प्रो. मृगेश पाण्डे

छिपलाकोट अन्तर्यात्रा : जमीं चल रही, आसमां चल रहा

पिछली कड़ी : छिपलाकोट अन्तर्यात्रा : कुछ सुस्त कदम रस्ते कुछ तेज कदम राहें

सोम रोहिणी को सोर घाटी दिखाई. भाटकोट की सड़क से पंच चूली के दर्शन. पूरे शहर की परिक्रमा. दशहरे के दिन थे. काफी छुट्टियां भी. सो मंदिरों की तरफ काफी चले. रोहिणी तो पूरी भक्तिन बन मंदिर आती, भरपेट ब्रेक फ़ास्ट के बाद. दीप ने उसे बताया कि हम लोग मंदिर में दर्शन पूजा अर्चना के बाद ही अन्न ग्रहण करते हैं तो एकदम उसने डपट दिया. इतनी जगह माथा टेकने के बाद बता रहे हो अब मुझे दोबारा जाना होगा और तुम ही ले जाओगे फिर. सो दीप दुबारा ले गया उल्का देवी मंदिर और स्टेशन के पास के प्राचीन शिव मंदिर. इनके बीच में घण्टेश्वर महादेव जिसे घंटाकरण के नाम से जाना जाता है. इसके बरामदे की तरफ भगवती माता तो बाहर की ओर विराजमान हैं भैरव, हनुमान और नंदी. उसको चैतोल के बारे में भी बताया जो चैत के महीने में पूर्णिमा के दिन होता है और इसमें तीन गांवों से डोले आते हैं.
(Sor Ghati Mrigesh Pande)

चैसर और जाखनी गांव से जो डोले आते हैं वह भाइयों के होते हैं जो अपनी बहन से मिलने आते हैं. रोहिणी दो बड़े भाइयों की लाडली बहन थी इसलिए चैतोल के नाम से इमोशनल हो गई और इस पर्व की हर बात को खूब ध्यान से सुनती रही. फिर उसे बताया कि तीसरा डोला लिंठयूड़ा गांव से आता है जो देवी भगवती का होता है. इस पर उसे अमृतसर के दुर्गियाना मंदिर की याद आ गई फिर अपनी बेबे और दादी के साथ इस मंदिर में कई बार जाने की सुनाने लगी. उसकी बात सुन, फिर बताया कि ये तीनों डोले घंटाकरण के संगम स्थल पर मिलते हैं. घंटाकरण से थोड़ा आगे मौनी बाबा द्वारा बनाया लक्ष्मी नारायण मंदिर दिखाया जिसकी रेलिंग में बैठ सोम बड़ी देर तक शांत बैठा सोर घाटी के पिछले भाग को निहारता रहा. पुराने बाजार में सोलहवीं सदी के करीब बना खडगेश्वर मंदिर दिखाया जिसे असकोट के रजवार खड़ग पाल सिंह ने बनाया. यहां पितरोटा गांव से लाई गई लक्ष्मी नारायण की मूर्ति है जिसमें नारायण के वाहन गरुड़ मानव रूप में हैं.

कौशल्या देवी का गुफा मंदिर देख रोहिणी हैरत में पड़ गई जिसका कारण था पत्थर पर हरा लेप कर बनी मूर्ति जिसमें पेड़ के साथ मानव आकृति का भी अंकन किया गया था. शिव के जटा जूट जूड़े के रूप में बंधे हैं. वो दिन भी दशहरे के थे सो मंदिरों में खूब चहल पहल और सजावट. अब थोड़ी लम्बी पद यात्रा शुरू हुई. घुनसेरा गुफा में देवी के दर्शन कराये. मढ़ खड़ायत गांव से असुरसुला की चढ़ाई चढ़ते सोम के पांव में छाले पड़ गए. रोहिणी मस्त. कभी कभार तो दीप के हाथ से सिगरेट झटक सुट्टा भी खींच लेती. फिर उससे पूछती अपनी गर्लफ्रेंड से कब मिलाओगे? मैंने दीप से शिकवा शिकायत की टोन में पूछा भी कि ये कौन फ्रेंड है भई? जो चुप्पे-चुप्पे लख्ते ज़िगर में समा गई, हवा तक न लगने दी.

“अरे वो रोहिणी. खींच रही मुझे. मार्केट में मिल गई, फिर साथ ही चले. खरीदारी के मूड में थी, बोली कि इतनी रिमोट जगह में मार्केट तो बढ़िया है. सब कुछ मिल रहा है यहां. देखते-देखते नीचे शाह जी की अंग्रेजी वाइन शॉप में घुस गई. बोली ब्रांडी की बोतल लेनी है, कितनी सर्दी है यहां. उसे देख, वहाँ दारू खरीदने खड़े सभी इधर-उधर हो, ओने-कोने से ताकने लगे. उनके लिए तो अजूबा हो गया. हाथ में बॉटल पकड़ सोम के कंधे पर लटके झोले में डाल समझाने लगी, “बड़ी ठंडी है यार तुम्हारे पिथौरागढ़ में, मुझे तो जुकाम हो जाता है”.

फिर सोम को खींचने लगी कि मेरे पाजी ने आधा पेग थमा दी इन्हें,उसी में मैं कहां हूं? कौन हूं कह उलट गए. कित्ता प्यारा है मेरा सोमणा! सोम आंख दिखा सुलगते रहा.

जोड़ी मजेदार, दोनों की रुचियां एक दूसरे के एकदम उलट. पर काम के मामले में दोनों एकदम परफेक्ट.

अब पूरा माहौल बनने लगा दारमा, व्यास व चौदास की और चल बढ़ने का. टीम मुझसे अधिक उत्साही और कल्पना शील. दीप के साथ कुंडलदा और सोबन. भगवती बाबू और पुलिस वाले पाण्डेय जू ने बकायदा उस इलाके के नक्शे बना कहां-कहां रुकेंगे ,किसके घर ठहरा जाएगा वाला पूरा प्लान बना दिया. इस बार एक और सूरमा अपनी टीम में जुट गया. नजीबाबाद के पास के गांव से आया असलम जो पिथौरागढ़ के सबसे नामी सब्जी व्यापारी का हुनरमंद साला था. वह फर्स्ट डिवीजन में इंटर साइंस कर आगे पढ़ने के लिए अलीगढ़ जा चुका था. एडमिशन भी हो गया. अगले महीने से क्लास होनी थी. पर वापस गांव लौटते रोडवेज की नाईट बस के आगे दो भैंस आ गईं. बस सामने के पेड़ से टकराई और पलट गई. गांव के पास ही ये दुर्घटना हुई तो देखते ही देखते भीड़ जुट गई. ड्राइवर-कंडक्टर तो भाग निकले. एक दो सवारियों को ड्राइवर होने के शक में भीड़ ने लतिया दिया. फिर वो फंसे यात्रियों को निकलने में जुट गए. असलम ने बताया कि वह तो दिन भर अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में एडमिशन की भागदौड़ से हुई थकान से नींद में था. शाम को मुरादाबाद की बस में बैठ गया. अचानक ही सब डांवाडोल हुआ और दाएं-पांव में भीषण दर्द उठा. जब होश आया तो उसने खुद को चारपाई पर लेटा पाया. दर्द से तड़प फिर उठी. पुलिस आई, फिर अस्पताल ले गए. पता चला वहां कि टांग टूट गई है. अब छह सात महीने तो ऐसे ही कटेंगे ठीक होने में. अच्छा-खासा एडमिशन हो गया था, वह मौका ही गया.

मैं दिल्ली से पिथौरागढ़ नाईट बस से लौट रहा था. चंपावत से नीचे साल बांज के पास रात बस खराब हो गई,तीन बजने को थे. वो तो अच्छा हुआ कि सौ कदम की दूरी पर चाय की दुकान थी जिसमें चूल्हा भी सुलगता दिख रहा था और गैस का हंडा भी रोशनी बिखर रहा था. रात के समय ही ज्यादातर ट्रक और दिल्ली बरेली आगरा से आने वाली बसें सड़क किनारे के इन पहाड़ी ढाबों में रुकते. समीप ही पानी के सोत भी होते और फ़ारिग होने के लिए बोतल और मग्गू भी बाहर रखे दिख जाते. फिर आद यानी अदरख वाली चाय स्टील के गिलास में मिलती. आलू चने भी बनते दिखते. बस ठहर गई तो एक- एक कर सभी बाहर आने लगे. कई अभी भी आराम से नींद पूरी कर रहे थे. मैं तो तुरंत बाहर निकल गया. रोडवेज की हमारी सवारी बस पूरी तरह ठुँसी पड़ी थी, बीच का रास्ता बैग, झोले,पुटके -पुंतुरी से भरे-अटे. उसमें भी कुछ बनबसा और बाकी टनकपुर से चढ़े डोटियाल,जो जहाँ जगह मिली बैठ गए. बाकी एक दूसरे से सट खड़े-पड़े. समस्या तो तब हुई जब टनकपुर पार करते ही चढ़ाई में उनकी अपान वायु का निस्तारण इतना हुआ कि मुझे खिड़की खोलनी पड़ी. बाहर से आने वाली हवा खूब ठंडी कि चेहरे में चुन-मुन करे. कई सवारियाँ तो विद्रोह पर उतर आईं. मेरे बगल में बैठे फौजी भाई की थ्री एक्स नींद भी बस में विचरण करती अपान परत से जब खुली तो चार गाली दे उसने पहले तो अगल -बगल के डोटियालों को धप चटकाये फिर कंडक्टर से बोला, ‘क्या यार केसर दा? साल भर बाद घर चढ़े तो तुमने ये मेटों की भेल के राग सुना दिए. टनकपुर तक कितना आराम हो रहा था”.

“अरे सैबौss! वो जमन्दा हैं ना अपने चालक, उनके बिरादरी के हैं सारे. टनकपुर से ड्राइवर बदलता है तो जमन्दा आये, वहां स्टेशन में ही इनसे उनका ठेका हो गया. अब बीस ऐक मुझे भी मिल जायेंगे. यही कमाई हुई गुरु, लगातर पिथौरागढ़ से दिल्ली दस दिन हो गए चढ़ते उतरते. ड्राइवर तो टनकपुर में बदली हो जाता है.पूरे सफर में फटती तो हमारी ही है”. कंडक्टर की यह बात पूरी होने तक फौजी भाई ने ओल्ड मोंक से दो एक घूंट गटक लिए थे. “लो, यार तुम भी. इन डोटियालों की औलादों के बूजा लगे. साले क्या -क्या खा के आये बनबसा से भेंचो ss”.
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फौजी भाई ने बाटली मेरी ओर भी की. इत्ते सुबह. अभी तो फंसे पड़े हैं. देक्खी रहेगी. पहुँच गए तो कॉलेज भी जाना है. यू जी सी के कागजों पर प्राचार्य के दस्तखत करा तुरंत भेजने भी हैं. अब इतने आगे की क्या सोचना? आराम से कुछ घूटों से गला जला ऊष्मा सिंचित कर मैं बस से बाहर निकल आया. ड्राइवर साब आगे के टायरों के बीच आधा अंदर घुसे कुछ ठोक-पीट कर रहे थे.

सामने रिटायर्ड फौजी तड़ागी जी का दो मंजिला मकान, आगे दर व दुकान थी. खूब लकड़ियों वाले चूल्हे में चाय की कितली रखी थी. दुकान का सबसे एक्टिव छोटू अभी गिलास पटरे पर लगाने लगा था. कितली के बगल के मुख्य चूल्हे के दूसरे भाग में काले चने उबल रहे थे तो तीसरी ओर लोहे की बड़ी कढ़ाई जिसमें पकोड़ियों का बचा तेल रखा था.

चाय भी क्या बनाई तड़ागी जी ने. थेच-थाच के पड़ी अदरख और दरदरी कालीमर्च की पहली ही घूंट से गले की खरखराट साफ हो गयी. चाय गिलास में छानते, आगे छोटू की ओर बढ़ाते उन्होंने अपनी कड़क आवाज में बताया कि वो पैराशूट रेजिमेंट से रिटायर हुए,एक्स सूबेदार मेजर.”अब इस इलाके में गडेरी खूब होती है सौलबांज वाली, फेमस हुई. अदरख हुई, भांगा, भंगीरा हुआ, जखिया भी और पहाड़ी दाल गहत, भट्ट. आस पास के इलाके के काश्तकार यहीं दुकान में रख जाते हैं. सब माल बिक भी जाता है. उनके अपने भी खेत हैं उसमें भी इफरात से होता है. यहां की गडेरी का तो स्वाद ही गजब हुआ. अब गडेरी में ऐसा हुआ मास्साब कि इसका तना-पत्ता सब काम आता. छोटे खुने ही पिनालू हुए, बीज के वास्ते भी काम आते हैं. यहां की उगी गडेरी हाथ में पकड़ो मास्साब, एक सेर में दो चढ़तीं हैं. फिर भांगे की भी इफरात हुई. भांग पीस के बने इसकी दड़बड़ सब्जी. बस यहीं की खुस्याणी और धनिया पड़े. मेथी, धनिया, हल्द सब लोकल हुआ खूब स्वाद. मेरी दुकान से ही सब्जी वालों के ट्रक सब माल ताल टनकपुर, पीलीभीत, दिल्ली पहुंचा देते हैं. ये जो अदरक है मास्साब इसका बीज तो मैं कलिम्पोँग से लाया. वहां खूब होती है आद. संतरा -माल्टा भी खूब फलता है वहां. जब नार्थ ईस्ट था नौकरी पे,तो आते -जाते ये बाजार देखा. होशियार किसान हुए, अदरक अव्वल होती है तो दाम भी खुद तय करते हैं. अपनी कोआपरेटिव बनाई है, भाव भी खुद तय करो और बेचो भी. एका भी खूब है किसानों में. हमारे यहां जैसा नहीं कि एक ने कुछ किया तो बाकी उसकी काटने लग गए. यहां काम धाम में पट्ट, या तो फल्लास खेलो या गों भर के लोगों की थुक्का फजीती. फिर ठाकुर बामण, लाम धोती-नान धोती, तेरा खाम-मेरा खाम हुआ ही मास्साब. काबिल लोग सब बाहर निकल गए. बाकी सब ऐसे ही टाइमपास हुआ बाकी दम-दारू ठेरी ही बैठने को, मिल -भेंट को”.
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“आप चिंता मत करो. आठ-नौ बजे पहुँचा दूंगा आपको पिथौरागढ़. रोडवेज के पायलट साब तो अब बस के बीच घुसे दिख रहे. इसका चक्कर लम्बा ही लग रहा. आप ऐसा करो,अपना झोला -झंटा बस से उतार लो”. फिर अपनी घड़ी देख बोले,”चार बजे तक आ ही जाता है भूरे का ट्रक, सब्जी वाला. आजकल आज़ादपुर मंडी, दिल्ली तक से साग- पात भर ला रहा. ट्रक भी नया है. उससे कहूंगा वो आपको पिथौरागढ़ छोड़ देगा, भूरा बढ़िया आदमी है.

