नदी अब धीरे-धीरे उतर रही थी. बरसाती लहरों का उफान किनारों की नई सीमाएँ बना गया था. पानी उतरने के बाद उजली रेत में उभर आये काले-भूरे पत्थर जैसे रणभूमि में युद्धोपरांत क्षत-विक्षत हो बिखरे अंगों का दृश्य उकेर रहे थे. मेढक की मुद्रा वाला भीमकाय काला पत्थर अब भी धारा को बीच से दो हिस्सों में बाँट रहा था. नदी की डरावनी गर्जना नीरस साँय-साँय में बदल कर उबाऊ हो चली थी. इस बरस बरसात कुछ ज़्यादा ही लंबी खिंच गई.
(Short Story by Umesh Tiwari)
नदी पार के गांवों में फेरी लगाए मुन्ना को दो महीने से ज़्यादा हो गए हैं. पूरी बरसात भर दुकान पर काम अच्छा रहा लेकिन फेरी न होने से बंधी-बंधाई गाहकी टूट जाने का जोखिम तो बना ही रहता है, उनकी झिड़की भी सुननी पड़ सकती है….एक और वज़ह थी नदी पार के गाँवों में मुन्ना की दिलचस्पी की, जिसे उसने आज तक किसी पर ज़ाहिर नहीं किया था. वह थी डोब गाँव की एक गुमसुम दिखने वाली लड़की, शानू. उसकी आँखों में पसरा अजीब सा सूनापन मुन्ना को बरबस अपनी ओर खींच लेता, एक उदासी जो बरसों से वह अपनी माँ की आँखों में भी देखता आया है. उन आँखों की उदासी और सूनेपन का मर्म मुन्ना के अनुभवों की परिधि से बाहर था शायद. वह उत्तर खोजता पर पहेली अबूझ ही रह जाती.
डोब के प्रधान मुन्ना के पक्के ग्राहक हैं, “मुन्ना बकरे का ही मीट लाया है ना, कुछ और तो नहीं काट दिया कल्लू ने?” मज़ाक किया प्रधान जी ने. मुन्ना ने हँसते हुए जवाब दिया, “आपके गाँव का ही माल है, पहचान लो चाचा जी.” प्रधान जी के आँगन में ही उसने पहली बार शानू को देखा था. तब से मुन्ना किसी बहाने सही उनके पास कुछ देर अटक जाता है. उसे उम्मीद रहती है कि प्रधान जी चाय-पानी पूछेंगे और आवाज़ लगा कर कहेंगे, “शानू मुन्ना के लिए पानी लाना बेटा..!” जितनी देर उनके आँगन में रहता मुन्ना को साँकल वाले खुरदरे दरवाज़े के पीछे शानू की उपस्थिति का एहसास भी बना रहता. कभी प्रधान जी को गोश्त के मुआयने में उलझा कर मुन्ना शानू को नज़र भर देख लेता, निगाहें मिलती पर अगले ही पल हट जातीं. शानू के बारे में वह सब कुछ जानना चाहता था लेकिन पूछे तो किससे ? डरता था, बात का बतंगड़ न बन जाये. वो अब तक नहीं जान पाया था कि शानू किस हैसियत से प्रधान परिवार के साथ रहती है. इतना भर सुना था कि उनके तराई वाले फार्म से आयी है वह… शानू के ख़याल से ही उसके शरीर में एक अनजानी सी सिहरन होने लगती.
मुन्ना ने रात ही कल्लू से तालमेल बिठा लिया, “बाबू दो-तीन महीने से नदी पार का फेरा नहीं किया है. अब पानी कम हो गया है, कल होकर आता हूँ.” ख़ुद भी देरी से फ़िक्रमंद कल्लू को क्या एतराज होना था, “तो कल सुबह-सुबह चला जा, उघाई के वास्ते हिसाब का पर्चा रख लेना, मैं माल का देख लेता हूँ.” मुन्ना ने गर्दन हिलाई और रसोई में माँ के पास आकर बैठ गया. वह ख़ुश था, “क्या पकाया है इजा? फटाफट दे दे… टाइम से सो जाऊँगा. सबेरे गाड़ पार फेरे पर जाना है.” “गाड़ थोड़ा घट जाती.. तब जाता तो ठीक था रे!” धना ने थाली उसके सामने खिसका दी. मुन्ना मुस्कुराया, “तू फ़िकर ना कर. नदी तरते-तरते इतना बड़ा हुआ हूँ. उधारी लंबी हो गई है, उघाई करनी है मुझे. बस तू मेरा सामान छापरी में बाँध देना.” वो आज फिर माँ की उदास आँखों की गहराई में झाँकना चाहता था लेकिन चूल्हे के धुंवे से बचने को आँखें मीचती, गर्दन घुमाती धना ने उसे मौक़ा ही नहीं दिया. मुन्ना रोटी खा कर उठ गया… तराज़ू, बांट, चापड़, छुरी, गुटका, रद्दी पेपर रात ही धना ने उसकी टोकरी में रख दिए.
