घुमक्कड़ी धर्म को बढ़ाने के क्रम में आखिरकार आज अपने सालाना डोयाट (यात्रा) पर निकल पड़ा. पिछले साल हमख्याल दोस्त उमेश पुजारी के साथ हुई नेपाल भूटान की यात्रा के बाद इस साल यूं अकेले निकलूंगा सोचा न था. साथी दोस्तों से न सुनने के बाद बिना ज्यादा सोचे आज यानी 27 नवम्बर 2018 को तड़के 5 बजे लखनऊ छोड़ दिया. इस बार कुछ नए डेस्टिनेशन अपनी घुमक्कड़ डायरी में दर्ज करने का ख्याल रखते हुए स्पीति घाटी की योजना बना डाली.
स पूरी यात्रा को दिवस वार घुमक्कड़ मित्र रिस्की पाठक ने डिज़ाइन किया जिसे स्पीति सर्किट का अच्छा अनुभव है. सुबह निकलने के उतावलेपन में पहली बार पता चला रात काटने में भी बखत लगता है. घुमक्कड़ी किस्से बनाती है, वो किस्से जो दस सालों बाद मिले दोस्तों के किस्से होते हैं. लखनऊ से निकल कर पहला ब्रेक सीतापुर में लगाया, ढाबे का खाना बाइकर्स का पसंदीदा हुआ और इस तरह की घुमक्कड़ी में इसका स्वाद कुछ ज्यादा ही चढ़ता है. ढाबे के आलू पराठे उस ढाबे की पहचान होते हैं और शायद इसीलिए उन पर ज्यादा मेंहनत होती है. शहरी पिज्जा को पीछे छोड़ते मक्खन बहता हुआ जैसे कह रहा हो ‘आओ डूब जाओ मुझ में’. 100 किलोमीटर चलने के बाद ऐसा नाश्ता और वो ढाबे के अंगीठी की खुश्बू का कॉम्बिनेशन शायद यूं ही न बना हो. यहां से निकल कर शाहजहाँपुर, बरेली, मुरादाबाद, नजीबाबाद पार करते हुए अविरल गंगा को अपने सामने हरिद्वार में देख रहा हूँ. विनोद पन्त अंकल का धन्यवाद चाय पर चर्चा के लिए और शहर से रूबरू करवाने के लिए. अब कल देहरादून, मसूरी, तियूनी, होकर नारकन्डा (हिमांचल प्रदेश) पड़ाव डालने की सोची है. अंत में एक सलाह उत्तर प्रदेश पुलिस, और उत्तराखंड पुलिस के लिए अपराधों के निपटान के लिए कृपया मुरादाबाद से नजीबाबाद तक के रास्ते की दो पहिया सवारी को अपने थर्ड डिग्री टॉर्चर में शामिल करें, यकीनन दोनों प्रदेशों के अपराध ग्राफ़ में अच्छी गिरावट आएगी.
कल रात निढाल शरीर कब बिस्तर पर पड़ा कुछ याद नहीं रहा. कठिन 500 किलोमीटर दुपहिए पर सफ़र करने के बाद रात 10 बजे तक हरिद्वार शहर से गुफ्तगू की गई और जो समझ में आया वो यह था कि हम आदम जात हकलैट किस्म की प्रजाति हैं. कैसे एक शहर में भूसा भरना है बखूबी हमें आता है. आस्था के नाम पर भौंडापन, डीजे पर बजती बेतरतीब आवाज पता नहीं यहां के लोगों को घुटन क्यूँ नहीं करती. रात शहर खंगालने के बाद सुबह 5 बजे गंगा आरती देखने के मन से 5 बजे निकल पड़ा, हरिद्वार के अपने धार्मिक महत्व होंगे, मेंरे लिए यह एक प्राकृतिक घटना भी है, जहां देश का एक लंबा नदी प्रवाह तंत्र शिवालिक को छोड़ मैदान में उतरता है और अपने साथ लाए अवसादों से एक अच्छी पट्टी में अनाज उपजाती है. आरती शुरु हुई, पार्श्व में अनूप जलोटा गंगा को अपनी आवाज में पुकार रहे थे. करीब 15 मिनट के बाद सब मौन हो गया. इसी से पता लगा की आरती ख़त्म हो गई. माइक से एक महोदय बराबर चंदा देने की हिदायत देते सुने जा रहे थे. बिचौलियों से बचने के लिए अपने अथॉरिटी एजेंट के कपड़े का रंग तक बता दिया गया. करीब दो घंटे तक घाट में लोगों का चूरन कटते देखा, उसके बाद 9 बजे अपन देहरादून के लिए निकल पड़े. आज दिमाग में एक बात डाल ली अब लखनऊ के ट्रेफिक को देख के बीपी नहीं बढ़ाया जाएगा. देहरादून का ट्रेफिक उससे कई आगे है. देहरादून पहुंचने से पहले रिस्पना फ्लाई ओवर पर एक हालकी दाढ़ी वाले आदमी ने अपहरण करते हुए अपने पीछे कर लिया. अपहरण की ऐवज में मेथी के दो पराठे, रोटी भान्ग की चटनी, ताज़ी हरी सब्जी पैक कर दी गई. जिसे कालसी पर रोड के किनारे बैठ कर पेट के हवाले किया गया. अब जो था हमें जाना था आज नारकंडा जो गूगल मियां करीब 300 किलोमीटर दिखा रहे थे और देहरादून से निकलते 1 बज चुका था. इतना तो पता था आज नारकंडा पहुचना पॉसिबल ही नहीं है. तो सोचा जितना सेफ साइड में चल सकते हैं चला जाए. देहरादून से कालसी कोई 45 किलोमीटर होता है. सरपट रोड सांप की तरह बढ़ती जाती है. कालसी पहुंचने के बाद मीनस जाने का रास्ता खोजा जाता है. यह जगह उत्तराखंड को हिमांचल प्रदेश से अलग करती है टोंस नदी की मदद से. मीनस पहुँचते कोई 4.30 बज गया था. दिमाग कह रहा था कि अब रात के लिए छत ढूंढ ली जाए. ऐसे छोटे कस्बे में कोई होटल मिलना बहुत मुश्किल होता है. यहां सोचा एक चाय पी जाए और अपने रुकने का जुगाड़ ढूंढा जाए. आगे एक गाँव पड़ता था रोहना. वहां चाय पी और चाय पिलाने वाले जोगेन्द्र चौहान साहब से अच्छी गप्प लगी. चौहान साहब बताते हैं यह एरिया टमाटर और शिमला मिर्च के लिए फेमस हुआ. उनसे आगे ठौर ठिकाना पूछा गया तो उन्होंने गुम्मा एक जगह का नाम लिया. यह एक थोड़ा बड़ा कस्बा था. यहां सस्ते होटल मिल जाते हैं, ऐसा उन्होंने बताया. अब जिस रास्ते पर हम थे वो था NH-707 और कसम से 25 फीट की सिंगल पट्टी की यह रोड ऐसी थी जैसे किसी ने पूरी रोड उधेड़ दी हो. खैर गुम्मा पहुंच के ठौर ठिकाना तो मिल गया, अब कल सुबह आज के अधूरे रास्ते को पूरा किया जाएगा कल नार कन्डा होते हुए रामपुर, कालपा, पूह, नाको जहां तक जाया जाएगा वहां तक जाएगे. इतना तो पता है कल बिल्कुल हट के सब दिखने वाला है.