वाह. इससे बढ़ और क्या चाहिए. सामान भी एक अटेची और दो झोले थे. मैं आराम से दुकान की बेंच पर पसर गया. चार से पहले ही नया टाटा ट्रक आ खड़ा हुआ. आगे से गले में गमछा डाले जो शख्स उतरा वह था भूरा. पिथौरागढ़ सब्जी बाजार का डॉन भूरे मियां जिसने अपनी कम कीमत और नई वैरायटी से पुराने आढ़ती सुन्न कर दिए थे. मैं उससे परिचित था.

भूरे मियां के दुकान पर पहुँचते ही तड़ागी जी ने लपक के उससे हाथ मिलाया और फिर मेरी ओर हाथ का ईशारा कर कुछ बोले तो उसने सर हिला मुझे देख हाथ नचाया. “अरे प्रोफेसर साब, आप खूब मिले. चलिये साथ. आप मिले तो असलम के दरवाजे भी खुल गए ख़्वाजा की रहमत से.

एक चा गाड़ी में ही भेज दो चचा. साला असलम साथ है. टांग में फ्रैक्चर हुआ था.नजीबाबाद आठ महिने पड़ा रहा. अब साथ ले आया हूं. कुछ धंधा पानी सीखेगा. आगे की पढ़ाई कैसे हो इसके लिए आपने माटसाब से भी मिला दिया”.

तड़ागी जी की दुकान से अदरख और गडेरी के कट्टे लदवा आखिरकार भूरे मियां के ट्रक में ड्राइवर नन्हे के पीछे मुझे बड़ी आरामदेह सीट मिली जिस पर कम्बल भी बिछा था. भूरे मियां और नन्हे ने सहारा दे जिस किशोर को अब मेरे बगल में बिठाया वह असलम था.

घुटने की कटोरी को अपने हाथ के पंजे से दबाये सीट में बैठते उसकी कराह निकली. अब उसने मेरी ओर देखा.उसकी आंखे खूब बड़ी सी आकर्षक थीं और दोनों भंवे आपस में जुड़ी. मुझे देख उसने अपने हाथ जोड़े. लम्बी पतली -उंगलियां जिनमें गांठ पड़ी थी.

“ले, आज सुब्बे -सुब्बे तेरे कू माट्साब के हवाले किया. बड़ी हसरत है साब, इसे आगे पढ़ने की. अब ये साल तो ऊपरवाले ने अलग ही इम्तेहान ले लिया. अब साथ रहेगा मेरे. आप बताइए आगे कैसे क्या करें?”

हाँ, वो सब देखना होगा. तीन चार महिने में नया सत्र शुरू होता है, तब ही एडमिसन हो पायेगा. तब तक तो तुम इन पहाड़ों में चढ़ने लगोगे.

“पहाssड़”?, धीमी सी आवाज उसके होंठों से निकली. ट्रक की रोशनी और घुमावदार मोड़ों से ऊपर जैसे वह अपने चढ़ने लायक पहाड़ खोजने लगा.

“अभी तक मैं पहाड़ चढ़ा नहीं.बस यहीं पिथौरागढ़ तक आया गाड़ी से.अभी तो सीढ़ी भी नहीं चढ़ी जाती है सर. ये पेन किलर का असर खतम हो तो दर्द फिर शुरू. कुछ नहीं कर सकता अब ,जैसे खयाल उभरने लगते हैं”. असलम की बात खत्म भी नहीं हुई थी कि ट्रक के चालक नन्हें मियां के हाथों से ठूँसा केसेट बज उठा.

“बार-बार देखो हजार बार देखो, के देखने की चीज है हमारा दिलरुबा. टाली हो-टाली हो-टाली होsss. शम्मी कपूर के लटके-झटके याद आये, शायद शकीला थी इस फ़िल्म चाइना टाउन में. नैनीताल में लक्ष्मी सिनेमा में देखी थी.
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असलम बड़ी उदास सी आँखों से मुझे देखने लगा. तुम्हें गाने पसंद हैं, फ़िल्में देखते हो.

“हांजी, ना पूछो”… भूरे मियाँ ने पीछे मुँह दिखा बात पूरी की “ताया रहते हैं मुरादाबाद, बड़े फेंसी आईटम बनाते हैं पीतल के. वहाँ जा के तो अपने असलम मियां दौड़ लगाते हैं दिलशाद सिनेमा की… हम हुए तो लिए चलते हैं”.

तो कौन है तुम्हारा फेवरेट हीरो? मैंने पूछा और पाया कि फ़िल्म का जिक्र होते ही वह उत्साहित हो चुका था.

“जी देव साहिब”.

देवानंद को तवज्जो दे उसने देव साहब बना दिया था.

“तभी उन सी ही जुल्फें रख छोड़ी हैं..”

वह थोड़ा शरमा गया. फिर तो वह धीरे धीरे पूरा खुल गया. देव आनंद की कितनी फिल्मों का जिक्र कर दिया उसने. मजे की बात यह रही कि रोहिणी का भी फेवरेट हीरो देवानंद था. बड़े गुरुर से वह बताती कि किसी कोने से इस खानदान से उनकी बिरादरी के तार जुड़ते हैं. सब भाई वैल एजुकेटेड, हैंडसम और दिलों पर राज करने वाले सोहणे हैं. फिर बताया कि सोम के लिए उसने काला सूट अमृतसर वाले अपने खानदानी दर्जी से इस उम्मीद से सिलवाया कि वह भी देवानंद की तरह सुपर हैंड सम दिखे.मरने तो इस पर वह किसी को न देगी पर कहाँ भाई साब, ये मेरा सोहणा तो कुरता लुंगी में ही तेरे घर के सामने एक घर बनाऊंगा गाते मेरे पिंड आ धमका. मेरे बालों में वेणी सजाने का खूब शौक है इसे. अब यहां तो गजरा वेणी मिलती नहीं.
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“यहां बालों में चुटीला लगा लो.”दीप बोला और मुस्काया.

रोहिणी को असलम खूब भाया. उसे देखते ही बोली तेरी सूरत तो बिल्कुल मेरे छोटे वीर जी पर गई है. असलम भी उसे आपा बुलाता और जीजू की दुकान से ताजे फ्रूट उसके लिए ले जाता. असलम को पिथौरागढ़ की आबोहावा रास आने लगी साथ ही डॉक्टर मल्होत्रा के इलाज से अब वह खासा ठीक भी हो गया था. सोम रोहिणी अब जी आई सी रोड में ब्रिगेडयर साब के मकान में रहने लगे थे. असलम की परिक्रमा वहाँ से हरिनन्दन निवास तक होती. बीच-बीच में वह कॉलेज भी आता रहता. उसने तय कर लिया था कि ग्रेजुएशन वह इसी कॉलेज से करेगा.

सोम और रोहिणी तो जैसे मेरे विभाग का हिस्सा बन गए थे. एमए में अक्सर आर्थिक विकास की क्लास में मैं उनसे लेक्चर करवा लेता. एक्सटेंशन लेक्चर के नाम पर. मेहनत भरी तैयारी सोम करता पर वाहवाही रोहिणी ले जाती.वह खूब रोचक तरीके से बड़ी जटिल बात कह देने का हुनर जानती थी.विभाग में दिग्गजों का जमावड़ा रहता ही. डॉ जे एम सी जोशी, डॉ राम सिंह, प्रोफेसर रजनीश मोहन जोशी, डॉ सी डी बिष्ट, डॉ एन एस नेगी अक्सर ही अर्थशास्त्र विभाग में आये दिखते और देश की हालत पर जोरदार बहस होती. रसायन विज्ञान के बिष्ट जी भी घूमने फिरने के खूब शौकीन. उनके पिताजी डी एस बी कॉलेज में लाइब्रेरियन थे और मेरा बचपन उसी परिसर में बीता था. ख्यालीराम जी को हम भाई बहिन ताऊ जी कहते और वह हमें पास बुला रंगीन चित्रों से भरी कई किताबों के पन्ने पलटते. बर्फ से ढकी चोटियों वाले पहाड़ वाली वह लम्बी सी किताब मुझे खूब याद है जिसमें खूब ऊँची बरफ से ढकी चोटी की तरफ रस्सी के सहारे हाथ में बरफ काटने के लिए कुटले जैसा औजार लिए एक लम्बा तड़ँगा आदमी चढ़ा जा रहा था. मैं भी ऐसे ही पहाड़ में चढ़ जाते जाऊंगा आगे और आगे. मुझे याद है बड़ी देर से उस चित्र को देख क्या क्या सोचते मुझे ख्यालीराम जी की बात सुनाई दी, “ये एवरेस्ट परबत है नेपाल हिमालय जिस पर जा रहे हैं शेरपा”.

ये शेरपा क्या होते हैं?

“शेरपा बड़ी बहादुर कौम है जो परबत लाँघ जाती है. ये न हों तो कोई भी गोरी चमड़ी वाला पर्वतारोही हिमालय की चोटी को छू भी न सके”. उन्होंने समझाया था.

मैं भी शेरपा बनूँगा और सबसे पहले लड़ियाकांटा की चोटी पर जाऊंगा. रस्सी बांध लूंगा और ये नितुवा उसे पकड़ लेगा. पप्पू को साथ ले चलूँगा. फिर चढूंगा टिफ़िनटॉप, चाइना पीक.
(Sor Ghati Mrigesh Pande)

डी एस बी कॉलेज के अपने घर के ऊपर फिजिक्स लेक्चर थिएटर के पीछे जो सड़क है लाटसाब के भवन तक जाने वाली उसकी चढ़ाई पर कमर में रस्सी बांध और हाथ में कुटला ले पप्पू के साथ अभ्यास भी हुआ. कई बार गिरा भी. ये साले पप्पू ने पेट में बँधी रस्सी इत्ती जोर से खींची कि मैं तो लुढ़क ही गया. बड़ी मुश्किल से खड़ा हुआ तो देखा सिगरेट पीते महेश दा हमारी तरफ ही आ रहे थे. सिगरेट वाला हाथ उन्होंने पीछे कर कड़क आवाज में पूछा कि ये क्या हो रहा है. पप्पू ने खट्ट कहा ये कुन्नूबाबू शरपा बन पहाड़ चढ़ रहे.

“शेरपाss”ठहाका लगा महेश दा हँसे.”अब ये डेढ़ हड्डी शेरपा बनेगा, चल सीधे घर जा, और पप्पू तू भी इसके साथ बहुत मटर गस्ती कर रहा. आगे से साथ देखा न तो पड़ेगा एक चन कट. चलो सीधे…”

ख्याली राम जी का दिखाया वह हिमालय मैं कभी नहीं भूल पाया. कितनी बार तो वह मेरे सपनों में आया. आँख खुली फिर भी मन में बसा रहा. पिथौरागढ़ में सिनेमा लाइन जनार्दन कुटीर में अपने बेटे यानी सी डी बिष्ट जी के यहां ख्यालीरामजी जब गांव से आये थे तो मैं उनसे मिला था कितने साल बाद. वो मुझे देखते ही पहचान गए. उनके पांव छुवे तो बड़ी देर तक सर पर चेहरे पर हाथ फेरते रहे. बोले हरीश जल्दी चला गया मेरा तो जिगरी यार था. तू भी सुना खूब चहल कदमी करता है फोटो भी खींचता है”. अपने निकॉर्मेट से उनकी बहुत फोटो मैंने खींची. उनको दिखाई भी तो बड़े खुश हुए.
(Sor Ghati Mrigesh Pande)

अब कॉलेज में प्राचार्य डॉ बाल चंद्र श्रीवास्तव आ गए थे. बरसों पहले ज्ञानपुर और फिर डी एस बी नैनीताल में कॉमर्स के हेड रहे. ख्यालीराम जी से मिलने बतियाने अक्सर जनार्दन कुटीर आते. मुझे आदेश होता कि कैमरे में रील पूरी भर साथ चलो. उनका चपरासी कुण्डल था जो अपने झोले में साब के लिए पान, विल्स फ़िल्टर और बिष्ट जी के घर ले जाने के लिए काले जाम तैयार रख पीछे चलता. बालचंद्रजी खाने पीने के बहुत ही शौक़ीन थे. उन्हें पसंद तो गुलाब जामुन थे जिनके बारे में वह बताते कि ये गोल नहीं लम्बा होता है और धीमी आंच पर गुलाबी सिकता है. यहां तो बनता ही नहीं सो कुण्डल गरमागरम काले जाम जरुर लाया करो .

बालचंद श्रीवास्तव जब से कॉलेज में आये तब से माहौल ही पलट गया. ठीक साढ़े नौ बजे वह अपनी कुर्सी पर आसीन हो जाते. प्राचार्य कक्ष के दरवाजे के दायीँ ओर एक बड़ी मेज में होता अटेंडेंस रजिस्टर. सब कुछ व्यवस्थित. दस बजे तक सारा स्टॉफ हाजिर. अक्सर वह कुछ पढ़ रहे होते. गहन एकाग्रचित्त. एक बार उन्होंने कहा था कि जितना बोलो उससे सौ गुना ज्यादा समय कुछ पढ़ो गुनो और रचो. कुछ कहो तो वह लॉजिकल हो. ऐसी पर्सनालिटी बनाओ जो कंसिस्टेंट हो पर उसमें ट्रांसिटिविटी भी हो. अब बताइये पंडित जी ये बात कौन सी इकोनॉमिक थ्योरी में है?

