देहरादून के करीब का वह छोटा सा गांव डोईवाला,जहां गंगा राम मल्ल और पार्वती मल्ल रहते थे. उनके घर पहली जुलाई 1913 को जो शिशु जन्मा उसका नाम पड़ा दुर्गा. गंगा राम मल्ल 1/2 गोरखा राइफल में नायब सूबेदार थे. गोर्खाओं के काफी परिवार अंग्रेजों के शासन काल की हिंदुस्तानी फौज से रिटायर होने के बाद उत्तरप्रदेश के पहाड़ी इलाकों में देहरादून के समीप के गावों नेहरू ग्राम, रायपुर,नालापानी, लॅच्छीवाला,बीजापुर, बीरपुर, अनारपुर, जेहड़ी व गढ़ी के साथ ही पडोसी राज्य हिमाचल में भागसू -धर्मशाला में स्थायी रूप से बसने लगे. गंगा राम मल्ल भी अपने बड़े कुटुंब के साथ डोईवाला में रहने लगे.दुर्गा का बचपन अपने से बड़े तीन भाइयों और तीन बहनों के साथ इसी छोटे से गांव और विस्तृत फैली तराई में बीता. वह ऐसा संक्रांति काल था जिसमें पराधीनता से मुक्ति की छटपटाहट उन वीर सैनिकों के भीतर मचल रही थी जो ब्रिटिश फौज में रह चुके थे और अब आजाद हिंदुस्तान के लिए गाँधी जी के असहयोग आंदोलन के रास्ते से बड़ी उम्मीदें संजोये उन क्रांतिकारी गतिविधियों की भी परख कर रहे थे जो काफी तेजी से जनमानस को उद्वेलित कर रहीं थीं.
(Shahid Durga Malla)
3 मार्च 1816 से आरम्भ समय गोर्खाओं के लिए ऐसी गुलामी और बंधन से उपजे तनाव -दबाव व कसाव की दशाएं ले आया था जिसने इस कौम को सबसे अधिक प्रभावित किया. उत्तरप्रदेश के पहाड़ी इलाके में देहरादून के समीपवर्ती इलाकों में गोरखा कई पीढ़ियों से तभी से बसने लगे थे जब उनके पुरखे काजी अमर सिंह थापा ने सन 1790 से 1803 की समय अवधि में अपना साम्राज्य काली नदी के पूर्व से सतलुज नदी के पश्चिमी इलाके तक फैला दिया था. देहरादून में नेपालियों का आगमन 1786 से आरम्भ हो गया जब बहादुर शाह ने नेपाल के एकीकरण का मंसूबा ले चौबीसे राज्य गुल्मी पर मई महिने में हठात हमला कर दिया और चार महिने की अल्प अवधि यानि अगस्त तक बाइसी राज्यों में डोटी फतह कर नेपाल का सीमा विस्तार महाकाली नदी तक कर दिया था. तदन्तर ईस्ट इण्डिया कंपनी और नेपाल दरबार के साथ हुए अनेक विवादों को निबटाने के लिए 3 मार्च ,1816 को एक स्थायी दस्तावेज पर दस्तखत हुए जिसे “सुगौली की सन्धि ” के नाम से जाना जाता है. कंपनी की चालाकियों से भरी इस सन्धि की नौ धाराओं में एक धारा यह भी थी कि उत्तरप्रदेश के तराई इलाके में गंगा -यमुना नदी के जलागम का तमाम उत्तरी इलाका और पर्वतीय भूभाग को शामिल करती काली नदी से सतलुज नदी तक का इलाका ब्रिटिश शासन को सौंपना पड़ा था. ये सारा इलाका सौंपने के अतिरिक्त और कोई चारा गोरखों के पास न था क्योंकि तब के नेपाल नरेश विक्रम शाह बहुत कमजोर राजा रहे. वह बस यह चाहते थे कि किसी तरह उनका राजपाट बचा रहे. इसी कारण सन्धि की नौ शर्ते माननी पड़ी.
