शेखर जोशी का जन्म 10 सितंबर 1932 को उत्तराखंड के अल्मोड़ा जिले के ओलिया गांव में जन्म हुआ. अनेक सम्मानों से नवाजे जा चुके हिन्दी के शीर्षस्थ कहानीकारों में गिने जाने वाले शेखर जोशी के अनेक कहानी संग्रह प्रकाशित हैं. उनका पहला संग्रह था ‘कोसी का घटवार’ जो 1958 में छप कर आया था. इसी शीर्षक की उनकी कहानी ने उन्हें राष्ट्रीय स्तर पर ख्याति दिलाई. ‘कोसी का घटवार’ अपने प्रकाशन के करीब साठ साल बाद भी पाठक के मर्म में सीधे उतरती है. ठेठ पहाड़ी परिवेश में बुनी गयी दो पात्रों – लछिमा और गुसाईं – की यह कहानी अब एक क्लासिक का दर्ज़ा रखती है. प्रेम के विषय को लेकर को लेकर लिखी गयी कहानियों में इसे खासा महत्वपूर्ण माना जाता है और चंद्रधर शर्मा ‘गुलेरी’ की ‘उसने कहा था’ के समकक्ष रखा जाता है. 4 अक्टूबर 2022 को पहाड़ के इस कथाकार का निधन हो गया. पढ़िये पहाड़ की क्लासिक प्रेमकथा : कोसी का घटवार
(Shekhar Joshi Kosi ka Ghatwar)
अभी खप्पर में एक-चौथाई से भी अधिक गेहूं शेष था. खप्पर में हाथ डालकर उसने व्यर्थ ही उलटा-पलटा और चक्की के पाटों के वृत्त में फैले हुए आटे को झाड़कर एक ढेर बना दिया. बाहर आते-आते उसने फिर एक बार और खप्पर में झांककर देखा, जैसे यह जानने के लिए कि इतनी देर में कितनी पिसाई हो चुकी हैं, परंतु अंदर की मिकदार में कोई विशेष अंतर नहीं आया था. खस्स-खस्स की ध्वनि के साथ अत्यंत धीमी गति से ऊपर का पाट चल रहा था. घट का प्रवेशद्वार बहुत कम ऊंचा था, खूब नीचे तक झुककर वह बाहर निकला. सर के बालों और बांहों पर आटे की एक हलकी सफेद पर्त बैठ गई थी.
खंभे का सहारा लेकर वह बुदबुदाया, ”जा, स्साला! सुबह से अब तक दस पंसेरी भी नहीं हुआ. सूरज कहां का कहां चला गया है. कैसी अनहोनी बात!”
बात अनहोनी तो है ही. जेठ बीत रहा है. आकाश में कहीं बादलों का नाम-निशान ही नहीं. अन्य वर्षों अब तक लोगों की धान-रोपाई पूरी हो जाती थी, पर इस साल नदी-नाले सब सूखे पड़े हैं. खेतों की सिंचाईं तो दरकिनार, बीज की क्यारियां सूखी जा रही हैं. छोटे नाले-गूलों के किनारे के घट महीनों से बंद हैं. कोसी के किनारे हैं गुसाईं का यह घट. पर इसकी भी चाल ऐसी कि लद्दू घोड़े की चाल को मात देती हैं.
चक्की के निचले खंड में छिच्छर-छिच्छर की आवाज के साथ पानी को काटती हुई मथानी चल रही थी. कितनी धीमी आवाज! अच्छे खाते-पीते ग्वालों के घर में दही की मथानी इससे ज्यादा शोर करती है. इसी मथानी का वह शोर होता था कि आदमी को अपनी बात नहीं सुनाई देती और अब तो भले नदी पार कोई बोले, तो बात यहां सुनाई दे जाय.
(Shekhar Joshi Kosi ka Ghatwar)
छप्प ..छप्प ..छप्प ..पुरानी फौजी पैंट को घुटनों तक मोड़क़र गुसाईं पानी की गूल के अंदर चलने लगा. कहीं कोई सूराख-निकास हो, तो बंद कर दे. एक बूंद पानी भी बाहर न जाए. बूंद-बूंद की कीमत है इन दिनों. प्रायः आधा फलांग चलकर वह बांध पर पहुंचा. नदी की पूरी चौडाई को घेरकर पानी का बहाव घट की गूल की ओर मोड़ दिया गया था. किनारे की मिट्टी-घास लेकर उसने बांध में एक-दो स्थान पर निकास बंद किया और फिर गूल के किनारे-किनारे चलकर घट पर आ गया.
अंदर जाकर उसने फिर पाटों के वृत्त में फैले हुए आटे को बुहारकर ढेरी में मिला दिया. खप्पर में अभी थोडा-बहुत गेहूं शेष था. वह उठकर बाहर आया.
दूर रास्ते पर एक आदमी सर पर पिसान रखे उसकी ओर जा रहा था. गुसाईं ने उसकी सुविधा का ख्याल कर वहीं से आवाज दे दी, ”हैं हो! यहां लंबर देर में आएगा. दो दिन का पिसान अभी जमा है. ऊपर उमेदसिंह के घट में देख लो.”