सर,न्यूमन-मोर्गेनस्टर्न हूँ, बालचंद्र जी का प्रवेश महाविद्यालय में हुआ तो छात्रसंघ के दिन भी बहुरे. इससे पहले कितनी उज्जड हरकतें प्राचार्य कक्ष में देखीं थीं. चंड-मुंड बने छात्र नेता अपने लगूए-भगुवे ले प्राचार्य की कुर्सी को घेर अपनी बात मनवाने को अड़े रहते. कुछ एक फाइलें उथल-पुथल होतीं, कुछ कुर्सियों की टांग टूटती. फोड़-फाड़ के बीच कोई शूरवीर कॉलेज की घंटी टनटना देता. हो हुल्लड़ और अविरत नारेबाजी. एक प्रभारी प्राचार्य को तो दिल का दौरा भी पड़ गया जिन्हें तुरंत अस्पताल ले जाया गया. डॉ मल्होत्रा लंच में अस्पताल के निकट अपने आवास लंच पर थे, लड़के उन्हें उसी हाल ठेल लाए तब जा उनकी सांस थमी. तब से वह क्लाइमेट सूट न होने के आधार पर निदेशालय आवेदन करते रहे. डायरेक्टर तब डॉ माया राम जी थे. उन्होंने कुछ समय बाद स्थाई प्राचार्य की तैनाती की.

डॉ बालचंद्र जी ने कॉलेज में आते ही सबसे पहले छात्रसंघ तलब किया. पता चला और सब पदाधिकारी तो हैं पर कोषाधिकारी आज कॉलेज नहीं आया दिखता. तुरंत बलभद्र चपरासी को उसके गांव टकाड़ी रवाना किया गया जहाँ वह लकड़ी फाड़ता मिला. अब शुरू हुई बातचीत तो साब ने कहा कि भई पहले ये कॉलेज चलता था किराये के कमरों में तो आज इतने बड़े आर्ट्स ब्लॉक, साइंसब्लॉक और कॉमर्स के शेड हैं. इस बीच महाविद्यालय में गोली भी चली. आंदोलन भी हुए. यहां के पुराने छात्र नेता ऐसा नाम कमा गए कि निदेशालय के आका भी उनका नाम जानते हैं भले ही वह लल्ला हों या बिषाड़ वाला पंकज भट्ट. सो भई, अब जो समस्याएं हैं उनकी वजह है ग्रांट का न होना. और ग्रांट मिलती है लखनऊ से, सचिवालय से, पर्वतीय विकास विभाग से. सो एक डेलिगेशन ले जाओ. ऐसी ऐसी चिट्ठी बने. यहां यहां जाओ और इतने इतने अधिकारियों से मिलो. हां लखनऊ जाओ तो वहां का विश्वविद्यालय जरूर घूमना और हलवासिया के पीछे मिठाई की फलां दुकान है वहाँ की रबड़ी और गुलाब जामुन जरूर खाना. और सुनो हज़रतगंज में छोटी सी दुमंजिल पान की दुकान है महाकाली के नाम से, उसका पान भी खाना.चौक भी जा सकते हो शिव शंकर की ठंडई तक.आगे वहीं फेमस टुंडा है कबाब वाला. इधर उधर न जाना वरना कहोगे वहां तो बड़े का था. इलाहाबाद जा,जो प्रतिवेदन मैं लिखूं उसे ले पहले मुस्ताक और श्री राम से मिलना. वो निदेशालय की नाक-कान हैं, फिर वो मिलाएंगे डॉ माया राम से जो हमारे निदेशक हैं. वह जो बोलें उसे ध्यान से सुनना. वो परमहंस हैं. कॉलेज की सारी ग्रांट सम्बन्धी समस्या हल करने का जादू जानते हैं. और हां, त्रिवेणी में लेटे हनुमान जी को दंडवत करना न भूलना. गंगा स्नान तो इलाहाबाद पहुँचते ही कर डालना.

छात्र संघ के पदाधिकारियों को करीब दो घंटे तक चले इस माइंड ब्लोइंग सत्र के बाद चाय पिलाई गई और काले जाम भी खिलाये गए यह इंतजाम क्रीडा विभाग के सौजन्य से हुआ. फिर बालचंद्र जी ने पान का बीड़ा मुँह में दाबा और शांत हो गए.

महाविद्यालय में भी शांत माहौल. खेल कूद की सारी गतिविधियां संचालित हो गईं. स्पोर्ट टीचर को बुला सुबह पी टी के साथ खेल के मैदान में खिलाडियों के कई कई चक्कर लगाने की शुरुवात हुई और घुटकी प्रेमी खेल उस्ताद को सख्त ताकीद की गई कि वह अपनी तोंद का घेरा सिकोड़े और आँखों के नीचे ढूलके डोले खुद भी दुलकी चाल से दौड़ कर सपाट करे. जो भी टीम बाहर ले जानी हैं उनकी तैयारी दुरुस्त हो. एन एस एस के इंचार्ज मनोविज्ञान के डॉ सिंह को जिम्मेदारी सौंपी गई कि कॉलेज के मैदान की ऐसी सफाई हो कि खिलाड़ियों को खेलने कूदने में कोई परेशानी न हो. और ये हर तरफ घास क्यों उगी दिखती है?
(Sor Ghati Mrigesh Pande)

“साब, इसकी तो नीलामी होती है. जब मौसम आ जाय तो काट ली जाती है”बलभद्र घिघियाया.

तो समझ लो आ गया है मौसम. अब कॉलेज परिसर में घास के ठेके कॉलेज के वह कर्मचारी ही लेते जिन्होंने गाय-भैंस पाले थे. उनमें बलभद्र भी था और कुंडल भी,बाकी भी कई और.

सारी गतिविधियों को चालू कर उनकी परिक्रमा चलती पूरे कॉलेज की. कई कक्षाओं में तो वह चुपके से आ बैठ भी जाते या दरवाजे पर खड़े रहते. उनका अर्दली साथ होता बिचारा कुण्डल, जिसे फूक मारने की भी दम न होती. वह उनका खाना भी बनाता.

साब को खाने में हर चीज बढ़िया चाहिए. स्पेशल माल तो मेम साब बनाती हैं. कितनी तरह की मिठाई भी और चाट भी. खस्सी वाला मीट,उसे क्या बताया उन्होंने, रोगन जोश तो वो साब खुद बनाते हैं. अरे दो घंटे तीन घंटे तो मंदी आंच पर कोयले वाली अंगीठी में पकता है वो. और कैसे-कैसे मस्याले. वो सिल-लोड़े में पीसने पड़ते हैं मुझे. अब मीम साब नहीं खाती मीट,तो उनके लिए पनीर खुद बनाते हैं. कटोरी भर कद्दू के बीज और खस खस पहले भिगाओ फिर पीसो. तब उसमें किशमिश तालमखाने डाल घी में भून बनाते हैं साब शाही पनीर. पनीर भी घर में ही दूध में निम्बू निचोड़ बनाया जाता है. हर चीज का बड़ा सीप हुआ. अब क्या बताऊँ,उनकी दावत में यहां के डॉक्टर, वकील, डी एम साब कित्ते ही आते हैं. वो भी चलती है. पान भी जिसमें कैसे -कैसे खुशबू वाले तमाखू. आखिर में काले जाम. अरे इतना खा के भी चार चार खा जाते हैं साब.

“जो भी हो ऐसा साब नहीं देखा, सबको मुन्या देता है, टकटकाट हो या ढोल फोक ,वो सैब को बिल्कुल पसंद नहीं. निहारे छू”, कुण्डल बोला.

पौने दस बजे प्राचार्य कक्ष पहुँच हाजिरी रजिस्टर में दस्तखत किये ही थे तो पाया ,साहिब मेरी ही ओर देख रहे हैं. इशारे से मुझे पास बुलाया. बड़ी सी मेज की दराज खोल एक पतली सी किताब निकाली और मुझे दिखा बोले,”ये पढ़ी है”? किताब थी small is beautiful. शुमाखर की वही किताब जिसके विचारों ने खूब हलचल मचाई थी. मैंने सहमति में सर हिलाया तो बोले, “अच्छा, तो इसी विचारक की ये किताब भी पढ़ी? ” खुली दराज से जो किताब उन्होंने मेरे हाथ में थमा दी उसका नाम था A Guide for the Perplexed.

नहीं, इसका नाम सुना, पर पढ़ी नहीं, मिली भी नहीं.

“बताते हैं कि शुमाखर ने बहुत बीमार हालत में अपनी आंखे मूंदने से पांच दिन पहले ये किताब अपनी बेटी को दी थी.इसे पढ़ो, इसके नोट्स बनाओ और समझो कि देश की जो परिस्थितियां हैं, जो हालत हैं उनको ठीक करने, समंजित करने में हमारी नीतियाँ कितनी कारगर हैं.यह किताब कहती है कि ज्ञान के चार क्षेत्र हैं जो मैं और मेरे अंतः करण व दूसरे लोग और उनकी सोच के घेरे से क्रिया-अंतरक्रिया करती समाधान की ओर ले जाती हैं. इस किताब को शुमाखर ने यहूदी विचारकों और रब्बियों के बीच तूफान पैदा कर देने वाली व घमासान मचा देने वाली “हैरान की गाइड” पर आधारित किया था जिस पर न केवल अपवित्रता का आरोप लगा था बल्कि उसे जला भी दिया गया और प्रतिबंधित भी कर दिया गया. शुमाखर ने “ए गाइड फॉर परप्लेक्स” का टाइटल दार्शनिक मैमोनाइड्स की किताब से लिया था जो अपनी तर्कसंगत सोच से मन और शरीर के बीच के बीच की उथल पुथल और रह -रह कर किये जा रहे समायोजन की बात कहता है. यह तो हुआ आतंरिक स्थायित्व को पाना. दूसरा है वाह्य असंतुलन जिसके कारक आस-पास से, समूह से, परिवार से, राज्य की क्रिया से या कह लो सरकार की नीति से तुम्हें प्रभावित करते हैं. जब इसे समायोजित करने की नीति लागू होती है तो कहीं न कहीं तुम भी इसकी चपेट में आते हो. अब जरा सोचो कि देश की बहुत बुरी हालत है सरकार एकबारगी ही सुधार की जो नीति तय करती है जिससे उथल पुथल मच जाती है.तुम भी इसके लपेटे में आये. ये कैसी खलबली हुई? अब हम तुम दोनों ही इकोनॉमिक्स वाले हैं तो उदाहरण भी विकास की, कल्याण की नीतियों के लें. सोचो देश की हालत सुधारने की ऐसी कौन सी बात कौन सी नीति जिसने तुम्हारी भी नींद हराम की और खलबली भी मचाई. अब पढ़ो ये किताब और सोचो कि क्या ऐसी ही खलबली का समाधान मिलता है इसमें “. गहरी नजर से मुझ पर नजर टिकाये प्रोफेसर बाल चंद्र श्रीवास्तव अपना बाण चला चुके थे.

खट से मुझे अपने पहले कॉलेज बिरला कॉलेज, श्रीनगर की वह घटना याद आई जिसने मुझे बड़े असमंजस में डाला था, हास्य का पात्र बनाया था.मुझे बड़े व्यंग बाण भी झेलने पड़े थे.

सर परिवार नियोजन और नसबंदी का प्रमाण पत्र, जो मेरे साथ घटा. ठहाका मार हँसे प्राचार्य. फिर बोले हाँ, उस सख्ती ने बड़ा उत्पात मचाया. मुझे भी बड़ा गुस्सा आया संजय गाँधी के उस निरंकुश शासन पर लेकिन उस गुस्से की कोई जिंदगी नहीं थी. उस सख्ती में एक लोकतांत्रिक देश तानाशाह देश में बदल चुका था. कैसा भ्रष्ट तंत्र फैल गया था और चाटुकारिता ही शासन का आदर्श वाक्य हो गई थी. प्रेस पर प्रतिबंध, आतंक पूर्ण कहानियाँ. क्या था वो संजय गाँधी जिसके दिमाग में यह तो भला सूझा कि भारत में जनसंख्या की प्रजनन शक्ति को रोक देना चाहिए. अपनी हनक में ऐसी नासमझी से इस कार्यक्रम को चलाया गया कि न उम्र का ध्यान रखा गया, न शादी शुदा गैर शादी शुदा का. अच्छी भली नीति का बंटाधार कर दिया. तुमने ये सही उदाहरण दिया. इस किताब को पढ़ो, गुनो और एक हफ्ते में मुझे वापिस कर देना. मैं अपनी हर किताब सीने से चिपटाये चलता हूं और किताब अड़ाने वालों का तो मैं वध भी कर दूं. यह कह उन्होंने बिलकुल नई शुमाखर की किताब मेरे हाथ मैं रख दी. मैं चलने को ही था कि वह बोले, “गलत निर्णय का जोखिम अनिर्णय के आतंक से बेहतर है क्या? सोचना, इसे पढ़ते.

जी कह मैं थोड़ा ठहरा. वह अब शांत हो टेबल पर रखी फाइल पर ध्यान लगा चुके थे. दरवाजे तक पहुंचा कि उनकी आवाज ने मुझे फिर रोक लिया.

“अभी मैंने कहा न कि ये टाइटल मैमोनाइड्स का है.जानते हो उसने क्या कहा था. एक आदमी को एक मछली दो और तुम उसे एक दिन के लिए खिलाओगे. एक आदमी को मछली पकड़ना सिखा दो और आप उसे जीवन भर खाना खिलाओगे.” जाओ अब और सोचो.
(Sor Ghati Mrigesh Pande)

वाकई अब मुझे सोच पड़ने लगे. आर्थिक नीतियों पर हुई इस बहस के अवलोकन सरकारी नौकर होते मैंने खुद भी भोगा ही था. वह भी उस दौर में जब खूब बढ़िया संगत हो और खूब गहरी यारी दोस्ती.

ये वही समय था जब इंदिरा गांधी ने अचानक ही इमरजेंसी लगायी. परिवार नियोजन के घेरे में फंस नियोग के लक्ष्य पूरे करने,नसबंदी वाले सुपात्र की ढूंढ खोज कर इसका प्रमाण पत्र अपने विभाग को प्रस्तुत करने के बाद ही वेतन निर्गत होने के तुगलकी आदेश आ चुके थे. इस आदेश और उसके अमल के तरीके ने खलबली मचा दी थी. ऊपर से होने वाले नियोजन में नीतियों को सरकारी अमला इसी तरह कठोर दिखाता तो है पर उसे कितना भोंतरा बना डालता है इसका एहसास जल्दी ही हो गया. केंद्र सरकार से ज्यादा बेलोच दिखे तो अपने ऊपर वाले हुक्मरान बस ऐसे सरिया जिनकी लचक हो गायब . इतना जंग खाये कि मोड़ने के फेर में टूट ही पड़ें.