(Short Story by Umesh Tiwari)
नदी पार के गाँवों में उनके कोई दर्ज़न भर ग्राहक हैं. कुछ बरस पहले तक, कल्लू गाँव-गाँव घूम कर गोश्त बेचने निकलता तो अक्सर बालक मुन्ना भी साथ चला जाता. पिता का कुर्ता पकड़ कर नदी पार करना उसे बहुत अच्छा लगता. खेतों-खेतों, आंगन- आंगन बाप के आगे-पीछे दौड़ता-भागता मुन्ना व्यापार के गुर भी सीखता चला गया. देखते-देखते वो दुकान पर पिता का हाथ बंटाने लग गया. कल्लू चाहता था मुन्ना पढ़-लिख ले. छठी कक्षा में दाख़िल होते उसके लिए ट्यूशन का भी इंतज़ाम कर दिया पर मुन्ना का स्कूल में बिल्कुल मन न लगता. कुछ दिनों से वह बस्ता लेकर निकलता और स्कूल के बजाय पनचक्की पर पहुँच जाता. वहाँ स्कूल के झंझट से मुक्त हो चुके घटवार के बच्चों के साथ दिन भर खेलता. वो कपड़े उतार घंटों नदी में नहाते, मेढक की शक्ल वाले पत्थर पर चढ़ कुंड में छलाँग लगाते नहीं थकते. देर दोपहर पहाड़ों पर ज्यों ही स्कूल की छुट्टी की घंटी गूँजती, मुन्ना वापस घर को चल पड़ता. माँ से मिले जेब ख़र्च से मुन्ना दोस्तों के साथ बीड़ी का शौक भी फर्माने लगा था. उसकी आवारगी की ये ख़बरें जब घर पहुँची तो व्यथित कल्लू ने मुन्ना की जमकर पिटाई कर डाली. माँ से देखा नहीं गया, “नहीं जायेगा मेरा बेटा इस्कूल-फिस्कूल, घर पर ही पढ़ लेगा..” ग़ुस्से से भरी धना ने कदाचित अपने जीवन की सर्वाधिक निश्चयात्मक व्यवस्था दी. स्कूल में बड़े बच्चे मुन्ना को ‘कसाई की औलाद’ कह कर चिढ़ाते तो घर आकर माँ से शिकायत करता. धना मन मसोस कर रह जाती. इसकी आशंका उसे पहले से थी. इसीलिए कल्लू ने जब पहले-पहल मीट की दुकान खोलने का प्रस्ताव रखा तो वह एकबारगी राज़ी नहीं हुई थी पर पैसे की किल्लत देखकर हां कह गई. धना जानती थी कि यूँ भी शिल्पकारों के बच्चे मुश्किल से ही स्कूल पढ़ पाते हैं….फिर मुन्ना तो और भी स्पेशल था.