उस व्यक्ति ने मुड़ने से पहले एक बार और प्रयत्न किया. खूब ऊंचे स्वर में पुकारकर वह बोला,”जरूरी है, जी! पहले हमारा लंबर नहीं लगा दोगे?”
गुसाईं होंठों-ही-होठों में मुस्कराया, स्साला कैसे चीखता है, जैसे घट की आवाज इतनी हो कि मैं सुन न सकूं! कुछ कम ऊंची आवाज में उसने हाथ हिलाकर उत्तर दे दिया, ”यहां जरूरी का भी बाप रखा है, जी! तुम ऊपर चले जाओ!”
वह आदमी लौट गया.
मिहल की छांव में बैठकर गुसाईं ने लकडी क़े जलते कुंदे को खोदकर चिलम सुलगाई और गुड़-गुड़ करता धुआं उड़ाता रहा
खस्सर-खस्सर चक्की का पाट चल रहा था.
किट-किट-किट-किट खप्पर से दाने गिरानेवाली चिडिया पाट पर टकरा रही थी.
छिच्छर-छिच्छर की आवाज क़े साथ मथानी पानी को काट रही थी. और कहीं कोई आवाज नहीं. कोसी के बहाव में भी कोई ध्वनि नहीं. रेती-पाथरों के बीच में टखने-टखने पत्थर भी अपना सर उठाए आकाश को निहार रहे थे. दोपहरी ढलने पर भी इतनी तेज धूप! कहीं चिरैया भी नहीं बोलती. किसी प्राणी का प्रिय-अप्रिय स्वर नहीं.
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सूखी नदी के किनारे बैठा गुसाईं सोचने लगा, क्यों उस व्यक्ति को लौटा दिया? लौट तो वह जाता ही, घट के अंदर टच्च पडे पिसान के थैलों को देखकर. दो-चार क्षण की बातचीत का आसरा ही होता.
कभी-कभी गुसाईं को यह अकेलापन काटने लगता है. सूखी नदी के किनारे का यह अकेलापन नहीं, जिंदगी-भर साथ देने के लिए जो अकेलापन उसके द्वार पर धरना देकर बैठ गया है, वही. जिसे अपना कह सके, ऐसे किसी प्राणी का स्वर उसके लिए नहीं. पालतू कुत्ते-बिल्ली का स्वर भी नहीं. क्या ठिकाना ऐसे मालिक का, जिसका घर-द्वार नहीं, बीबी-बच्चे नहीं, खाने-पीने का ठिकाना नहीं.
घुटनों तक उठी हुई पुरानी फौजी पैंट के मोड़ को गुसाईं ने खोला. गूल में चलते हुए थोडा भाग भीग गया था. पर इस गर्मी में उसे भीगी पैंट की यह शीतलता अच्छी लगी. पैंट की सलवटों को ठीक करते-करते गुसाईं ने हुक्के की नली से मुंह हटाया. उसके होठों में बांएं कोने पर हलकी-सी मुस्कान उभर आई. बीती बातों की याद गुसाईं सोचने लगा, इसी पैंट की बदौलत यह अकेलापन उसे मिला है ..नहीं, याद करने को मन नहीं करता. पुरानी, बहुत पुरानी बातें वह भूल गया है, पर हवालदार साहब की पैंट की बात उसे नहीं भूलती.
ऐसी ही फौजी पैंट पहनकर हवालदार धरमसिंह आया था, लॉन्ड्री की धुली, नोकदार, क्रीजवाली पैंट! वैसी ही पैंट पहनने की महत्वाकांक्षा लेकर गुसाईं फौज में गया था. पर फौज से लौटा, तो पैंट के साथ-साथ जिंदगी का अकेलापन भी उसके साथ आ गया.
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पैंट के साथ और भी कितनी स्मृतियां सम्बद्ध हैं. उस बार की छुट्टियों की बात ..
कौन महीना? हां, बैसाख ही था. सर पर क्रास खुखरी के क्रेस्ट वाली, काली, किश्तीनुमा टोपी को तिरछा रखकर, फौजी वर्दी वह पहली बार एनुअल-लीव पर घर आया, तो चीड़ वन की आग की तरह खबर इधर-उधर फैल गई थी. बच्चे-बूढे, सभी उससे मिलने आए थे. चाचा का गोठ एकदम भर गया था, ठसाठस्स. बिस्तर की नई, एकदम साफ, जगमग, लाल-नीली धारियोंवाली दरी आंगन में बिछानी पड़ी थी लोगों को बिठाने के लिए. खूब याद है, आंगन का गोबर दरी में लग गया था. बच्चे-बूढे, सभी आए थे. सिर्फ चना-गुड़ या हल्द्वानी के तंबाकू का लोभ ही नहीं था, कल के शर्मीले गुसाईं को इस नए रूप में देखने का कौतूहल भी था. पर गुसाईं की आंखें उस भीड़ में जिसे खोज रही थीं, वह वहां नहीं थी.
नाला पार के अपने गांव से भैंस के कटया को खोजने के बहाने दूसरे दिन लछमा आई थी. पर गुसांई उस दिन उससे मिल न सका. गांव के छोकरे ही गुसाईं की जान को बवाल हो गए थे. बुढ्ढे नरसिंह प्रधान उन दिनों ठीक ही कहते थे, आजकल गुसाईं को देखकर सोबनियां का लडक़ा भी अपनी फटी घेर की टोपी को तिरछी पहनने लग गया है. दिन-रात बिल्ली के बच्चों की तरह छोकरे उसके पीछे लगे रहते थे, सिगरेट-बीड़ी या गपशप के लोभ में.