सरकारी नौकरी की मास्टरी मैं मेरी पहली पोस्टिंग बिरला कॉलेज श्रीनगर गढ़वाल हुई थी. हमारे बिरला कॉलेज के प्राचार्य अपने विषय राजनीति विज्ञान के बड़े विद्वान थे जिनकी नीति यह थी कि हर परेशानी मक्खन में से बाल निकालने की तरह निबट जाये. सरकार का आदेश ‘इष्टो, तुई छे जे करले जस करले’ वाली टोन में स्वीकार करते. हर जिम्मेदारी स्टॉफ व कार्यालय में ऐसे लोगों को सौंप देते जो स्वभाव से बड़े कड़क व अड़यॉट टाइप के हों. नौकरी से हाथ धोने का भय बड़े बाबू जी सरकारी आचारसंहिता के पन्ने खोल के दिखाते थे. कपाल पर पिठ्या अक्षत व टोपी में लाल फूल ठूंस बड़े बाबू समय से आधे घंटे पहले अपनी कुर्सी पर विराज हर काम में लिखत-पढ़त खूब मनोयोग से इतना समय लगा-लगा कर करते कि प्रार्थी का धैर्य चुक जाता और वह यह समझ जाता कि सरकार में कलम और कागज की जड़ें जिस कारगुजार तक जातीं हैं उसकी हैसियत बस यही होती है कि ‘आज खाछा तुमि भोव खाछा तुमि’. फॅमिली प्लानिंग प्रमाण पत्र की जो कमेटी बनी उसके सर्वे सर्वा पोलिटिकल साइंन्स के हेड साहिब नियुक्त किये गए जो नियत समय में अभीष्ट की प्राप्ति के लिए विख्यात थे. अनुशासन मण्डल भी उन्हीं के जिम्मे था और महाविद्यालय आती कॉलेज की बालाओं की इस खुस पुस पे कि कुछ लौंडे लबाड़ी उन्हें देख सीटीबाज़ी करते हैं. श्रीकोट की सड़क से आना मुश्किल हो गया है.उन्होंने छात्र संघ के अध्यक्ष व पदाधिकारियों को बुला उनका खून ख़ौला, फिर प्रताड़ना कर डाली. श्रीनगर राजधानी रही, शूरवीरों की धरती,अब इतनी कलंकित कि राह चलती अबलाओं पर अत्याचार हो, उनकी मर्यादा पर आंच आये, तो थू है. डूब जाओ तुम सब जा कर अलकनंदा में या फिर पटका दो इन आतताइयों को. उनके ओज भरी ललकार का ऐसा असर हुआ कि उसी शाम और अगले दिन सुबह एस एस बी से और दूसरी तरफ श्रीकोट से कॉलेज आती सड़क पर कई लौंडे जुतिया दिए गए. अब इन्हीं सूरमा हेड साहिब को नस काटो अभियान का अधिष्ठाता प्राचार्य जी द्वारा नियुक्त कर दिया गया जिनको सारी कार्यालय सूचना बड़े बाबू जी द्वारा प्रदत्त होती. अब प्राध्यापकों के साथ तमाम तृतीय चतुर्थ श्रेणी कर्मचारियों में कुछ गिने चुने चेहरे ही थोड़ा बहुत संतोषी दिख रहे थे जिनकी कुछ अदद औलादें पुष्पित पल्लवित खेल कूद रहीं थीं.

जल्दी ही वह खबरें रिसने लगीं कि कौन महिला अस्पताल जा अपनी धर्म पत्नी को राष्ट्र विकास सेवा के साथ वेतन आहरण के इस पुनीत पावन कार्य का सहयोगी बना गया. कुछ सूरमा आत्मत्याग कर मेडिकल पर थे सो आराम से घर में पड़े रहे. दुनियादारी में चुस्त इस समझ बूझ वाले माहौल में आम चर्चा यह ही थी कि इस तथाकथित ऑपरेशन में नस भले ही काटी न जा मोड़ी जाय पर इसके बाद चरम के तमाम निनाद उड़न छू हो जाते हैं. फिर तो किसी ब्लिस पॉइंट की तलाश मरुभूमि में एक बूंद पानी सी अतृप्ति की वाहक बन कर रह जाती है. जुलॉजी डिपार्टमेन्ट के हेड साहिब के विपरीत उनसे कुछ महिने जूनियर ठाकुर साहिब की मान्यता थी कि नियोग से सत्व का प्रवाह ऊर्ध्वगामी हो जाता है जिससे व्यक्ति ऊर्ध्व रेता की उच्च अवस्था को प्राप्त करता है. ठाकुर साहिब नियमित दंड बैठक के साथ ध्यान योग व कुश्ती के शौकीन थे. अब गोरखपुर और बनारस की तरह श्रीनगर में मिट्टी वाला कोई कुश्ती का अखाडा तो था नहीं पर उनका विषय जीव-जंतु वाला था जिससे भिन्न- भिन्न जीवों की कुश्ती, उनके प्राकृतिक चक्र और वंश वृद्धि के साथ अनुवाँशिकताओं के क्रम के साथ सहज- सफल बने रहने के लिए ब्रह्मचर्य की अनिवार्यता का सन्देश देने में वह पारंगत थे. वह कड़क थे, सिद्धांतवादी थे व तेजी से गिर रही हिन्दू जन वृद्धि से आशंकित भी इसलिए सरकार के परिवार नियोग कार्यक्रम व उसके जबर क्रियान्वयन पर उनकी दृढ़ आस्था थी. अपना समर्थ योगदान व वेतन आहरण बाधा निवारण हेतु उन्होंने सत्तावन साल के अपने लैब असिस्टेंट जो जौनसार का रहने वाला था व विगत कुछ सालों से एक फुंसी व उसके अगल बगल की खुजली से परेशान था का इलाज बनारस के नामी बैद से करवा उसके अंग में रौनक भर दी. उसी लैब असिस्टेंट ने अपना पूरा गाँव घूम सुपात्र तलाश बकायदा सिविल सर्जन से काउंटर साइन करवा परिवार नियोजन का सिर्टिफिकेट प्राचार्य की टेबल पर सबसे पहले रख दिया था. कार्यालय में कइयों को यह शक -संदेह रहा कि जरूर उन्होंने राणा को कहीं न कहीं से प्रताड़ित किया होगा. पर राणा ने जब अपने हेड साब के गुण गाते सबको यह बताया कि बनारस में इलाज के बाद उसे तरोताजा करने के साथ ही शाब ने तो उसको ऐसी दवा भी बताई जिससे बदन के बत्तीस रोग एक पखवाड़े में ही छू हो जाते हैं. बस अपने आस पास ढूंढ खोज लेनी रोज ताजा पड़ती. यह होती अकउवे कि पत्ती के कोने या डंठल से टपकी दूध की सिरफ दो बूंद. दो बूंद दूध को बतासे में डाल पानी के साथ घपका जाओ रोज सुब्बे शाम. फिर देखो! देखा देखी उसी के विभाग के एनिमल कैचर ने भी प्रयोग की ठान ली. वह था जवान, शादी हुए चार ही महिने हुए थे कि बहुरिया अपने मायके बडियारगढ़ जाने की धमकी देने लगी थी.यह दवा सब टनाटन रखती है का दावा जब राणा जी ने किया और यह भी भरोसा दिया कि इससे और फैदा पहुँचाने के लिए वो अपने गांव से अहिफेन ला देगा जिसे खाल्ली चाटना होता है रात को बिस्तर में पड़ते बखत. अचानक ही एनिमल कैचर की दायीं आंख देख लोगों के हाड़ में कम्प हो गया जो इत्ती ज्यादा सूज गयी थी कि लगे सफेद कोया चिड़िया के अंडे की तरह बाहर ही निकल जायेगा. पता चला कि बतासे में बूंद टपकाते वो ऊँगली आंख में लग गयी थी. डॉ सिंह की दवा पर लोगों ने अमिट भरोसा कर दिया.अरे भैजी ‘जो उंगली छू भर जाने से आंख फुला बाहर कर दे वो सही जगह को कितना….

ठाकुर साब ने प्राचार्य को आश्वस्त कर दिया कि अनाप शनाप जो लोग व कुनबे अपनी जमात बढ़ा इस धरा की बेचैनी बढ़ा रहे उन पर अंकुश लगाने का यह सरकारी फरमान खूब सख्ती से लागू होना अनिवार्य है. प्राचार्य महोदय की पांच संतानों में चार कन्याएं थीं जिनमें से दो पोस्ट ग्रेजुएशन लेवल पर पहुँच गयी थीं. सबसे छोटा सुपुत्र अभी बालक ही सो बहुत धीर गंभीर हो उन्होंने शाम को साहब के यहां चाय पकोड़ी का आस्वाद लेते यह सलाह दी कि इधर उधर क्या खुशामद करनी वो चाहें तो सी ऍम ओ से बात कर उनके लिए वी आई पी व्यवस्था करवा सकते हैं. अब कितनी ही गुप्त बात हो, फुसफुसा के की गयी हो मातबर के कानों से कैसे बच सकती है सो किशी को मत कह देना भैजी के अनुरोध के साथ यह खुसपुस अगले कुछ घंटों में टॉक ऑफ़ टाउन हो गयी.
(Sor Ghati Mrigesh Pande)

बिरला कॉलेज के स्टॉफ क्वार्टर व प्राचार्य आवास परिसर में ही थे, नीचे शिव जी का सिद्ध मंदिर कपिलेश्वर हुआ और बीच में जामु गुरु की फेमस चाय चने की टिपरी. साब के यहां जरा भी काम मंदा होता तो मातबर को दो काम बड़े जरुरी निबटाने होते. पहला तो पूरी तरह भर गए ब्लेडर को खाली करना वो भी खुले में ताकि वो बाद में निरीक्षण कर सके कि जिस जगह धार बहाई, उसमें कहीं चींटियां तो जमा नहीं हैं. उसे श्रीकोट के बैदजी ने मधुमेह का अंदेशा होने पर यह प्रयोग निरन्तर रखने को कहा था. यह कह झस्का भी दिया था कि अगर मीठा मूत बहने लग जाये तो समझ लो सारी ठकुराई भी जाएगी मातबार.

साहब को नस मोड़ सिर्टिफिकेट प्राप्त होने का पूर्णतः वैधानिक विकल्प फुसफुसाते समय प्लेट में फूल गोभी, आलू व प्याज़ के साथ हरी साबुत मिर्च की पकोड़ी की प्लेट डाल वापस फरका तो पाया कि साहब अपने परम मित्र सरकारी अस्पताल के वरिष्ट सर्जन से काफी बतिया कुछ चिंतित से दिखे .जब सर्जन मित्र चले गए तब चाय की प्याली खुद पकड़े आवास के अपने तीसरे कक्ष में प्रविष्ट हो गए जहां खटिया पर गाव तकिये पर श्रीमती जी अपनी दो बेटियों को रसोई में पकोड़ी तलते देख रहीं थीं. वहीं से खिड़की से बाहर खेल के छोटे मैदान पर भी निगाह फेरनी संभव होती जहां उनका लाडला छुटकू लोकल लौंडो के साथ क्रिकेट खेलता दिख जाता.

साहब के अचानक पहुँचने पर उन्हें लगा कि हरी मिर्च की पकोड़ी बिन देखे खा गए होंगे, वैसे भी उन्हें किसी न किसज बात पर हमेशा मिर्ची लगी रहती है. इसलिए घर बाहर चपड़ासियों को निर्देश व बाकी स्टॉफ को कई रिकमेंडेशन देने का दायित्व भी उनके जिम्मे था. साहब तो पोलिटिकल साइंस के धुरंधर हुए इसलिए उनके निर्देश पलक झपकते ही पलट भी जाते.फिर कोई और समाधान सुझाते वह द्वन्द की स्थिति में आ जाते. इसलिए उन्होंने बहुध्रुवीयता में निरपेक्ष एक निर्णय के लिए अपनी अर्धांगिनी को विश्वस्त सलाहकार बना लिया था.

मातबार की घरवाली हुई जसोदा. सुबे से रात तक चौका बर्तन के उसने सात आठ घर पकड़े थे जिनमें महाविद्यालय के साथ जिला अस्पताल के आला शामिल शामिल थे. जब से परिवार नियोजन की खबर खास हुई उसके कान वह सारा संवाद सुन लेते जो अलग अलग जगह साहबों और उनकी और मीम साब के बीच होता.

ना, जी. कैसी बात कर रहे ये तुम्हारे एस.ऍम एस जी. जबान जले उनकी. कोई जरूरत नहीं अपने ही हॉस्पिटल जा औजार लगाने की. वैसे भी आपको मधुमेह का अंदेशा है. बताया था ना लखीमपुर वाले बैद जी ने कि अपनी टिकिया खाओ सुई लगाओ पर बड़े परहेज से रहना होगा. करेला जब मिले तब खिलाते हैं ना आपको. जौ की रोटी रोज सेकते हैं ना आपके लिए. कोई औजार ना लगाना. इत्ते बड़े डॉक्टर हो डीएम, कमीशनर के साथ बैठते हो. इत्ते लोग घर आते हैं दिखाने. काट कूट के सब बेकार हो जावे है. अभी तो सी एम ओ बनोगे. नस काट अपनी मर्दानगी ना खोना जी कहे देते हैं.

ठीकेही राय दी उनको डाक्टरानी ने. आप काहे चिंता करते हो. वो चपरासी गोधन गया तो है आपका केस पकड़ने

हूंss, कह साब खटिया से उठे और बैठक में आये जहाँ प्लेट पर उनकी बड़ी बिटिया पकोड़ी डाल चुकी थी. अब हमारी चाय भी ले आओ, चीनी न डालना हां गुड़ लाना. जब हां पापा कह बिटिया किचन चली गई तब जा कर मातबर को आवाज लगा कड़क हो बोले ,वो गोधन को गाँव गए तीन दिन हो गए आया नहीं अब तक .फिर और नाराजगी से बोले तुमने तो राणा को पटाअपना हिसाब पक्का कर लिया अब हमारे लिए भी कुछ करो,जल्दी करो. हमारी भी तो अभी डायबिटीज बढ़ी है, बी पी लो भी बढ़ा है. दैनिक मजदूरी पर लेबर रखे थे बड़े बाबु ने ,उनमें कोई माना या हराम की खा रहे हें ?

