पहली बार नैनीताल के एक शरदोत्सव में हुए कुमाऊंनी कवि सम्मलेन में शेरदा को कविता पढ़ते सुना. कुमाऊं के उस बेजोड़ शोमैन का मैं तुरंत दीवाना हो गया था. बीस-तीस और कविगण भी मंच पर शोभायमान थे और जाहिर है सम्मेलन की शुरुआत में कुछ युवा कवियों की बारी थी. नैनीताल के फ्लैट्स पर मंच के सामने और ऊपर की सीढ़ियों और ऊपर रेलिंग तक पांच-आठ हजार लोग खचाखच भरे थे. पन्द्रह बीस मिनट बाद भीड़ बेकाबू होने लगी और कुछेक उत्साही युवाओं ने बाकायदा शेरदा, शेरदा… के नारे लगाने शुरू कर दिए. आखिरकार मंच संचालक को शेरदा को उनकी नियत बारी से पहले बुलाना पड़ा. अगले एक घंटे तक सिर्फ शेरदा थे, उनकी कविता थी और उनका विनम्र, निराला, खिलंदड़ीवाला अंदाज. भीड़ अब आनंद के समुद्र में गोते लगा रही थी और वाहवाही बटोरते शेरदा के चेहरे पर जरा भी दर्प नहीं था. शेरदा के जाते ही भीड़ छंटने लगी. कवि सम्मलेन की ऐसी-तैसी होता देख संचालक को कहना पड़ा कि शेरदा अभी एक बार और कविता पाठ करेंगे. यह 1987-88 की बात है.
जल्द ही नैनीताल में यह सिलसिला हफ्ते में कम से कम एक दफा चल निकला कि शहर की मशहूर हस्ती स्वर्गीय श्री शरद चन्द्र अवस्थी उर्फ़ अवस्थी मास्साब और शेरदा के साथ-साथ मूंगफली टूंगते हुए मैं ठंडी सड़क पर इन दो बुजुर्गों के सान्निध्य में लाइब्रेरी तक टहला करता और जीवन के पाठ सीखता. मास्साब की स्मृति उन दिनों काफी चंचल हो चली थी. वे कोई पुराना किस्सा छेड़ते, उसे अधूरा छोड़ कोई दूसरा फिर तीसरा और अचानक ठठाकर हंसने लगते. शेरदा भी वैसे ही हंसते फिर अचानक ठहर कर मास्साब से पूछते – “यौ तो भल भय मास्साब पै ऊ आगहालण डाक्टर आदु रात अस्पताल किलै गो…” (ये तो ठीक हुआ मास्साब पर उस नासपीटे डाक्टर को आधी रात अस्पताल जाने की क्या पड़ी थी …) मास्साब उस से भी जोर का ठहाका लगाते और कहते – “अरे यार शेरदा डाक्टर वाल किस्स तो पैलिके खतम है गो छी, मिं तो जमनसिंह वाली बातम हंसण लाग रै छी…” (… डाक्टर वाला किस्सा तो पहले ही खत्म हो गया था, मैं तो जमनसिंह वाली बात पर हंस रहा था …). “अरे मास्साब … यौ भल कै तुमूल … भौत्ते बड़ी …”
दरअसल होता यह था कि शेरदा किसी कविता की थीम ढूंढ रहे होते थे जबकि मास्साब अपनी याददाश्त पर काबू करने से लाचार थे और मैं इस महान भ्रमण कार्यक्रम को खासे गौर और दिलचस्पी से देखता और उसमें भागीदार बनता प्रमुदित हुआ करता.