एक दिन बड़ी मुश्किल से मौका मिला था उसे. लछमा को पात-पतेल के लिए जंगल जाते देखकर वह छोकरों से काकड़ क़े शिकार का बहाना बनाकर अकेले जंगल को चल दिया था. गांव की सीमा से बहुत दूर, काफल के पेड़ क़े नीचे गुसाईं के घुटने पर सर रखकर, लेटी-लेटी लछमा काफल खा रही थी. पके, गदराए, गहरे लाल-लाल काफल. खेल-खेल में काफलों की छीना-झपटी करते गुसाईं ने लछमा की मुठ्ठी भींच दी थी. टप-टप काफलों का गाढा लाल रस उसकी पैंट पर गिर गया था. लछमा ने कहा था, ”इसे यहीं रख जाना, मेरी पूरी बांह की कुर्ती इसमें से निकल आएगी.”वह खिलखिलाकर अपनी बात पर स्वयं ही हंस दी थी.
पुरानी बात – क्या कहा था गुसाईं ने, याद नहीं पडता … तेरे लिए मखमल की कुर्ती ला दूंगा, मेरी सुवा! या कुछ ऐसा ही.
पर लछमा को मखमल की कुर्ती किसने पहनाई होगी – पहाड़ी पार के रमुवां ने, जो तुरी-निसाण लेकर उसे ब्याहने आया था?
”जिसके आगे-पीछे भाई-बहिन नहीं, माई-बाप नहीं, परदेश में बंदूक की नोक पर जान रखनेवाले को छोकरी कैसे दे दें हम?” लछमा के बाप ने कहा था.
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उसका मन जानने के लिए गुसाईं ने टेढे-तिरछे बात चलवाई थी.
उसी साल मंगसिर की एक ठंडी, उदास शाम को गुसाईं की यूनिट के सिपाही किसनसिंह ने क्वार्टर-मास्टर स्टोर के सामने खडे-ख़डे उससे कहा था, ”हमारे गांव के रामसिंह ने जिद की, तभी छुट्टियां बढानी पडीं. इस साल उसकी शादी थी. खूब अच्छी औरत मिली है, यार! शक्ल-सूरत भी खूब है,एकदम पटाखा! बड़ी हंसमुख है. तुमने तो देखा ही होगा, तुम्हारे गांव के नजदीक की ही है. लछमा-लछमा कुछ ऐसा ही नाम है.”
गुसांई को याद नहीं पडता, कौन-सा बहाना बनाकर वह किसनसिंह के पास से चला आया था, रम-डे थे उस दिन. हमेशा आधा पैग लेनेवाला गुसाईं उस दिन पेशी करवाई थी – मलेरिया प्रिकॉशन न करने के अपराध में. सोचते-सोचते गुसाईं बुदबुदाया, ”स्साल एडजुटेन्ट!”
गुसाईं सोचने लगा, उस साल छुट्टियों में घर से बिदा होने से एक दिन पहले वह मौका निकालकर लछमा से मिला था.
”गंगनाथज्यू की कसम, जैसा तुम कहोगे, मैं वैसा ही करूंगी!” आंखों में आंसू भरकर लछमा ने कहा था.
वर्षों से वह सोचता आया है, कभी लछमा से भेंट होगी, तो वह अवश्य कहेगा कि वह गंगनाथ का जागर लगाकर प्रायश्चित जरूर कर ले. देवी-देवताओं की झूठी कसमें खाकर उन्हें नाराज करने से क्या लाभ? जिस पर भी गंगनाथ का कोप हुआ, वह कभी फल-फूल नहीं पाया. पर लछमा से कब भेंट होगी, यह वह नहीं जानता. लडक़पन से संगी-साथी नौकरी-चाकरी के लिए मैदानों में चले गए हैं. गांव की ओर जाने का उसका मन नहीं होता. लछमा के बारे में किसी से पूछना उसे अच्छा नहीं लगता.
जितने दिन नौकरी रही, वह पलटकर अपने गांव नहीं आया. एक स्टेशन से दूसरे स्टेशन का वालंटियरी ट्रांसफर लेनेवालों की लिस्ट में नायक गुसांईसिंह का नाम ऊपर आता रहा – लगातार पंद्रह साल तक.
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पिछले बैसाख में ही वह गांव लौटा, पंद्रह साल बाद, रिजर्व में आने पर. काले बालों को लेकर गया था, खिचडी बाल लेकर लौटा. लछमा का हठ उसे अकेला बना गया.
आज इस अकेलेपन में कोई होता, जिसे गुसाईं अपनी जिंदगी की किताब पढक़र सुनाता! शब्द-शब्द, अक्षर-अक्षर कितना देखा, कितना सुना और कितना अनुभव किया है उसने ..
पर नदी किनारे यह तपती रेत, पनचक्की की खटर-पटर और मिहल की छाया में ठंडी चिलम को निष्प्रयोजन गुड़ग़ुडाता गुसाईं . और चारों ओर अन्य कोई नहीं. एकदम निर्जन, निस्तब्ध, सुनसान –
एकाएक गुसाईं का ध्यान टूटा.