गुम्मा में रात बिताने के बाद सुबह 8 बजे गुम्मा छोड़ दिया था. गुम्मा हिमांचल के शिमला जिले में आता है. मजेदार बात यह है कि इस रूट पर आप कई बार उत्तराखंड और हिमांचल प्रदेश के अंदर-बाहर करते हो. गुम्मा तक जो NH 707 टूटा हुआ रात तक साथ दे रहा था उसने यहां से 12 किलोमीटर तक और साथ दिया. टोन्स नदी साथ देते हुए तियूनी तक ले जाती है. यहां के पहाड़ चट्टानी हैं. पहाड़ों में पेड़ नहीं झाड़ जैसी वनस्पति है. यह इलाका उत्तराखंड हिमांचल का बार्डर एरिया है और यहां के लोकल पहनावे में उसकी झलक बखूबी दिखती है. गुम्मा से फैड़िज पहले पड़ता है. यहां एक पुल है फैड़िज पुल जो आपको फिर उत्तराखंड में ले जा लेता है. यहां से रास्ता अब अच्छा हो चला है. NH-707 अब बमुश्किल 25 फिट की सिंगल पट्टी रोड जैसी दिखती है. त्यूनी कोई 20 किलोमीटर रहा होगा यहां से. यह एक बड़ा इलाका है अब यहां टोंस बिल्कुल सड़क से लग कर थोड़ी दूर तक चलती है. यहां एक पुल से शिमला, चकराता का रास्ता कट जाता है, हम यहाँ से सीधे हाटकोटि के लिए बढ़ते हैं जो यहां से कोई 35 किलोमीटर होता है, दूसरी बात यहाँ से जो शिमला के लिए रास्ता कटता है उस पर 15 किलोमीटर आगे हनोल में महाशू देवता का मंदिर पड़ता है. क्योंकि यह हमारे रास्ते से हट कर था इसलिए इसे वापसी के लिए छोड़ दिया. यहां से आगे फिर उत्तरकाशी लग जाता है मोरी कस्बे का.
यहां से आगे बढ़ने पर एक नजर रोहडू पर भी रहती है जो हाटकोटी के बाद पड़ता है. यहां से पूरी तरह हम हिमांचल में आ जाते हैं. जिला शिमला शुरू हो जाता है. हाटकोटी से रोहडू के बीच में जो रोड है वो गजब की किसी फोर लेन हाईवे की माफिक. रोहडू पहुंचते ही यह रोड ख़तम हो जाती है. रोहडू के बाद अगला पड़ाव सुंगरी होता रहा. सुंगरी के आगे रामपुर बुशहर पड़ता है जो एक अच्छा खासा इलाका है. हिमांचल के गाँव बड़े खूबसूरत हैं. असली लड़ाई शुरू होती है सुंगरी के आगे जहां से 12 किलोमीटर पूरी रोड टूटी हुई है और आपके बाईकिंग स्किल का अच्छा एक्जाम लेती है. 12 किलोमीटर पार करने में लग गए 45 मिनट. कभी-कभी चीजें आप के हाथ में नहीं होती, आपको बस बहते जाना होता है वो ही मैंने किया. इस बीच समरकोट एक जगह पड़ती है, हिमांचल क्यों सेबों के लिए जाना जाता है आज मैंने जाना. यह पट्टी सेब, बादाम के लिए फेमस है. सेब के बाग रोड से झांकते हुए मिलते रहते हैं. सुंगरी से रामपुर बुशहर नरक है, पूरा रास्ता पत्थरों से पटा है, यहां एक चीज मजेदार देखने को मिली एक पहाड़ से दूसरे पहाड़ घिरनी बधी है, जो समान ऊपर नीचे पहुंचाती है. गजब इनवेंट है.
रामपुर बुशहर सतलुज के किनारे बसा है और आज के रूट का सबसे बड़ा इलाका. पूरे बाज़ार आपको हिमांचल टोपी पहने बुजुर्ग युवा दिखते हैं. रामपुर से आगे बढ़ने पर किन्नौर जिला लग जाता है, किन्नौर महादेव की भूमि है किन्नौर कैलाश की भूमि है. यहां का NH-5 पूरी चट्टान को काट के बना है जो आपको रिकोन्ग पियो तक छोड़ता है. सतलुज को पूरा निचोड़ते हुए हिमांचल ने हाइड्रो पावर प्रोजेक्ट की बाढ़ लगा रखी है. यहां से बर्फ से ढकी किन्नौर कि चोटियां दिखने लग जाती है. सतलुज यहां भी साथ देती है. नाथपा, सैन्ग टोक, करचम, होते हुए 6 बजे मैं रेकोंग पीओ पहुच गया, रेकोंग पीओ किन्नौर का हेड क्वार्टर है और यहां से किन्नौर चोटियों का गजब नजारा दिखता है. रेकोंग पीओ का अभी टेंपरेचर 3 डिग्री है रात को माइनस में जाएगा ऐसा गूगल बाबा बता रहे हैं.