एक दफा मैं जाड़ों में नया बाजार वाले अपने घर में धूप के मजे लेता हुआ चिली के महाकवि पाब्लो नेरुदा की कविताएं पढ़ रहा था कि कहीं से शेरदा आ गए. मैं उनके लिए चाय बनाने भीतर गया. बाहर आया तो देखा कि शेरदा नेरूदा की किताब उलट पुलट रहे थे. “ये कौन सा कवि हुआ पांडेज्यू?” “नेरूदा” – मैंने उन्हें नाम बताया तो वे बड़ी मासूमियत से बोले – “पहाड़ी हुआ ये भी?” मैं जवाब सोच ही रहा था कि वे अपने सवाल को विस्तार देते हुए कहने लगे – “मतलब जैसे गिर्दा हुआ शेरदा हुआ वैसे ही नेरूदा …” मैंने अचकचाते हुए उन्हें नेरूदा के बारे में बताया. वे अपनी चिरपरिचित शैली में बोले – “अच्छा … भल भै … भौत्ते बड़ी …” उन्होंने नेरूदा की एक कविता अनुवाद कर सुनाने को कहा तो बहुत छांटकर मैंने उन्हें एक अपेक्षाकृत कम जटिल कविता ‘ओड टू टोमैटोज़’ सुनाई और उनकी प्रतिक्रिया का इंतजार करने लगा. वे कुछ हकबकाए से बोले – “मेरी समझ में तो कुछ नहीं आया पांडेज्यू. पर आप कह रहे हो तो बड़ा ही कवि होगा.”
बच्चों जैसी उनकी यही निश्छलता उनके रचनाकर्म में भी दिखाई पड़ती है. कुमाऊंनी बोली को इतने प्रेम से साधने वाला ऐसा रचनाकार मुझे तो कोई नहीं दिखता. लगता था जैसे भाषा खुद चलकर उनके पास आती थी. घरों में बोली जाने वाली कुमाऊंनी के इतने मीठे मीठे शब्दों को वे बड़ी सहजता से कविता में ढाल लेते थे और यकीन मानिए यह काम बेहद मुश्किल होता है. कुमाऊँ के गाँवों का जनजीवन, उसके लोग, तीज-त्यौहार और सबसे ऊपर मानव जीवन की विराटता उनके विषद रचनाकर्म के मूल में रहे. कई बार उन्हें केवल हंसाने वाला कवि मान लिया जाता रहा है पर शेरदा की कविता में गहरा जीवनदर्शन है. मिसाल के तौर पर उनकी एक मशहूर कृति ‘बुड़ी अकावौ प्रेम’ जो एक सपाट प्रेमकविता नजर आती है दरअसल गहरे सांकेतिक अर्थ लिए हुए है जिसमें आयु, जीवन, प्रेम और मृत्यु की सनातन थीम्स गुंथी पड़ी हैं. जिस किसी ने दागिस्तान के महान लेखक रसूल हमजातोव की किताब ‘मेरा दागिस्तान’ पढ़ी है वे बेहिचक शेरदा को कुमाऊं का रसूल हमजातोव कहना पसंद करेंगे. यह बात अलबत्ता अलहदा है कि शेरदा अपनी जगह पर बने रहेंगे – अद्वितीय.
एक बेहतरीन गृहस्थ के तौर पर उन्होंने अपने सारे धर्मों को निभाया. उनके अवसान से कोई दो-एक माह पहले उनके घर पर हुई उनसे एक मुलाकात के दौरान मुझे उनके वात्सल्य का जो रूप दिखा उसे भुलाया नहीं जा सकता. पत्नी, पुत्रवधू और पोते के साथ उनका व्यवहार पूरी तरह आदर्श और अनुकरणीय था. खासतौर पर अपनी जीवनसंगिनी के साथ उनकी चुहलभरी मोहिल बातचीत नव विवाहितों तक को मुग्ध कर देने को काफी थी.
अपनी रचनाओं को लेकर भी उनके भीतर अभिमान नहीं, प्रेम था. वे बेझिझक अपनी रचनाएं सुनाया करते थे और ऐसा करते समय वे बिना किसी लाग-लपेट के सिर्फ और सिर्फ एक कवि होते थे. उनके जाने के साथ ही एक पूरे युग का अवसान हो गया. आप यह तो कर ही सकते हैं कि शेरदा की किताबें-कवितायें खोजबीन कर पढ़ें, अपने बच्चों को उनसे परिचित कराएं और एक मीठी बोली को लुप्त होने से बचाने का जतन करें जिसे बोलने में अब लोग शर्म महसूस करते हैं.
-अशोक पांडे
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