समाज

सिलबट्टा : वह पुरखा जो सदियों से पहाड़ी रसोई में बसा है

सिलबट्टे (सिल-लौढ़) का उत्तरांचली रसोई में एक विशेष महत्व रहा है. शगुन के एकाकी कार्य हो या रोजमर्रा की जिंदगी में रसोई चलाने के, सिलबट्टा हमारे पुरखों का जूसर, मिक्सर व ग्राईन्डर (थ्री-इन-वन) यंत्र रहा है. सिलबट्टा पत्थर को दो भागों सिल व बट्टे का बना होता है. सिल पत्थर का एक आयताकार (लगभग तीन बाई दो फीट) सिल्लीनुमा पाट होता है जिसकी ऊपरी सतह सपाट व खुरदरी होती है. बट्टा एक छोटा (आधी ईट के बराबर) पत्थर होता है जिसका तला सपाट व खुरदरा व उपरी भाग कूबड़ाकार होता है.
(Silbatta Mixi of the Mountains)

इस आलेख के माध्यम से मैं सिलबट्टे के महत्व पर प्रकाश डालना चाहता हूँ जिसको कई उत्तरांचली परिवारों ने अब दुत्कार सा दिया है.

कविताकोश संग्रह में हेमन्त कुकरेती की सिलबट्टे पर लिखी कविता इसके महत्व को उजागर करती है-

जाने कहाँ की सभ्यता से निकला है वह
पत्थर नहीं है वह केवल
एक दुनिया है उसकी
और हमारी रसोई में वह सबसे पुरानी धरती है
जिस पर सबसे पहली माँ जीवन के स्वाद को बढ़ाने के लिए
पीस रही है प्राचीन वनस्पतियाँ.

पुराने समय में हर घर में एक सिलबट्टा होना जरूरी था, हालाँकि उसके आकार भिन्न हो सकते थे. बड़े परिवारों में बड़े आकार के मोटे-मोटे (4 से 6 इंच) सिल व बट्टे दिखाई देते थे जबकि छोटे परिवारों में स्लेटनुमा पतले (2 ईंच मोटे) सिल और छोटे बट्टे दिखाई पड़ते थे.

सगुन के कार्यों त्योहारों का मनाना

पहले समय में कई शगुन कार्य सिलबट्टे के माध्यम से शुरू होते थे. सिलबट्टे का प्रमुख उपयोग बिस्वार (चावल का आटे) बनानें में किया जाता था जिससे ऐपण, देहली, व चौकी लेखन आदि किये जाते थे. जहाँ शादी-ब्याह नामकरण आदि में बिस्वार से मंदिर, चौकी, व देहली-दवार लिखे जाते थे वहीं दिवाली में घर के आंगन से मंदिर तक माँ लक्षमी के पैरों को हाथ द्वारा बिस्वार से लिखा जाता था. एक दिन पहले चावलों को भिगा कर दूसरे दिन उसको सिलबट्टे में महीन पीसा जाता था. फिर चावल के उस लेप (बिस्वार) को नीबूं के पत्ते की सहायता से गिराकर देहली की सीढ़ियों में ऐपण की खड़ी धारियाँ दी जाती थीं. बचे हुए बिस्वार से चावल की शाई (हलुवा) बनाई जाती थी, जिसको बच्चे व बढ़े-बूढ़े बड़ी चाव से खाते थे.

सिलबट्टे का प्रयोग जन्माष्टमी और शादी ब्याह के अवसर पर मजेठी (मेहंदी), राड़ा (पीली सरसों) व हल्दी को पीसने में भी किया जाता था. उत्तरांचल एक कृषि प्रधान प्रदेश रहा है जहाँ पशुधन को सर्वोपरि माना गया है. उत्तरांचल के ग्रामीण क्षेत्रों में दिवाली के त्योहार के बाद गोधन के दिन बिस्वार में हथेली को डुबोकर हाथों की छाप गायों के शरीर पर लगाई जाती है इसे हथेली लगाना कहते हैं और उसके दूसरे दिन बलदों और बछड़ों को माणे (चावल निकालने वाला एक गिलास नुमा लकड़ी का बर्तन) की छाप बिस्वार में डुबाकर लगाई जाती है. इसे माणा लगाना कहा जाता है.
(Silbatta Mixi of the Mountains)