सामने पहाड़ी क़े बीच की पगडंड़ी से सर पर बोझा लिए एक नारी आकृति उसी ओर चली आ रही थी. गुसाईं ने सोचा वहीं से आवाज देकर उसे लौटा दे. कोसी ने चिकने, काई लगे पत्थरों पर कठिनाई से चलकर उसे वहां तक आकर केवल निराश लौट जाने को क्यों वह बाध्य करे. दूर से चिल्ला-चिल्लाकर पिसान स्वीकार करवाने की लोगों की आदत से वह तंग आ चुका था. इस कारण आवाज देने को उसका मन नहीं हुआ. वह आकृति अब तक पगडंडी छोडक़र नदी के मार्ग में आ पहुंची थी.
चक्की की बदलती आवाज को पहचानकर गुसाईं घट के अंदर चला गया. खप्पर का अनाज समाप्त हो चुका था. खप्पर में एक कम अन्नवाले थैले को उलटकर उसने अन्न का निकास रोकने के लिए काठ की चिडियों को उलटा कर दिया. किट-किट का स्वर बंद हो गया. वह जल्दी-जल्दी आटे को थैले में भरने लगा. घट के अंदर मथानी की छिच्छर-छिच्छर की आवाज भी अपेक्षाकृत कम सुनाई दे रही थी. केवल चक्की ऊपरवाले पाट की घिसटती हुई घरघराहट का हल्का-धीमा संगीत चल रहा था. तभी गुसाईं ने सुना अपनी पीठ के पीछे, घट के द्वार पर, इस संगीत से भी मधुर एक नारी का कंठस्वर, ”कब बारी आएगी, जी? रात की रोटी के लिए भी घर में आटा नहीं है.”
सर पर पिसान रखे एक स्त्री उससे यह पूछ रही थी. गुसाईं को उसका स्वर परिचित-सा लगा. चौंककर उसने पीछे मुडक़र देखा. कपडे में पिसान ढीला बंधा होने के कारण बोझ का एक सिरा उसके मुख के आगे आ गया था. गुसाईं उसे ठीक से नहीं देख पाया, लेकिन तब भी उसका मन जैसे आशंकित हो उठा. अपनी शंका का समाधान करने के लिए वह बाहर आने को मुडा, लेकिन तभी फिर अंदर जाकर पिसान के थैलों को इधर-उधर रखने लगा. काठ की चिड़ियां किट-किट बोल रही थीं और उसी गति के साथ गुसाईं को अपने हृदय की धडक़न का आभास हो रहा था.
(Shekhar Joshi Kosi ka Ghatwar)
घट के छोटे कमरे में चारों ओर पिसे हुए अन्य का चूर्ण फैल रहा था, जो अब तक गुसाईं के पूरे शरीर पर छा गया था. इस कृत्रिम सफेदी के कारण वह वृध्द-सा दिखाई दे रहा था. स्त्री ने उसे नहीं पहचाना.
उसने दुबारा वे ही शब्द दुहराए. वह अब भी तेज धूप में बोझा सर पर रखे हुए गुसाईं का उत्तर पाने को आतुर थी. शायद नकारात्मक उत्तर मिलने पर वह उलटे पांव लौटकर किसी अन्य चक्की का सहारा लेती.
दूसरी बार के प्रश्न को गुसाईं न टाल पाया, उत्तर देना ही पड़ा, ”यहां पहले ही टीला लगा है, देर तो होगी ही.” उसने दबे-दबे स्वर में कह दिया.
(Shekhar Joshi Kosi ka Ghatwar)
स्त्री ने किसी प्रकार की अनुनय-विनय नहीं की. शाम के आटे का प्रबंध करने के लिए वह दूसरी चक्की का सहारा लेने को लौट पड़ी.
गुसाईं झुककर घट से बाहर निकला. मुडते समय स्त्री की एक झलक देखकर उसका संदेह विश्वास में बदल गया था. हताश-सा वह कुछ क्षणों तक उसे जाते हुए देखता रहा और फिर अपने हाथों तथा सिर पर गिरे हुए आटे को झाड़कर एक-दो कदम आगे बढा. उसके अंदर की किसी अज्ञात शक्ति ने जैसे उसे वापस जाती हुई उस स्त्री को बुलाने को बाध्य कर दिया. आवाज देकर उसे बुला लेने को उसने मुंह खोला, परंतु आवाज न दे सका. एक झिझक, एक असमर्थता थी, जो उसका मुंह बंद कर रही थी. वह स्त्री नदी तक पहुंच चुकी थी. गुसाईं के अंतर में तीव्र उथल-पुथल मच गई. इस बार आवेग इतना तीव्र था कि वह स्वयं को नहीं रोक पाया, लडख़डाती आवाज में उसने पुकारा, ”लछमा!”
घबराहट के कारण वह पूरे जोर से आवाज नहीं दे पाया था. स्त्री ने यह आवाज नहीं सुनी. इस बार गुसाईं ने स्वस्थ होकर पुनः पुकारा, ”लछमा!”