हिन्दू हरिजन माँ और मुसलमान बाप की संतान था मुन्ना. कभी भाबर में आम के बाग़ों की ठेकेदारी करने वाले कल्लू और धना के विवाह की कहानी भी कम दिलचस्प नहीं. धना का पहला पति लाली राम कल्लू का मुलाज़िम था. लाली दिन में अमानी मज़दूरों के साथ काम करता और रात में बग़ीचे की चौकीदारी करता. सुभीते की ग़रज़ से बाग़ के कोने में ही छप्पर डाल कर रहने लगे थे दोनों. गाँव पास ही था लेकिन खेती-बाड़ी थी नहीं, सो मज़दूरी करना एक तरह से उनकी मजबूरी थी. एक रात सोते में उनपर गुलदार ने हमला कर दिया. लाली की चीख़ से धना की नींद खुली तो पति को जानवर के पंजों में देख कुछ पल भौंचक्की रह गई. सम्हलते ही सिरहाने रखा बड़याठ उठाया और उस पर टूट पड़ी. अप्रत्याशित हमले से गुलदार चौंक गया लेकिन तब तक उसके दाँत लाली की गर्दन पर गड़ चुके थे. वो लाली को अपने साथ घसीटता हुआ दूर तक ले गया. पीछा करती हुई धना अन्ततः जानवर को भगाने में क़ामयाब रही पर पति की जान नहीं बचा पाई. चौबीस घंटे के अंदर रामनगर के सरकारी अस्पताल में लाली ने दम तोड़ दिया. इस हमले में धना ख़ुद भी घायल हो गयी लेकिन अपनी हिम्मत और समर्पण से उसने सारे गाँव का दिल जीत लिया.
(Short Story by Umesh Tiwari)
विधवा धना के सामने अब चुनौतियों का पहाड़ खड़ा था. तय था कि स्वयं कमाएगी तो खाएगी, लाली के घर वालों से शोषण के सिवा कुछ भी उम्मीद करना व्यर्थ था. टूटती हुई धना ने कल्लू से पति की जगह काम करने की गुहार लगायी….कल्लू असमंजस में पड़ गया. वह उसकी मदद तो करना चाहता था पर धना की मज़दूरी पति की सरपरस्ती से जुड़ी थी. अब ?…कल्लू ने सेठजी से मशविरा करना उचित समझा, “…लाली की जगह चौकीदार तो रखना ही पड़े है सेठजी लेकिन गोदाम का काम दे सकूँ हूँ बिचारी को.” अपनी अनुभवी आँखों से जैसे कल्लू को परखते हुए सेठजी ने अपना हाथ कल्लू के कंधे पर रख दिया, ”अच्छी सोच है मुशइया तेरी, दुखियारी की मदद करना पुन्य का काम है… पधानी ने भी उसे बारदाने वाली कोठरी में पड़े रहने को कह दिया है. अकेली जान है, तेरी मजूरी से पेट पाल लेगी.” कल्लू बरसों से सेठ बेलवाल जी के बग़ीचे का ठेका लेता आया है, फलस्वरूप उनके अच्छे संबंध बन गए थे. वो कल्लू को मुशइया कह कर बुलाते और कल्लू उनकी रसोई से खाना मांगते कोई संकोच न करता.
…आम का सीज़न ख़त्म हो रहा था. समय के थपेड़े खाकर आत्मनिर्भर बनी धना, कल्लू के कारोबार का अभिन्न हिस्सा बन चुकी थी. गोदाम से निकली हर नग का मुँह-ज़बानी हिसाब रहता धना के पास. अपनी मेहनत और ईमानदारी से वह कब कल्लू के दिल में घर कर गयी उसे पता भी न चला. फलों का काम निबट चुका था सभी फ़ुर्सत में थे. हुक्का पीते सेठजी के कान में थोड़े संकोच के साथ विधुर कल्लू ने धना से निकाह करने की ख़्वाहिश जताई. अचानक आये इस प्रस्ताव से सेठजी गहरी सोच में पड़ गये. कल्लू को लगा भारी ग़लती हो गई. कुछ पलों बाद जब दोनों सम्हले तो जाने क्या सोचकर सेठजी ने धीरे से कल्लू की पीठ पर अपना हाथ रख दिया, “देख प्यारे!…ऐसे तो इसमें कोई बुराई नहीं पर अपने समाज को तू जानता है, जितने मुँह उतनी बातें. कल कोई हल्ला-गुल्ला हो गया तो आँच मुझ तक पहुंच जाएगी.” कल्लू निराशा के गर्त में डूब गया, उसके मुँह से इतना भर निकला, “कहते तो ठीक हो पंडित जी…!” सेठजी का हाथ अब भी कल्लू की पीठ पर था, “एक रास्ता निकल सकता है…तू ऐसा कर, धना को लेकर हमारे पहाड़ के गाँव चला जा….ज़मीन है, बग़ीचा है, आबाद कर ले, वहाँ कौन पूछने वाला है ! हिसाब-किताब की चिंता मत करना. घर की चाभी दे देता हूँ, गोठ को रहने लायक बना लियो… मंज़ूर हो तो बोल, मैं पधानी की बात करवाता हूँ धना से…” अंधे को क्या चाहिए ? दो आँखें. कल्लू का चेहरा खिल उठा, उसने सेठजी के पैर छू लिए.