विभिन्न मानव सभ्यताओं में पाषाण युग से ही पत्थरों से बने यंत्रों को शुभ व उपयोगी माना गया है. भारतवर्ष के उड़ीसा प्रदेश में मिथुन संक्रांति के दिन सिलबट्टे को भूदेवी के रूप में पूजा जाता है. सिलबट्टे को दूध और पानी से स्नान करा कर उस पर चंदन, सिंदूर, फल- फूल व हल्‍दी चढ़ाने का विधान है. अन्य प्रदेशों की भाँति उतरांचल में भी सिलबट्टा एक पूजनीय यंत्र माना जाता था और जिसको हर प्रयोग के बाद धोकर दीवार के सहारे तिरछा करके रख दिया जाता था. मान्यता रही है कि सिलबट्टे को एक साथ खरीदना या एक साथ उठाया नही जाना चाहिये.
(Silbatta Mixi of the Mountains)

उत्तरांचल में सिलबट्टे नदियों के किनारे पत्थर की खानों से, जहाँ से छत के पाथर भी निकाले जाते हैं, प्राप्त किये जाते थे. पतले पाथर छत में और मोटे पाथर जमीन पर बिछाने व सिलबट्टा बनाने में उपयोगी होते थे. अल्मोड़ा जिले में गगास नदी के किनारे जनरिया नामक स्थान में पाई जाने वाली खानों के पाथर सिलबट्टे के लिये उपयुक्त माने जाते थे.

पहाड़ के त्योहारों मे बनने वाले कई पकवान इस सिलबट्टे के उपकार के तले दबे रहते थे – जैसे कि बड़े, दौड़पूरी, बेड़ुवे, तलड़े आदि. बड़े तो आज भी हर पहाड़ी घर में बनाये जाते हैं. बेड़ुवे मुख्यत: ओगि या घी-संक्रान्ति के दिन बनाये जाते थे. उड़द की दाल में मिर्च, हींग, जीरा आदि मिलाकर आटे की लोई के अदंर भरकर, बेलकर, तवे में सेककर और चिमटे से चूल्हे में जलने वाले कोयलों के उपर उलटा पलटा के अच्छी तरह उनको पकाकर बेड़ुवे बनते थे. दौड़पूरी भी इसी प्रकार बनती थी लेकिन वह छोटी होती थी और तेल में तली जाती थी. तलड़े उड़द की दाल व चावल को भिगाकर व सिलबट्टे पर पीस कर हाथ से पाथकर तेल पर सीधे तलकर बनाये जाते थे.

भाँति भाँति की चटनियाँ बनाना

हमारी आमा सिलबट्टे पर तरह तरह की चटनी बनाया करती थी. अमूमन भाँग डाली हुई पुदीने की खटाई तो रोज ही बनती थी. भाँग के बीज को तवे में भून कर सिलबट्टे पर कुट-कुटा कर पुदीने के साथ नमक मिलाकर पीसा जाता था और उसको खट्टा करने के लिये नीबूँ को सिलबट्टे पर थोड़ा थेच कर और काटकर निचोड़ लिया जाता था. मौसम के अनुसार दाड़िम, टमाटर, खुमानी, पुलम, आम आदि फलों की चटनियों को भी सिलबट्टे पर पीस कर बनाया जाता था. चटनी ही नहीं हमारी आमा तो बादाम की गिरियों को रोज रात्रि में भिगाकर सिलबट्टे पर पीस कर दूध में मिला कर बूबू को और बच्चों को दिया करती थीं. बूबू के दाँत नहीं होने के कारण यह उनके लिये बहुत कारगार होता था.
(Silbatta Mixi of the Mountains)

