जब से मैंने शेरदा की किताब ‘मेरि लटि पटि’ अपनी यूनिवर्सिटी में एमए की पाठ्यपुस्तक निर्धारित की, एकाएक पढ़े-लिखे सभ्य लोगों की दुनिया में मानो भूचाल आ गया. यह बात किसी की भी समझ में नहीं आई की एक अनपढ़ को पढ़े-लिखे लोगों की जमात का हिस्सा कैसे बनाया जा सकता है. पहले तो यही बात विश्वास करने लायक नहीं थी कि एमए में किसी कुमाऊनी कवि को पढ़ाया जाना चाहिए; भाषा या बोली का सैद्धांतिक विवेचन तक तो ठीक, ‘ये कुछ ज्यादा ही नहीं हो गया बटरोही जी?’ ऐसे सवाल मेरे सामने पेश किये जाने लगे. कुछ दिनों बाद, जब शेरदा के साहित्य पर पीएच.डी. और लघुशोध के लिए प्रबंध लिखे जाने लगे, जैसा कि होना ही था, विद्वानों के द्वारा दूसरी भोली जिज्ञासा प्रस्तुत की जाने लगी, ‘डॉ. साब, इतना तो आप खुद ही कर सकते हैं कि ये ‘अनपढ़’ उपनाम हटा दें… जो लेखक बच्चों को एमए, पीएच.डी. की डिग्री दे रहा है, उसे आप ‘अनपढ़’ कह रहे हैं, यह बात कैसे समझ में आ सकती है! अनपढ़ आदमी पढ़े-लिखों को कैसे पढ़ा सकता है? Sherda Remembered by Batrohi
धीरे-धीरे लोगों की समझ में यह बात आ ही गई कि शेरदा का यह उपनाम मैंने नहीं, उन्होंने खुद ही रखा था. शायद इसके पीछे यह कारण रहा हो कि विश्वविद्यालय के युवा विद्यार्थियों के बीच उनके विद्वान प्रोफेसरों की उपस्थिति के बगैर चर्चाएँ होने लगीं, अनौपचारिक गोष्ठियां आयोजित की जाने लगीं और विद्यार्थी खुद ही ग्रामीणों के पास जाकर ग्रामीण-कुमाउनी शब्दावली का संकलन करने लगे. उच्च शिक्षा के इतिहास में शायद पहली बार ऐसा हो रहा था जब छात्र-छात्राओं को औपचारिक शिक्षक की जरूरत नहीं रह गई थी. लोगों की समझ में माज़रा नहीं आ रहा था, फिर भी वे भौंचक एक-दूसरे की ओर ताक रहे थे. इतना तो शोध की गंभीर दुनिया के अन्दर कैद जेआर ऐफों, एसआर ऐफों को भी महसूस होने लगा था कि यार, शेरदा के कोर्स में आने के बाद हमारा संपर्क अपनी भूली-बिसरी भाषा और संस्कृति के साथ हो गया है. पढ़ाने का असली मज़ा तो अब ही आ रहा है!.. कई बार लगता है, हमारा विद्यार्थी प्रोफ़ेसर बन गया है और हम उसके छात्र. Sherda Remembered by Batrohi
शेरदा की कहानी आगे बढ़ाने से पहले मैं अपने विदेशी विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग का किस्सा सुना दूं, जो काफी-कुछ उनसे ही मिलता है.
1997 में मुझे हिंदी सिखाने और पढ़ाने के लिए भारत के विदेश मंत्रालय द्वारा हंगरी की राजधानी बुदापैश्त भेजा गया था. पूर्व सोवियत संघ के देशों में उन दिनों एमए का कोर्स चार सालों का होता था, जिनमें से दो वर्ष छात्र अपनी भाषा में हिंदी सीखते थे, अगले दो वर्ष हिंदी माध्यम से ही हिंदी पढ़ते थे. हिंदी के पाठ्यक्रम का चयन छात्र और अध्यापक मिलकर करते थे. पहली ही कक्षा में मैंने विद्यार्थियों से पूछा कि वे लोग पहले सेमेस्टर में साहित्य की कौन-सी विधा या किताब पढ़ना चाहते हैं? छात्रों ने कहा कि उन्होंने कबीर और अज्ञेय का नाम सुना है, क्या मैं उन्हें इनके बारे में कुछ जानकारी दे सकता हूँ! इसके साथ ही उन्होंने आग्रह किया कि मैं अपनी क्लास लेने से पहले उन्हें अपने क्षेत्र में बोली जाने वाली भाषा का एक नमूना पेश करूँ.