लछमा ने पीछे मुडक़र देखा. मायके में उसे सभी इसी नाम से पुकारते थे, यह संबोधन उसके लिए स्वाभाविक था. परंतु उसे शंका शायद यह थी कि चक्कीवाला एक बार पिसान स्वीकार न करने पर भी दुबारा उसे बुला रहा है या उसे केवल भ्रम हुआ है. उसने वहीं से पूछा, ”मुझे पुकार रहे हैं, जी?
गुसाईं ने संयत स्वर में कहा, ”हां, ले आ, हो जाएगा.”
लछमा क्षण-भर रूकी और फिर घट की ओर लौट आई.
अचानक साक्षात्कार होने का मौका न देने की इच्छा से गुसाईं व्यस्तता का प्रदर्शन करता हुआ मिहल की छांह में चला गया.
लछमा पिसान का थैला घट के अंदर रख आई. बाहर निकलकर उसने आंचल के कोर से मुंह पोंछा. तेज धूप में चलने के कारण उसका मुंह लाल हो गया था. किसी पेड क़ी छाया में विश्राम करने की इच्छा से उसने इधर-उधर देखा. मिहल के पेड क़ी छाया में घट की ओर पीठ किए गुसाईं बैठा हुआ था. निकट स्थान में दाड़िम के एक पेड क़ी छांह को छोडक़र अन्य कोई बैठने लायक स्थान नहीं था. वह उसी ओर चलने लगी.
गुसाईं की उदारता के कारण ॠणी-सी होकर ही जैसे उसने निकट आते-आते कहा, ”तुम्हारे बाल-बच्चे जीते रहें, घटवारजी! बडा उपकार का काम कर दिया तुमने! ऊपर के घट में भी जाने कितनी देर में लंबर मिलता.”
अजाज संतति के प्रति दिए गए आशीर्वचनों को गुसाईं ने मन-ही-मन विनोद के रूप में ग्रहण किया. इस कारण उसकी मानसिक उथल-पुथल कुछ कम हो गई. लछमा उसकी ओर देखें, इससे पूर्व ही उसने कहा, ”जीते रहे तेरे बाल-बच्चे लछमा! मायके कब आई?”
गुसाईं ने अंतर में घुमडती आंधी को रोककर यह प्रश्न इतने संयत स्वर में किया, जैसे वह भी अन्य दस आदमियों की तरह लछमा के लिए एक साधारण व्यक्ति हो.
दाड़िम की छाया में पात-पतेल झाड़कर बैठते लछमा ने शंकित दृष्टि से गुसाईं की ओर देखा. कोसी की सूखी धार अचानक जल-प्लावित होकर बहने लगती, तो भी लछमा को इतना आश्चर्य न होता, जितना अपने स्थान से केवल चार कदम की दूरी पर गुसाईं को इस रूप में देखने पर हुआ. विस्मय से आंखें फाड़कर वह उसे देखे जा रही थी, जैसे अब भी उसे विश्वास न हो रहा हो कि जो व्यक्ति उसके सम्मुख बैठा है, वह उसका पूर्व-परिचित गुसाईं ही है.
”तुम?” जाने लछमा क्या कहना चाहती थी, शेष शब्द उसके कंठ में ही रह गए.
”हां, पिछले साल पल्टन से लौट आया था, वक्त काटने के लिए यह घट लगवा लिया.” गुसाईं ने ही पूछा, ”बाल-बच्चे ठीक हैं?”
आंखें जमीन पर टिकाए, गरदन हिलाकर संकेत से ही उसने बच्चों की कुशलता की सूचना दे दी. जमीन पर गिरे एक दाड़िम के फूल को हाथों में लेकर लछमा उसकी पंखुडियों को एक-एक कर निरूद्देश्य तोड़ने लगी और गुसाईं पतली सींक लेकर आग को कुरेदता रहा.
बातों का क्रम बनाए रखने के लिए गुसाईं ने पूछा, ”तू अभी और कितने दिन मायके ठहरने वाली है?”
अब लछमा के लिए अपने को रोकना असंभव हो गया. टप्-टप्-टप्, वह सर नीचा किए आंसूं गिराने लगी. सिसकियों के साथ-साथ उसके उठते-गिरते कंधों को गुसाईं देखता रहा. उसे यह नहीं सूझ रहा था कि वह किन शब्दों में अपनी सहानुभूति प्रकट करे.
इतनी देर बाद सहसा गुसाईं का ध्यान लछमा के शरीर की ओर गया. उसके गले में चरेऊ (सुहाग-चिह्न) नहीं था. हतप्रभ-सा गुसाईं उसे देखता रहा. अपनी व्यावहारिक अज्ञानता पर उसे बेहद झुंझलाहट हो रही थी.
आज अचानक लछमा से भेंट हो जाने पर वह उन सब बातों को भूल गया, जिन्हें वह कहना चाहता था. इन क्षणों में वह केवल-मात्र श्रोता बनकर रह जाना चाहता था. गुसाईं की सहानुभूतिपूर्ण दृष्टि पाकर लछमा आंसूं पोंछती हुई अपना दुखडा रोने लगी, ”जिसका भगवान नहीं होता, उसका कोई नहीं होता. जेठ-जेठानी से किसी तरह पिंड छुडाकर यहां मां की बीमारी में आई थी, वह भी मुझे छोडक़र चली गई. एक अभागा मुझे रोने को रह गया है, उसी के लिए जीना पड रहा है. नहीं तो पेट पर पत्थर बांधकर कहीं डूब मरती, जंजाल कटता.”