आप फिकर न करें हजूर ,गोधन की तो खाप पत्थर जैसी है .आपका काम पूरा कर ही लौटेगा. अब ये सच और बाकी खबरें अपनी घरवाली से बटोर मातबार हमें भी सुनाता ,बस चाय चुई के अड्डे पर उसके लिए भी चाय पिलाओ का आर्डर देना होता .इस बार की बात चिलम की गहरी फूक के बाद सुन जामु गुरु भन्ना गये. ये साले सरकार के घंटे होते ही कमीन हैं जिससे अपना काम करवाएंगे उसी का टनकाएंगे. खबर फैलती गई कि बड़े बड़े साब मोड़े जाने काटे जाने के प्रकोप से बचने बलि के बकरे ढूंढ रहे हें.

लक्ष्य तो पूरे होने ही थे. कमिश्नर, डी ऍम के खूंखार होने की तो खबर हुई ही सब लोगों को दिख जाने वाली पुलिस के हाथ में भी डंडे की जगह थ्री नॉट थ्री दिखाई देने लगी. पीएसी के ट्रक भी कभी सतपुली पौड़ी तो कभी ऋषिकेश के रास्ते धमकते रहे.

इधर कॉलेज में अचानक ही पढ़ाई लिखाई वाली क्लास भी बड़ी नियमित चलने लगी. प्राचार्य ने अर्जेंट मीटिंग बुला साफ कह दिया कि वो टीचर जो पेड़ के नीचे बीड़ी पीते अंग्रेजी पढ़ा रहे वो अपनी ऐसी आदत बंद करें और वो दस-पांच लौंडे ले ढोलक बजा नाटक का जो चलन बढ़ रहा वो अब कम से कम कॉलेज बॉउंड्री के भीतर तो होगा नहीं. बाहर से कोई शिकायत आई तो हम सीधे डीएम, एसपी को अर्जेन्ट काल कर देंगे. अनुशासन मंडल की ये जिम्मेदारी है कि ऐसा हो हुल्ल्ड कर अनुशासन भंग करने वालों की पूरी खबर रखें. यह ईशारा अंग्रेजी वाले नए नवेले प्रवक्ता की ओर था जो उनकी नजर मे तमाम परंपरा और खास कर लोक संस्कृति पर हमला कर दे रहा था. अब क्या है ये हल्लाबोल, अलीगढ़ का ताला राजा का बाजा?
(Sor Ghati Mrigesh Pande)

मीटिंग में कुरते पजामे में सज्जित अंग्रेजी का प्रवक्ता तमाम भाषण के बीच मुस्काते दिखा. कई स्टॉफ मेंबर के चेहरे पिचके दिखे तो जूलॉजी के हेड साहिब बीच बीच में अपनी मूछों में ताव देते रहे. बॉटनी के हेड साब जी तने हुए बैठे रहे. बी ऐड के हेड साब ,बड़े साब के भाषण के बाद बड़े व्याकुल नज़र आये. काफी उमर गुजर जाने के बाद अभी हाल में उनकी शादी हुई थी और सबकी ये राय थी कि तब से वह ईद के चाँद हो गए हैं.उनके बगल में बैठे फिजिक्स के हेड बोले, “सब शेर पिल पिला गए, असल बात तो ये कि सर्टिफिकेट कैसे मिले, कौन लाए.” सब मिल जाता है बस नोट खर्च करने होंगे”. बड़े अनुभवी गणित के हेड साहिब ने कहा. उनको मालूम था कि बी एड के हेड जी मितव्ययता से चलते हैं और सारी जमा पोस्ट ऑफिस की पासबुकों में करते हैं जो उनके परिवार के हर सदस्य के नाम पे है. क्या भरोसा इस इंदिरा गाँधी का, कब बैंकों की तरह क्या किसका राष्ट्रीयकरण कर दे.

“देखते रहो जी चिंता मत करो, ये सरकार तो बस गिरने ही वाली है. पीएम का लौंडा खेल रहा खेल, अपनी है ही रजिया सुल्ताना और सबको कटाने के आर्डर दे रहा.” जूलॉजी के हेड साहिब मूंछों में ताव दे गुस्से से बोले.

तभी चाय आ गई और जामु गुरु की दुकान से गरम समोसे. प्रभात चाय नहीं पीता था इसलिए उसने दो समोसे उठा लिए और मुस्कुराया भी. सफ़दर चाय का गिलास उठा सीधे बाहर जा पेड़ के नीचे बैठ गया और शेर छाप बीड़ी का बंडल निकाल एक बीड़ी सुलगा लिया. सभा के समाप्त होते बी ऐड के बुधोडी जी साहब का आभार का भाषण खींच कर उनकी ओर हाथ जोड़े खड़े रहे जबकि साब का ध्यान बाहर पेड़ के नीचे बैठे सफदर, सेनन और पर्यटन वाले पंत जी पर टिका था जो धुंवे के छल्ले उड़ा रहे थे.

बड़े बाबू को कोई चिंता नहीं थी. उन्होंने अपने ही गांव के डेली वेज वाले चनर राम को भी लगातार कॉलेज में कहीं न कहीं लगाए रखने का वादा कर नियोजन के लिए राजी कर लिया था. ये चनारुआ दो शादी कर सात लड़कियों की जमात से आगे, पिछले ही साल पचास की उमर में एक अदद लड़के का बाप हो ही गया था. उसके पास बकरी का व्यवसाय था, बैल-भैंस थे फसल बोने के पहले खेत जोतने-पाटने में भी वह उस्ताद था. कॉलेज में काम करते डेली वेज में वह हर काम कर देता कहीं भी ना नहीं और खाली समय बड़े बाबू के कक्ष के दरवाजे ही कुर्सी डाल जम जाता. अपना जुगाड़ पूरा कर और चनर को सख्त हिदायत दी कि काट पीट के नाजुक मामले में अपना मुँह बंद ही रखे. उस पर पूरा अंकुश लगा बड़े बाबू नियोजन का सर्टिफिकेट चाहने वाले हर चिंतातुर से बस यही कहते, “बस भै जी देख लेना ये सरकार तो बस गिरने ही वाली इसने तो विधाता की बनाई क्रिया पर टोक लगाई है.

कॉलेज में उथल पुथल थी. अभी ये परिवार नियोजन का जी ओ आये एक हफ्ता भी न हुआ कि कॉलेज में अनवरत चलने वाली आपसी चू-चां पर तो जैसे विराम लग गया. वरिष्ठतम गणित वाले विभाग मुखिया भी बड़े खामोश गुपचुप नजर आने लगे जबकि मुखाकृति विज्ञान के गहन विश्लेषण के आधार पर सामने पड़ गई किसी भी बाला, युवती, महिला का निरीक्षण करते वह स्पष्ट बताते कि यह जो गर्दन के पीछे तिल देख रहे हो ना बालक….

महाविद्यालय के स्टॉफ में ऐसे बहुतेरे रहे जिन्होंने साब से स्टेशन लीव ले अपने गाँव की दौड़ लगा दी. बड़े बाबू गांव जाने वाले तृतीय व चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी की छुट्टी की अर्जी को खूब सहृदयता से ले लेते अवकाश देते . वह गांव के उत्पादों के रसिया थे. ऐसा कुछ माल साहब की रसोई तक वह खुद पहुंचा देते क्योंकि वह जानते थे कि उनकी बिटियाएं झुंगरे की पुडिंग और गडेरी की पकोड़ी बना खूब वाह वाही प्राप्त कर चुकी थी. लाल चावल और पहाड़ी दालों का तो उनके यहां ऐसा भला स्टॉक जमा हो जाता कि उसकी आपूर्ति निदेशालय के निदेशक व उपनिदेशक तक भी हो जाती थी बल तो अपने पैतृक घर और ससुराल हुए ही.

अब हम जैसे छड़े क्या करें. इस जोर जबरदस्ती और आपातकाल के लगने के कुछ ही अरसे में ऊपर कुर्सियों पर जमे अपने अधिष्टाताओं के चेहरे बैगनी होते दिखे. क्या पढ़ाया? छात्र-छात्राओं को पुस्तकालय से किताब मिली या नहीं? जैसे सवाल तो हाशिये पर थे. हॉकी की टीम देहरादून जानी थी उसकी प्रैक्टिस कैसी चल रही जैसे सन्दर्भ गौण हो गए.जोर बस इस बात पर कि अटेंडेंस ली या नहीं, कितने विद्यार्थी अनुपस्थित और इनकी जानकारी ऑफिस में क्यों नहीं रही गई. उद्दण्ड छात्रों की सूची अनुशासक मण्डल को क्यों नहीं भेजी. जबकि सब जानते थे कि ये पहाड़ का महाविद्यालय है धामपुर, कोटद्वार नहीं जहाँ नाम लिखा लौंडे बस चुनाव के समय वोट देने और परीक्षा में नकल करने आते हैं. जहाँ तक अर्थशास्त्र विभाग था वहां कुछ न कुछ होता रहता. कभी निबंध प्रतियोगिता, कभी भाषण, कभी क्विज, पोस्टर. कुछ अपने हेड साहब डॉ धनेश पांडे थे जिन्होंने मेरी ही रूचि के विषय मुझे पढ़ाने को दिए. बस इस उम्मीद के साथ कि में जो भी जिस दिन पढ़ाऊंगा उसके नोट्स वह पहले चैक करेंगे. अब नोट्स बनाने की आदत मुझे थी और अपनी पढ़ाई के नोट्स जो हमें पढ़ाने वाले गुरु विद्वानों की नजर से गुजरे होते सब मेरे पास सुरक्षित थे सो कुछ और नई किताबें ले मैं उनको और मधुमय बनाता जाता. धनेश जी के अप्रूवल के बाद वही क्लास में विद्यार्थियों के सामने ऐसी सुर ताल से पेश होते कि सबकी मुंडी हिलती रहे और चेहरा उत्सुकता से भरा. जिन धुरंधरों ने मुझे अलग-अलग दौर में पढ़ाया समझाया था उनकी स्टाइल का आवाहन कर मैं शुरू हो जाता था. क्लास पीजी तक की पर इनको ठेलने वाले सिर्फ हेड साहब धनेश जी और उनका चेला मैं. और पी जी में अन्य विषयों के सापेक्ष ज्यादा बच्चों ने इकोनॉमिक्स ली और हमारे बाद थी अंग्रेजी जिसमें सफ़दर जैसा धाराप्रवाह टीचर था जिसकी ज्यादातर क्लासेज परिसर में बिखरे घने पेड़ों के नीचे चलतीं जहाँ पढ़ाते पढ़ाते कब सफ़दर के मुँह में शेर मार्का बीड़ी सुलगती जैसी टोह प्राचार्य के भेदिए पूरी कुशलता से रखते. प्राचार्य ने लिखित नोटिस कित्ते दे दिए बात उल्टा पलटा के, पर इमरजेंसी में भी उनकी अवहेलना? प्राचार्य के कान में पोलटिकल साइंस के हेड साब जाहिरा तौर पर यह बात डाल चुके थे कि ये सरकार तो कम्युनिस्टोँ के सहयोग और डायरेक्शन से चल रही है और ये सारे इधर उधर से आये नए लौंडे प्रवक्ता उसी के रंग में रंगते जा रहे यहां तक कि ये अपना उपरेती भी पहाड़ के कल्चर में द्वन्दात्मक भौतिकवाद ढूंढने लगा है.
(Sor Ghati Mrigesh Pande)

“कुमाऊंनी गढ़वाली ठनक तो चलती ही थी अब ये देसी-पहाड़ी भी ज्यादा सुलग रही है सर. कण्ट्रोल रखिए वरना कॉलेज में अराजकता और पोस्टर बाजी शुरू हो जाएगी. खूबसूरत लेखनी में रात में कभी नारे लिखने वाले भी आ गये हैं यहां लाल झंडा ले के.बड़े बाबू जी ने साब को सुबह सबेरे अपनी क्यारी की लाई, मूली, तुमड़े देते हुए चेता दिया”

गांव की दौड़ लगा वहाँ से अपने सम्बन्धी चिर परिचित आयातित कर उनकी खूब सेवा टहल की बानगी पेश कर कुछोँ ने नसबंदी के प्रमाण पत्र हासिल कर ही लिए थे. उनके चेहरे पर माह का वेतन पूरा मिल जाने का संतोष उतना ही साफ झलकता इतना मन्दाकिनी नदी के किनारे अठखेलियां करती मछलियां . सवाल तो हमारे जैसे छड़ों का था जो नए- नए शहर में आये थे,सीमित पहचान थी, उस पर कुंवारे. अब ऊँची कुर्सी के सपूत ने तो अगले महिने की फकत पांच सौ बासठ रूपये की तनख्वाह पर टोक लगा दी थी. कॉलेज ही क्या शहर की सड़क, गली मोहल्ले, दर-दुकान सब अलग अलग दोयम दर्जे के सरकारी अमले के आतंक से झसके-सहमे थे.

मेरी ये चिंता इंटर कॉलेज के प्रवक्ता महेश चंद्र कर्नाटक से छुपी न रह सकी. वह रोज सुबह शाम कई कई गुरुवोँ की फोटो के नीचे पदमासान लगा गहन योग करते दिखते और कितनी ही बार मैंने उन्हें घुटनों तक के धारीदार कच्छे व गाँधी आश्रम की बंडी पहने अनगिनत योग मुद्राओं में देख बमुश्किल अपनी हंसी छुपाई थी. वह स्टेशन के समीप काला भवन के दुमंजिले में अकेले रहते थे.सुनाई देता था कि अल्मोड़ा कर्नाटक खोला में उनके लिए वधू की खोजबीन जोरों से चल रही थी. कर्नाटक जी पामिस्ट्री के धुरंधर कहे जाते थे वो सड़कछाप दरिया गंज में अखबारी कागज में छपी हस्त रेखा की किताब पढ़ नहीं बल्कि उनके खजाने में तारापुरवाला बम्बई की बड़ी प्रामाणिक किताबें थी .