ढलती शाम में जब मैं रामपुर बुशहर से रिकोन्ग पीओ की तरफ पहुंच रहा था तो शाम के अंतिम उजाले में बरफ़ से ढके पहाड़ हल्के दिख रहे थे. जिससे अंदाजा लग गया था कि जो भी यह जगह है सुबह लाजवाब दिखने वाली है. यहां रिदंग होटल में मोल भाव करने के बाद 700 रुपये में डील हो गई. 100 रुपये सुकन्या समृद्धि योजना समझाने के छोड़े गए. अब रात भर दिमाग में शिपकी ला दर्रा घूमता रहा जो यहां से मुश्किल से 60 किलोमीटर होता रहा. पिछले साल चीन देखने का मौका हम सिक्किम मे नाथू ला मे छोड़ चुके थे. अब ये मौका मैं कैसे भी भुनाना चाहता था. चीन तीन दररों से भारत से मिलता है पहला नाथू ला (सिक्किम), दूसरा शिपकी ला (हिमाचल प्रदेश), तीसरा लिपू लेख (उत्तराखंड). तो मैं शिपकी ला जाना चाहता था. लेकिन जो रुकावट थी वो थी परमिट की. बार्डर एरिया होने की वजह से यहां आईटीबीपी और डीसी ऑफिस की परमिशन चाहिए होती है. तो अपन सुबह पहले कल्पा गया जहां से किन्नर कैलाश रेंज पूरी दिखती है और जो रेकोंग पिओ से 9 किलोमीटर ऊपर है,. वहां से लौट कर आईटीबीपी के सेंटर गया तो पता लगा आज वहां कुछ कार्यक्रम है. मुझे 9 बजे आने की हिदायत दी गई. ठीक 9 बजे एप्लीकेशन लिखकर अपन आईटीबीपी सेंटर रेकोंग पिओ पहुंच गए. यहां पता चला SM (सूबेदार मेजर) साहब अभी कार्यक्रम में व्यस्त हैं, इन्तजार करते 10.30 बजे वो अवतरित हुए. पूरे ठसक के साथ उन्होंने कहा पहले डीसी ऑफिस की परमिशन लाओ लाओ. यहाँ एक बात बता दूं शिपकिला की परमिशन मिलना कोई खेल नहीं है 100 में कोई एक दो परमिशन ग्रांट की जाती हैं. वो भी जिनका आईटीबीपी में शानदार जिनका आईटीबीपी मे शानदार जुगाड़ हो. मरता क्या न करता. मैं DC ऑफिस दौड़ा, वहां पता चला यह अधिकारी महोदय भी गायब हैँ, इंतजार करते हुए 1.30 घंटे बीत गए कोई हलचल ना हुई. 12 बजे मैंने सोचा अब यहां समय देना बेवकूफी. है. चार घंटा बिना खाए धरना देकर कोई फायदा न होता देख 12.30 बजे मैं नाको के लिए निकल पड़ा जो यहाँ से कोई 120 किलोमीटर था. मन मे सोचा अब चीन को लिपू लेख से ही देखूँगा.
रेकोंग पिओ से बढ़ते हुए आपको वो ही NH-5 मिलता है लेकिन 5,10 किलोमीटर पर ही आपकी सारी खुशी रास्ते की मिट्टी में मिल जाती है यहाँ से पूरे रास्ते में भूसा भरा हुआ है, यहीं पर बोर्ड दिखता है कि आप दुनिया के सबसे दुर्गम रास्ते पर चल रहे हैं. यह बोर्ड थोड़ी हिम्मत बड़ा देता है. पांगी , मुरंग होकर पूह पहुचते हैं. रास्ते ने वैसे ही भूसा भर दिया था, यहां फिर शिपकी ला के लिए आईटीबीपी में कोशिश करी, अबकी उन्होंने कह दिया यह परमिट तो रेकोंग पिओ से मिलेगा और फिर नाको की तरफ बढ़ने के अलावा कोई रास्ता नहीं बचा था तो फिर मैं नाको की तरफ बढ़ गया. यहां से नो नेटवर्क ज़ोन लग गया शायद बीएसएनएल चल रहा हो, लेकिन मेंरे दोनों सिम गायब हो गए रास्ते मे शिपकी ला के बोर्ड को बड़ी हसरत भरी नजरों से देखा. चीन तिब्बत मात्र 31 किलोमीटर दूर था, लेकिन मैं नहीं जा सकता था, एक तो मैंने अपनी 4 घंटे सुबह बर्बाद कर दिए थे. इसके पास इसके पास में पूह से पहले एक चेक पोस्ट पड़ती है जहां आपको एंट्री करानी होती है और विदेशी मेंहमानों को अपना इनर लाइन परमिट दिखाना होता है. शिपकी ला के बोर्ड को 5 मिनट देखने बाद अपन बढ़ चले नाको की तरफ.
इसी रूट पर जब आप बढ़ते जाते हो तो नाको से 40 किलोमीटर पहले ख़ाब पड़ता है, इस जगह की खासियत यह है कि चीन से भारत में आने वाली सतलुज और स्पीति से आने वाली स्पीति नदी यहीं पर मिल जाती हैं, यहां ख़ाब का पुल है. प्रकृति इंसानी बार्डर नहीं देखती. शाम के 4 बज चुके थे ख़ाब बस एक पुल भर है, कहने को एक ढाबा है यहाँ, रुक कर चाय का ऑर्डर दिया ब्लैक टी, क्योंकि दूध वाली चाय को मैं सुबह झेल चुका था. असल में चाय कन्वर्सेशन स्टार्ट करने का बहाना होती है.