मेरे लिए यह सुखद संयोग था कि मैं नैनीताल से अपने साथ नैन नाथ रावल के गाए हुए कुमाउनी गीत का केसेट ले गया था. गीत में नैननाथ ने अपनी मधुर आवाज में उच्च हिमालयी क्षेत्र की प्रकृति का बड़ा मार्मिक चित्र प्रस्तुत किया है : “ओ हिमुली, ह्यों पड़ो हिमाला डाणा, ठंडो लागल क्ये; वारा चाँछै, पारा चाँछै दिल लागोलो क्ये?”
मैंने हिंदी में उन्हें गीत का अर्थ बताया, हालाँकि उन्होंने कहा कि अर्थ जाने बगैर ही वे मेरे क्षेत्र के बारे में जान गए थे. ‘आपका गाँव क्या स्केंडिनेविया की तरह का है?’ एक छात्र हिदश गैर्गेय ने जिज्ञासा व्यक्त की.
पहले साल के छात्र चाबा किश ने, जो अभी तक बड़ी मुश्किल से अपनी जिज्ञासा दबाये हुए था, तेजी से बोला, ‘मैं बीते साल ही अपने पिताजी के साथ फ़िनलैंड के पहाड़ी इलाके में गया था. मुझे लगता है, आपका गाँव ठीक ऐसा ही होगा.’ Sherda Remembered by Batrohi
उन दिनों मैं दैनिक ‘अमर उजाला’ में अपने संस्मरण लिख रहा था. नैनीताल और भारत के अनेक पाठक मुझे अपनी प्रतिक्रिया भेजते थे. नैनीताल के एक प्रगतिशील पाठक ने नाराजी-भरे स्वर में लिखा, ‘क्या आपको कुमाऊँ का प्रतिनिधित्व करने वाला यही बाजारू गीत मिला था?’ बुदापैश्त से मैं उसे क्या उत्तर देता? अलबत्ता भारत लौटने के बाद मैंने देखा, नैन नाथ रावल उत्तराखंड के एक लोकप्रिय और शालीन गीतकार के रूप में स्थापित हो चुके थे. बाद में गीता गैरोला और मैंने कौसानी और देहरादून में भारतीय लोक-भाषाओं के कवियों पर आधारित एक बड़ा सेमिनार आयोजित किया था, जिसमें कुमाउनी का प्रतिनिधित्व अनेक भारतीय लोक कवियों के अतिरिक्त विशेष रूप से नैननाथ रावल, शेरदा ‘अनपढ़’ और हीरा सिंह राणा ने किया था.
शेरदा के साथ सबसे रोचक वाक़या घटित हुआ 26 अप्रैल, 1996 को. अवसर था महादेवी साहित्य संग्रहालय के उद्घाटन का. पूरे भारत के मीडिया ने इस समारोह की चर्चा की थी. देश भर से प्रख्यात रचनाकार रामगढ़ में एकत्र हुए थे. हमारे समय के शीर्षस्थ कथाकार निर्मल वर्मा और कवि अशोक वाजपेयी ने महादेवी जी के घर ‘मीरा कुटीर’ का संग्रहालय के रूप में विधिवत उद्घाटन किया था. मेरे विद्यार्थी जीवन के सहपाठी तत्कालीन कुमाऊँ कमिश्नर रघुनन्दन सिंह टोलिया की पत्नी मंजुला जी ने महादेवी वर्मा की मूर्ति का अनावरण किया था. संभवतः कुमाऊँ में इतने बड़े रचनाकारों का यह पहला जीवंत समागम था. दूसरे दिन रचनाकारों का रचनापाठ था, जिसमें श्रोताओं के विशेष आग्रह पर शेरदा को आमंत्रित किया गया था. अशोक वाजपेयी जी अध्यक्षता कर रहे थे और महादेवी जी की बैठक में बड़ी संख्या में बैठे लोग खुद को भारत की महान कवयित्री के बीच महसूस करते हुए धन्य अनुभव कर रहे थे. Sherda Remembered by Batrohi
कार्यक्रम का सञ्चालन मैं ही कर रहा था, स्वाभाविक था कि मैं इस बात का उल्लेख करने का मोह संवरण नहीं कर पाया था कि शेरदा कुमाउनी के एकमात्र रचनाकार हैं, जिनमें हिंदी कविता की उपलब्धियों को उन्हीं कलात्मक ऊंचाइयों के साथ देखा जा सकता है जहाँ आज हिंदी कविता खड़ी है.