”यहां काका-काकी के साथ रह रही हो?” गुसाईं ने पूछा.
”मुश्किल पडने पर कोई किसी का नहीं होता, जी! बाबा की जायदाद पर उनकी आंखें लगी हैं, सोचते हैं, कहीं मैं हक न जमा लूं. मैंने साफ-साफ कह दिया, मुझे किसी का कुछ लेना-देना नहीं. जंगलात का लीसा ढो-ढोकर अपनी गुजर कर लूंगी, किसी की आंख का कांटा बनकर नहीं रहूंगी.”
(Shekhar Joshi Kosi ka Ghatwar)
गुसाईं ने किसी प्रकार की मौखिक संवेदना नहीं प्रकट की. केवल सहानुभूतिपूर्ण दृष्टि से उसे देखता-भर रहा. दाड़िम के वृक्ष से पीठ टिकार लछमा घुटने मोड़क़र बैठी थी. गुसाईं सोचने लगा, पंद्रह-सोलह साल किसी की जिंदगी में अंतर लाने के लिए कम नहीं होते, समय का यह अंतराल लछमा के चेहरे पर भी एक छाप छोड ग़या था, पर उसे लगा, उस छाप के नीचे वह आज भी पंद्रह वर्ष पहले की लछमा को देख रहा है.
”कितनी तेज धूप है, इस साल!” लछमा का स्वर उसके कानों में पड़ा. प्रसंग बदलने के लिए ही जैसे लछमा ने यह बात जान-बूझकर कही हो.
और अचानक उसका ध्यान उस ओर चला गया, जहां लछमा बैठी थी. दाड़िम की फैली-फैली अधढंकीं डालों से छनकर धूप उसके शरीर पर पड रही थी. सूरज की एक पतली किरन न जाने कब से लछमा के माथे पर गिरी हुई एक लट को सुनहरी रंगीनी में डूबा रही थी. गुसाईं एकटक उसे देखता रहा.
”दोपहर तो बीत चुकी होगी,” लछमा ने प्रश्न किया तो गुसाईं का ध्यान टूटा, ”हां, अब तो दो बजनेवाले होंगे,” उसने कहा, ”उधर धूप लग रही हो तो इधर आ जा छांव में.” कहता हुआ गुसाईं एक जम्हाई लेकर अपने स्थान से उठ गया.
”नहीं, यहीं ठीक है,” कहकर लछमा ने गुसाईं की ओर देखा, लेकिन वह अपनी बात कहने के साथ ही दूसरी ओर देखने लगा था.
घट में कुछ देर पहले डाला हुआ पिसान समाप्ति पर था. नंबर पर रखे हुए पिसान की जगह उसने जाकर जल्दी-जल्दी लछमा का अनाज खप्पर में खाली कर दिया.
धीरे-धीरे चलकर गुसाईं गुल के किनारे तक गया. अपनी अंजुली से भर-भरकर उसने पानी पिया और फिर पास ही एक बंजर घट के अंदर जाकर पीतल और अलमुनियम के कुछ बर्तन लेकर आग के निकट लौट आया.
आस-पास पड़ी हुई सूखी लकडियों को बटोरकर उसने आग सुलगाई और एक कालिख पुती बटलोई में पानी रखकर जाते-जाते लछमा की ओर मुंह कर कह गया, ”चाय का टैम भी हो रहा है. पानी उबल जाय, तो पत्ती डाल देना, पुडिया में पड़ी है.”
लछमा ने उत्तर नहीं दिया. वह उसे नदी की ओर जानेवाली पगडंडी पर जाता हुआ देखती रही.
सडक़ किनारे की दुकान से दूध लेकर लौटते-लौटते गुसाईं को काफी समय लग गया था. वापस आने पर उसने देखा, एक छः-सात वर्ष का बच्चा लछमा की देह से सटकर बैठा हुआ है.
बच्चे का परिचय देने की इच्छा से जैसे लछमा ने कहा, ”इस छोकरे को घडी-भर के लिए भी चैन नहीं मिलता. जाने कैसे पूछता-खोजता मेरी जान खाने को यहां भी पहुंच गया है.”
गुसांई ने लक्ष्य किया कि बच्चा बार-बार उसकी दृष्टि बचाकर मां से किसी चीज के लिए जिद कर रहा है. एक बार झुंझलाकर लछमा ने उसे झिडक़ दिया, ”चुप रह! अभी लौटकर घर जाएंगे, इतनी-सी देर में क्यों मरा जा रहा है?”
चाय के पानी में दूध डालकर गुसाईं फिर उसी बंजर घट में गया. एक थाली में आटा लेकर वह गूल के किनारे बैठा-बैठा उसे गूंथने लगा. मिहल के पेड क़ी ओर आते समय उसने साथ में दो-एक बर्तन और ले लिए.
लछमा ने बटलोई में दूध-चीनी डालकर चाय तैयार कर दी थी. एक गिलास, एक एनेमल का मग और एक अलमुनियमके मैसटिन में गुसाईं ने चाय डालकर आपस में बांट ली और पत्थरों से बने बेढंगे चूल्हे के पास बैठकर रोटियां बनाने का उपक्रम करने लगा.
