भवाली, कुमाऊॅ की यात्रा के लिए एक मुख्य जंक्शन होने के साथ ही रामगढ़, मुक्तेश्वर, तितोली, हरतफा, निगलाट जैसी फल पट्यिों के करीब होने से फलों के खरीद केन्द्र के रूप में भी अपनी पहचान रखता है. गर्मियों में काफल, आड़ू, पुलम, खुमानी तथा बरसात के आते-आते सेब, नासपाती, मीठा पांगर, काकू, अखरोट और जाड़ों में स्थानीय स्तर पर होने वाले माल्टा, नारंगी, नींबू आदि से सजी दुकानें देखते ही बनती हैं.
(Shyamkhet History of Bhowali)
औद्योगिक विकास के नाम पर भवाली में उस दौर में तारपीन फैक्टरी बन चुकी थी, जब पहाड़ों में इस तरह के उद्योग न के बराबर थे. बीसवीं सदी के अस्सी के दशक में भवाली के पास घोड़ाखाल रोड के ऊपर हिन्दुस्तान मशीन टूल्स (एचएमटी) ने अपनी असैम्बलिंग यूनिट की स्थापना की. जिससे स्थानीय बेरोजगार नवयुवकों में रोजगार की आश जगी. कुछ हद तक इस यूनिट ने स्थानीय बेरोजगारों के सपने भी पूरे किये.
इस यूनिट में घड़ी के पुर्जे आते थे और यहां घड़ी की शक्ल में एसैम्बल कर इन घड़ियों को बंगलुरू (बंगलौर) भेजा जाता था, जहां से इनकी मार्केटिंग हुआ करती थी. तब एचएमटी घड़ियों की बड़ी डिमाण्ड रहा करती. कालान्तर में कलाई घड़ियों के प्रति लोगों की रूचि कम होने लगी और इक्कीसवी सदी के आते-आते तो मोबाइल ने घड़ियों का बाजार ही कब्जा लिया. बीसवीं सदी के अन्त तक पहुंचते पहुंचते यह यूनिट मुनाफे का सौदा न रही और अन्ततः बाद के वर्षों में ये यूनिट विघटित हो गयी.
साठ के दशक में ही 21 मार्च 1966 को सैनिक स्कूल घोड़ाखाल की स्थापना क्षेत्र की पहचान के लिए मील का पत्थर साबित हुई. घोड़ाखाल, गोलज्यू मन्दिर के कारण क्षेत्रीय स्तर पर तो चर्चित था ही लेकिन सैनिक स्कूल घोड़ाखाल ने राष्ट्रीय क्षितिज पर भवाली कस्बे को पहचान दिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. देश के विभिन्न भागों से प्रवेश लेने वाले छात्रों के साथ-साथ बाहर से आये स्कूल स्टाफ के कारण अब घोड़ाखाल की प्रसिद्धि गोल ज्यू मन्दिर के अलावा अविभाजित उ0प्र0 के एक मात्र सैनिक स्कूल के रूप में भी हुई.
1980 के दशक में ही भवाली में एयर फोर्स स्टेशन भवाली-घोड़ाखाल रोड के नीचे की ढलान पर खोला गया. जिससे भवाली की बसासत में इजाफा होने के साथ ही स्थानीय व्यापारियों की आर्थिकी में सुधार तथा प्रत्यक्ष व परोक्ष रोजगार के अवसर बढ़े. वर्ष 1994 में उ.प्र. सरकार ने भवाली नोटिफाइड एरिया को नगरपालिका का दर्जा दिया गया, जिससे कस्बे के विकास को गति मिली.
पर्वतीय क्षेत्र यों तो चाय की खेती के लिए अंग्रेजों द्वारा भी मुफीद माना गया. बताया जाता है कि वर्ष 1935 में चीन से आयातित कोलकाता से 2000 चाय के पौधे उत्तराखण्ड मंगाये गये थे, जिन्हें भीमताल के पास भरतपुर क्षेत्र में तथा अल्मोड़ा के लक्ष्मेश्वर में रोपित किया गया. यहां की चाय को गुणवत्ता के हिसाब से अच्छा माना जाने लगा. लेकिन किन्हीं कारणों से तब ये योजना सफल नहीं हो पायी. पुनः उ.प्र. सरकार द्वारा वर्ष 1994-95 में उत्तराखण्ड चाय विकास परियोजना प्रारम्भ की और इसके लिए श्यामखेत व घोड़ाखाल के बीच के 11.64 हैक्टेयर भूभाग को चाय बागान के रूप में विकसित करने की परियोजना की शुरूआत की गयी.
