पंद्रह अगस्त का दिन, बचपन से ही हमारे लिए उल्लास और उत्साह का दिन. लेकिन इस बार की पंद्रह अगस्त कुछ अलग रहा. चौदह को हम कुटी से चले तो दोपहर गुजरने तक ही ज्योलिंगकोंग पंहुच पाए. रास्ते में कुंडकांग के बुग्याल में कुछ देर रूककर आये थे. सुबह जब चले तो गज्जू कुटियाल के घर में जल्दी वाला नास्ता यानी मैगी ही खाया जो थोड़ी देर में आँतों में खो गया. आज का रास्ता लम्बा था, रास्ते में शोध अध्ययन के कामों में भी समय लगा. ज्योलिंगकोंग से पहले निकुर्च में हम भव्य निकुर्च ब्रह्म पर्वत को नहीं देख पाए. सारा मंजर कोहरे और बादलों से घिरा हुआ था और कोहरे में हम कल बहुत बुरी तरह भटक भी चुके थे. (Sinla Trek)
कुटी से कुछ आगे बढ़ने तक पेड़ कम होते जाते हैं. कुंडकांग में बहुत बिरले भोजपत्र के पेड़ हैं बाकी चारों तरह घास के विस्तृत बुग्याल. इन बुग्यालों में एक बहुत ही सुन्दर और अद्भुत प्राणी नजर आता है. समगाऊ, एक रोडेंट जो सुरंगों का जाल बनाकर इन बुग्यालों में रहता है. गज़ब का फुर्तीला. इस बिल में देखने बैठो तो अगले से सर उठाये दिखता. वहां नजर दलों तो तीसरे बिल से झाँकने लगे.
इन अद्भुत बुग्यालों के बारे में कहा जाता है कि यहाँ आंछरी वास करती हैं और लोगों को मोह कर यहीं रख लेती हैं. पता नहीं आंछरी कैसी होती होगी लेकिन यह प्रकृति किसी आंछरी से कम नहीं. यह ऐसा जादू करती है कि कोई भी मुग्ध हुए बिना कैसे रह सकता. इन जादुई बुग्यालों को पार कर ढलती दुपहरी में आईटीबीपी कैम्प में पंहुचे. सुबह से अब तक धूप नहीं दिखी थी इसलिए समय का अंदाजा नहीं लग पा रहा था. इस कैम्प में आज एक पेट्रोलिंग पार्टी आनी थी जो किसी कारण से नहीं आ पायी. इस वजह से कैम्प की मेस में बहुत खाना बच गया था. हमारी भूख भी पूरे शबाब में थी लेकिन हमने अंदाजा नहीं था कि आज हम जीवन का सबसे अधिक खाना खाने वाले हैं. हममें से खग्गी दा और मैं थोड़े तगड़े थे तो लोकेश दा और मोहन दुबली छांट के. दो दुबलों ने शायद चार थाली भर कर खाया और दो तगड़े वालों ने सात थाली भात भकोस डाला.
यहाँ से लगभग एक किलोमीटर दूर बहुत ही सुन्दर बुग्याल में पानी की सर्पिल धार के किनारे एक बड़ी सी चट्टान की ओट में हमने मान सिंह कुटियाल के पोलिथीन की शीट से बने बड़े टेंट में ठिकाना बनाया. यहाँ एक दिन रुकने के बाद हमें सिनला दर्रा पार करना था जिसमें मान सिंह हमारे गाइड थे. बिना कुटियाल के सिनला पार करना मुमकिन नहीं.
मान सिंह के साथ एक छोटा बच्चा मदद के लिए आया था जिसका नाम था ठुस्सू. क्योंकि हम छ: लोगों के लिए खाना और चाय पानी बनाने में मान सिंह का हाथ बंटाने को कोई चाहिए था. हमारे साथ एक और प्राणी इस टेंट में था. मान सिंह का सफ़ेद कुत्ता गोपी. गोपी बड़े ठाठ में रहने वाला जीव था. बिना तकिये के वह सोता नहीं था. और अगर सोया है तो फिर सोया है. कितना ही शोर हो जाय उठकर भौंकेगा नहीं. आधी रात को बाहर खच्चरों के बहुत भगदड़ मचानी शुरू कर दी जिससे हम सब उठ गए लेकिन गोपी ठाठ से सोया रहा. पहले दिन हम काफी थक गए थे इसलिए जल्दी ठिकाने में आ गए और खाकर पसर गए.
अगली सुबह हम तड़के ही निकल लिए ज्योलिंगकोंग के ख़ास आकर्षण की तरफ जिसे अधिकांश लोह पार्वती सरोवर ने नाम से जानते हैं. लगभग तीन सौ मीटर लम्बी और सौ मीटर चौड़ी इस झील के एक छोर में छोटा सा एक मंदिर बना है. हम यहाँ कुछ देर रूककर और आगे निकल लिए लगभग 4- 5 किलोमीटर और आगे. यहाँ पंहुचने तक दुनिया पूरी तरह बदल जाती है. नीचे विशाल फैली हुई घाटी के बीचोबीच कुटी यांगती सर्पिल बनाती बहती है. उसके किनारे नजर आ रहे थे भेड़ों के झुण्ड और अन्वालों के टेंट.