मैंने अपना डेरा एस एस बी के निकट महताब भवन के पहले सेट में जमाया था जिसमें मेरा साथी बॉटनी का जगदीश चंद्र भट्ट था. वह पिथौरागढ़ के बिषाड़ गांव का रहने वाला था,घर में कमाने वाला अकेला और बड़ा परिवार.बड़ा मेहनती और सूझबूझ से घर चलाने वाला अलमस्त जो कभी अपनी छोटी मोटी चिंताओं परेशानियों का जिक्र भी न करता. बस अपने रूम में उसका ट्राँजिस्टर ऑन रहता. हर बात से पहले और पे भुला उसका तकिया कलाम था. मेहताब भवन के दूसरे सेट में अंग्रेजी से बढ़ ड्रामा वाला सफ़दर हाशमी था जिसकी दिनचर्या भी सबसे कुछ जुदा रहती तो सोच भी जिससे वह हमें आतंकित किये रखता. नाटक के शीर्षक भी होते राजा का बाजा अलीगढ़ का ताला जैसे जो साफ-साफ जो हो रहा क्यों हो रहा से जकड़े रहते और प्राचार्य के चेताये जाने के बाद भी कि किसी भी रचना के छपने से पूर्व निदेशक से अनुमति लेनी जरुरी है और वह प्रार्थना पत्र थ्रू प्रॉपर चैनल जायेगा की अवहेलना होती. बाकी तो इमरजेंसी लगने के बाद बार-बार याद दिलाई जा रही राजाज्ञा एवम नौकरी करने की सरकारी नियमावली से परेशान थे गोविन्द शर्मा जी भी जो हिंदी के बड़े विद्वान व विभाग के हेड थे और इस विषय में बात करने से भी बचते थे. सफ़दर के रूम मेट थे पर्यटन वाले डी सी पंत जी जो पूरे मेहताब भवन में अकेले विवाहित थे और कोका पंडित की पदवी से अलंकृत थे. वह दुनिया भर के ऐसे नायाब फॉर्मूले जानते थे जिनसे यौवन काल जंग लगने व कोशिकाओं के संकीर्ण हो सूखा पड़ जाने से बच सके. उनकी मिसेज दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाती थी और छुट्टियों में मेहताब भवन आ जाती थी. तब सफ़दर बगल में अंग्रेजी वाले अरुण सेनन या कोने वाले भू गर्भ के सच्चानन्द के यहां शिफ्ट हो जाता. श्रीमती पंत के छुट्टियों में आने की सूचना से पहले ही कभाड़ी बुला नाना प्रकार की बोतलों अद्धा पउवा विलुप्त कर दिए जाते तो दीवार में बीड़ी सिगरेट बुझाने के दाग तक साफ कर दिए जाते. उन दिनों पंत जी का लुंगी पहनना भी बंद हो जाता तथा वह गाँधी आश्रम के कुरता पैजामा में पूरी तरह ढके नजर आने लगते.

मेहताब भवन के मालिक पवार जी थे. उनकी स्टेशन से पहले मिठाई की दुकान थी. वहां से गुजरते उन्हें सलाम होती और वह बड़े अधिकार से धाल लगाते “ग्रू जी, जरा ऊपर आइए”. तीन सीढियाँ ऊपर चढ़ वह हाथ जोड़े नजर आते, “ग्रू जी, अभी बनी है ताजे खोये की कलाकंद, जरा चखिये “. और फिर एक छोटी कटोरी में कलाकंद मेरे हाथ में थमा दिया जाता. चाय भी मिलती. यह अनुग्रह जगदीश और मुझ पर ही किया जाता. बामण को खिला वह अपने ग्रह-नक्षत्र साधे रखते ऐसा रग्घू सेमवाल कहता जो उनका मेन असिस्टेंट था और हमें बताता कि बर्तन धोने वाले रांझे के अलावा और सभी कारीगर, नौकर बामण ही हैं. तन्खा के अलावा खाना और रहना भी पवार जी की ओर से ही होता है. उनकी रुपवती श्रीमती टकनौर की थी और सुना तंतर -मंतर में सिद्ध हस्त थी. उसने पूरी तरह पंवार जी को काबू किया था और अब उसकी फरमाइश पर उन्होंने तिमंजिला होटल बनाना शुरू किया था जिसपर पिछले दो साल से फिनिशिंग चल रही थी. उसमें देवदार की लकड़ी का वैसा ही प्रयोग था जैसा जौनसार के भवनों में होता है. पवार जी बस सुबह शाम मिठाई की दुकान में बैठते थे बाकी दिन भर वह अपनी ठेकेदारी और मकान का सुपर विजन करते. हर महिने पहले हफ्ते जब मैं और जगदीश उन्हें किराया देने जाते तो वह ग्रू जी ये काला जाम खाइये कह प्लेट थमाते और नोट बिना गिने गल्ले में डाल देते. प्रभात उप्रेती को बड़ी कोफ्त होती कि उसका मकान मालिक ऐसा दिलदार नहीं बड़ा ही कंजड़. किराने की दुकान वाला वह भी है पर पहली तारीख से ही तकादे करता व नोट थमाते ही थूक लगा लगा गिनता.
(Sor Ghati Mrigesh Pande)

मेहताब भवन तो पूरा फार्म हाउस था. दो बीघा भर जमीन के बीच बना. राष्ट्रीय राजमार्ग के बगल में जिसके दूसरी तरफ एस. एस. बी. परिसर था. मेहताब भवन सड़क के बगल चार दिवारी से घिरा था और आगे गेट. इस कोठी के गेट पर मैंने अपने पेंटर होने के सबूत को उजागर करते बढ़िया सा एक बोर्ड पेंट किया जिसमें लिखा, “सांडाश्रम”

सांडाश्रम के अपने सेटों में हम खुद खाना बनाते. जगदीश तो हर काम में उस्ताद पर मैं उस पर बी डी पांडे की किताब, ‘कुमाऊँ का इतिहास’ का रिफरेन्स दे चढ़ा रहता कि सिरोला बामण पांडे तो अव्वल रसोइये होते ही हैं जन्मजात. यह जता मैं कभी कभी-कभार मटर-पनीर, कढ़ाई-पनीर बना देता, चिकन की चार-छह वैराइटी पर हाथ अजमा डालता. जगदीश का हाथ मूली-पालक, मेथी-धनिया बोने में भी गजब था क्या मंसीर में उगेगा और क्या असोज में इसका पहाड़ी पन वह खूब जानता उस पर बॉटनी का प्रोफेसर. हरी सब्जियों के बीज तो वह छुट्टियों में अपने गांव बिषाड़ जो पिथौरागढ़ में था से ले आता.वहीं सफदर खेत खोदने में माहिर तो सेनन और सच्चानंद निराई गुड़ाई करते नजर आ जाते. डी सी पंत जी निर्देश देते जाते और मैं पाइप लगा अपने परिसर की ढेर सब्जियों में शाम के बखत तरबतर सिंचाई करता.

उस दिन मैं और जगदीश बड़े उदास और चिंता से भरे सांडाश्रम से शाम के बखत बाजार की तरफ निकले. कुछ सौदा सुलफ़ा भी लाना था. दोनों के मन अशांत थे कारण वही सर्टिफिकेट जिसे इस महिने का दूसरा हफ्ता शुरू होते तक हम हासिल न कर पाए थे. इसे बीस तारीख तक बड़े बाबू बहुगुणा जी को दे देना था तब जा कर बिल ट्रेज़री से पास होगा. बहु सूत्री कार्यक्रम चलाने वाले उस सपूत की कारस्तानी पर हम तमाम तर्क-वितर्क कर चुके थे और इस नतीजे पर ठहर गये थे कि आखिर क्या हम सब भेड़- बकरियां हैं कि परिवार नियोजन के प्रमाण पत्र के बिना जीवन निर्वाह से भी वंचित होने हो बस चुपचाप चलते रहें. अब क्या कहो? वो निर्देश देने वाला सुना किसी सुल्ताना नाम की रुपसी से गाइड होता है.उसके भाग मैं जो है वह मिले उसे, हमें तो बस प्रमाण पत्र मिल जाये भोले नाथ.

रास्ते में पड़े कपिलेश्वर महादेव के आगे नतमस्तक हो हाथ जोड़ हमने यही कामना की कि प्रभुजी बस अगले महिने वेतन मिल जाये. हम दोनों का यही मानना था कि शिव तो औघड़ दानी हैं उससे छोटी मोटी चीज क्या मांगनी. आगे बस स्टेशन होते आदर्श पुस्तक भंडार से मैं काला भवन की ओर चढ़ गया तो जगदीश अपने ही विभाग के साथी अजय भट्ट के घर की ओर निकल गया. शाम को में अक्सर कर्नाटक जी के यहां जाता, औरों के लिए वह कुछ खुशक किसम के इंसान थे और जिद्दी भी जिसे पहाड़ी में “अड़यॉट” कहते हैं. अपने सरिया की तरह खड़े विचारों का सबूत उन्होंने अपना अंगूठा दिखाते हुए दिया जब मुझे आदेश हुआ कि इसे पीछे की ओर मोड़ कर दिखाओ. मैंने उनके आदेश का पालन किया और स्वीकार किया कि वाकई नहीं झुकता पीछे को.

अपने बनाए नियमों और रूटीन पर कर्नाटक जी बड़े सख्त थे. जैसे कि अपने इंटर कॉलेज से घर सीधे लौट वह एक गिलास चाय पीते और कपड़े बदल लेट जाते. साढ़े पांच तक उठ तुरंत सादे पानी से स्नान कर बंडी धोती लगा ध्यान में बैठ जाते. वह योगानंद के अनुयायी थे और द्रोणागिरी पर्वत द्वाराहाट में लम्बा ग्रीष्म अवकाश होने पर अपने शहर अल्मोड़ा से जरूर जाते. वहां महावतार बाबा की गुफा में उन्हें बड़ा चैन मिलता. अब छः सवा छः बजे जब मैं उनके बैठक खाने पहुँचता तब वह कमीज पैंट कस तैयार दिखते. कमरे से चन्दन धूप की खुशबू आ रही होती. मेरे पहुँचते ही गिलास भर चाय स्टूल पर रख दी जाती. अब वह आँखों में नजर का चश्मा लगा अपनी मेज पर पड़े कागज पर उभारे किसी के हैण्ड प्रिंट को देखने में मगशूल हो जाते. हाथ में मैगनीफाइंग ग्लास भी कई बार पकड़ा जाता और उसे कागज पर ऊपर नीचे करते उनके चेहरे पर कई लकीरें उभरतीं. इस बीच एक अलग पन्ने पर कुछ लिखा भी जाता.

कर्नाटक जी बड़े धाकड़ पामिस्ट माने जाते. हाथ वह किसी छुट्टी के दिन प्रातः दस बजे तक देखते. पहली मुलाकात में मेरा परिचय होने पर उन्होंने मेरा हाथ कुछ ज्यादा ही सख्त दबाया और बोले मजबूती तो है. फिर उनके घर की आवतजावत शुरू हुई. रैक में जितनी भी किताबें थी उनमें पामिस्ट्री, न्यूमेरोलॉजी और एस्ट्रोलॉजी दो तिहाई थीं और बाकी में इब्ने सफी, कर्नल रंजीत के साथ कादम्बिनी, नीहारिका, नवनीत मासिक पत्रिकाऐं. मैंने बड़ी उत्सुकता से उनका संग्रह देखा क्योकि कर्नल रंजीत, चन्दर का मैं भी दीवाना था और इब्ने सफी पढ़ते मुझे इस बात का इंतज़ार रहता कि कब हमीद के सर पर कोई भारी सी चीज पड़े और वह बेहोश हो जाये.उनकी विशेषज्ञता पामिस्ट्री की किताबें पुष्पा-साधना छाप न हो डी बी तारापुरवाला बम्बई और वेंकटेश्वर प्रेस के साथ बनारस की छपी थीं जिनमें कितने ही सफेद कागज के बुक मार्क पड़े थे. जैसे जैसे कर्नाटक जी के घर आवाजाही बढ़ते रही उनकी हाथ देखने की विधियों यानी अन्वेषण विधियों से भी परिचय होता गया. सूर्य के स्वाभाविक प्रकाश में उनके क्लाइंट का हाथ होता और शुरुवात नाखूनों से होती. देखा जाता वह छोटे हैं लम्बे हैं गोलाई लिए हैं या वर्गा कार आखिर किस प्रकार के हैं.फिर उँगलियाँ टटोली जातीं, हाथ की पकड़ देखी जाती और हाथ का रंग भी. उनकी जाँच पड़ताल से इतना तो मैं भी भांप गया कि सुन्दर लम्बी-पतली उँगलियों वाला गोरा हाथ जो नाजुक नरम भी हो सबसे निकृष्ट कोटि का होता है जबकि वर्गाकार सख्त पकड़ उँगलियों में गांठ वाला हाथ अव्वल.इतना मेरी समझ में आने लगा था कि गुसाईं दत्त जी सूर दास मास्साब के तबले में थिरकते हाथ और नैनीताल में भुवन लाल साह जी की दुकान से घर तक सामान सारते मेट मान बहादुर के हाथ के शेप में बुनियादी अंतर क्या है.

हाथ का आकार प्रकार, रंग, बनावट, लोच की परख के बाद अलग-अलग उंगलियों के नीचे माउंट पर अपैक्स की खोज की जाती कि वह केंद्र में है या ऊपर-नीचे खिसका हुआ तो नहीं. हाथ हथेली की इस उलट पुलट में ही आधा घंटा तो लगता ही. फिर जा कर रेखाओं पर मेग्निफाइंग ग्लास से नजर फेरी जाती. कपूर जला कर सफेद ए फोर कागज में प्रिंट लिया जाता. अब हाथ दिखाने वाला कोई भी हो उसे इस जटिल प्रक्रिया से गुजरना ही होता. लोग भी परेशानी से घिरे किसी न किसी आपदा विपदा से घिरे चुप्प साधे यह सब झेलते रहते.
(Sor Ghati Mrigesh Pande)

मैं चाय पी चुका. कर्नाटक जी योग समाधि से उठ तैयार हो सामने आ गए थे. उनके चेहरे पर एक मंद मुस्कान रहती थी. आज तो आते ही उन्होंने पूछा, “आज बड़े थके थके हो,क्या हुआ”?