आज इस चाय बागान में चाय उत्पादन के साथ ही श्यामखेत का चाय बागान पर्यटकों को भी लुभा रहा है. भवाली आने वाला हर पर्यटक चाय बागान की सैर किये बिना नहीं लौटता. जहां चाय बागान से प्रत्यक्ष व परोक्ष रूप से कई घरों की रोजी-रोटी चल रही है, वहीं पर्यटन व्यवसाय को भी प्रोत्साहन मिल रहा है. इस आर्गनिक चाय की मांग अन्तर्राष्ट्रीय बाजारों तक भी है. बताया जाता है कि गुणवत्ता में यह दार्जिलिंग चाय के समकक्ष है. कुछ समय पूर्व जब उत्तराखण्ड के मुख्य सचिव ने चाय बागान का निरीक्षण किया तो उन्होंने नेशनल हाईवे पर भी श्यामखेत से उत्पादित चाय के आउटलेट खोले जाने की बात कही.
वर्ष 2000 में उ.प्र. से अलग होकर बने उत्तराखण्ड राज्य का हाईकोर्ट नैनीताल में खोला गया. माननीय न्यायाधीशों के प्रशिक्षण के लिए अलग से संस्थान खोले जाने की आवश्यकता लम्बे समय से महसूस की जा रही थी, अन्ततः विधि आयोग की सिफारिश पर वर्ष 1992 में निर्णय लिया गया कि प्रत्येक राज्य अपने माननीय न्यायाधीशों के प्रशिक्षण के लिए अपने अपने स्तर से अकादमिक प्रशिक्षण की व्यवस्था करेगा.
19 दिसम्बर 2004 को घोड़ाखाल जाने वाली रोड के ऊपरी ढलान पर माननीय सर्वोच्च न्यायालय के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति आर.सी. लाहोटी द्वारा ’उजाला’ (उत्तराखण्ड न्यायिक एवं विधिक अकादमी) की आधार शिला रखी गयी और 14 जून 2008 से अकादेमी विधिवत् अस्तित्व में आ गयी. जहां प्रदेश के अधीनस्थ न्यायालयों में कार्यरत तथा नवनियुक्त न्यायाधीशों के लिए प्रशिक्षण, सेमिनार का आयोजन तथा रिफ्रेशर कोर्स की व्यवस्था है. निःसंदेह भवाली कस्बे को पूरे प्रदेश में एक्सपोजर देने में अकादमी ने भी इजाफा किया.
भूगर्भ शास्त्रियों का मानना है कि सदियों पहले भवाली कस्बे के दक्षिणी छोर पर स्थित श्यामखेत का क्षेत्र में कभी बहुत बड़ी झील रही होगी. इसी झील से उत्तर की ओर के निकास से शिप्रा नदी का प्रवाह होता होगा. कालान्तर में भूगर्भीय हलचलों के परिणामस्वरूप यह झील पट गयी लेकिन शिप्रा नदी का उद्गम स्रोत इसी क्षेत्र से जारी रहा, जो आज भी इसका उद्गम क्षेत्र है. इसे सदानीरा व स्वच्छ रखने के लिए समाजसेवी व पर्यावरण प्रेमी जगदीश नेगी पिछले 5 वर्षों से प्रयासरत हैं. उनके द्वारा वर्तमान में नदी के उद्गम क्षेत्र के आस-पास बरसाती पानी के संग्रहण के लिए खनतियों का निर्माण पिछली गर्मियों से निरन्तर जारी है.