काजी अमर सिंह थापा की बची खुची सेना ने तभी बड़ी कोशिशों से अल्मोड़ा में फर्स्ट गोरखा राइफल्स की स्थापना करने में सफलता पाई. 1816 से हिंदुस्तान की आजादी मिलने के समय तक गोरखा दास की भांति उन जिम्मेदारियों को पूरा करने के लिए विवश किये गए जो ब्रिटिश कानून और निर्णयों के हित हेतु रचे गए थे और इसके लिए उन्होंने गोरखा कौम की वफादारी पर सबसे अधिक भरोसा किया.
शासन एवं प्रबंधन में चतुर अंग्रेज जान गए थे कि गोरखा कौम ईमानदार व स्वामिभक्त तो है ही, उनमें एकजुट रहने की भावना अनूठी है. युद्ध के मैदान में उनकी वीरता और शौर्य के अनेकों उदाहरण थे. अपनी मातृ भूमि की रक्षा के लिए गोरखा कोई भी जोखिम उठाने को तत्पर रहते. प्राणों की बाजी लगा देते.उन्होंने इन सारी खूबियों का सर्वाधिक दोहन करने के लिए उन्हें फौज में भरती किया, उन्हें अन्य मातहतों से अलग- थलग रखा. फौज की बागडोर पूरी तरह ब्रिटिश अधिकारियों के हाथ में रखी गई. वह हुक्म दें और गोरखा उसकी तामील करें.
ब्रिटिश फौज में वफादार रहते हुए भी गोरखा कौम यह जानती थी कि पूरा देश अब आजादी के मतवालों की उस आवाज को सुन रहा है जो अंग्रेजों द्वारा की जा रही देश के संसाधनों की लूट और इसका विरोध करने वाले, अपना तन-मन-धन न्योछावार करने वाले देशभक्तों द्वारा चारों ओर फैल चुकी है. अंग्रेज फूट डालो और राज करो की मनमानी व दमनकारी नीति के चलते स्वाधीनता सेनानियों को कुचलने के लिए ब्रिटिश गोरखा कंपनियों के साथ डोगरा रेजिमेंट, जाट रेजिमेंट, कुमाऊं-गढ़वाल रेजिमेंट को तैनात करती थी. विदेशी शासन काल के लम्बे दौर में अंग्रेजों और विदेशी कंपनियों, नील के खेतों, चाय के बागानों, कोयला और खनिज के खदानों के साथ समूचे प्रशासन के अंतर्गत हिन्दुस्तानियों का आर्थिक व शारीरिक शोषण तो हो ही रहा था, बेइंतहा जुल्म व दमन चक्र की शिकार पूरी कौम थी.
सीमांत के अपने निवास से से देश के हर प्रान्त में जा रोजी रोटी की तलाश में हाड़ तोड़ रहे गोरखाओं ने भी इन सारी विसंगतियों को झेला जिनका मूल नेपाल था. नेपाल जो हमेशा से रोटी और बेटी के रिश्तों से बंधा था.सामाजिक एवम सांस्कृतिक स्तरीकरण के लिहाज से गोरखा कौम वचन की पक्की, बहादुर और स्वामिभक्त मानी जाती रही और इसी विशेषता का इस्तेमाल कर चतुर अंग्रेज कूटनीतिज्ञ आजादी के मतवालों को कुचलने और इस लहर को थाम देने के लिए अपनी फौज में गोरखा कंपनी का इस्तेमाल करती रही. देश के समुदायों को आपस में एक दूसरे के प्रति संदेह की नजर से देखना ऐसा मनोवेज्ञानिक हथियार था जिसे अंग्रेज बड़ी चालाकी से लोगों के दिलोदिमाग़ पर वार करने में समर्थ थे. ऐसी हालत में देश की मुख्य धारा के साथ अपनी पहचान साफ करने की बहुत बड़ी जिम्मेदारी भारतीय नेपालियों के बीच सामने आ गई थी.