यहाँ से सीधे फिर हम नाको की तरह निकल पड़े. ठंड बढ़ चुकी थी तापमान कोई माइनस 3, 4 रहा होगा. खाब से नाको की रोड बहुत कर्व लिए हुए है. जैसा कर्व हम ने नेपाल में हाईवे में देखा था. 5 बजे के करीब मैं नाको पहुंच गया. यह तो तो एक गाँव निकला. नाको 3700 मीटर की हाईट मे है, यहां से रास्ते पर बर्फ दिखनी शुरू हो गई थी. खाब में मे होटल वाले ने बताया था कि नाको मे पानी नहीं है सारा पानी जम गया है. खैर यहां पहुच कर होटल खोजे तो पता चला यहां होटल 4 महीने के लिए बंद हो गए हैं. सिर्फ एक होटल लेक व्यू ही है पूरे नाको में जो खुला है. यह होटल नाको झील के सामने है बिल्कुल. बाकी सुबह नाको मोनेस्ट्री देखेंगे. और समय रहते काज़ा जो यहां से लगभग 100 किलोमीटर है के लिए निकला जाएगा. नाको का अभी का तापमान – 5 डिग्री है.
नाको में रात सोच से भी ज्यादा ठंडी निकली. होटल वाले दोस्त ने बताया रात को तापमान -10 पहुंच गया था, संभवतः मैंने इतने ठंडे तापमान में पहली रात गुजारी हो. जिस होटल (लेक व्यू) में मैं रुका था उसके सामने नाको लेक थी, जो बर्फ से जमी हुई थी, और नाको आधा बर्फ से पटा था, किस्मत अच्छी रही कि नाको में यह होटल मिल गया 1000 रूपये में सौदा तय हुआ, हालांकि वो अगर 2000 भी बोलता तो मुझे रुकना होता. मेंरे पास कोई और विकल्प नहीं था. खैर नाको पूरा जमा था, होटल के टॉयलेट बाथरूम सब बंद थे, एक कॉमन टॉयलेट खुला था. रात बहुत ठंडी निकली, होटल के केयर टेकर जो जम्मू के बटाल का था ने वादा किया कि वो सुबह 6.30 बजे नाको मोनेस्ट्री की पूजा दिखाएगा. सुबह नींद 5.30 ही बजे खुल गई थी. सुबह एक विचित्र घटना घटी, जो पानी रात को रखा गया था वो बाल्टी समेंत सुबह तक जम चुका था और यह बात मुझे थोड़ा देर में पता चली, आप समझ रहे होंगे. किसी तरह उसकी ऊपर की लेयर तोड़ कर जरूरी काम निपटाए. अब मैं तैयार था, घड़ी 6 बजा रही थी, हल्का उजाला हो चुका था, रात भर नाको के खच्चर राग अलापते रहे, जिनकी भीषण अवाज पूरे नाको गाँव में गूंजती रही. सुबह जब मैं होटल में बैठा था तो मैंने एक अलग अवाज सूनी, बाहर निकल कर देखा तो दो लोमड़ी या सियार (रेड फॉक्स) जमी नाको झील में खेल रहे थे, मैं तुरंत उनको देखने दौड़ा. 15 मिनट उनके करतब देखता रहा फिर धीरे-धीरे उनकी तरफ बढ़ता चला, आगे बढ़ते हुए बर्फ में पड़ते मेंरे पैर उन्हे अगाह कर रहे थे, अब मैं उनकी नजर में था, थोड़ा इन्तज़ार करने के बाद डर महसूस होते ही वो भाग निकले. मैं वापस लौट के होटल आ गया. तब तक केयर टेकर भी आ गए उन्होंने बताया वो मोनेस्ट्री हो आए, मेंरे ज़िद करने पर वो दुबारा जाने के लिए तैयार हो गए. नाको गाँव के बीच से होते हुए हम मोनेस्ट्री पहुचे, यहां अंदर जाने के बाद हमें लामा मिले. जो अपने काम में व्यस्त थे. केयर टेकर को देखने के बाद वो बोले इतनी जल्दीबाजी फ़िर आ गए, सवाल दागने के बाद तुरंत ही बोल पड़े बैठो. यह उनके रहने का कमरा था, अंदर भट्टी थी जिसमें पानी गरम हो रहा था और चिमनी से धुवा बाहर निकल जा रहा था. सामने टीवी लगी थी जिसमें कोई न्यूज चैनल वाले सुबह सुबह जंगल का नियम बता रहे थे. चाय पीने के बाद वो हमें मोनेस्ट्री ले गए. यह 1100 सौ साल पुरानी मोनेस्ट्री थी, जो तबसे वैसे ही है. अब लामा जी ने बताना शुरू किया और किसी बच्चे को तरह मैंने भी अपनी तमाम जिज्ञासा शांत करी, मोनेस्ट्री के अंदर उन्होंने काफी देर तक बौद्धधर्म पर चर्चा करी अपने देवता और भगवान पर चर्चा करी. जीवन के पांचों तत्वों पर चर्चा करी और कैसे वो बौध धर्म से जुड़े हैं यह बताया. मोनेस्ट्री के अंदर फोटोग्राफी मना है लेकिन मेंरी जिज्ञासा देख कर उन्होंने फोटोग्राफी की इजाजत दी और उसे सार्वजनिक ना करने को कहा. बहुत गहन चर्चा के बाद लगा नाको आना सफल हो गया. करीब डेढ़ घंटा उनके द्वारा मुझे दिए गए साथ के बाद केयर टेकर भी बोलने लगे लामा जी इतना समय किसी को नहीं देते. इतिहास बताते हुए कहते हैं कि एक राजा हुए करते थे जिनके दो शिष्य हुआ करते थे, तो दोनों में एक दिन अपने को श्रेष्ठ सिद्ध करने की शर्त लगी. तो एक शिष्य ने एक ही दिन में नाको नहर 25 किलोमीटर बना डाली और दूसरे शिष्य ( महानुवादक रतन भद्र) ने नाको मोनेस्ट्री एक ही दिन में बना डाली. नाको मोनेस्ट्री में आने वाली 8 तारीख को किन्नौर का लोसार है. लोसार नए साल का जश्न होता है. हर डिस्ट्रिक्ट का अपना अलग अलग होता है. स्पीति में नवम्बर में लोसार हो चुका है. करीब एक घंटे की फसक (बातचीत ) लगा कर हम 10 बजे काज़ा की तरफ निकल पड़े.