नाना प्रकार के नमक बनाना

पहले से पहाड़ों में डली वाला लूण (नमक) ही आता था, जिसे जरूरत पड़ने पर लोग सिलबट्टे पर पीस लिया करते थे. साथ ही लोग अलग अलग स्वाद उसमें मिला लिया करते थे और विभिन्न प्रकार के गीले व सूखे नमकों के मिश्रण को तैयार कर कुल्हड़ों या शीशियों में भर कर उपयोग में लाते थे. कोई जीरे का लूण बनाता, तो कोई हींग का, और कोई अमचूर वाला. कोई लाल मिर्ची मिलाकर तीखा करता तो कोई लहसन के पत्ते, धनिया के पत्ते, व हरी मिर्ची मिलाकर नमक के स्वादिष्ट पेस्ट को बनाता. फिर इस तरह बनाये लूण को कक़ड़ी, काफल, मूली, फल, भुट्टे, आदि में लगाकर उनके स्वाद को बढ़ाया जाता था. कोई लाई (काली सरसौं) को भूनकर डली वाले नमक को सिल में पीसकर दैणधूसी बनाता था जिसको रोटी के साध चाव से खाया जाता था. सिलबट्टे पर पीसा गया मसाला खाने के स्वाद को दुगुना कर देता है. पहाड़ी रायते का स्वाद भी सिलबट्टे के बिना अधूरा है. रायते के लिये राई को सिलबट्टे पर पीसने से रायता खिलता है और नाक पर हिसाब से चढ़ता है.

डुबके, जौला, चैंस आदि दालें बनाना

कुछ दालें जैसे कि चैंस, डुबके, भट्ट का जौला आदि के लिये दालों को दलकर या रात को भिगोकर सुबह को सिलबट्टे पर पीसना आवश्यक होता था. दालो को दरदरा पीसा जाता था जिससे कि सवाद बना रहे और दातों व जीभ को भी कुछ काम करना पड़े. कहा जाता थी कि दाल को सिल के पत्थर में पीसने से कई प्रकार के खनिज उनमें आ जाते हैं जो कि स्वाद तथा स्वास्थय दोनों के लिये उपयोगी होते हैं. मसूर की दाल को रात में भिगा कर सिलबट्टे पर पीसकर व मसाले आदि मिलाकर, अरबी (पापड़) के पत्तों में भरकर स्वादिष्ट गुनके (पतोड़े) बनाये जाते थे. इसी पिसी हुई मसूर की दाल से स्वादिष्ट शाई (नमकीन हलवा) भी बनाई जाती थी. भुट्टों के मौसम में उनके कच्चे दानों को सिल में पीसकर व मसाले आदि मिलाकर स्वादिष्ट चिलड़े भी बनाये जाते थे.
(Silbatta Mixi of the Mountains)

सब्जियाँ जैसे कि थेचुआ आदि बनाना

आलू का थेचवा या मूली का थेचुवा पहाड़ का एक परम्परागत भोजन है. बड़े बड़े आलुओं को साधारणतया बाजार में बेचने के बाद जो छोटे (छर्रे) बच जाते थे काश्तकार उनको धोकर व सिलबट्टे पर कुटकुटा कर लोहे की कढाई में सब्जी की तरह पकाया करते थे. इसी प्रकार मूली को थेचकर आलू के थेचुए की तरह पकाया जाता था या लहसुन के पत्तों, हरी मिर्च व नमक से साथ लटपटा कर दाल-भात के साथ कच्चा खाया जाता था. सिलबट्टा गरीबों का एक बहुत बड़ा सहारा हुआ करता था. जिस किसी के पास खाने को ज्यादा-कुछ नहीं होता था तो वो सिले में नमक पीस या प्याज को कुट-कुटा कर उसके साथ ही रोटी खाकर सो जाया करता था. आज भी पहाड़ में उगने वाले लाल कद्दू की सब्जी व गडेरी की सब्जी में भी कच्चे भाँग को सिलबट्टे में पीस कर व छान कर डाला जाता है जिससे एक अलग ही प्रकार का स्वाद आता है.

बड़ी मुगौड़ी आदि बनाने में

दीवाली के समय जब ककड़ी पक कर पीली हो जाती है तो उसकी बड़ियां पहाड़ में बनाई जाती हैं. ककड़ी को कद्दूकस पर कस कर उसमें उड़द की भीगी दाल को सिलबट्टे में पीस कर बने पेस्ट को मिलाकर और हाथ से बड़ियों को बना कर धूप में सुखाया जाता है. साथ ही सिलबट्टें में मूँग की भीगी हुई दाल को पीस कर और कुछ मसाले मिलाकर बहुत छोटी छोटी बड़ियाँ जिन्हे मुंगौड़ी (मूंग + बड़ी) कहा जाता है बनायी जाती हैं. अरबी के पेड़ के डंठलों (पापड़) को काट कर उड़द की दाल के पेस्ट में मसाले के साथ मिलाकर भी बड़ियाँ बनाई जाती हैं जिसमें सिलबट्टे का अपना एक महत्व है.

