कमोबेश पिछले आधा दर्ज़न वर्षों से हम स्मार्ट सिटी का सपना देख रहे हैं. जिस तरह आदमी की हजामत बना, नए कपड़े-जूते पहना स्मार्ट बनाया जा सकता है, वैसा शहर के साथ नहीं किया जा सकता. थोड़ी देर को आप बजट की चिंता छोड़ दें, मान लें विदेशी ऋण का जुगाड़ हो जाए तब भी अपने कस्बों के पड़ोस में स्मार्ट सिटी की कल्पना टाट में सिल्क के पैबंद जैसी अनुभूति कराती है. Smart Cities and Citizens
अपने शहरों को स्मार्ट सिटी में तब्दील करने की बात सोचते ही इनकी सफ़ाई व्यवस्था और अतिक्रमणों की ओर ध्यान जाना बहुत लाज़मी है. दुर्भाग्य से आज भी बड़ी संख्या में हमारे भाई-बहन अपनी देहरी से बाहर के भारत को अंग्रेज़ों का समझते हैं. सफ़ाई बरतने की आदत अगर व्यक्तित्व में शामिल हो तभी अपने घर के अतिरिक्त सार्वजनिक स्थलों पर गंदगी नहीं फैलाने के चांसेस होंगे. इस दृष्टिकोण से, स्मार्ट सिटी के भविष्य के वाशिंदों का स्वच्छता या सफ़ाई का संस्कार हासिल करना बहुत आवश्यक है.
जिन कस्बों/ शहरों को हम स्मार्ट सिटी के रूप में देखना चाहते हैं, उनके प्रवेश द्वार पर ही आम तौर पर स्वागत कूड़े के पहाड़ों या खुले में किये गए मल-मूत्र के ढेरों से होता है. स्मार्ट सिटी की नीव इन पर चढ़ कर तो नहीं रखी जा सकती. हालाँकि डंपिंग स्थलों की परेशानी अमेरिका जैसे स्मार्ट देश भी झेलते हैं. कचरे के विशाल लैंडफिल उनकी बड़ी समस्या हैं, लेकिन उनकी परेशानी का बड़ा सबब वो प्लास्टिक है जिसे रिसाइकल करने की तकनीक आज भी दुनियाँ में किसी देश के पास नहीं है. पर हमारा कचरा उससे कहीं ज़्यादा खतरनाक है वजह ये कि इसमें वो सब कचरा भी मिला हुआ है जिसके बारे में हमें थोड़ा बहुत या बिलकुल ज्ञान नहीं है. हम एक डिब्बे या थैले में बासी रोटी, दूध की थैली, इंजेक्शन की सुई, पॉलिथीन की थैली, पुरानी बैट्री कहिए जो सब फैंकना हो भर लेते हैं और ख़ाली पड़े प्लॉट में आवारा पशुओं को आँख मारते सिवा देते हैं. स्मार्ट सिटी की पहली चुनौती इसी कूड़े को उसके अंजाम तक पहुँचाने की होगी. फैक्ट्रियों, अस्पतालों और विकीरण वाले कूड़े को ख़तरनाक मानते हुए यदि उसका यथोचित/विशिष्ट प्रबंधन कर लिया जाये तो शेष कूड़ा, गीले और सूखे कचरे के दो संवर्गों में श्रोत पर ही अलग-अलग उठाया जा सकता है.
इसके बाद की प्रक्रिया ठोस अपशिष्ट प्रबंधन की सामान्य तकनीकों से पूरी की जा सकती है. इस स्तर पर रीसाइक्लिंग प्लांट बनाने और कूड़ा ढुलाई आदि की व्यवस्था को कुशलता से चलाने की ज़िम्मेदारी ‘स्मार्ट’ स्थानीय निकायों की होगी, जो कर्मचारियों की तनख्वाह के लिए जुगत लगाते मिलते हैं.
हम स्मार्ट सिटी का सपना देख रहे हैं तो हमें ये भी जान लेना चाहिए कि हमारे शहर फूहड़ क्यों हो गए. दरअसल हमारे विकास के मॉडल एक बड़े कम्प्रोमाइज़ पर आधारित होते हैं, गुणवत्ता परक जीवनशैली मुहैय्या करवाने के लिए नहीं. इसीलिए हमारे शहरों को गन्दा और भद्दा बनाने में झाड़ू या फावड़े-बेलचे से साफ़ किये जा सकने वाले कचरे के अलावा कुछ विकास के प्रतीक स्वतः ही कचरे की श्रेणी में खड़े हो जाते हैं.
ज़रा अपने कस्बे के आकाश पर निगाह डालें, रौशनी मानो बिजली, टेलीफ़ोन, केबल टी वी के तारों से छन कर हम तक आती है. कुछ घरों को बिजली देनी हो तो नज़दीकी खम्भे से कितनी ही दूरी तक तार खींच दिए जाते हैं. नयी ज़मीन और आसमान पर भद्दे रेखाचित्र बना दिए जाते हैं.सेलफोनों के प्रकोप से लैंडलाइन फ़ोन अपनी उपादेयता लगभग खो चुके हैं लेकिन उनके खम्भों और तारों को हम विरासतन ढोये जा रहे हैं. केबल टी वी के तार अमरबेल की तरह हर ऊँची चीज़ को जकड़ लेते हैं. डी टी एच की उलटी छतरियां, छतों, दीवारों, मुडेरों पर आड़ी-तिरछी ठोक दी जाती हैं. पानी के निकास को बनी नालियों में पीने के पानी के नल ठूँस दिए जाते हैं. सीवर लाइन डालने के लिए सड़कों को खोद कर अक्सर महीनों तक छोड़ दिया जाता है.