हाथ का चाय का गिलास जमीन पर टिकाकर लछमा उठी. आटे की थाली अपनी ओर खिसकाकर उसने स्वयं रोटी पका देने की इच्छा ऐसे स्वर में प्रकट की कि गुसाईं ना न कह सका. वह खडा-खडा उसे रोटी पकाते हुए देखता रहा. गोल-गोल डिबिया-सरीखी रोटियां चूल्हे में खिलने लगीं. वर्षों बाद गुसाईं ने ऐसी रोटियां देखी थीं, जो अनिश्चित आकार की फौजी लंगर की चपातियों या स्वयं उसके हाथ से बनी बेडौल रोटियों से एकदम भिन्न थीं. आटे की लोई बनाते समय लछमा के छोटे-छोटे हाथ बड़ी तेजी से घूम रहे थे. कलाई में पहने हुए चांदी के कड़े ज़ब कभी आपस में टकरा जाते,तो खन्-खन् का एक अत्यंत मधुर स्वर निकलता. चक्की के पाट पर टकरानेवाली काठ की चिडियों का स्वर कितना नीरस हो सकता है, यह गुसाईं ने आज पहली बार अनुभव किया.
(Shekhar Joshi Kosi ka Ghatwar)
किसी काम से वह बंजर घट की ओर गया और बड़ी देर तक खाली बर्तन-डिब्बों को उठाता-रखता रहा.
वह लौटकर आया, तो लछमा रोटी बनाकर बर्तनों को समेट चुकी थी और अब आटे में सने हाथों को धो रही थी.
गुसाईं ने बच्चे की ओर देखा. वह दोनों हाथों में चाय का मग थामे टकटकी लगाकर गुसाईं को देखे जा रहा था. लछमा ने आग्रह के स्वर में कहा, ”चाय के साथ खानी हों, तो खा लो. फिर ठंडी हो जाएंगी.”
”मैं तो अपने टैम से ही खाऊंगा. यह तो बच्चे के लिए ..” स्पष्ट कहने में उसे झिझक महसूस हो रही थी, जैसे बच्चे के संबंध में चिंतित होने की उसकी चेष्टा अनधिकार हो.
”न-न, जी! वह तो अभी घर से खाकर ही आ रहा है. मैं रोटियां बनाकर रख आई थी,” अत्यंत संकोच के साथ लछमा ने आपत्ति प्रकट कर दी.
”अैंऽऽ, यों ही कहती है. कहां रखी थीं रोटियां घर में?” बच्चे ने रूआंसी आवाज में वास्तविक व्यक्ति की बतें सुन रहा था और रोटियों को देखकर उसका संयम ढीला पड ग़या था.
”चुप!” आंखें तरेरकर लछमा ने उसे डांट दिया. बच्चे के इस कथन से उसकी स्थिति हास्यास्पद हो गई थी, इस कारण लज्जा से उसका मुंह आरक्त हो उठा.
”बच्चा है, भूख लग आई होगी, डांटने से क्या फायदा?” गुसाईं ने बच्चे का पक्ष लेकर दो रोटियां उसकी ओर बढा दीं. परंतु मां की अनुमति के बिना उन्हें स्वीकारने का साहस बच्चे को नहीं हो रहा था. वह ललचाई दृष्टि से कभी रोटियों की ओर, कभी मां की ओर देख लेता था.
गुसाईं के बार-बार आग्रह करने पर भी बच्चा रोटियां लेने में संकोच करता रहा, तो लछमा ने उसे झिडक़ दिया, ”मर! अब ले क्यों नहीं लेता? जहां जाएगा, वहीं अपने लच्छन दिखाएगा!”
इससे पहले कि बच्चा रोना शुरू कर दें, गुसाईं ने रोटियों के ऊपर एक टुकड़ा गुड़ क़ा रखकर बच्चे के हाथों में दिया. भरी-भरी आंखों से इस अनोखे मित्र को देखकर बच्चा चुपचाप रोटी खाने लगा, और गुसाईं कौतुकपूर्ण दृष्टि से उसके हिलते हुए होठों को देखता रहा.
इस छोटे-से प्रसंग के कारण वातावरण में एक तनाव-सा आ गया था, जिसे गुसाईं और लछमा दोनों ही अनुभव कर रहे थे.
स्वयं भी एक रोटी को चाय में डुबाकर खाते-खाते गुसाईं ने जैसे इस तनाव को कम करने की कोशिश में ही मुस्कराकर कहा, ”लोग ठीक ही कहते हैं, औरत के हाथ की बनी रोटियों में स्वाद ही दूसरा होता है.”
लछमा ने करूण दृष्टि से उसकी ओर देखा. गुसाईं हो-होकर खोखली हंसी हंस रहा था.
”कुछ साग-सब्जी होती, तो बेचारा एक-आधी रोटी और खा लेता.” गुसाईं ने बच्चे की ओर देखकर अपनी विवशता प्रकट की.
(Shekhar Joshi Kosi ka Ghatwar)
”ऐसी ही खाने-पीनेवाले की तकदीर लेकर पैदा हुआ होता तो मेरे भाग क्यों पडता? दो दिन से घर में तेल-नमक नहीं है. आज थोडे पैसे मिले हैं,आज ले जाऊंगी कुछ सौदा.”