देश के स्वाधीनता संग्राम आंदोलन में हिमाचल प्रदेश के साथ उत्तरप्रदेश पर्वतीय क्षेत्र में देहरादून,दार्जिलिंग व पूर्वोत्तर में असम के नेपाली देशभक्ति, दृढ़ता, आत्मबलिदान के जोश से धूमकेतु की तरह चमके और अपने निजी व पारिवारिक जीवन के मोह की परवाह किये बगैर अपने प्राणों की आहुति दे विलुप्त हो गए.ऐसी परिस्थितियां भी आईं जब समाज में पनप रही हीन मानसिकता, दुराग्रह, पूर्वाग्रह और मिथकों के चलते गोर्खाओं को राष्ट्र की मुख्य धारा से विलग करने की कोशिश की गईं. ऐसे जांबाज सैनिकों के बलिदान भुला दिए गए, छुपा दिए गए जिनके स्मरण मात्र से ही अंग्रेज अफसर दहल जाते थे. कई वीर सेनानियों की शौर्य गाथाऐं भुला दी गईं. ऐसे में भारत की मुख्य धारा से अपनी पहचान स्पष्ट करने का उत्तरदायित्व भी भारतीय गोरखा समुदाय के सम्मुख था.
(Shahid Durga Malla)
दुर्गा मल्ल की कथा का सूत्रपात ऐसे ही असमंजस भरे माहौल से शुरू होता है जब कुछ जानने समझने और सोचने की समझ आते ही उसका बाल मन बाल सुलभ उत्कँठाओं के साथ यह भी पाता है कि देहरादून और उसके आस पास के गावों में उसके जैसे परिवारों में जो लोग रहते हैं वह जीने के लिए हाड़ तोड़ परिश्रम तो करते ही हैं पर उनको वह सब नहीं मिल पाता जिसके वह हकदार हैं. नौकरी पर गए उसके जैसे परिवारों के लोग बंधुवा मजदूरों की भांति हैं. उनके कुनबे में लिखाई-पढ़ाई का स्तर कमजोर है जिसका कारण शिक्षा के प्रति उनकी रूचि का कम होना नहीं बल्कि सुविधाओं का न्यून बने रहना और परिवार की माली हालत का कमजोर होना है. देहरादून में रहते किशोर वय में पहुँचता दुर्गा मल्ल अपने गावों में पसरी गरीबी को महसूस कर चुका था. उसे यह बात भी समझ में आ गई थी कि पिछड़ापन और गरीबी को दूर किये बगैर उनके परिवारों में खुशहाली आनी असंभव है. जब तक इसके लिए कुछ सार्थक प्रयास नहीं किये जायेंगे तब तक वह कमजोरियां और चिंताएं बनी रहेंगी जिनके रहते आगे बढ़ कुछ कर गुजरने का संतोष मिलता है.
बचपन से ही दुर्गा बहुत भावुक था. कोई किसी तकलीफ, परेशानी में हो तो उसके दर्द को समझ उसे दूर करने की कोशिश में लग जाने की आदत थी उसकी.
देहरादून के ब्वाएज इंटर कॉलेज से वह नवीं कक्षा की पढ़ाई कर रहा था तभी आजादी के आंदोलन में अपनी बढ़ती हिस्सेदारी से वह पुलिस की नजरों में आ गया. देहरादून के हर दरवाजे और हर गली में पहुँच उसने क्रान्तिकारियों के पर्चे बाँटने का जिम्मा उठाया. गाँवो में पद यात्रा कर लोगों को यह समझाने की कोशिश की कि ऐसी गुलामी की हालत में पड़े रहे तो कुछ भी हासिल न होगा बस इसी तरह बदहाली में रह पेट भरेगा. जब तक यह ब्रिटिश राज रहेगा तब तक हमारे खेत हमारे परिवार लुटते रहेंगे और हम इसी तरह चुपचाप अपने हर सपने को टूटता हुआ पाएंगे. इसलिए बस अब तो यह तय कर लेना है कि देश की आजादी के बारे में सोचना है. हम ही अपनी धरती अपनी मिट्टी की परवाह नहीं करेंगे तो जागेंगे कैसे. ऐसी हालत में अब सरकार भी बहुत सख्त कदम उठाने लगी थी. गिरफ्तार होने का पूरा अंदेशा था. तब दुर्गा ने देहरादून को छोड़ कर हिमाचल प्रदेश में धर्मशाला जाने का निर्णय लिया जहां उसके चाचा केदार मल्ल सपरिवार रहते थे.
