कुछ ख़बरें इतने चुपचाप से आकर निकल जाती हैं कि समकालीन हिंदी साहित्य समाज उसका नोटिस ही नहीं ले पाता. इसी तरह की एक ख़बर दो-चार दिन पहले आई और अखबार के बहुत छोटे से कॉलम में सिमट कर रह गई. ख़बर उमेश डोभाल स्मृति सम्मान की है. वर्ष 2019 का उमेश डोभाल स्मृति सम्मान लोक संस्कृति के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान के लिए गढ़वाल विश्वविद्यालय के सेवा निवृत्त शिक्षक प्रो. डी.आर. पुरोहित को, शिक्षा के क्षेत्र में रचनात्मक कार्यों के लिए राजेन्द्र बिष्ट को तथा गिरीश तिवाड़ी गिर्दा जनगीत सम्मान जनपक्षीय रचनाधर्मिता के लिए कुमाऊँ विश्वविद्यालय के प्रो. शिरीष कुमार मौर्य को दिए जाने का निश्चय किया गया है.
कवि कहना शर्म के चलते अब छोड़ दिया है
शिरीष कुमार मौर्य की कविता इस उथल-पुथल भरे समकाल का सांकेतिक दस्तावेज हैं. ये उन तमाम हलचलों का रेखांकन हैं जो इस देश-काल का परिदृश्य रच रहे हैं.
पानीदार लगभग कुछ नहीं है
न आँखें
न चेहरे
न हथियारों की धार
न किरदार
मेरे आसपास पानीदार लगभग कुछ नहीं है
हथियारों की धार तो शायद कभी पानीदार नहीं रही लेकिन समकालीन कवि की सबसे बड़ी चुनौती किरदारों से पानी का खतम हो जाना है. भूमंडलीकरण के इस दौर में आँखों में, चेहरे में और किरदारों में पानी की खोज बहुत मायने रखती है. ये दौर बाज़ार के हावी हो जाने का है, पूंजी के लगभग छा जाने का है, अमीर के और अमीर गरीब के और गरीब होते जाने का है, शोषण के नए रूप और गठन में स्वीकृत होते जाने का है. ऐसे समय में मौलिक मनुष्यता का लोप होते जाना एक बड़ी त्रासदी है. इसे महसूस करना और बार-बार रेखांकित करना ही समकालीन कवि और कविता की सार्थकता सिद्ध कर सकता है. शिरीष इस क्रूर सच को समझने की चुनौती स्वीकार करते हैं, इस सच को न केवल महसूस करते हैं बल्कि खुले तौर पर अभिव्यक्त करते हैं.
कुछ दर्द- सा होता शरीर में तो लगता सब अंग अब नासूर हो जाएंगे
धमनियों में रुकने लगता प्रवाह
बिला जाते समर्पण और प्रतिबद्धता
जबकि इतनी भर जिद मेरी कि न्यूनतम मनुष्यता तो होनी ही चाहिए
ये न्यूनतम मनुष्यता की जिद ही शिरीष को पक्षधर बनाती है. उनकी पक्षधरता मात्र सहानुभूति बनकर नहीं रह जाती बल्कि कहीं आगे जाकर उस यथार्थ को टटोलने का उसे उलटने पलटने का प्रयास करती है जिसका एक सिरा इतिहास की तरफ जाता है तो दूसरा बिलकुल ताज़े-ताज़े आज में.
मुझे लगता है उनकी कविता, समकालीनता और कविता के बीच, साथ ही पक्षधरता और कविता के क्लासिकल मानदंडों के बीच अद्भुद संतुलन कायम करती है. जिस तरह से `गैंगमेट वीर बहादुर थापा’, `कलूटी’, `जेब काटने वाली औरत’, `काफल बेचते बच्चे’ जैसी बहुत सी कवितायेँ शिरीष के खाते में हैं जो शिरीष की अंदरूनी कटिबद्धता का स्पष्ट बयान हैं. उनके कविता संग्रहों में-
`पहला कदम’
`शब्दों के झुरमुट’
`पृथ्वी पर एक जगह’
`जैसे कोई सुनता हो मुझे’
`दंतकथा एवं अन्य कविताएँ’
`सबसे मुश्किल वक्तों के निशाँ’
`खांटी, कठिन कठोर अति’
`साँसों के प्राचीन ग्रामोफोन सरीखे इस बाजे पर’
आदि उल्लेखनीय हैं. आलोचना पुस्तकों में `शानी का संसार’ और `लिखत-पढ़त’ हैं. अनुवाद कार्यों में `धरती जानती है’ शीर्षक से येहूदा आमीखाई की कविताओं का अनुवाद अशोक पांडे के साथ तथा `कू-सेंग की कविताओं’ का अनुवाद शामिल हैं. उनके साहित्य सृजन के लिए उन्हें प्रथम अंकुर मिश्र कविता पुरस्कार-2004, लक्ष्मण प्रसाद मंडलोई सम्मान-2009 तथा वागीश्वरी सम्मान-2010 से सम्मानित किया जा चुका है.