नाको चौराहे में कांगड़ी ढाबे में आधे किलो के दो आलू पराठे हौक्ने के बाद हम निकल पड़े. नाको से बमुश्किल 10 किलोमीटर चलने पर आता है मलिंग नाला. जी हां बहुत से बाइकर्स की हड्डी तोड़ने वाला मलिंग नाला. किस्मत से इस समय पानी कम था क्योंकि पूरा पानी जम चुका था, पूरे नाले से गिरते हुए पानी को जमें देखा अपने आप में गजब अनुभव था. चांगो को पार करते हुए हम समडू के करीब पहुंच जाते हैं . यहां हिमांचल पुलिस की चौकी है जहां एंट्री करानी होती है, यहीं से लाहौल स्पीति जिले की सीमा शुरू हो जाती है. यहां से शिचलिंग तक फोटो, विडियो ग्राफी मना है यह एरिया आर्मी के अंडर है यहाँ उसी के कानून चलते हैं. आगे ताबो के रास्ते से एक रास्ता अलग कट ता है जो ग्यू मोनेस्ट्री जाता है. जहां 500 साल पुरानी ममी रखी गई है. इसे मैंने वापसी के लिए छोड़ दिया. ठंड काफी बढ़ गई थी. ताबो में भी एक मोनेस्ट्री है. ताबो में हमें ब्लू शीप का एक झुंड दिखा जो ताबो वाले इलाके में देखते जा सकते हैं. यहां से बाइक को दौड़ाते हुए मैं पहुंच गया धनकर गाँव, जो काज़ा रोड से 8 किलोमीटर ऊपर है. यह 1000 साल पुरानी मोनेस्ट्री है और स्पीति जिले की पांच मोनेस्ट्री (ताबो, धनकर, पिन, की, कॉमिक ) में सबसे पुरानी है. मोनेस्ट्री पूरी मिट्टी की बनी हुई है. धनकर गाँव की कुल आबादी कोई 600 के आस पास है. जाड़े में स्पीति आने का फायदा यह हुआ कि यहां सबके पास टाइम है. मोनेस्ट्री में घुसते ही पतले पतले रास्ते सीढ़ी से ऊपर चड़ते हैं. यहाँ 25 रुपए का टोकन ले कर लामा जी अंदर ले जाते हैं. आज का दिन बड़ा अच्छा निकला लामा खुद मुझे सब बताने लगे और सब चीजें परत दर परत खोलने लगे. करीब आधा घंटा गुफ्तगू के बाद उन्होंने चाय के लिए पूछा तो मैंने तुरंत हां कर दी क्योंकि इसी बहाने मुझे उनसे थोड़ी और बात करने को मिल जाती.
यहां के मकान मिट्टी के बने हैं जिनमें छत में एक घास की लेयर फिट है जिसे पेमा बोलते हैं. यह बारिश से मिट्टी को बचाती है. हर मोनेस्ट्री के अपने भगवान अलग हैं. यहाँ चोंगपा (शायद यह ही नाम था), भगवान बुद्ध, और भविष्य के बुद्ध मैत्रेयी बुद्ध की तस्वीर लगी है. धनकर मोनेस्ट्री में बुद्ध के शिष्यों द्वारा तिब्बत से लाई गई 108 हस्त लिखित किताबें रखी गई हैं और बताया गया यह सब सालों पहले पैदल कंधे पर लाद कर लाई गईं हैं.
यहां एक बेहतरीन चीज और भी है, यहां बुद्ध के शिष्यों की मानव निर्मित फोटोग्राफी लगी हैं जिन्होंने नालंदा विश्वविद्यालय में बुद्ध के दिए ज्ञान को फैलाया था. लामा बताते हैं स्पीति की सभी मोनेस्ट्री में सबसे पुरानी यह ही मोनेस्ट्री है और सबसे बाद तक भी यह ही मोनेस्ट्री रहेगी बकायदा मोनेस्ट्री के गेट पर एक बोर्ड इस बात की घोषणा करता है. करीब एक घंटा धनकर में बिताने के बाद मैं काज़ा के लिए चल पड़ा. एक और बात धनकर के पास ही स्पीति और पिन घाटी अलग होती हैं, पिन से आने वाली पिन नदी और स्पीति से आने वाली स्पीति नदी दोनों यहीं मिलती हैं. काज़ा से 16 किलोमीटर पहले अट्रगू से पिन घाटी के लिए पुल कट जाता है. पिन घाटी वाइल्ड लाइफ पार्क के अंदर आती है जिसके लिए परमिट की जरूरत होती है और वो डी. एफ. ओ. काज़ा द्वारा जारी होता है. आगे लीदंग होते हुए हम 4.30 बजे काज़ा पहुंच जाते हैं. यहां सबसे पहला काम पेट्रोल भराया गया क्योंकि इसके बाद 220 किलोमीटर बाद रेकोंग पिओ में ही पेट्रोल मिलेगा और हमारी किस्मत से पेट्रोल पंप के बगल में ही एक होटल मिल गया जिसे मैंने दो दिन के लिए रख लिया है. अब कल की, हिक्कीम, किब्बर, चेचम, लांगज़ा की ओर देखा जाएगा. काज़ा में अभी तापमान – 8 है.