दुर्गा एक तरफ बहुत भावुक और कवि ह्रदय के साथ साहित्य प्रेमी था तो दूसरी ओर उसकी रूचि खेल- कूद में भी खूब थी. फुटबाल का वह अच्छा खिलाडी था जिसमें अपना हुनर दिखाने के उसे कई मौके धर्मशाला में आने के बाद मिले. निरन्तर अभ्यास से वह फुटबॉल का एक कुशल खिलाड़ी बन गया.भाग्य का संयोग कि तभी 2/1 गोरखा राइफल्स के भरती अधिकारी की नजर उसके खेल और आकर्षक डील डौल पर पड़ी. तब दुर्गा मल्ल अठारह वर्ष का था. गोरखा किशोर जो प्राथमिक शिक्षा पास कर चुके हों, रंगरूट चुन लिए जाते थे.इसके बाद उन्हें बुनियादी प्रशिक्षण दिया जाता था तब वह सिग्नल कोर्स के लिए चुने जाते थे. दुर्गा मल्ल ने बुनियादी प्रशिक्षण के बाद अंग्रेजी कोर्स प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण कर लिया था जिससे उन्हें डी व एम. जी. टी. प्रशिक्षण कोर्स के लिए पुणे जाने का अवसर मिला. पुणे जाकर इस प्रशिक्षण में उन्हें डिस्टिँक्शन मिला. वह फुटबॉल के सबसे बेहतरीन सेंटर फॉरवर्ड माने जाते थे. अपनी यूनिट के सांस्कृतिक कार्यक्रमों में उनकी खूब हिस्सेदारी रही. उन्होंने कई नाटकों में अभिनय किया.सिग्नल ट्रेनिंग करने के बाद अपनी कार्य कुशलता और मेहनत के बूते वह अपने अधिकारियों की नजर में आ गए और उन्हें सिग्नल हवलदार बना दिया गया.
सेना में नियुक्ति से उनकी रचनात्मक प्रतिभा को पनपने का नया अवसर मिला. उनकी यूनिट के कप्तान सूबेदार मेजर बहादुर सिंह बराल थे जो समाज में फैली विषमताओं को दूर करने के लिए सदा ही खूब प्रयत्न व प्रयास करते रहते. बराल अपनी व्यथा और आक्रोश को कविता और नाटक के जरिये अभिव्यक्त करने में कुशल थे और उनको दृढ़ विश्वास था कि साहित्य समाज में परिवर्तन करने में बहुत असरदार भूमिका निभाता है.
दुर्गा मल्ल अपने कप्तान और गुरु बराल की बहुमुखी प्रतिभा का अनुसरण करने वाले योग्य शिष्य साबित हुए. उन्होंने कविता रचने के अपने शौक के साथ ही अब गीत, गजल व भजन भी लिखे जिन्हें उनकी सरलता व साफगोई के कारण बहुत पसंद किया जाने लगा. अपनी किशोरवस्था से ही वह अपने आसपास, परिवार और समाज में फैली आर्थिक व सामाजिक विषमताओं का अनुभव कर पीड़ा और कसक का अनुभव करते थे. उन्हें इस बात का मलाल रहता था कि उनके आसपास के लोग और खास तौर पर उनके हमउम्र इन समस्याओं को चुपचाप सह लेते हैं और इनको सुलझाने के लिए कोई प्रयास नहीं करते. उनकी यह दृढ़ सोच थी कि देश की गुलामी का बहुत बड़ा कारण ही आस- पास फैला वह पिछड़ापन है जो कहीं भी सर उठा के जीने की चाहत नहीं जगाता.दुख तो तब होता है जब अब की युवा होती पीढ़ी भी समाज में फैली इस विषमता को महसूस नहीं करती. उसे इस सच की भी परवाह नहीं कि वह गुलाम कौम बन चुकी है और विदेशी के स्वार्थ में अपने हाड़ मांस गला रही है.
(Shahid Durga Malla)
नौकरी पाते ही अपने कप्तान के रूप में सूबेदार मेजर बहादुर सिंह बराल को पा दुर्गा मल्ल को यह एहसास हो गया कि अब उन्हें ऐसा पथ प्रदर्शक मिला है जो अपने आसपास के माहौल को ले कर बहुत संवेदनशील है और उसकी व्यथा वह अपनी कविताओं में, अपने रचे नाटकों में रख देने में कुशल है. देखादेखी दुर्गा दत्त के भीतर बसी वेदना फिर कविताओं के माध्यम से उमड़ पड़ी. उनकी कई रचनाएं बाद में बराल के कविता संग्रह, “बरालको आँसू” के कई संस्करणों, मगन पथिक की किताब, “ठाकुर चन्दन सिंह” तथा “आजाद हिन्द फौज के ये गोरखा वीर” में छपी.