अखरोट बादाम आदि की गिरि निकालना और लड्डुओं या पिना को बनाना

जब हम छोटे थे तो सिलबट्टे का उपयोग अखरोट बादाम आदि के खोल को फोड़ने के लिया किया करते थे. ऐसा हमने अपने बुजुर्गों को करते हुए देखकर सीखा था. कई बार हम अपनी उगलियों को ऐसा करते हुए थेच (चोटिल) लिया करते थे और फिर चोट लगने पर मुँह में डालकर चूसा करते थे जिससे कि नाखूनों पर खून का जमाव न होने पाये. बट्टे का प्रयोग रसोई में अन्य कई कामों में हो जाता था जैसे कि दीवार में कील ठोकने, खाना खाने के चौके की कील उपर निकल आनें पर ठोकनें, और मंदिर से प्रसाद में मिले नारियल को फोड़ने के लिये. इन गिरियों को उपयोग लड्डू आदि बनाने में किया जाता था. तिल को भूनकर व सिल में पीसकर गुड़ आदि के साथ मिलकर तिल के पिना बनाये जाते थे.

इसी प्रकार सिलबट्टे का प्रयोग मेथी के लड्डू व सोंठ के लड्डू आदि को बनाने मे किया जाता था. गाँव की छोटी लड़कियाँ चावल भिगाकर उसमें तिल व गुड़ मिलाकर सिलबट्टे में पीसकर लड्डू की तरह सिलटौना बनाया करती थी और अपनी सहेलियों के साथ शौक से खाती थी. पनीर फाड़ने के बाद उसको कपड़े से छान कर सिल से दबा दिया जाता था ताकि पानी निकल जाये और पनीर को समतल कर काट लिया जाये.
(Silbatta Mixi of the Mountains)

जानरी (चक्की), सिलबट्टा, ऊखल और इमानजिस्ता पुराने समय में हर किसी सम्पन्न घर की शान हुआ करती थी. जिस घर में जानरी, इमानजिस्ता या ऊखल नहीं होता था वो सिलबटटे का प्रयोग अन्य कार्य जैसे दाल को दलने, मसाला आदि पीसने, पिठा बनाने आदि के लिये करते थे. सिलबट्टे के खुट्टल हो जाने की स्थिति में उसको बसुले से खोड़ा जाता था. ऐसा करने से उसके पीसने की क्षमता बढ़ जाती थी. इस काम को करने के लिये मैदानी भागों से भी लोग आया करते थे और कुछ रूपये लेकर सिल व बट्टे को छैनी व हथौड़ी से खोड़ दिया करते थे. सिलबट्टे का इस्तेमाल करना एक व्यायाम की तरह समझा जाता था जिसको उलटने पलटने में बल तो लगता था साथ ही पंजे के बल बैठ कर हाथों को आगे पीछे करने से महिला या पुरुष सशक्त हो जाया करते थे. सिलबट्टे का इतना महत्व होने के बावजूद,  समय के इस कालखण्ड में बहुत से लोगों ने सिलबट्टे को भुला-बिसरा दिया है. कुकरेती जी अपनी कविता के आखिरी अन्तरे में सिलबट्टे के लिये कहते हैं-

किसे याद करें जो भुला दिया हो
कुछ भी नहीं है ऐसा
कि दूर ही नहीं हुआ वह कभी हमारे जीवकोषों से
वह पुरखा है हमारा जो कई-कई सदियों से हममें बसा है.

असल मायनों में सिलबट्टा कम से कम हमारी पीढ़ी के लोगों के दिलो-दिमाग से अभी दूर नहीं हुआ है. अगर हमारी आने वाली पीढ़ी सिलबट्टे को अपनी रसोई में रख सके और उसका प्रयोग करे तो बात ही कुछ और होगी.
(Silbatta Mixi of the Mountains)

प्रोफेसर राकेश बेलवाल, सोहार विश्वविद्यालय, सल्तनेत औफ ओमान में कार्यरत हैं. मूल रूप से कुमाऊं के रहने वाले राकेश बेलवाल से उनकी ईमेल आईडी rakesh.belwal@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है.

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  • सच में आपने यादो को फिर से ताजा कर दिया और सिलबट्टे में पिसा हुआ नमक का स्वाद का मजा काफी बहुत अच्छा लगता है

  • उत्तम जानकारी देने के लिए हृदय से धन्यवाद।

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