काज़ा में सुबह देर से होती है रात का तापमान -10 से -15 तक चला गया था, बाहर सर्द हवाओं की अवाज एक बार झुर-झुरी पूरे शरीर में झुरझुरी मचा देती है. काज़ा लगभग 3800 मीटर की ऊंचाई पर है और यह स्पीति और लाहौल जिले का सब डिवीजन हेड क्वार्टर है. केलॉन्ग स्पीति जिले का हेड क्वार्टर है. रात की सर्द हवा थोड़ा डरा भी रही थी क्योंकि आज हमें 4500 मीटर से भी ऊंचाई पर जाना था. जहां बर्फीली हवाओं से सामना होना था चूंकि काज़ा की सुबह देर से होती है तो हमें काज़ा छोड़ते 10 बज गए. अब सबसे पहले हिक्किम का रास्ता पकड़ा जो यहां से कोई 14 किलोमीटर की दूरी पर है. हिक्किम की खास बात यह थी कि यह 4440 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है और इस गाँव में दुनिया का सबसे ऊंचाई पर स्थित पोस्ट ऑफिस है. स्पीति बेल्ट में यह इसी कारण बहुत प्रसिद्ध है. खैर मैं गाँव में पहुंचा तो गाँव लगभग खाली सा दिखा. एक जगह तीन महिला यह खाना बना रही थी. उन्होंने चाय ऑफर करी और हम बेशरम होकर उनके घर में घुस गए. बताते हैं गर्मी के सीज़न में यहां चहल-पहल रहती है एक दिन में 50-60 टुरिस्ट तक आ जाते हैं. लेकिन अक्तूबर के बाद से 6 महीने के लिए पूरी तरह निर्जन जैसा पड़ जाता है क्योंकि यहां बर्फ ही बर्फ रह जाती है. ग्रामीण अपना जाड़ों का बफर पहले ही रख लेते हैं, ज्यादातर गाँव मिट्टी के बने हैं जो अंदर से गरम रखते हैं. एक खास बात स्पीति घाटी के गाँव के घरों में एक घास (पेमा) रखी जाती है. जो पानी को मिट्टी से मिलनेवाली से बचाती है बारिश के दिनों में. चाय के लिए धन्यवाद बोलकर मैं आगे कौमिक गाँव की तरफ बढ़ गया.
कौमिक गाँव की खासियत यह है कि यह दुनिया का सबसे ऊंचाई पर स्थित गाँव है जो सड़क से जुड़ा है जिसकी ऊंचाई 4587 मीटर है. यहां की एक और बात विशेष यहां की मोनेस्ट्री है जो करीब 1000 साल पुरानी है, नाको, धनकर के बाद मुझे यहां भी चाय पीने का सौभाग्य मिल गया. कौमिक गाँव की कुल आबादी 114 है. इतनी ऊंचाई में सब जम जाता है सिवाय आदमियों के जज्बे के. जिस ऊँचाई पर जाने में हालत खराब हो रही हो, ऐसी जगह लोग गाँव में रह रहे हैं, मेंडिकल सुविधा के नाम पर 300-350 किलोमीटर भागो. अधिक ऊंचाई पर हवाएं और क्रूर हो जाती है और गालों पर थप्पड़ रसीदते हुए निकलती हैं. यहां के गाँव वालों के याक हैं और ताज्जुब इतनी ऊंचाई पर भी यह आलू, मटर उपजा देते हैं. मोनेस्ट्री के सामने लामा रहते हैं, अंदर कमरा गरम है बाहर पॉली हाउस बनाया है जिससे इसे गरम किया जाता है. चाय का धन्यवाद देकर मैं अगले गाँव लांगज़ा की तरफ निकल गया. इस इलाके में स्नो लेपर्ड, रेड फॉक्स, हिमालयन ब्लू शीप, हिमालयन आईबेक्स दिखता रहता है जिसमें से पहला छोड़ बाकी सब मुझे दिखे.
अब लांगज़ा एक गाँव है और यहां बुद्धा का एक स्टेचू है. इस गाँव के आगे फोज़ील पॉइंट जैसा कुछ है बताते हैं (जैसा हम को मालूम है) इस जगह जब समुद्र धीमें धीमें पट कर चट्टान के रूप में उभर रहा था तो उस समय के समुद्री जीवों के अवशेष अब फोज़िल बन कर यहां मिलते हैं. यहां से लौट ते हुए मैंने एक कौमिक के आदमी को लिफ्ट दी जो अपनी याक देखने वहां गया था, उसने मुझे भेंट में फोज़िल का एक टुकड़ा दिया जिसे मैंने संभाल के रख लिया. इस गाँव से मैं जल्दीबाजी निकल आया क्योंकि मैंने हिक्किम और कौमिक में बहुत समय लगा दिया था. घड़ी कोई 2 बजे का इशारा कर रही थी. मुझे वापस 20 किलोमीटर नीचे का काजा वाली रोड पर आना था क्योंकि हिक्किम, कौमीक , लांगज़ा के लिए यह रूट मैन रोड से कट कर ऊपर की ओर जाता है.
2.30 बजे मैं वापस काज़ा किब्बर वाली रोड़ पर पहुंच गया. यहां से कोई 3 किलोमीटर चलने पर एक महत्वपूर्ण पुल पड़ता है जहां से एक रास्ता लोसर, रनरिक, ग्रांफू, कुंज़ूम पास के लिए जाता है और सीधा कीह, किब्बर, चीचम के लिए. इस रोड पर चलते हुए हिमालयन ब्लू शीप का 15-20 का एक झुंड दिखता है. क्योंकि यहां के पहाड़ चट्टानी हैं, कहने के लिए कहीं कहीं पर झाड़ी हैं इसे ही खाने यह नीचे उतरते हैं और पत्थरों में इनकी दौड़ गजब की होती है और इन्हीं के चट्टान में यह रहते हैं. 10 किलोमीटर बाद कीह गाँव आ जाता है. कुल 60 घरों की आबादी है यहाँ की ग्राम पंचायत किब्बर है. इसी गाँव में ऊपर चढ़ कर प्रसिद्ध कीह मोनेस्ट्री है, जो स्पीति घाटी सर्किट का अहम हिस्सा है. यहां पहुँच कर सबसे पहले लामा जी की खोज करी, जो डोगरा रेजिमेंट के जवानों से बोटी भाषा में बोल रहे थे. जिससे समझ में आ गया कि यह भी इसी पट्टी से ताल्लुक रखते हैं. मैं तब तक मोनेस्ट्री की हिस्ट्री पढ़ रहा था कि पीछे से आवाज आई ‘ज़ुलेय’ मैंने भी जवाब में ‘ज़ुलेय’ में अभिवादन किया. फिर उन्होंने खुद ही मोनेस्ट्री दिखाने की पहल की और मैं चल पड़ा उनके पीछे. यह मोंनेस्ट्री असल में पहले रिंरिक में थी. जो भूकंप और समय के साथ आधी टूट गई फिर करीब 1000 साल बाद इसे कीह में शिफ्ट करा गया. एक और चीज उन्होंने बताई कि इसका नाम कील था, जिसका मतलब उनकी भाषा में मध्य से होता है, कील से होते हुए वो आज कीह हो गया.