1936 से 1939 की अवधि में लिखी दुर्गा मल्ल की कविताओं में दो रचनाएं जो बरालके संग्रह में प्रकाशित हुईं उस समय की किंकर्तव्यविमूढ़ता के साथ लोगों की समस्याओं के प्रति तटस्थ रहने की मनोदशा को दिखाती हैं.
बताऊ आएर भगवन, सुतेको जातिलाई बाटो
के भयो हामीलाई आज, किन बुद्धि भयो लाटो
आज देखेर यो मैले, भनि सक्देन केहि अहिले
कर्तव्य बुझेनन् ती कहिले, उड़ेछ सबेको सातो
‘हे भगवान, इस सोई हुई जाति को रास्ता दिखाओ. हम सबको आज क्या हो गया है? क्यों हमारी बुद्धि भ्रमित हो गई है? यह सब देख कर मैं कुछ कह नहीं सकता. सभी यहां डरे सहमे दिखते हैं. आखिर हमें अपने कर्तव्य का अहसास कब होगा?
उनकी इस दूसरी कविता में भी मन में उपजे द्वन्द की छाप है जिसे क्या करें के सवाल से जोड़ वह लिखते हैं,
कसलाई भन्ने भनि नसक्नु,
असाध्य दुःख सही नसक्नु,
त्यसै सुर्ता -फिक्रिमा बसी
शोकको आँसु छरिरहेछु –
बसेर कुराले ठिकठाके पारी,
अकासको सूर्य पतालमा झारी
झर्ला र खाउंला बिचरी,
त्यही भारी उद्योग गरिरहेछु.
‘अपने भीतर छुपी इस गहरी पीड़ा को किसके सामने व्यक्त करूँ. दुख और चिंता के इस माहौल में, मैं आँसू बहाने के सिवाय और क्या कर सकता हूं. हम लोग तो बस मुँह से बोल कर ही आकाश के सूर्य को पाताल में गिरा देने की बात करते हैं. क्या बस यही पराक्रम हममें बचा रह गया है?’
अपनी किशोरावस्था से ही अपने आसपास के माहौल व उसमें गोरखा समाज की दुर्बल हालत और पतन को महसूस कर दुर्गा मल्ल यह समझ गए थे कि ऐसी हीन अवस्था के उपजने के पीछे पराधीनता का वह घेरा है जिसे अंग्रेजी सरकार ने छल बल के हर उपाय से लगातार मजबूत किया है और इसके शिकंजे में सब फंस गए हैं. जब तक इस घेरे को तोड़ा नहीं जायगा तब तक खुल कर आत्म सम्मान के साथ जीने का रास्ता नहीं बनेगा.गुलामी की इस जंजीर को तोडना ही होगा और इसके लिए किसी भी तरह लोगों को यह बताना होगा, समझाना होगा कि वह तो बस दूसरे के इशारे पर हर काम करने को मजबूर बना दिए गए हैं. वह जो हम सबको कठपुतली की तरह नचा रहा है वह हमारे देश के हर संसाधन के साथ हमारे दिमाग हमारी सोच पर भी कब्ज़ा कर चुका है.गोरखा जैसी बहादुर कौम आज इनके इशारे पर नाच रही है. गोरखा लड़कों को लाइन ब्योय कहा जाता है और यह कैसी मजबूरी और बाध्यता कि उन्हें ब्रिटिश हुकूमत की गोरखा बटालियन में जबरन भरती होना ही पड़ता है. क्या गोरखा किशोर और युवक से उनके और किसी काम और नौकरी चाकरी का हक छीन लिया गया है?