देवली में बेलवाल जी का पुराना दुमंज़िला घर था. साल में एक-दो बार जब वो पहाड़ आते तभी घर के ताले खुलते और मरम्मत-सफ़ाई होती. आड़ू, पुलम, ख़ुबानी का बड़ा बग़ीचा और पच्चीस-तीस नाली बंजर खेत थे. बाक़ी पहाड़ों की तरह ही यहां भी सिंचाई की सुविधाओं का टोटा था. सेठजी का फलों का बग़ीचा कहने को तो बड़ा था पर था पुराना. कुल मिलाकर मेहनत ज़्यादा थी और हासिल कम. धना की मेहनत और कल्लू की व्यापारी बुद्धि के सहारे पहला साल जैसे-तैसे कट गया. सेठजी को उनकी ज़मीन कमाने के एवज़ में वाजिब रकम न दे सकने का मलाल भी कल्लू को सालने लगा था. बरस बीतते-बीतते उसे यक़ीन हो चला कि अच्छी गुज़र-बसर के लिए लीची-आम के सीज़न में तो वापस भाबर क्षेत्र में जाना ही पड़ेगा. दिक़्क़त ये थी कि धना वहाँ जाना नहीं चाहती थी. डरती थी, लाली के शराबी भाइयों से सामना न हो जाये. तभी सेठजी के काम से कल्लू को फगोट क़स्बे में एक बिचौलिए से मिलने जाना पड़ा. वापस लौटते उसने गोश्त ले जाना चाहा पर क़स्बे में मीट की एक भी दुकान नहीं थी….कल्लू नए काम की तलाश में तो था ही उसको फगोट में अपने पुश्तैनी धंधे का स्कोप नज़र आ गया. देवली लौट कर उसने नए काम के लिए धना को किसी तरह राज़ी कर लिया….अगले ही तीन महीनों में फगोट के दक्षिणी छोर पर कल्लन क़ुरैशी ने एक टीले को समतल कर टीन का छप्पर बनाया और एक मुबारक दिन बकरे के मीट की दुकान खोल डाली. उसका अनुमान ठीक साबित हुआ, महिने भर में क़स्बे के साथ-साथ आसपास के ग्रामीण क्षेत्रों से भी ग्राहक दूकान पर आने लगे.
(Short Story by Umesh Tiwari)
कल्लू व्यवहार कुशल तो था ही, एक और हुनर था उसके पास. वह नाल बहुत अच्छी बजा लेता था. फगोट की रामलीला तालीम में एक रोज़ तबला मास्टर की अनुपस्थिति में कल्लू ने पास रखी नाल पकड़ ली. उसकी सख़्त उंगलियों की थाप से अलसाई नाल खनक उठी, बहरतबील की अदायगी पर जैसे चार चाँद लग गये. ओकक्का गुरुजी के मुंह से दुर्लभ ‘वाह’ निकल पड़ी, नतीजतन कल्लू की सीट हारमोनियम उस्ताद के बगल में पक्की हो गई. कमेटी वाले इसलिए भी ख़ुश थे कि शामियाना बाँधना हो या बिजली का फ्यूज़, कल्लू सा गुणी और भरोसेमंद दूसरा मिलना मुश्किल था. अपनी नई पहचान से क़स्बे में कल्लू की दुआ-सलाम के साथ विश्वसनीयता में भी खासा इजाफ़ा हो गया. उसके बर्ताव और शायद उपयोगिता को देखते हुए रामलीला कमेटी ने भी अपने गोदाम की चाभी कल्लू को सौंप दी.
….यहीं एक रात मूसलाधार बारिश के बीच रामलीला मँच के फ्लाटों, धनुष-बाण, मुद्गर-तलवार औऱ लोहे के सन्दूकों से अटे पड़े गोदाम के एक कोने में धना ने मुन्ना को जन्म दिया.