मोंनेस्ट्री कोई तीन मंजिला है जो पूरी तरह मिट्टी से बनी है और अब खराब हालत में है. संकरी सीढ़ी आपको गुफानुमा कमरों में ले जाती है, यह कमरे एक सदी पुराने थे, इन्हे देखना वकई बहुत शानदार अनुभव था, सफर की सारी थकान गायब थी, हर बार की तरह यहां भी मुझे लामा जी कि चाय नसीब हो गई. पूरी मोंनेस्ट्री का भ्रमण करने के बाद मेंरी नजर बार बार घड़ी पर जा रही थी. अब मुझे किब्बर के लिए निकलना था जो यहां से कोई 8 किलोमीटर था. यह वैली ऑफ याक ब्रीड के नाम से भी जानी जाती है, याक यहां का मुख्य पशु है जो नर होता है, और डुमो (Dzomo ) मादा होती है. कीब्बर वन्य जीव अभयारण्य भी है यहाँ वो ही जीव मिलते हैं जिनका मैंने ऊपर उल्लेख किया है. कीब्बर बड़ा गाँव है. और टुरिस्म के मामले में हिमांचल से सीखना चाहिए. हर घर में होम स्टे, होटल जितना खर्च भी नहीं और अच्छी कमाई अलग से. लेकिन इन सबके बीच हिमांचल के लोगों की मेहनत है. ऐसे नहीं होम स्टे में सारी सुविधा मिल जा रही हैं. इस इलाके में रतन जोत नाम की एक जड़ी होती है जिसे सर में लगाने से बाल नहीं झड़ते और वो बालों को काला करने के कम भी आती है. ऐसा इस इलाके में प्रचलित है. इस गाँव से होकर चीचम के लिए रास्ता जाता है. पूरा रास्ता बर्फीला है, हवा ऐसे चल रही है जैसे कोई चाकू से गाल चीर रहा हो, मानना पड़ेगा कितनी टफ कंडिशन में भी यह लोग अपनी जड़ों से जुड़े हैं. अपने कल्चर में रमें हैं और उसे आगे बढ़ा रहे हैं.
तीन किलोमीटर चलने पर चीचम का पुल आता है यह पिछले साल 2017 में बना है और क्या गजब बना है, कुल 120 मीटर ऊंचा यह पुल इंजिनियरिंग का गजब नमूना है, यह सस्पेंशन ब्रिज है. इसे एशिया का सबसे ऊंचे पुल का खिताब हासिल है. इस ब्रिज को देखने के बाद मैं काज़ा की तरफ दौड़ पड़ा क्योंकि बज रहे थे 4.30 और बर्फीली हवाओं ने खतरनाक मौसम कर दिया था. मौसम कभी भी बिगड़ सकता था और मैं उसमें फस सकता था और इस रिमोट लोकेशन में पूछने वाला कोई न था.
तो जल्दी गाड़ी भगाते हुए 5.30 पर मैं काज़ा पहुच गया और आज का दिन एक यादगार बन गया. पहले हमने दुनिया के सबसे ऊंचे पेट्रोल पंप से पेट्रोल भराया, फिर हम दुनिया के सबसे ऊंचे पोस्ट ऑफिस पर गए, फिर हम दुनिया के सबसे ऊंचे गाँव जो सड़क से जुड़ा है गए. तो बोलने में यह कतई गर्व करने जैसी फीलिंग दे रहा है. अब कल सुबह काज़ा से रेकोंग पीओ के लिए निकलूंगा, तीन दिन से नेटवर्क से कटा रहा इस बीच.
काज़ा में हड्डी चटकाने वाली ठंड पड़ रही है. यहां के लोगों का कठिन जीवन बहुत कुछ सिखाता है. – 10 में भी जिन्दगी नॉर्मल चल रही है. दुकानें खुल रही हैं काम हो रहा है. बस अब 5 महीने के लिए टुरिस्ट नदारद हैं. मई से फिर बाइकर्स की गाड़ियों की आवाज पूरी घाटी में सुनाई देगी. हालांकि यहां की सर्दी से कुछ-कुछ अपनी दोस्ती हो गई थी और होटल के बाहर अपने कुछ दोस्त भी बन गए थे. एक दिन पहले हिक्किम, कौमिक, लांगज़ा, कीह, किब्बर, चेचम देखने के बाद अब समय था स्पीति घाटी को अलविदा कहने का. एक चीज कहना चाहूंगा स्पीति घाटी वाकई खूबसूरत है, पहाड़ मिट्टी, और चट्टान के हैं, वनस्पति के नाम पर कहीं कहीं झाड़ी है. मेंरी सुबह 6 बजे हो गई थी, आठ बजे काज़ा के उठने का इन्तज़ार किया. यह होटल एक मात्र पेट्रोल पंप से लगा था और इसकी मेहमान नवाजी बिल्कुल घर जैसी थी. सुबह 9 बजे काज़ा को एक नज़र ताकते हुए मैं काज़ा से बाहर निकलने लगा. आज का सफर लम्बा था और बेहद कठिन. रेकोंग पिओ से काजा बेहद कठिन सफर माना जाता है.
सुबह काज़ा में आलू के पराठे फिर लाइफ सेवर बने, क्योंकि हमें दिन में कहीं नहीं रुकना था तो हम पेट को यहीं गरम करते हुए निकल पड़े. सुबह हवा बहुत सर्द थी. ऐसा लग रहा था जैसे हिम्मत को परख रही हो. अपन भी बिल्कुल लगे थे रास्ते नापने में करीब 100 किलोमीटर तीन घंटे में नप गए, इसके बाद वाले 100 किलोमीटर बेहद कठिन थे. मैं ताबो और गियू बाद में देखने के लिए छोड़ आया था. शिचलिंग से समदु तक फोटोग्राफी नहीं कर सकते. यह एरिया आई टी बी पी के हवाले है. ताबो मोंनेसट्री आज बंद थी. बाहर से देखने के बाद मैं आगे के सफर के लिए निकल पड़ा. ताबो से आगे बढ़ने पर गियू गाँव के लिए एक सड़क जाती है, गियू गाँव यहां से 8 किलोमीटर अंदर है. यहां की खाशियत यहां रखी 500 साल पुरानी के ममी है.