व्यापार मंडलों और पुलिस की सरपरस्ती में दुकानें लपककर, गजों सड़क घेर लेती हैं. फिर सामान को धूप-पानी से बचाने को तार्पुलिन से लेकर रंग-बिरंगी प्लास्टिक शीट्स की झांपें/छतें जुड़ जाती हैं. चोरों, उठाईगीरों के डर से दुकानदारों का निकट ही नित्यकर्म करना अपरिहार्य हो जाता है. उनको चाय, बीड़ी, गुटके की अबाधित पूर्ति सुनिश्चित करने के लिए गली के कोने को और संकरा करते हुए एक खोखा उग आता है. ग्राहक भी इन सुविधाओं का भरपूर उपयोग करते हुए बची खुची भूमि पर थूकते हैं. जहाँ पेशाबघर दुर्लभ हों, वहां पीकदान विलासिता ही कही जाएगी. इतना ही नहीं, वास्तुकार के नक़्शे पर बनी वैध ईमारत का स्वामी, टीन की दुछत्ती बनवाने का लोभ संवरण नहीं कर पाता. बड़ी दुकान का मालिक अपनी दुकान के कोने पर गुटखा-सिगरेट या पीको-फॉल का खोमचा बनवा देता है. Smart Cities and Citizens
मंदिर के बगल में एक और छोटा मंदिर, पानी का नल, स्कूटर कम साइकिल कम जूता स्टैंड और बाबाजी की कुटिया तक निर्मित हो जाती है. शहरी निकाय जैसे अपनी दरिद्रता ढांपने के लिए किसी भी नाप का विज्ञापन बोर्ड कहीं भी लगाने की अनुमति दे डालते हैं. चिमनियों पर पुते विज्ञापनों के बीच से लैंप पोस्ट की रोशनी बाहर आने को संघर्ष करती है. जाने-अनजाने, अज्ञानतावश, स्वार्थवश अपनी जगहों के प्रति बरती जाने वाली ये आदतन संवेदनहीनता स्मार्ट सिटी के भविष्य पर प्रश्नचिन्ह लगाती है.
झाड़ू की जद में आने वाले कूड़े का कुशल प्रबंधन हमारे शहरों को काफ़ी हद तक साफ़ बना सकता है, लोगों को ओने-कोने की सड़ांध से मुक्ति दिला सकता है लेकिन अतिक्रमणों पर सख्ती से रोक और गंदगी फ़ैलाने पर जुर्माने के प्रावधान के बिना, साफ़-सुथरे या स्मार्ट शहरों के देश का सपना हक़ीकत में बदलते कई पीढ़ियाँ लगा देगा. वर्तमान सरकारी स्मार्ट सिटी की परिकल्पना अभिजात्य वर्ग के लिए बसाये जा रहे द्वीप की तरह दीख पड़ती है. Smart Cities and Citizens
प्रसंगवश, सरकार की कार्यदायी संस्थाओं की सेहत और कार्यशैली पर भी नज़र डाल लें जिन पर इन महत्वाकांक्षी कार्ययोजनाओं को मूर्त रूप देने का ज़िम्मा है या होगा. किसी पुराने शहर को स्मार्ट सिटी में तब्दील करने में विकास प्राधिकरण जैसी एजेंसी को चालू भ्रष्टाचार समेत, योग्य स्टाफ, उन्नत तकनीकऔर कुुुशल वित्तीय प्रबंधन की चुनौतियों का सामना करना होगा.
इसका एक उदाहरण बिहार का पटना शहर है जिसके नए विस्तार की तस्वीर आपको ‘बूढ़ी घोड़ी, लाल लगाम’ मुहावरा चरितार्थ करती दिखाई पड़ेगी। मतलब ये कि पुराने मानकों या मानकहीन मॉडल पर विकसित अस्मार्ट नगर, विश्वकर्मा सरीखे दिव्य अभियंता के करिश्मे से ही स्मार्ट बन सकता है. हाँ, ख़ाली प्लाट पर चंडीगढ़ की तर्ज़ पर स्मार्ट शहर ज़रूर तामीर किया जा सकता है. काश राफ़ाल लड़ाकू जहाज़ों की तरह रेडी टू यूज़ स्मार्ट सिटी भी मिलतीं ! सरकारें बनी-बनाई स्मार्ट सिटी इम्पोर्ट करके चुने हुए शहरों के बगल में रख देती. Smart Cities and Citizens
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हल्द्वानी में रहने वाले उमेश तिवारी ‘विश्वास‘ स्वतन्त्र पत्रकार एवं लेखक हैं. नैनीताल की रंगमंच परम्परा का अभिन्न हिस्सा रहे उमेश तिवारी ‘विश्वास’ की महत्वपूर्ण पुस्तक ‘थियेटर इन नैनीताल’ हाल ही में प्रकाशित हुई है.
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