शेरदा ने उस दिन अपनी मशहूर रहस्यवादी कविता ‘को छै तू’ पूरे मनोयोग से पढ़ी थी और वह श्रोताओं के द्वारा ताली बजाये जाने पर उत्साह के साथ अध्यक्ष अशोक वाजपेयी से हाथ मिलाते जा रहे थे. मैं शेरदा को हाथ मिलाने से रोक रहा था, इसलिए कि जीवन के शाश्वत सत्य को उजागर करने वाली इस गंभीर अभिव्यक्ति पर हँसना नहीं चाहिये, मगर शेरदा के उत्साह में कोई कमी नहीं आई. अशोक वाजपेयी जी बार-बार कह रहे थे, उनकी समझ में उनकी सभी कविताएँ बिना अनुवाद के ही आ गई थीं. उन्हें अनुवाद बताने की जरूरत नहीं है, फिर भी शेरदा हिंदी अनुवाद के साथ उनसे हाथ मिलाये जा रहे थे.
गोष्ठी के बाद मैंने शेरदा से कहा कि आप कभी-कभी अपनी गंभीर कविताओं को हास्य कविता की तरह पढ़कर हाथ क्यों मिला रहे थे, उन्होंने उसी सदाशयता के साथ कहा, ‘बटरोहीज्यू, यतु महान साहित्यकारक सामणि कविता पड़नक मौक मिलनौछी, मैं ले इतरै गईं,’ और उसी जोश में मेरे साथ भी हाथ मिलाने लग गए. किसी भी व्यक्ति को लेकर जब चाहे तारीफों के पुल बाँधे जा सकते हैं और आप चाहें तो उसकी आलोचना में बेहिसाब तर्क भी जुटाए जा सकते हैं. इसका कारण यह है कि इस संसार में न कोई व्यक्ति सम्पूर्ण होता है, न अधूरा; न पूरी तरह अच्छा होता, न बुरा. इन्हीं दो परस्पर विरोधी गुण-अवगुणों का मिश्रण ही तो है आदमी. शेरदा भी उन्हीं में से एक थे. फिर भी यह कहे बिना नहीं रहा जाता कि वह अच्छे ज्यादा थे, बुरे कम. ऐसे लोग दुनिया में ज्यादा हो जाएँ तो सरकारों को इतने दिनों तक लॉक डाउन करने की जरूरत ही न पड़े. Sherda Remembered by Batrohi
-बटरोही
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नोट: आज शेरदा ‘अनपढ़’ की पुण्यतिथि है. शेरदा को याद करते हुए उनके सुपुत्र आनंद और पुत्रवधू शर्मिष्ठा ने एक वीडियो भी तैयार किया है:
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लक्ष्मण सिह बिष्ट ‘बटरोही‘ हिन्दी के जाने-माने उपन्यासकार-कहानीकार हैं. कुमाऊँ विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग के अध्यक्ष रह चुके बटरोही रामगढ़ स्थित महादेवी वर्मा सृजन पीठ के संस्थापक और भूतपूर्व निदेशक हैं. उनकी मुख्य कृतियों में ‘थोकदार किसी की नहीं सुनता’ ‘सड़क का भूगोल, ‘अनाथ मुहल्ले के ठुल दा’ और ‘महर ठाकुरों का गांव’ शामिल हैं. काफल ट्री के लिए नियमित लेखन.
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