सुबह कल्लू ने छाँट कर वज़नदार बकरा काटा और आठ-दस किलो माल मुन्ना की छापरी में बँधवा दिया. सलेटी रंग का सफ़ारी सूट पहने, छापरी सिर पर रख मुन्ना ढलान पर तेज़ी से उतरने लगा. “भौत जल्दी में है रे मुन्ना ? …रोटी सब्जी छापरी में बाँध दी है हाँ, टैम से खा लेना.” पीछे से माँ की आवाज़ कानों में पड़ी. “हाँ- हाँ इजा, खा लूंगा. अंधेरा होने से पहले आ भी जाऊँगा तू फ़िकर मत करना.” उसने बिना मुड़े चिल्ला कर जवाब दिया. नदी का पानी अब कमर-कमर रह गया था. घर के पीछे ही चौड़े पाट से मुन्ना हर मौसम में नदी को पार करता आया है. बरसात से पहले पांव के नीचे आने वाले हर पत्थर को जैसे मुन्ना के तलवे पहचान लेते पर बरसात की गाड़ के बाद ऐसा दावा नहीं किया जा सकता. कहना मुश्किल है कि अब किस जगह बड़ा गड्ढा हो गया हो या कोई बेढब पत्थर आकर टिक गया हो. और हुआ भी ठीक वही. मझधार में पहुँच कर एक पत्थर पर मुन्ना का पैर अचानक ऐसा फ़िसला कि शरीर का संतुलन बिगड़ गया. उसका एक हाथ छापरी पर था और दूसरे हाथ से पैंट के मुड़े पांयचे और जूते पकड़े था वह. पानी का बहाव अनुमान से अधिक तेज़ निकला. पाँव उखड़ते ही टोकरी हाथ से छिटककर धारा में रफ़्तार से बहने लगी. हड़बड़ी में मुन्ना पीठ के बल पानी में गिरा और डुबकी खा गया. उसने बहाव के साथ तैरकर छापरी को पकड़ने की बड़ी कोशिश की लेकिन बहुत देर हो चुकी थी. आगे पाट बहुत अधिक संकरा था. अब तलहटी पर पैर टिकना नामुमकिन था. मुन्ना बहाव के साथ डूबता-उतराता, बहता चला गया.
फगोट डाकख़ाने के सामने एक छोटा सा मजमा लगा हुआ था. पोस्ट-ऑफिस का चौकीदार जो पार्ट टाइम पंडिताई भी करता था, सड़क पर अख़बार फैला कर रामनगर में घटी एक घटना की ख़बर ज़ोर-ज़ोर से पढ़ रहा था. वह अपनी चटपटी टिप्पणियों के लिए सारे क़स्बे में विख्यात था. उसके कुछ अति उत्साही प्रशंसक घुटनों पर हाथ रख कर उसी पर झुके जा रहे थे. “अरे हवा आन दो, हवा आन दो. येई तो ख़राबी है जनता में, हर चीज़ तुरंत चैये. लो आप ही पढ़ लो, ..लो, इतने छोटे अक्शर, मैं तो अपनी आँखें फोड़ कर मुफत तुमारा मनोरंजन कर्रा हूँ. तुम मेरा घाम रोक के खड़े हो जारे… किसी को पढ़ना आता है तो हमको भी सुना दो,… लो तुम्हीं ले लो” उसने ज़मीन से पेपर समेट कर हवा में लहरा दिया.
(Short Story by Umesh Tiwari)
एक बुज़ुर्ग जो ज़रा हटके डाकख़ाने की सीढ़ी पर पीठ लगा कर बैठे थे, झिड़कते हुए बोले, “अब आगे भी पढ़ेगा पंडत या फ़ालतू का भाव खाता रहेगा ?” उसके चेहरे पर शरारत भरी मुस्कान फैल गई, ”हटो-हटो, चच्चा का मज्जा क्यों ख़राब करते हो…तुम लोग तो टीबी में भी देख लोगे” कहते हुए उसने अख़बार दुबारा सड़क पर फैला दिया और ख़बर आगे पढ़ने लगा, ‘… संदिग्ध तस्करों के पास जो दस-पंद्रह किलो माँस बरामद हुआ है वो किस चीज़ का है, उसका पता फोरेंसिक जाँच के बाद ही चलेगा. पुलिस उन लोगों की तलाश में छापेमारी कर रही है जिन्होंने क़ानून हाथ में लेकर आरोपियों पर डंडों से हमला कर दिया था. बताते चलें कि रामनगर बैराज से कुछ दूर वन्य जीव उद्यान के छापामार दस्ते ने कच्चे माँस के साथ तीन लोगों को पकड़ा था. दस्ते का गठन हाथीदाँत की तस्करी और ग़ैरक़ानूनी शिकार की घटनाओं को रोकने के लिए हाल ही में किया गया है. जब आरोपी स्थानीय पुलिस के हवाले किये जा रहे थे तो अचानक कुछ युवकों ने लाठी-डंडों के साथ उन पर हमला बोल दिया जिसमें आरोपियों के साथ दो पुलिसकर्मी भी घायल हो गए.
