ट्रेलर देखने के बाद से ही फिल्म का इंतजार शुरु था. इस फिल्म के बारे में पढ़ने से पहले यह जान लें कि लेख में पर्यावरण एवं वन्यजीव संरक्षण से संबंधित कुछ तकनीकी शब्दों का प्रयोग किया गया है. इस क्षेत्र से जुड़े लोग इन सब का ठीक-ठीक मतलब जानते हैं पर इसका मतलब यह कतई नहीं कि फिल्म देखने के दौरान दर्शक इन विषयों को नहीं समझ पायेगा. एक समान्य सी समझ ही काफी है ‘शेरनी’ फिल्म की कहानी से साथ बने रहने के लिए.
(Sherni Movie Review)
फिल्म की कहानी का ओपनिंग शॉट ही दिल जीत ले जाता है. फिल्म बाघ की मॉनिटरिंग को लगाए जा रहे कैमरा ट्रैप के सामने एक फॉरेस्ट गार्ड के बाघ की तरह चलने से शुरु होती है. इस मॉक टेस्ट के हो जाने के बाद, एक अन्य फॉरेस्ट गार्ड जानवर की तरह न चलकर कैमरे के सामने सीधे खड़े होकर चलने लगता है. जब पूछा जाता है, ये क्या है? तो जवाब आता है – अरे, ये मैं भालू सर.
फॉरेस्ट गार्ड की बेवकूफाना हरकत पर हंसी तो छूटती है पर हाँ, असल में फील्ड में ऐसा होता है. बार्किंग डियर की कॉल से बाघ की उपस्थिति को भाँपना, बाघ के पद चिन्हों को देखकर नर या मादा होने का पता लगाना, तेंदुए और बाघ के मल में फर्क से जुड़ी बहस हो या फिर फोटो देख सही जानवर को पहचानने की मशक्कत. ऐसी ही अनेक छोटी-छोटी फील्ड और वन्य जीव संरक्षण से जुड़ी बारीकियों को यह फिल्म बहुत सफाई से पेश करती है. आम दर्शक के विपरीत इस क्षेत्र में काम करने वाले लोग, उन परिस्थितियों को देख शायद हंस पड़ेंगे और ये फिल्म हर बार उन्हें अपने फील्ड/शोध कार्य के दिनों में बरबस ही खींच ले लाएगी. शायद, कई को तो ये भी लगने लगे – अरे, कल कैमरा ट्रैप लगाने के लिए सुबह जल्दी उठना है.
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वन विभाग में व्याप्त अफसरशाही, ट्रांसफर, एक पुराने और जर्जर हो चुके सरकारी सिस्टम में नई चीजें करने की कोशिशें, संसाधनों पर राजनीति और उद्योगों/खनन का प्रभाव इन महत्वपूर्ण बिंदुओं के जरिये एक तर्क को गड़ते हुये ये फिल्म मानव एवं वन्यजीव संघर्ष, ग्रीन कॉरिडोर, हैबिटेट फ्रेगमेंटेशन जैसे अति महत्वपूर्ण और पर्यावरण संरक्षण की दृष्टि से संवेदनशील और शोध परक विषयों की कहानी है. जो कि कम से कम एक आम दर्शक और भारतीय सिनेमा के लिए एक नए सिलेबस जैसा तो है ही. इस क्षेत्र में काम करने वालों से इतर हर उस व्यक्ति को इन विषयों के बारे में जानना चाहिए जिसे अपने संसाधनों, वन्यजीवन, इससे जुड़े अपने अस्तित्व और भविष्य की चिंता है. इन मुद्दों के अलावा यह फिल्म कार्य क्षेत्र में महिलाओं के सामने आने वाली चुनौतियों और महिला अधिकारियों को लेकर उनके साथी, जूनियर, सीनियर, समाज और उनके अपने परिवार के नजरिये को भी ठीक-ठाक ढंग से रेखांकित भी करती है.
फिल्म में दिखाएं गई कुछ बारीकियों पर बात करे बिना इसकी समीक्षा अधूरी है. क्या एक कीट विज्ञानी बाघ और उससे जुड़े पर्यावास को बचाने की बात कर सकता है? क्या वन्यजीवन को बचाने के लिए बस विशेषज्ञों की ही जरूरत है या फिर उन लोगों की भी, जो मुद्दों का व्यवहारिक पक्ष समझते हो और जिनमें इस लड़ाई को लड़ने का जज्बा कूट कूट के भरा हो. एक कीड़े से लेकर बाघ तक के संबंध को दिखाने की कोशिश हो या फिर उसी कीट विज्ञानी के घर की दीवार पर किसी कीट विशेषज्ञ की फोटो न होकर मोथ (रात मे निकलने वाले तितली जैसे कीट) के चित्र के ठीक ऊपर धुंधली से दिख रही पक्षी विशेषज्ञ सलीम अली की फोटो का होना, यह फिल्म बार-बार पर्यावरण संरक्षण संबंधी उस हॉलिस्टिक अप्रोच की बात करती है जिसे हम भूल चुके हैं.