देखा जाए तो शिरीष के पूरे रचना कर्म पर, चाहे वो कविताई हो, आलोचना हो या फिर `कविता और कविता पर विचार के लिए समर्पित ब्लॉग ‘अनुनाद’ का संचालन, एक समर्पित पक्षधरता फ़ैली हुई है. लेकिन शिरीष बंदूक लेकर नहीं खड़े हैं. इनके पास गालियाँ और फतवे नहीं हैं. ये बड़े-बड़े बोल भी नहीं कहते. इनके हिस्से रतजगे हैं, बेचैनियाँ हैं, बीमारियाँ हैं और हैं प्रलाप. शिरीष तमाम विद्रूपताओं, शोषण और अन्याय को अपने अन्दर लेकर उसे घोंटते हैं (चर्निंग का कोई और विकल्प शब्द नहीं मिलता मुझे) और उससे जो प्रलाप निकलता है, उससे अपना पक्ष गढ़ते हैं. देखा जाए तो कविता की ये सामान्य प्रक्रिया ही है. सारा अंतर थोरोपुट में है. ये चर्निंग ही कविता का महात्म तय करती है. शिरीष में ये चर्निंग गम्भीर, ज़िम्मेदार और सूक्ष्म है. यही कारण है कि कविता का उत्पाद साधारण दिखते हुए भी असाधारण महत्व का है. ये विध्वंस की नहीं निर्माण की कविताएं हैं.
ये अलग बात है कि शरीर ही गिरा है
अब तक
मन को कभी गिरने नहीं दिया
शिरीष भाषा के नक्काशीदार किले नहीं बनाते. बल्कि भाषा-व्यवहार के बिखरे खंडहरों और सम्भावनाओं की उर्वर गीली मिट्टी से कविता का ढांचा खड़ा करते हैं. इस प्रक्रिया में बहुत सारी ज़रूरी तोड़-फोड़ भी करनी पड़ती है. भाषा गढ़ तोड़ती है.
शिरीष की भाषा का अंडरकरेंट उदासी है. चटक बिम्ब कम हैं, धूसर, देर तक उदास कर देने वाले ज़्यादा. दूर तक फ़ैली पहाड़ी घाटियों की तरह. इस भाषा में गहरे उतरने के लिए पहाड़ का भूगोल समझना पड़ेगा. पहाड़ के उस पार कुछ नहीं दिखता. जब तक आप ऊबड़-खाबड़ पहाड़ की चोटी पर नहीं पहुँच जाते उस पार तलहटी में फ़ैली घाटी नहीं दिखाई देती. पहाड़ पर चढ़ने के बाद घाटी दिखती है बहुत शांत, गंभीर, उदास कोई उदार भौगोलिक आकार लिए. खांटी, कठिन कठोर जीवन जीने वाला शिरीष का कवि दरअसल घाटी की तरह ही शांत, गम्भीर, उदास और उदार है. जैसे-जैसे आप पहाड़ से नीचे घाटी की ओर बढ़ते/ उतरते जाते हैं बस्ती का शोर, आवाजें, चीखें, कहकहे और प्रलाप सुनाई देने लगते हैं.
गिरते-गिरते स्मृति की अंतहीन खाई में/ लौट आता हूँ
फिर-फिर रहने को इसी चहल-पहल भरी दुनिया में/ अगोरता/ किसी कर्मशील किसान सा
उसके बाद भी बचे हुए/ जीवन के ये कई-कई
उर्वर दिन और रात
शिरीष खामोशी के कवि हैं. कविता में एक गहरा संयम और भाषा में मितव्यय बरतते हैं. लेकिन सूक्ति बोलकर अमर हो जाने वाले फेसबुकी टाइप फैशन से दूर रहते हैं. मितव्यय से तात्पर्य यहाँ बड़ी बात कहने से ज़्यादा बल, सही बात कहने में है. अक्सर ऐसा होता है कि कवि कहकर (अगर कविता में कहने की बात हो, तो!) नेपथ्य में चला जाता है. शिरीष अनुभव के बहुत करीब से बोलते हैं. अनुभव का उनका अपना अनुवाद है इसीलिये प्रमाणिक है. समारोहों से दूर, आयोजनों से परे, आलोचकों के गढ़ में स्वंय जाकर दस्तक देते नहीं दिखते. जिसने पिछले बीस-तीस सालों में फैले वर्तमान का नोटिस लिया है, समकाल का नोटिस लिया है, उथल-पुथल भरे जीवन का नोटिस लिया है, शिरीष की कविता का नोटिस ज़रूर लेगा जो बहुत खामोशी से कविता में प्रवेश करता है और मनुष्य बनकर बाहर आ जाता है.
मैं अपनी मजबूरी में दरअसल एक बेशर्म आदमी हूँ
आदमी की जगह कवि कहता
पर कवि कहना शर्म के चलते अब छोड़ दिया है
काफलट्री की तरफ से कवि शिरीष कुमार मौर्य एवं अन्य सभी सम्मानितों को बधाई.
अमित श्रीवास्तव
उत्तराखण्ड के पुलिस महकमे में काम करने वाले वाले अमित श्रीवास्तव फिलहाल हल्द्वानी में पुलिस अधीक्षक के पद पर तैनात हैं. 6 जुलाई 1978 को जौनपुर में जन्मे अमित के गद्य की शैली की रवानगी बेहद आधुनिक और प्रयोगधर्मी है. उनकी दो किताबें प्रकाशित हैं – बाहर मैं … मैं अन्दर (कविता) और पहला दखल (संस्मरण).
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1 Comments
Shrikant Dubey
गिरीश तिवाड़ी गिर्दा जनगीत सम्मान के बहाने शिरीष जी की रचनात्मकता की प्रासंगिकता पर इस सारगर्भित टिप्पणी के लिए अमित जी का धन्यवाद। और पुरस्कृत कवि को ढेरों बधाइयां।
श्रीकान्त।