चारों तरफ तांबई रंग के पहाड़ थे और बुग्यालों की घास भी यहाँ बहुत कम हो गयी थी. बिलकुल रूखे ताम्बई पहाड़ और नीचे रेंगती कुटी यांगती. हवाएं इतनी तेज और खुश्क कि हम सबसे चेहरे पूरी तरह फट गए थे. इस रूखे लेकिन जादुई आकर्षण वाले बुग्याल में कुछ देर रुकने के बाद हम वापस हो लिए.
पार्वती सरोवर के आसपास कुछ दुर्लभ वनस्पतियाँ पायी जाती है. अतीस, फेन कमल और गुग्गल के पौधे खोजने पर दिख जाते हैं. थोड़ा नीचे आने पर कुछ कुछ जुनिप्रस की झाड़ियाँ भी हैं लेकिन कुल मिलकर यहाँ वनस्पतियाँ कम ही हैं. वापस आकर हम कैम्प की और गए तो आज तिरंगा फहरा रहा था. (Sinla Trek)
यूनिट ने एक बकरा काटा था और खाना लगभग समाप्त हो रहा था. कुछ जवान मीट के लिए झगड़ भी रहे थे और कंपनी कमांडर यहाँ के मूल निवासियों को बहुत गन्दी गालियाँ दे रहा था. इस बात से हमें भी बहुत बुरा लगा और हम अपने ठिकाने में लौट आये. आज मान सिंह ने भी कैम्प में खा लिया था. इसलिए यहाँ खाना नहीं बना था. हमने मैगी बनवाई और कुछ देर आराम करने के बाद सीप खेलने बैठ गए. लोकेश दा और मेरी एक टीम बनी और दो फारेस्ट गार्ड की एक टीम. इस गेम में हमने उनको पांच सौ का फटका लगाया, हालाँकि वह उधार में रहा और फिर कभी आया नहीं. (Sinla Trek)
अगले दिन हमें सिनला चढ़ना था इसलिए आज रात को मान सिंह से हर एक के लिए आलू और पूरी का एक-एक पैकेट अभी से बना लिया. सुबह 4 बजे उठकर हम निकल लिए आदिकैलास के दांये छोर को चढ़ने. पहली चढाई खत्म हुई गौरी कुंड पर. एक ग्लेशियल ताल जो आदि कैलास की जड़ में है. यहाँ पर हम अँधेरे में ही पंहुच गए थे. अब धीरे धीरे उजाला बढ़ने लगा और हम चढ़ने लगे. पत्थरों का समंदर. जहाँ देखो पत्थर ही पत्थर. रास्ते का कोई निशान नहीं. आगे आगे मन सिंह और पीछे हमारे टोली. गोपी कभी आगे कभी पीछे चलता रहता. यहाँ आने तक हमें ऑक्सिजन की कमी का पता नहीं चल रहा था. लेकिन यहाँ कुछ कुछ आभास होने लगा था. ऐसा नहीं कि सांस लेने में ख़ास दिक्कत हो रही हो लेकिन बहुत जल्दी थकान हो रही थी. दस कदम के बाद रुकना पड़ता. यह चढ़ाई बहुत कठिन लेकिन बेहद खुबसूरत. हमारे बांये आदि कैलास का बर्फीला पहाड़ था जो हमारे चढ़ने के साथ अलग रूप दिखा रहा था. बीच में छोटा ग्लेशियर जो गौरी कुंड तक जाता था. दायीं और पत्थरों का रौखड.
चलते-चलते नौ बजे हम सिनला के टॉप पर पंहुचे. लगभग साढ़े पांच हजार मीटर की ऊंचाई पर जाकर हम ऐसी जगह थे जहाँ से एक तरफ व्यास घाटी थी तो दूसरी तरफ दारमा. हमारे नीचे बेदांग का ग्लेशियर था. और उतरने के लिए एक खासी खड़ी ढलान. आसमान में बादल घिरने लगे थे और बर्फीले पहाड़ और बादल में फर्क करने में मुश्किल हो रही थी. हवा बहुत बिरल थी और धुप में खासी चमक. कुछ देर रुकने के बाद हम नीचे दारमा की ओर उतरना शुरू हुए.
पैर कंपाने वाली ऊंचाई में पतली सी धार पर चलते हुए हम एक ऐसी जगह पहुंचे जहाँ पर पानी की छोटी धार बह रही थी. यहाँ पर हमने आलू पूरी का नास्ता किया ओर पानी पिया. यहाँ से नीचे कोई रास्ता न था. बस मलवे की एक नदी सी उतर रही थी. यहाँ पर मान सिंह ने हमें छोड़ दिया. अब हमें रास्ता खोजना भी था और बनाना भी. अपने सफ़र के लगभग आधे में हम व्यास को पार दारमा में आ चुके थे. यहाँ से शुरू था एक और अध्याय. (Sinla Trek)
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पिथौरागढ़ में रहने वाले विनोद उप्रेती शिक्षा के पेशे से जुड़े हैं. फोटोग्राफी शौक रखने वाले विनोद ने उच्च हिमालयी क्षेत्रों की अनेक यात्राएं की हैं और उनका गद्य बहुत सुन्दर है. विनोद को जानने वाले उनके आला दर्जे के सेन्स ऑफ़ ह्यूमर से वाकिफ हैं.
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