देहरादून में रहते स्कूल जाते दुर्गा मल्ल पर गाँधी वादी स्वाधीनता संग्राम सेनानियों का असर पड़ गया था. वह वहां के सक्रिय ठाकुर चन्दन सिंह, वीर खड़क बहादुर सिंह बिष्ट, पंडित ईश्वर्यानंद गोरखा और अमर सिंह थापा के विचारों से प्रभावित हो उनके पथ का अनुसरण करने लगे. हिमाचल में भागसू और उत्तरप्रदेश पहाड़ में दून घाटी के पढ़े लिखे और देश की नाजुक हालत समझने वाले गोरखा इस बात को समझ गए थे कि जब तक उनके समाज की सोच नहीं बदलेगी तब तक यह अन्याय और शोषण का सिलसिला रुकेगा नहीं.इसके लिए जरुरी है कि उनके अपने लोगों उनके कुनबे परिवार के साथ आस पड़ोस और गांव शहर तक सोच बदली जाये. इसके लिए ऐसे तरीके अपनाये जाएं जिससे धीरे धीरे लोगों को उनकी इस विपन्न हालत का एहसास हो. लोगों के बीच जा उनके सामने अपनी बात रखी जाये. इसका माध्यम कविता भी हो तो नाटक भी जिसे सुन दिल में तड़प पैदा हो. युवा अपने खून में गर्मी महसूस करें. जो पढ़े लिखे हैं उनके लिए स्थानीय स्तर पर लेख लिखे जाएं ऐसी कहानियां सुनायीं जाएं जिससे उन्हें एहसास हो कि वह उस बहादुर कौम से हैं जिसने अपने मुल्क की आन-बान-शान के खातिर अपना खून बहाने में कभी कोई कसर नहीं छोड़ी. ऐसे उदाहरणों से भरे लेख लिखे जाएं.
अब ऐसा माहौल बनने लगा कि स्वाधीनता की तड़प की चिंगारी गोरखा समुदाय के बीच तेजी से सुलगने लगी. खड़क बहादुर सिंह बिष्ट के नेतृत्व में गोरखा पल्टनोँ के देवालयों में आजादी की चाह के पोस्टरों को चिपकाने की योजना इसी का नतीजा थी .दुर्गा मल्ल भी अपने किशोरवय साथियों के साथ देहरादून के गोरखा रेजिमेंटल सेंटरों की दीवारों पर ब्रितानी सरकार की दमनकारी नीति के खिलाफ ऐसे पोस्टर चिपकाने में जुट गए जिससे लोग जान सकें कि अंग्रेज किस तरह से देश को अपने अधीन कर गुलामी का जाल फैला चुके हैं और जो यह सब जान कर भी इसका विरोध न करे उसका खून खून नहीं बस पानी है.बेकार उसकी जवानी है.
पुलिस सक्रिय थी. उसने ऐसे आंदोलन समर्थकों की धर पकड़ शुरू कर दी. दुर्गा मल्ल के खिलाफ भी गिरफ़्तारी का वारंट जारी हो गया. कई आंदोलनकारी भूमिगत हो गए और कइयों ने देहरादून छोड़ दिया. पुलिस की सख्ती बढ़ती गई. तब दुर्गा मल्ल स्कूल में विद्यार्थी थे और उनकी उम्र अठारह साल की थी . अपने घर परिवार की सुरक्षा के लिए पुलिस के शिकंजे से बचते हुए वह हिमाचल प्रदेश में अपने सम्बंधियों के गांव भाग्सु धर्मशाला पहुँच गए जहां वह अपने चाचा केदार मल्ल के साथ रहने लगे.यहां आने पर उनकी पढ़ाई में रुकावट आ गई थी और ज्यादा समय तक खाली बैठे रहना उनके स्वभाव में न था.देहरादून से गांव आने की घटनाओं से परिवार भी फिक्रमंद था. कुछ दिन इसी संशय में बीते कि जिस रास्ते पर चल पड़ने का वह मन बना चुके हैं उस पर निकलने का योग आखिर कैसे बने? इसी बीच उन्हें यह पता चला कि गोरखा पल्टन में भरती हो रही है. कुछ न कर पाने की हताशा में यदि वह फौज में निकल जाएं तो किसी न किसी तरीके से उन्हें यह मौका भी मिल सकता है कि वह अपने देश की आजादी के लिए कुछ भी करने का अवसर पा जाएं भले ही यह उनकी भावनाओं के साथ समझौता हो. यह निर्णय तो लेना ही पड़ेगा.
यहाँ उनके गठे शरीर और फुटबाल का बेहतरीन खिलाड़ी के रूप में किया प्रदर्शन 2/1 गोरखा राइफल्स के भरती अधिकारी ने देखा और उनकी तुरंत भर्ती हो गई.
