो दिए थे लेकिन तेरहवीं हजम होने के बाद कंठ तो फिर और कभी खुलते रहेंगे लेकिन उस रामस्वैंणी हेतु संवेदना रूपी खुले स्पंदन अब हमेशा के लिए बंद हो जाएंगे, ऐसा नियति कहती है.
गढ़वाली शब्दों का अर्थ
रामसैंणी-पति मरने के बाद जिसका मालिक राम हो (विधवा). सैंणी-पत्नी. चरचरी बरबरी भुजी-चटबटी सब्जी. घर्रा-घर का. पैल्वाण-पहली बार ब्यायी. तुमडे-कद्दू का. चखल पखल-रेलम पेल. रस्यांण-खाने का आन्नद. ठैरा और बल – पहाड़ी तुकांत शब्द. स्वोरे भारे-गोत्र के भाई बन्ध. पस्तो-शोक मद. मौ-परिवार वाले. पित्रकुड़ी-पूर्वजों के नाम का पत्थ्र रखने वाला छोटा हट. कलौड़ी-जवान गाय. बामण ज्यू- पंडित जी. बामणी बौ-ब्राहमिण भाभी. काटे-शîया दान. सुकिलीरोटी-गेंहूँ की राटी. खौंजळे-भीमल के पेड की टहनियों से निकलने वाला साबुन. पौळी-पाव. कंगुले-कंघी. लगुली-बेल. ठंगरे-बेल के सहारे को लगाई बड़ी टहनी. टके की शादी-बिना दहेज की शादी जिसमें लड़के वालों को लड़की के एवज में पैंसे देने होते थे. ठया-लड़की के बदले का पैंसा. झखल्यांण-झाड़ी. कंडाळी-बिच्छु घास. भग्यान-भाग्यवान. उच्यांणा परखणा-देवता के निमित वचन रखना. पुळै-घास के गठ्ठे. लाटी ब्यंगणी-सीधी साधी. पुंगड़े-खेत. खस्यांण-मोटी तगड़ी. झण-दम्पति. गुठ्यार-गोशाला. मर्खू बल्द-मारने वाला बैल. घींघारू-एक जंगली पहाड़ी फल जिसके कांटे तेज नुकीले होते हैं. बोल-दुसरों का काम या मजदूरी. खौ-बाग-जंगली जानवर. गुणी-लंगूर. रौत मौ-रावतों का परिवार. डो डड्वार-हर फसली पर ब्राहमणों को दिये जाने वाला अनाज. स्याह पटटा-हल्दी हाथ का दिन. द्वार बाटे-दुबारा वापसी का दिन. “अदळा बुस्यैला”- कुछ न कुछ, गोठ-गोशाला.
ईजा कैंजा की थपकियों के साथ उभरते पहाड़ में लोकगीत
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‘मन के हारे हार है मन के जीते जीत’ को जीवन सूत्र मानने वाले बलबीर सिंह राणा ‘अडिग’ ग्राम-मटई (ग्वाड़) चमोली, गढ़वाल के रहने वाले हैं. गढ़वाल राइफल्स के सैनिक के तौर पर अपने सैन्यकर्म का कर्मठता से निर्वाह करते हुए अडिग सतत स्वाध्याय व लेखन भी करते हैं. हिंदी, गढ़वाली में लेखन करने वाले अडिग की कुछ किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं. विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में भी रचनाएं प्रकाशित होती रहती हैं.
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