होना क्या था. मैंने भी परिवार नियोजन के प्रमाण पत्र का रोना तुरंत रोया. उनका स्मित अब मुस्कुराहट में बदला. बीड़ी सिगरेट धोंक कर भूरे पड़ रहे ओठों के भीतर की दँत पंक्ति दिखी. उन्होंने सामने मेज की दराज खोली. उससे एक फाइल निकाली. फाइल खोल उससे एक फुलस्केप पन्ना निकाल मेरी ओर बढ़ा दिया. तेजी से उसमें टाइप हुआ पढ़ते मुझे पता चला कि यह तो श्री महेश चंद्र कर्नाटक द्वारा प्रोत्साहित हो आर सी डिमरी उम्र बावन साल का नसबंदी प्रमाण पत्र था.

आश्चर्य भरा मैं कुछ कहता, मुझे उनकी आवाज सुनाई दी,”आपके लिए भी जुगाड़ किया है. मिल जायेगा दो एक दिन में. बस थोड़ा खर्चा पड़ेगा,वो बात मैंने कर ली है”.

मन मृग कुलांचे भर गया. बड़े उत्साह से मैंने कहा खर्चे पानी की कोई चिंता नहीं. बस सर्टिफिकेट मिल जाये. अपने उदारमना वचन के पक्के कर्नाटक जी की बात से मेरी उदासी थकान बेबसी काफूर हो गई. अब हम सैर के लिए तैयार थे. अपने कमरे में ताला लगाते पड़ोसी केमिस्ट्री वाले धीरेन्द्र मोहन जोशी को उन्होंने धाल लगाई. आया की ध्वनि के साथ छः फुटिया धीरू लमालम प्रकट हो गया. उसके मिनट भर बाद ही सामने से अवतरित हुआ शंकर काला.

श्रीनगर बस स्टेशन की सड़क के गिर्द पसरी बाजार में आदर्श पुस्तक भंडार से ऊपर बनी दर दुकानों व ऊपर बड़े मकान के सज्जन काला जी का सुपुत्र शंकर काला. अभी बी ए फर्स्ट ईयर का स्टूडेंट. खुराफाती अव्वल दर्जे का, आऐ दिन कोई न कोई टंटा. कॉलेज में कई प्रवक्ताओं के उसने हाल बेहाल कर दिए. बैलों की नाक में बाँधने वाली द्यो यानी रस्सी की कमान उसके चक्रम दिमाग में लहराती रहती. अब अनुशासन कमेटी से शिकायत भी लगी तो उसके वरिष्ठ सदस्य जूलॉजी के डॉ सर्वजीत सिंह बोरा ने साफ कह दिया अरे! शंकर. वो तो बहुत ही तमीज दार लड़का हुआ, स्पोर्ट्समैन हुआ. अब आप लोग भी जरा क्लास कायदे से लीजिये. कागज में लिखा पढ़-पढ़ कब तक बांचोगे? कोई स्टूडेंट सवाल पूछे तो बगलें झाँकते हो. संभवतः शंकर डॉ बोरा की तुर्रम मूँछ व बीच बीच में बात करते हुए उनमें दिए गए ताव से उनका मुरीद बन गया था तभी हमारे देखते देखते उसने खुद भी उसी स्टाइल की जुँगे पाल दी थी. मैं कर्नाटक जी के घर अक्सर आता रहता. मुझे उनके साथ देख दोनों हाथ जोड़ नीचे से ऊपर ले जा जै हो गुरूजी की फटक लगाता. क्लास में भी कोई गड़बड़ हरकत नहीं. मैं खुद ही क्लास पढ़ाते इतने सवाल पूछता और झाँक-झाँक कर स्टूडेंट्स की कॉपी देखता कि और किसी नोंक-झोंक की गुंजाइश ही न बचती. शंकर बांसुरी बहुत अच्छी बजाता था और खूब घूमने का शौकीन खास कर पद यात्राओं का. अपनी मित्र मंडली जब भी श्रीनगर से लम्बी यात्रा पर निकलते तो उसे कर्नाटक जी से पता लग जाता. अब वह बिल्कुल बच्चों की तरह जिद कर साथ चिपट जाता इस गुजारिश के साथ कि सारी दौड़-भाग, रहने खाने के प्रबंध वह करेगा, उसकी दोस्ती हर डाने-काने में फैली है. वाकई इन कामों में वह दक्ष था और अमलपानी से बहुत दूर. जब हम चार पांच दिन की छुट्टी पड़ने पर ऊखीमठ जाने वाले थे तो वह भी तैयार दिखा पर एक दिन पहले टांग लचका लाया, कंधे में भी चोट थी और गर्दन भी थोड़ी टेढ़ी. बताया कि बडियारगढ़ के कुछ दबंगो से लड़ भिड़ -हाथापाई हो पड़ी. उसकी हालत देख पास में ही डॉ नेगी के दवाखाने ले जा मरहम पट्टी, इंजेक्शन लगा डॉ साहिब से बोला बस आप डेड को मत बताना और हां, पेनकिलर थोक में रख दो. जब चसक पड़ेगी तो गटक लूंगा. ऊखी मठ तो जाना ही है.

हफ्ता भर हुआ होगा कि सांडाश्रम उर्फ़ मेहताब भवन में कर्नाटक जी पधारे. कायदे से भूरे लम्बे लिफाफे से निकाल एक कागज उन्होंने मुझे पकड़ाया. उनके मुँह में वही चिर-परिचित मुस्कान बसी थी. खट्ट से उसे मैं पढ़ गया.मेरे हाथ में नसबंदी का प्रमाण पत्र था. पौड़ी से ऊपर के किसी गांव की श्रीमती रेवती देवी उम्र सेंतालिस साल पत्नी श्री धूम सिंह का बाकायदा राजकीय चिकित्सालय में सी एम ओ से प्रमाणित. ये तो बल्ले-बल्ले वाली बात थी. अभी कर्नाटक जी के साथ बेचैन सा इधर-उधर झाँकते रहने वाला नमूना भी था जिसके बारे में उन्होंने बताया कि ये महिला अस्पताल में वार्ड बॉय हैं रमोला. तो रमोला जी ने ही बड़ी खोज-बीन कर आपके वास्ते ये काम किया है. फिर मुझसे बोले कि ये अपने लिए तो अपने मुँह से कुछ नहीं मांग रहा. उस औरत के लिए एक सौ का गूदा देना ठीक रहेगा. सरकारी मानदेय और कंबल-सम्बल तो मिलेगा ही. यहां गूदा के नाम का प्रयोग मुझे बहुत सार्थक लगा. सो उन्हें आराम से कुर्सी में बैठा मैं भीतर कमरे में जा दस-दस के दस नोट गिन लाया फिर सोचा पचास का गूदा इस बेचैन रमोला को दे ही दूं,शायद कि इसका चेहरा कुछ खुश दिखे वैसे भी मेरा इतना बड़ा काम इसकी जुगत ने सुलटाया है. नोट ले बाहर आया तो जगदीश को कर्नाटक जी से कुछ खुसुर-पुसूर करते पाया. मुझे आता देख उसने मुझसे कान में खुसपुसा कर कहा कि ये बता रहा कि एक और है महिला है तो सही पर उसकी उमर कुछ ज्यादा है, गांव भी दूर है तो यहां अस्पताल तक लाने का खर्चा कुछ ज्यादा हो जायेगा. दो सौ कह रहा. अब यार,ये रकम हुई तो महिने की तन्खा की तिहाई , पर तन्खा तो मिलेगी. घर बिशाड़ भी भेजने हुए. सही है. मैं खुद ही डेढ़ सौ में छूटा हूं. दे तू भी. बला टाल. ऐसी नीति बनाने वाले राजकुंवर पर वार कर दे. तन्खा तो मिले.
(Sor Ghati Mrigesh Pande)

अब हमारी चिंता जो तन्खा मिलने से जुड़ी थी दूर हुई. ऊपर से महाविद्यालय में प्राचार्य ने कई कई मीटिंग कर हमें राजपत्रित अधिकारी होने और उसकी आचार संहिता के अनुकूल चलने की घुट्टी कई बार पिलाई. ये इमरजेंसी ये कई कई सूत्र का कार्यक्रम शहर में ऐसी दहशत से लागू हुआ कि अलक नन्दा नदी के बहने की आवाज भी मंदी पड़ गई. सबसे ज्यादा असर पड़ा उन बहुमुखी प्रतिभा के किशोर युवा लौंडो पर जो कभी कहीं किसी भी कोण से पुलिस की आँख में खटकते थे. ये चोरी चकारी वाले या गिरहकट न थे. ये तो बस जुझारू थे जिनमें से कई भूमिगत हो गए थे और कई प्रतिक्रिया वादी थे जो अक्सर लाल झंडे के मोह से ग्रस्त हो एल आई यू की डायरी मैं दर्ज हो जाते रहे. कुछ विरोधी दल के नेताओं या शहर में पानी बिजली की आवाज उठाने वालों या कुछ टुटपुंजिए ठेकेदारों के चिराग भी थे. महाविद्यालय में कोतवाल-दरोगा की आवत जावत बढ़ चली थी. ऐसा नहीं कि पहले खाकी कॉलेज बॉउंड्री में आती ही नहीं थी. वो तो बदस्तूर आती थी भले ही छमाही तिमाही वार्षिक परीक्षा हो, कोई सांस्कृतिक कार्यक्रम हो जो पहले संध्या काल से शुरू हो रात्रि के दूसरे चरण तक चलते थे और या फिर छात्र संघ का चुनाव. अब तो चूहे भी चिंचियाट करें तो प्राचार्य तुरत घबराए हुए बड़े बाबू बहुगुणा जी से रिक्वेस्ट भरी सलाह लें, ” है , ना, करें फोन कोतवाली, हमारे सर का बबाल झड़ेगा”. सब अमल बड़े बाबू के निर्देश पर निर्भर करता.

महाविद्यालय के प्रवक्ताओं पर तो गाज ही गिरी. खास कर उनमें जो अपने काम में माहिर थे और चाकरी का अलिफ बे सीखना ही न चाहते थे. इनमें बाहर की नामी यूनिवर्सिटियों से पढ़ कर आए सूरमाओ की बड़ी तादात थी. गढ़वाल विश्व विद्यालय बनने की कवायद जोरों पर थी. सरकार ने श्रीनगर में कुलपति कार्यालय खोलने की औपचारिकता निभा नामी गिरामी शिक्षाविद भट्ट जी को बतौर हैसियत कुलपति की जिम्मेदारी नवाज दी थी. भट्ट जी ने सरकारी खाली प्रवक्ता पदों पर कई अस्थाई नियुक्तियां भी कर डालीं थी जो बड़े ख्याति प्राप्त जगहों से पढ़ कर आए थे.सर्वगुण संपन्न माने जाते थे.

सफदर हाशमी भी था जो खादी का कुर्ता और ढीला पाजामा पहनता, उसके तेज कदमों में चमड़े की चप्पल चटकती और कंधे में खादी वाला झोला जिसमें किताब कागज तो होती ही अनिवार्य रूप से माचिस की डिब्बी और बीड़ी का बंडल तो होता ही. वह किसी भी बात पर किसी भी मुद्दे पर ऐसे बोलता कि लोगबाग इन नए से जुमलों का रस पाने एकटक उसे देखते रहते. बातों में नज़्म और शेरो शायरी के तड़के होते और मुद्दे से निजात पाने को हाकिम पर सीधे प्रहार की शब्दावली के तड़के. जिस दिन उसने ज्वाइन किया तो प्राचार्य कक्ष में कोई मीटिंग चल रही थी और बड़े बाबू ने ज्वाइनिंग लेटर में हस्ताक्षर के लिए उसे भीतर भेज दिया. कोई कुर्सी थी नहीं खाली सो वह प्राचार्य की बड़ी मेज पर ही टिक गया. प्राचार्य की आदत थी कि उन्हें कोई नमस्कार करे तो वह उसे इग्नोर कर अनजान से बने कहीं और अपनी आंखें भटका देते थे. सो रिसपांस न पा सफदर हाशमी मेज के कोने में आराम से बैठ गया और पूरे ध्यान से प्राचार्य की सूरत अपने सुदर्शन मुख मंडल और गहरी बड़ी चुंबक सी शक्ति वाली आंखों पर पड़े मोटे काले फ्रेम के चश्मे से निहारने लगा. मीटिंग में हां हूं का जाप कर रहे खगाड़ सीनियर हतप्रभ रह गए. प्राचार्य ने उसके हाथ में पकड़ा कागज ले उसे पढ़ने का जतन कर शायद बी पी हल्का किया.सफदर हाशमी पुत्र श्री हनीफ हाशमी दिल्ली विश्व विद्यालय.

जूलॉजी वाले बोरा साब के मुंह पर मुस्कान दिखी और उन्होंने अपनी तुर्रम मूछों पर ताव दिया. बॉटनी के डॉक्टर कोहली ने हाथ से इशारा किया कि खड़े हो जा. बाकी कइयों को साफ यह अहसास हो गया कि अब आया है तुर्रम खां.