गियू पहुंच कर मैं ऊपर मोनेस्ट्री गया. यह नई बनी थी. यहां आई टी बी पी का एक जवान रहता है जो आपको वो कमरा खोल के ममी दिखाता है. बताया जाता है की 1975 में यहाँ भूकंप आया उस समय आई टी बी पी के जवानों को यह ममी खुदाई के समय निकली. आसपास गाँव वालों ने बताया यह एक लामा थे जो भूकंप से पहले शशरीर यहाँ स्थापित थे. खास बात जो पता चली कि इस ममी के नाखून और बाल अभी भी बढ़ते हैं. इसे काँच के फ्रेम में रखा गया है (बिना किसी रासायनिक लेप के ) और आस पास और दूर से भी लोग इसे देखने आते हैं.
गियू गाँव से पुराना पैदल रास्ता तिब्बत जाता था, जहां पहले समय इसे ट्रेड के लिए इस्तेमाल किया जाता था. यहां से सामने दिखते पहाड़ के पीछे वाले हिस्से से चीन की सरहद लगती है, इसलिए यह इलाका सेंसिटिव ज़ोन में आता है. आधा घंटा जवान के साथ बात करने के बाद मैं गियू गाँव से निकल पड़ा नाको होते हुए रेकोंग पिओ के लिए. आगे NH को चौड़ा किया जा रहा है, जगह जगह भारी मशीन लगी हैं, साथ ही ब्लास्टिंग भी की जा रही है. फिर सीधे गाड़ी पकड़ के मैं शाम 6 बजे अपने उसी होटल पहुच गया, होटल रिदंग जहां मैं पहले रुका था. इस बार होटल मालिक ने कहा आपके हिम्मत की सलाम के लिए 200 रूपया का डिसकाउंट मैं देता हूँ. सोलो ट्रैवलिंग में जितना रुपया बच जाए उतना आपके सफर के लिए अच्छा ही होता है. अब कल शिमला के लिए निकला जाएगा.
काजा की ठंड और थकान दोनों शरीर के हर हिस्से से याद दिला रही थी, लेकिन मैं आपको यकीन दिला सकता हूं कि यह सोलो यात्रा मेंरे जीवन की यादगार यात्रा रहेगी. शरीर के साथ साथ इस यात्रा ने मानसिक तौर पर भी मुझे परखा. अब वापसी का रास्ता लेना था. वापसी के लिए अगला ठिकाना ढूंढा वो था शिमला. रेकोंग पिओ सुबह 9 बजे छोड़ दिया था, सामने शानदार NH 5 था. मक्खन रोड पर चलते हुए करचम, वांगतू, रामपुर होते हुए नारकण्ड़ा पहुंचा. शिमला शहर आज से पहले टीवी में ही देखा था. घुमक्कड़ी क्यूँ जरूरी है इसे समझे. आप दुनिया अपनी नजरों से देखते हैं ना कि जैसी तस्वीर परोसी जा रही है वैसी. भारत के खूबसूरत हिल स्टेशन से नवाजे गए इस शहर के अंदाज से मुझे नफरत हो गई. शहर इंसानों से बनता है. शहर में घुसते ही बेतरतीब कंस्ट्रक्शन कमोबेश नैनीताल को जेहन में ले आता है, लेकिन यहां तस्वीर और डरावनी है . जो होटल ऑनलाइन बुक किया गया था गूगल उसे कुछ दूरी पड़ छोड़ दे रहा था. एक घंटे जाम में रेगने के बाद पता चला उस होटल तक सड़क नहीं जाती. इसीलिए गूगल उसका रास्ता नहीं दिखा पा रहा था. अब शुरू हुआ पार्किंग ढूढने का सिलसिला आधे घंटे की मशक्कत के बाद एक जगह बड़ी मिन्नत से 100 रुपए में पार्किंग ढूँढ ली गई. 1.5 किलोमीटर की चढ़ाई के बाद तयशुदा होटल में पहुंच गया. दिनभर मे लगभग 250 किलोमीटर की बाइक चलाने से जितनी थकान नहीं हुई उतनी अकेले इस शहर ने ढेड घंटे मे दे दी. थोड़ा समय निकाल सके तो सोचना चाहिए हम कैसे अपने पहाड़ी शहरों को ताश के पत्ते की माफिक खड़ा करते जा रहे हैं जो कभी भी भर भरा के गिर सकते हैं. इसी के साथ हिमाचल प्रदेश का सफर ख़तम करके मैं शिमला से देहरादून होते हुए ऋषिकेश, देव प्रयाग, रुद्रप्रयाग, करन प्रयाग, गैरसैंण, चोख़ुटिया, द्वाराहट होते हुए अपने गाँव बयेड़ी पहुंच गया हूँ.
अल्मोड़ा ताड़ीखेत के रहने वाले मुकेश पांडे अपने घुमक्कड़ी धर्म के चलते डोई पांडे नाम से जाने जाते हैं. बचपन से लखनऊ में रहने के बाद भी मुकेश पांडे के दिल में पहाड़ खूब बसता है. अपने घुमक्कड़ी धर्म के लिये ही पिछले पांच साल से प्रमोशन को ठुकरा कर लखनऊ के एक बैंक में घुमक्कड़ी के वास्ते ही नौकरी भी कर रहे हैं. पूरे देश की सड़कों पर अपनी मोटरसाइकिल की छाप छोड़ने की तमन्ना रखने वाले मुकेश पांडे हाल ही में अकेले स्पीति विंटर यात्रा से लौटे हैं. यह उसी यात्रा का वृतांत है.
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