हाथ से अपनी जेब टटोलते हुए गुसाईं ने संकोचपूर्ण स्वर में कहा, ”लछमा!”
लछमा ने जिज्ञासा से उसकी ओर देखा. गुसाईं ने जेब से एक नोट निकालकर उसकी ओर बढाते हुए कहा, ”ले, काम चलाने के लिए यह रख ले,मेरे पास अभी और है. परसों दफ्तर से मनीआर्डर आया था.”
”नहीं-नहीं, जी! काम तो चल ही रहा है. मैं इस मतलब से थोडे क़ह रही थी. यह तो बात चली थी, तो मैंने कहा,” कहकर लछमा ने सहायता लेने से इन्कार कर दिया
गुसाईं को लछमा का यह व्यवहार अच्छा नहीं लगा. रूखी आवाज में वह बोला, ”दुःख-तकलीफ के वक्त ही आदमी आदमी के काम नहीं आया, तो बेकार है! स्साला! कितना कमाया, कितना फूंका हमने इस जिंदगी में. है कोई हिसाब! पर क्या फायदा! किसी के काम नहीं आया. इसमें अहसान की क्या बात है? पैसा तो मिट्टी है स्साला! किसी के काम नहीं आया तो मिट्टी, एकदम मिट्टी!”
परन्तु गुसाईं के इस तर्क के बावजूद भी लछमा अडी रही, बच्चे के सर पर हाथ फेरते हुए उसने दार्शनिक गंभीरता से कहा, ”गंगनाथ दाहिने रहें, तो भले-बुरे दिन निभ ही जाते हैं, जी! पेट का क्या है, घट के खप्पर की तरह जितना डालो, कम हो जाय. अपने-पराये प्रेम से हंस-बोल दें, तो वह बहुत है दिन काटने के लिए.”
गुसाईं ने गौर से लछमा के मुख की ओर देखा. वर्षों पहले उठे हुए ज्वार और तूफान का वहां कोई चिह्न शेष नहीं था. अब वह सागर जैसे सीमाओं में बंधकर शांत हो चुका था.
रूपया लेने के लिए लछमा से अधिक आग्रह करने का उसका साहस नहीं हुआ. पर गहरे असंतोष के कारण बुझा-बुझा-सा वह धीमी चाल से चलकर वहां से हट गया. सहसा उसकी चाल तेज हो गई और घट के अंदर जाकर उसने एक बार शंकित दृष्टि से बाहर की ओर देखा. लछमा उस ओर पीठ किए बैठी थी. उसने जल्दी-जल्दी अपने नीजी आटे के टीन से दो-ढाई सेर के करीब आटा निकालकर लछमा के आटे में मिला दिया और संतोष की एक सांस लेकर वह हाथ झाडता हुआ बाहर आकर बांध की ओर देखने लगा. ऊपर बांध पर किसी को घूमते हुए देखकर उसने हांक दी. शायद खेत की सिंचाई के लिए कोई पानी तोडना चाहता था.
बांध की ओर जाने से पहले वह एक बार लछमा के निकट गया. पिसान पिस जाने की सूचना उसे देकर वापस लौटते हुए फिर ठिठककर खडा हो गया, मन की बात कहने में जैसे उसे झिझक हो रही हो. अटक-अटककर वह बोला, ”लछमा …”
लछमा ने सिर उठाकर उसकी ओर देखा. गुसाईं को चुपचाप अपनी ओर देखते हुए पाकर उसे संकोच होने लगा. वह न जाने क्या कहना चाहता है,इस बात की आशंका से उसके मुंह का रंग अचानक फीका होने लगा. पर गुसाईं ने झिझकते हुए केवल इतना ही कहा, ”कभी चार पैसे जुड ज़ाएं, तो गंगनाथ का जागर लगाकर भूल-चूक की माफी मांग लेना. पूत-परिवारवालों को देवी-देवता के कोप से बचा रहना चाहिए.” लछमा की बात सुनने के लिए वह नहीं रूका.
(Shekhar Joshi Kosi ka Ghatwar)
पानी तोड़ने वाले खेतिहार से झगड़ा निपटाकर कुछ देर बाद लौटते हुए उसने देखा, सामनेवाले पहाड़ क़ी पगडंडी पर सर पर आटा लिए लछमा अपने बच्चे के साथ धीरे-धीरे चली जा रही थी. वह उन्हें पहाड़ी क़े मोड़ तक पहुंचने तक टकटकी बांधे देखता रहा.
घट के अंदर काठ की चिड़ियां अब भी किट-किट आवाज कर रही थीं, चक्की का पाट खिस्सर-खिस्सर चल रहा था और मथानी की पानी काटने की आवाज आ रही थी, और कहीं कोई स्वर नहीं, सब सुनसान, निस्तब्ध!
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2 Comments
Sudha Devrani
अत्यंत हृदयस्पर्शी कालजयी कहानी
विनम्र श्रद्धांजलि कथाकार शेखर जोशी जी को।
Ahead Zafar alam hashmi
बहुत अच्छी कहानी
जब भी सामने आती हैं पढ़े बगैर नहीं रहा जाता
अनेको बार पढ़ना चुका हूं