ख़बर लिखे जाने तक हमलावरों में से किसी की गिरफ़्तारी नहीं हुई है. पुलिस ने फॉरेस्ट रोड पर चाय की दुकान चला रहे एक व्यक्ति को हिरासत में लेकर पूछताछ शुरू कर दी है. प्राप्त सूचना के अनुसार आरोपियों में से दो की हालत गंभीर बनी हुई है. सिर पर गंभीर चोटों के चलते दोनों को एक नर्सिंग होम के आई सी यू में रखा गया है. हमारे पुलिस सूत्रों के अनुसार आरम्भिक पूछताछ में उन्होंने बताया है कि तीनों टांडा के रहनेवाले हैं और भाबर क्षेत्र में लीची-आम के बग़ीचों को ठेकेदारी करते हैं. वह पूरी तरह निर्दोष हैं और पिकनिक करने नदी पर गए थे. पुलिस का कहना है कि नदी किनारे जिस जगह आरोपी इकठ्ठा हुए थे वहाँ से शराब की ख़ाली बोतल, एक टोकरी, गँड़ासा और तौलने का तराज़ू-बांट भी बरामद हुए हैं..’ सीढ़ी पर बैठे बुज़ुर्गवार पर उसने एक गहरी निगाह डाली और हाँक सी लगाई, “देखी चच्चा इनकी हरकतें..?” और प्रतिक्रिया का इंतज़ार किये बिना पढ़ना जारी रखा, ‘..फ़्लाइंग स्क्वाड के प्रभारी ने पत्रकारों को बताया कि यह घटना क्षेत्र में तस्कर नेटवर्क सक्रिय होने का पक्का सबूत है. उन्होंने कहा कि पुलिस बरामद सामान के ज़रिए केस की गहराई से छानबीन करेगी और वन विभाग तुरंत समूचे प्रभाग की सघन कॉम्बिंग करने जा रहा है…’ अख़बार से सिर उठा कर पंडत ने फ़ैसला सुनाने के अंदाज़ में घोषणा कर डाली, ”इन पिकनिक वालों को तो देखते ई टोपी पैना देनी चैये….देश का माहौल बिगाड़ के रखा है. फगोट में टोपी पैनाने का नंबर आए तो कसम बिरयानी की, मैं मौका नइँ चूकूँ…सरकार में कोई दम जो क्या है, खाल्ली.” बुज़ुर्गवार को आँख मारते हुए पंडत ने पेपर को रोल किया और पास खड़े किशोर के पिछवाड़े पर दो प्रतीकात्मक डंडे रसीद कर दिए.
कल्लू की दुकान पर डोब गाँव के प्रधान मुन्ना का हालचाल ले रहे थे. मुन्ना के सिर पर पट्टी बंधी थी और दायें कंधे पर प्लास्टर चढ़ा हुआ था. “तेरी क़िस्मत अच्छी थी मुन्ना कि जान बच गई. वरना भइया कुछ भी हो सकता था.” प्रधान जी ने मुन्ना पर सहानुभूति भरी निगाह डाली. कल्लू ने अपने दोनों हाथ आसमान की ओर उठा कर जोड़ दिए. “आपका आशीर्वाद है चाचा जी. … गोलज्यू की मेहरबानी रही कि नहर के मुहाने से पहले जो बड़ा पत्थर है ना, बहते-बहते मैं उससे लग गया. जान बचाने का यही आख़री मौक़ा था. बस पत्थर से चिपट गया मैं….कंधे का दरद सहन नहीं हो रहा था. बहुत ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाया पर सुसाट इतना था कि अपनी आवाज़ ख़ुद को न सुनाई पड़े….कोई आधे-पौने घंटे बाद पार के स्कूली बच्चों की नज़र मुझ पर पड़ गयी, वरना तो…” मुन्ना कमज़ोर स्वर में बोला. कल्लू जैसे नींद से जागा, “आपकी क्या सेवा करूँ पधान ज्यू…चाय बनवाता हूँ.” कल्लू खोखे की तरफ़ लपका. “नहीं, अभी चाय-हाय कुछ नहीं यार. मुन्ना के हाथ का ढाई सौ उधार था मेरी तरफ़, सोचा चुकता कर जाऊं….दो किलो अच्छा सा मीट भी बना देना, बहादुर उठा लाएगा, बाल कटवाने नईम की दुकान पर बैठा है.” प्रधान जी ने जेब से पैसे निकालते कहा.