संरक्षण के नाम पर वन्यजीवों को दोषी ठहरा हत्या करने पर अमादा रहने वाले तथाकथित कंजर्वेशनिस्ट शिकारियों द्वारा पैदा की गई विषम परिस्थितियों के साथ होने वाले संघर्ष को समझाने की एक अच्छी कोशिश इस फिल्म में दिखती है. साथ ही साथ मानव बस्तियों के समीप वन्यजीव संघर्ष के दौरान अनियंत्रित हो जाने वाली भीड़, बाघ संरक्षण के नाम पर स्थानीय आदिवासियों से उनके संसाधनो से वंचित करने की साजिशें, वन क्षेत्र को बढ़ता दिखाने के लिए बेसिर-पैर का वृक्षारोपण, लोगों को संरक्षण के लिए की जारी कोशिशों के लिए कम्यूनिटी मोबिलाईजेसन का काम – फिल्म के ये सभी पहलू इसे रोचक और जानकारीपरक बनाते हैं.
डायरेक्टर और रिसर्च टीम ने गजब का काम किया है. डायरेक्टर के हाथ की कठपुतलियां- इसकी कास्ट, इनका चुनाव बेहद सटीक है. लेकिन डायरेक्टर अमित मसुर्कर ने कैसे इतनी बारीकी भरा काम, उनकी सहज से दिखनी वाली एक्टिंग के जरिये निकलवाया होगा, यह सचमुच में सोचने पर विवश करता है. सेंट्रल इंडिया की खूबसूरत लोकेशन और वन्यजीव अभ्यारण होने के बावजूद ड्रोन शॉट उतने ही हैं, जितने की जरूरी. मुख्य कलाकारों के अलावा गांव के लोग, फॉरेस्ट स्टाफ आदि शायद स्थानीय ही हैं और जो कि प्रॉफेश्नल एक्टर भी नहीं, इन सभी का जंगल और परिस्थितियों को लेकर आने वाले सहज रिस्पांस, कहानी के हिस्सों को गोंद से चिपकाने का चमत्कारी काम करते महसूस होते है.
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एक आम दर्शक को कहानी सपाट और कहीं-कहीं पर धीमी होती सी लग सकती है, जिससे कुछ हद तक सहमत भी हुआ जा सकता है. भारत में वन्यजीव संरक्षण से जुड़ी कई ऐसी ढ़ेरों कहानियां हैं जो संघर्ष, रोमांच, सस्पेंस, इंस्पिरेशन और डेडीकेशन टिल डैथ से भरी पड़ी हैं- फिर चाहे वो आसाम में गैंडों को बचाने का संघर्ष रहा हो या फिर वन्यजीव तस्करी से जुड़े असंख्य किस्से. इन मुद्दों पर बनी दो फिल्में जरूर ही आपको देखनी चाहिए एक है- माउंटेन पेट्रोल और दूसरी गोरिल्ला इन द मिस्ट. सस्पेंस, रोमांच और कहानी का अंत एक बेहद सकरात्मक छोर पे न होने जैसे कारकों को छोड़ दें, तो यह कहानी बहुत महत्वपूर्ण मुद्दों पर बात तो करती है. जिसकी समझ और जरूरत भारत ही नहीं पूरे विश्व को भी है. कहानी के आखिर में बाघ के दो बच्चे देख पर्यावरण संरक्षण के क्षेत्र में धूमिल होती संभावनाओं के बीच, संघर्ष करते रहने और भविष्य के लिए कुछ बीज बचा लेने कि उम्मीद ये फिल्म दे जाती है.
कुछ 9 वर्षो पूर्व मैंने दुनिया कि सबसे बड़ी मछ्ली वह्ले शार्क पर काम किया था इसीलिए फिल्म में आखिरी शॉट में म्यूज़ियम में लटका शार्क का स्पेसीमेन, छोटी सी मुस्कान दे गया. एक आम दर्शक को कम से कम एक बार और इस फील्ड में काम कर चुके और कर रहे लोगों को तो फिल्म देखने के बाद इस फिल्म को प्रमोट करने की सलाह भी मैं दूंगा तांकि ऐसी फ़िल्में और बने और ये मुद्दे आम लोगों तक पहुँच पाये. वन विभाग से जुड़े लोगों को एक ही सलाह है- आपको अपनी जमीनी हकीकत पता तो है ही पर फिर भी ये पढ़ कर लगे कि देखनी चाहिए तो पूरे स्टाफ संग जरूर देखें. कम से कम उत्तराखंड जैसे राज्य में तो यह और भी जरुरी हो जाती है.
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पिथौरागढ़ के रहने वाले मनु डफाली पर्यावरण के क्षेत्र में काम कर रही संस्था हरेला सोसायटी के संस्थापक सदस्य हैं. वर्तमान में मनु फ्रीलान्स कंसलटेंट – कन्सेर्वेसन एंड लाइवलीहुड प्रोग्राम्स, स्पीकर कम मेंटर के रूप में विश्व की के विभिन्न पर्यावरण संस्थाओं से जुड़े हैं.
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