जगदीश नेगी प्रशासन का ध्यान इस ओर भी आकर्षित करते आये हैं कि चाय बागान क्षेत्र के सामने सैनिक स्कूल घोड़ाखाल की भूमि जो कुमाऊॅ मण्डल विकास निगम को लीज पर आवंटित है, उस स्थान पर 150 मीटर लम्बा तथा 120 मीटर चैड़ी झील बनायी जानी चाहिये, जिससे पर्यटकों के आकर्षण के साथ-साथ यह शिप्रा नदी को बारहों मास जलापूर्ति कर सकता है. निःसंदेह उनका यह सुझाव पर्यटन की संभावनाओं की दृष्टि से तथा शिप्रा नदी के अस्तित्व के लिए जल संग्रहण की दृष्टि से भी कारगर प्रतीत होता है. पर्यटकों को चाय बागान की सैर के बाद झील के किनारे सुकून के क्षण बिताने का यह प्रमुख आकर्षण बन सकता है.
(Shyamkhet History of Bhowali)
आबोहवा के लिए मशहूर इस कस्बे को एक्सपोजर मिलने से बिल्डर्स का रूझान भी इस ओर गया तथा गर्मियों में पहाड़ों में अपना ऐशगाह बनाने की नीयत से बाहरी लोगों ने पहाड़ के अन्य स्थानों की तरह भवाली की ओर रूख किया. जमीनों के भाव बढ़ी तेजी से बढ़े और स्थानीय लोगों ने औने-पौन दामों में अपनी जमीन बेच डाली. आज भवाली से रामगढ़ रोड और भीमताल रोड कहीं को निकल जाइये, सारी जगहें बहुमंजिली ईमारतों से कंक्रीट के जंगलों में तब्दील हो चुकी है.
एक दिलचस्प वाकया अक्सर याद आ रहा है, श्यामखेत में जब कोई बाहरी व्यक्ति अपने चौथे माले की खिड़की पर स्थानीय मिस्त्री से ग्रिल लगाने की बात कर रहा था तो मिस्त्री को बड़ा आश्चर्य हुआ, उसने कहा इतनी ऊॅचाई पर ग्रिल लगाने की क्या जरूरत है? फिर ये तो देवभूमि है यहां इस तरह की वारदात की चिन्ता छोड़ दीजिए. मिस्त्री की बात सुनकर वह मुस्कराकर चुटकी लेते हुए बोला- आपकी बात से मैं इत्तेफाक रखता हॅू लेकिन अब हम लोग जो आ गये हैं. पैसे के लालच में कुछ स्थानीय लोग इस हद तक पहुंच गये कि उन्होंने अपनी सारी पुश्तैनी जमीन बाहरी व्यक्तियों को बेच डाली और विडंबना है कि जो कभी उस जमीन का मालिकाना हक रखते थे आज उसी जमीन पर बनी कोठियों में चौकीदारी की नौकरी को ताक रहे हैं.
(Shyamkhet History of Bhowali)
भवाली की लल्ली क़ब्र का रहस्य और पुरानी यादें
भवाली में रहने वाले भुवन चन्द्र पन्त ने वर्ष 2014 तक नैनीताल के भारतीय शहीद सैनिक विद्यालय में 34 वर्षों तक सेवा दी है. आकाशवाणी के विभिन्न केन्द्रों से उनकी कवितायें प्रसारित हो चुकी हैं.
हमारे फेसबुक पेज को लाइक करें: Kafal Tree Online
Support Kafal Tree
.
काफल ट्री वाट्सएप ग्रुप से जुड़ने के लिये यहाँ क्लिक करें: वाट्सएप काफल ट्री
काफल ट्री की आर्थिक सहायता के लिये यहाँ क्लिक करें
लम्बी बीमारी के बाद हरिप्रिया गहतोड़ी का 75 वर्ष की आयु में निधन हो गया.…
इगास पर्व पर उपरोक्त गढ़वाली लोकगीत गाते हुए, भैलों खेलते, गोल-घेरे में घूमते हुए स्त्री और …
तस्वीरें बोलती हैं... तस्वीरें कुछ छिपाती नहीं, वे जैसी होती हैं वैसी ही दिखती हैं.…
उत्तराखंड, जिसे अक्सर "देवभूमि" के नाम से जाना जाता है, अपने पहाड़ी परिदृश्यों, घने जंगलों,…
शेरवुड कॉलेज, भारत में अंग्रेजों द्वारा स्थापित किए गए पहले आवासीय विद्यालयों में से एक…
कभी गौर से देखना, दीप पर्व के ज्योत्सनालोक में सबसे सुंदर तस्वीर रंगोली बनाती हुई एक…