कल्लू ने इसरार किया “आप भैटो तो सही, मुँह तो मीठा कर जाओ साब.” प्रधान जी का स्वर अनायास ही बेहद कातर हो गया “कौन सा मुँह मीठा करूँ यार, जिस दिन मुन्ना के साथ दुर्घटना हुई थी ना, ठीक उसी शाम से हमारी शानू कहीं लापता हो गई है. मुन्ना ने तो देखी ठैरी वो… मेरी तो बेटी जैसी हुई.” कल्लू की ज़ुबान से ‘ओह हो..!’ निकला. मुन्ना यंत्रवत बैंच से उठ कर दालान के उधड़े खड़ंजे पर कब खड़ा हो गया उसे ख़ुद एहसास नहीं हुआ. प्रधान जी अपने साथियों के साथ धीरे-धीरे ढलान की पगडण्डी की ओर बढ़ रहे थे. लगता था मुन्ना एकटक उनको जाता हुआ देख रहा है पर उसकी निगाहें वेग से बहती नदी और फ़लक के बीच कहीं टिक सी गई थी….उसका ज़ख्म दुखा तो वह मुड़ा और जाकर गेहूँ साफ़ करती अपनी माँ से सट कर बैठ गया.
“मुन्ना ! पिताजी ने मीट रखवाया होगा, ज़रा उठा ला.” बहादुर सड़क से ही आवाज़ लगा रहा था. गोश्त का थैला थमाते मुन्ना ने महसूस किया कि बहादुर ने उसके हाथ से थैला लगभग झटक लिया. वह बहादुर के रूखे व्यवहार को समझने का प्रयास कर ही रह था कि बहादुर के मुँह से निकले अगले शब्द मानो कानों में पिघलता शीशा उँडेल गए, “देख, मुन्ना कान खोल कर सुन ले, शानू के बारे में कोई खोजबीन करने की ज़रूरत नहीं समझे !…और अपनी इस बातचीत के बारे में पिताजी या अन्य किसी से भी ज़िकर भी मत करना, वरना ठीक नहीं होगा.” इस अनपेक्षित घटनाक्रम से हतप्रभ मुन्ना देर तक अवाक खड़ा बहादुर को जाता देखता रह गया. वह बहुत बुरी तरह डर गया था. बड़ी मुश्किल से डर पर काबू पाया तो दिल के एक कोने से टीस सी उभरी, शायद यह शानू को खो देने का दर्द था. कहाँ होगी वह? क्या किया होगा बहादुर ने उसके साथ? क्या कभी उससे मिल पायेगा वह? उसकी आँखों से आँसुओं की बाढ़ सी बह चली. माँ उठ कर घर के भीतर जा चुकी थी. उसने किसी प्रकार ख़ुद को सम्हाला और अपनी समूची ताक़त समेट कर बेतहाशा दौड़ पड़ा विशाल काले पत्थर की दिशा में.
(Short Story by Umesh Tiwari)
लेखक की यह कहानी भी पढ़ें: टीवी है ज़रूरी: उमेश तिवारी ‘विश्वास’ का व्यंग्य
हल्द्वानी में रहने वाले उमेश तिवारी ‘विश्वास‘ उमेश तिवारी ‘विश्वास’ स्वतंत्र पत्रकार, रंगकर्मी और व्यंगकार हैं. नैनीताल की रंगमंच परम्परा का अभिन्न हिस्सा रहे उमेश तिवारी ‘विश्वास’ की महत्वपूर्ण पुस्तक ‘थियेटर इन नैनीताल’ हाल ही में प्रकाशित हुई है. उमेश तिवारी ‘विश्वास काफल ट्री के लिए कॉलम लिखते हैं
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