सफदर ने लिखाने पढ़ाने के ढर्रे पर चले कई रीति रिवाजों को भी पलीता दिखा दिया इनमें सबसे पहला था पैंतालीस मिनट की क्लास.यानी जब तक उसकी बात उसका मुद्दा मुक्कमल न हो जाय वह पढ़ाता रहता. अब एम ए की क्लास में तो यह चल जाता पर बी ए में उसी रूम में अगले पीरियड में कोई दूसरा विषय चलता. कुछ विद्यार्थी बाहर जाते कुछ नए भीतर पधारते.पर सफदर हैं कि साहित्य का सिलसिला जमाए हुए हैं. फिर ये जरूरी नहीं कि वह पढ़ाए क्लास रूम में. बिरला कॉलेज के परिसर में घने पेड़ की छांव में बैठकर जब वह रोमांटिक पोएट्री पढ़ाता तो लगता कि आत्म साक्षात्कार कर गया है विविध अनुभूतियों का सिलसिला. प्राचार्य के साथ उनके गुर्गे सुलगते कि कॉलेज का टाइम टेबल तो गया भाड़ में. ये क्या तुक हुई कि झोला लटकाए चले आ रहे हैं. मुंह में बीड़ी तो कभी सिगरेट सुलगी है और तो और अपने स्टूडेंट्स के कंधे पर हाथ टिका पड़ा है. इधर कुछ अरसे से बात बात पर लौंडे मोंडे कैसी कैसी अपनी लुच्ची टुच्ची समस्याएं ले प्राचार्य कक्ष की मेज बजाने लगते. एक आध बार तो मेज पर बिछा हरा ब्लेजर ही खींच गए. साब के चपरासी को धकिया बिना ‘मे आई कम इन सर’ पूछे फटाक से घुस आते. लाल कलम से लिखे पोस्टर बैनर दिखाई देने लगे थे. कॉलेज के टॉयलेट में बदबू क्यों फुनील डालो, लाइब्रेरी की किताब फटी क्यों? जैसे महत्वहीन मुद्दे छा गए थे जिनके लिए अनशन धरना भी होने लगा था.
(Sor Ghati Mrigesh Pande)

इमरजेंसी क्या लगी प्राचार्य के साथ मील के पत्थरों पर जैसे नई पुताई हो गई. कोई झाड़ू ब्रश चलाने की जरूरत नहीं बस फ़ोन के घिर्रे डी ऍम साब और कोतवाली की तरफ घुमा दो.सिपाही भी ऐसे मुस्तैद कि खचड़ा जीप खड़खड़ाते फौरन हाजिर. अब श्रीनगर तो परंपरागत रूप से राजे रजवाड़ों की जमीन हुई उस पर टिहरी में चले संघर्ष से पूरे इलाके के खून में उबाल दिखाई ही देता था. इधर पर्यावरण को बनाए बचाए रखने की चेतना भी मुखर थी. अलकनंदा में आई बाढ़ से मची त्रासदी ने काफी उथल पुथल मचाई थी पर्यावरण को बनाए बचाए रखने के लिए काफी लिखा जा रहा था. हिंदी अंग्रेजी के अखबारों में हम अक्सर ही सुंदर लाल बहुगुणा और चंडी प्रसाद भट्ट के लेख देखते. गिरधर पंडित भी लिखते. उनसे मिल-भेंट भी होती. साप्ताहिक हिंदुस्तान और दिनमान में पहाड़ की समस्याओं से जुड़े लेख आकर्षण का विषय होते. जवाहर लाल कौल के लेख भी खरी खरी कहते. दिल्ली की खबरों में गुरशरण सिंह के नुक्कड़ नाटकों का जिक्र होता जिनमें सरकार के लुंज पने और लूता पड़ गई व्यवस्था का भरपूर जिक्र होता. इमरजेंसी के उस दौर में श्रीनगर की सभी सड़कों में सायरन बजाती जीपों का अचानक आवागमन बढ़ता दीखता. फिर उड़ती अफवाहें, कुछ उड़ाई भी जाती. एसडीएम, डीएम के दौरे भी बढ़े और उनका कॉलेज आना भी.पता नहीं क्या खुस पुस होती और उनकी चायपानी के दौर भी. कुछ दिन तक छात्र संघ के पदाधिकारियों को प्राचार्य अपने कक्ष में बुला अकेले ही डांटते फटकारते भी सुनाई दिए. जबकि पहले कोई भी छात्र नेता प्राचार्य कक्ष में बेधड़क घुसता तो बड़े बाबू तुरंत राजनीति शास्त्र, हिंदी और बोटनी के हैड साब को चपरासी भेज प्राचार्य का रक्षा कवच बनने बुला लेते. स्पोर्ट्स की गतिविधियों में भी अंकुश लग गया, क्या पता वहां से किसी बलवे की शुरुवात न हो जाए. स्पोर्ट टीचर बिष्ट जो दिन भर कभी हॉकी, फुटबाल, क्रिकेट की टीम देहरादून, रुड़की, नैनीताल के टूर्नामेंट में पहुंचा देने के प्रयासों से भरा दिखता एकदम निचुड़े निम्बू जैसा दिखने लगा. सबसे ज्यादा दुर्गति सांस्कृतिक कार्यक्रमों की हुई. संयोजक सांस्कृतिक कार्यक्रम जो हिंदी के विद्वान होने के साथ लोक थात पर कई किताबें लिख चुके थे को प्राचार्य ने समझा दिया की किसी भी कार्यक्रम में बस वंदना हो स्वागत गीत हो और लोक गीत और लोक नृत्य बस.ये प्रभात उप्रेती जैसे और सफदर हाशमी जैसे सिरफिरों के नाटक नौटंकी तो हो ही नहीं.

श्रीनगर की शाम बड़ी खुशनुमा होती. दिन में खूब गर्मी पड़ती पर सूरज डूबने के साथ धीरे धीरे बहती हवा पैदल टहलने के लिए आकर्षित करती. उस पर अलकनंदा का किनारा जहां किनारे किसी पत्थर पर बैठ तो मन अकुला जाता, चंचल होता. शाम को घूमना रूटीन था जिसमें सबसे मिलभेंट हो जाती,गप शप होती. अब धीरे धीरे शाम को लंबी दूरी तक टहलने वाले ,तमाम विमर्श में बोलते बतियाते जत्थे सिमटने लगे. बस सौदा सुल्फा खरीदा और घर में बंद.आपस में मिलने जुलने से भी विरक्त, देश की बात करने वालों से तो ऐसी दूरी बनने लगी जैसे कोई गुप्त रोग फैल गया हो. कमलेश्वर मंदिर को हाथ जोड़ उसकी सीमा में बैठे लोग कम हुए तो अलकनंदा के तट भी वीरान दिखाई देते. अलकनंदा में शमशान के किनारे नागा बाबा की हमेशा आबाद रहने वाली कुटिया में भी एक आद जन ही दिखते. नागा बाबा खूब गुस्सैल, सनकी, क्रोधी बताया जाता. उसकी चिलम कभी न बुझती. अलकनन्दा के किनारे जाओ और नागा बाबा के दर्शन न करो तो मुझे ऐसा लगता कि क्या कुछ छूट गया है. बाबा का वह अनगढ़ जैसा क्रोधी, सनकी, मुंहफट और फिर एकदम शांत रूप मुझे ऐसा एहसास दिलाता था कि जरूर शिव जी भी ऐसे ही होते होंगे. उन दिनों मेरे पास याशिका कैमरा था. बारह फोटो खिंचती थी एक रौल में. कर्नाटक जी ले गए थे नदी तट पर बनी बाबा की कुटिया में. बाबा कौपीन धारण किये बालू मिट्टी के फर्श पर बिछे फीणे में पसरा था. छः फुट से लम्बा उसका सांवला शरीर सौ किलो से ज्यादा ही भारी होगा. सर के घने बाल जो कंधे तक आते जटाओं में उलझे दिखते थे. सबसे जबरदस्त थीं उसकी आँखे जिनके कोए बिल्कुल मक्खन की तरह थे और काली भूरी पुतली जिनके दृष्टिपात से वह सम्मोहित कर देता. मेरी आमा कहती थी कि ये औघड़ बाबा मुन्या देते हैं. सच्ची उसके आगे सब कुछ ठप जैसा हो जाता. कर्नाटक जी तो उसके पैरों के पास जा उन पर माथा रख लेट ही गए. वाह क्या सीन था. कैमरे में रील नई पड़ी थी. मैंने स्पीड रखी एक बटा तीस और अपर्चर तीस बस ख्याँचss और फोटो खिंच गई.

अरेss, रुक बाहर चल वहाँ खींच मेरी फोटक. अब कोई आया है मेरी फोटक बनाने वाला.

हां, अभी सूर्यास्त होने में भी देर है. ये लाइट सबसे अच्छी होती है बिल्कुल नेचुरल. ये तो में सोच ही रहा था.
(Sor Ghati Mrigesh Pande)

“तू दिल से चाहेगा तो वो जरूर होगा. चल” बाबा ने अपना दंड उठाया और बाहर चला. वो किल्मोड़े की लकड़ी का डंडा खूब चमकता तेल पिलाया पकड़ आ गया .

अब बाहर ऐसा कुछ समा बंधा कि अग्फा टू हंड्रेड का वह रोल डेवलप व प्रिंट कर में मेंरा चेला तोडरिया जब पोस्ट कार्ड साइज में बना मेरे हाथ में धरा तो तुरत ही मैं मेहताब भवन से नागा बाबा को दिखाने तैयार होने लगा. जगदीश ने पूछा तो वह भी तैयार हो गया. उसे बाबा, संत, महात्मा जैसी आकृतियों से बड़ी अनुरक्ति थी और कितनी पुड़ियों डिब्बीयों में वह इनके द्वारा दी गई भभूति, चावल संजोये रखता था. सुबह ही दो लोटे स्नान के बाद नित्य अपने गाँव बिषाड़ के पुरातन महादेव मंदिर की भभूत वह मस्तक पर टिका लेता था.

नागा तो इतना खुश हो गया कि बहार आ गई. उसके भीतर अपने रूप को देख ऐसा प्रेम उमड़ा कि फौरन ही उसने अपने एक चेले की ओर देख कुछ इशारा किया और चेला भी उसी तेजी से कांसे की बड़ी थाली में काजू, किशमिश, बादाम, चिलगोज़े लबालब भर हम दोनों के सामने धर गया. नागा आत्ममोहित ऐसा कि फोटो से इतर कुछ न देखे. मौके की नजाकत समझ मैंने भी सविनय प्रार्थना के अंदाज में पूछा,”बाबा, और इंलार्ज यानी बड़ी करा दूं “?” करा और बड़ी करा. तेरे हाथ का हुनर कभी खाली न जाये बच्चे, और बता कित्ता खर्चा हुआ तेरा?” ना, बाबा,मैं जिसकी फोटो खींच उसे बना के दूं उसके कोई पैसे नहीं लेता”, बस कहीं छपे कोई पत्रिका अखबार छापने के लिए मांगे तो फ़ौकट में नहीं देता”.

“सही है बच्चे!तेरा हाथ कभी खाली न रहे. अरे दुनिया मुझे देती है तो मैं तुझे देता हूं “. बाबा ने अपने झोले में हाथ डाला और मुट्ठी भर नोट मेरी जेब में ठूंस दिए. घर जा के जेब उलीची तो मारे कौतुहल जगदीश ने उन तुड़े मुड़े नोटों को गिन डाला. फिर बोला पूरे दो सौ अस्सी रुपे हैं भुला. बाबा की मुट्ठी भी तो बड़ी हुई. तब से जब भी अलक नन्दा तट पर बाबा से भेंट होती मुझे हमेशा भारी माल खाने को मिलता, साथ वालों को केला नारंगी चाय से संतोष करना पड़ता. उसका प्रसाद मिलता हर किसी को. फूक के शौकीनों को चिलम में कपड़ा बदल खींचने का भी सुयोग होता.
(Sor Ghati Mrigesh Pande)

नागा बाबा की आशीष मिली कि मस्त रह, दुनिया अपनी चाल चले तू अपनी राह पकड़.अब किसे मालूम कि ऐसी घटना भी घट चुकी है मेरे साथ कि मस्ती ले लोग मुस्कुरायें और मेरे लिए ये एहसासे-कमतरी का सबब बने. वो सही कहा किसी शायर ने कि ‘कली का खून हुआ और संवर गया है चमन’. रोज की तरह साढ़े नौ बजे मेहताब भवन से मैं और जगदीश कॉलेज को चले. दस मिनट में ही कपिलेश्वर महादेव के सामने वाला कॉलेज का गेट था. मन तो हुई कि जामु गुरू की कैंटीन में एक चाय सुड़क ली जाए पर जगदीश ने कहा उसे लैब में कई सैंपल रखने हैं फिर टाइम नहीं होगा. सो मैंने भी सोचा अकेले क्या पीनी. गेट पर आये तो रात के चौकीदार मातबार ने बड़ी लम्बी सलाम ठोकी और अपनी तुर्रेदार घनी मूछों के पीछे पीले दांत दिखाता मुस्काया. आगे बढ़ा तो बी ऐड वाले बुधोड़ी दिखे और क्या बात है प्रोफेसर कह बड़ी देर मेरा हाथ पकड़े जैसे इस प्रतीक्षा में रहे कि मैं कुछ कहूं. अब प्रवेश किया कार्यालय में तो पाया कि आज का माहौल और दिनों की तरह वाकई कुछ नहीं बहुत कुछ जुदा -जुदा सा है. खैर बड़े बाबू बहुगुणा जी की मेज तक पहुंचा जो हमेशा की तरह देख कर अनदेखा करने की पोज में कई कई फाइल फैलाये काक मुद्रा में विराजे थे.मुझे सामने की कुर्सी में बैठते देख उन्होंने हाज़िरी रजिस्टर मेरी ओर सरकाया और बड़े गौर से मुझे घूरते रहे. अब तो मुझसे भी रहा न गया. पूछ ही बैठा, “सब राजी कुशल तो है बाबूजी ‘.” हां, हां. अब और ज्यादा कुशल क्या होगी प्रोफेसर पांडे. अपने तो अजूबा कर दिखाया”बहुगुणा जी ने आज पहली बार मुझे प्रोफेसर पांडे कह संबोधित किया था जिसमें उपहास की टोन उनकी भाव-भंगिमा से साफ झलक रही थी.

 “अब बतलाएंगे भी, मेरा पहला पीरियड है.

“अब आप ही बता दो सेमवाल जी, पांडे जी को कितने बड़े तुर्रम खाँ हैं ये”. बहुगुणा जी ने कैशियर सेमवाल जी से कहा और मुस्की भी दी.

अरे साब, अपने रेवती देवी औरत धूम सिंह का नसबंदी सर्टिफिकेट दिया था न. तन्खा तो पास हो गई. पर अब वो वार्ड बॉय बता रहा कि रेवती देवी तो विधवा है. दो बरस पहले ही धूम सिंह टी बी की बीमारी से गुजर गया.

“ओ, हो हो, गजब ठहरे आप हो असली . कुमाऊँ वाले हुए. सरकार के काज में गजब की भादुरी दिखा दी. निगाss वगुसेंक राडि का नियोग करा दिया ” अब बहुगुणा जी ठहठहा के खुल के हँसे.

हो हो sss हो ss.

इसे कहते हैं ‘टुकि में ट्याड’.
(Sor Ghati Mrigesh Pande)

(जारी)

प्रोफेसर मृगेश पाण्डे

जीवन भर उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के कुल महाविद्यालयों में अर्थशास्त्र की प्राध्यापकी करते रहे प्रोफेसर मृगेश पाण्डे फिलहाल सेवानिवृत्ति के उपरान्त हल्द्वानी में रहते हैं. अर्थशास्त्र के अतिरिक्त फोटोग्राफी, साहसिक पर्यटन, भाषा-साहित्य, रंगमंच, सिनेमा, इतिहास और लोक पर विषदअधिकार रखने वाले मृगेश पाण्डे काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.

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