धर्मशाला की गोरखा यूनिट में दुर्गा मल्ल को ऐसा वातावरण मिला जिसने उनके भीतर छुपी प्रतिभा को निखरने का पूरा अवसर मिला.बचपन से ही उन्होंने देहरादून के गाँव -देहात में अपने समाज में गरीबी के दुश्चक्र को लगातार फैलते हुए देखा था जिससे अभाव व आशंका में जीने के बीच मजबूरी में की गई चाकरी से पिसती उनके परिवार थे. ब्रिटिश शासन की दमन कारी नीतियों और आपस में लोगों को एक दूसरे से अलगाव में रख डरा सहमा कर राज करने की परंपरा का शिकार अब वह माहौल था जिसमें वह जी रहे थे. जब वह देहरादून में क्रांति व परिवर्तन के पर्चे बांटते व उन्हें दीवारों पर चिपकाते तो उन्हें इस बात का एहसास होता कि अधिकांश लोग ऐसे होते जो गाँधी का नाम सुनते ही भयभीत होते कि कहीं कोई ये न सोच बैठे कि वह अंग्रेजों का विरोध कर रहा है. ज्यादातर लोग अंग्रेजों के पिट्ठू बने रहने में ही अपने व अपने परिवार की सलामती समझते थे.
ब्रिटिश भारतीय सेना के कई सेवानिवृत गोरखा परिवार अठारहवीं शताब्दी से ही देहरादून और धर्मशाला के निकटवर्ती गावों में स्थायी रूप से बसने आरम्भ हो गए थे. एक तरफ वह ब्रिटिश फौज का हिस्सा रहे थे तो दूसरी ओर उनका अपने देश की आजादी और तेजी से उभरते आंदोलन से उत्पन्न हो रहे जन आक्रोश के प्रति समर्थन था.ब्रिटिश सत्ता के खिलाफ पहली जन क्रांति लार्ड कर्जन के बंगभंग के प्रतिवाद में स्वदेशी आंदोलन के स्वरुप में सामने आई थी. उसी समय गोरखा सेना में विद्रोह की भावना उपजी. मई 1907 को सेना से निकले युवक पृथीमान थापा का संपर्क उग्रवादी युवकों से होने की गुप्त रिपोर्ट पुलिस ने की थी. पृथीमान पर आरोप लगा कि उसने ब्रिटिश विरोधी भाषण दिए व कलकत्ता से ‘गोरखा साथी’ पत्रिका छपाई जिस पर सरकार ने प्रतिबन्ध लगा दिया.
उन्नीसवीँ शताब्दी के पहले पांच दशक की समय अवधि समूचे हिंदुस्तान के लिए जागरण काल बन गई थी,जब चल रहे स्वाधीनता आंदोलन के साथ समाज में उपज रही विसंगतियों, विकृतियों और पिछड़ेपन को दूर करने के लिए हर स्तर पर जनमानस एकजुट हो चला था.1919 में गाँधी जी के पदार्पण से आंदोलन मुखर हो चले. आसाम के चाय बागानों में श्रमिकों ने बगावत की. दार्जिलिंग के चाय बागानों और शहर में असहयोग आंदोलन का नेतृत्व दलबहादुर गिरि ने किया जो मेट्रिक पास थे और सामंत काजी ठेकेदार का विरोध करने पर नौकरी से निकाल दिए गए थे. गाँधी जी से मिलने के बाद उनके नेतृत्व में दार्जिलिंग में अनेक सभाऐं हुईं जिसमें कांग्रेस के सदस्यों की संख्या हजार तक पहुँच गई. हड़ताल की गई,जन समूह ने खिलाफत आंदोलन के बैज लगाए.
1919 में देवी प्रसाद सापकोटा ने ‘गोर्खाली’पत्रिका निकाली जिन पर यह आरोप था कि उनके कई साथी जो सरकारी सेवा में हैं सरकार विरोधी कार्यों में संलग्न है. सरकारी आदेश से यह पत्रिका 1922 में बंद करनी पड़ी थी. 1921 में देहरादून में स्थापित अखिल भारतीय गोरखा लीग में शामिल होने वाले अधिकांश सेवानिवृत गोरखा सैनिक थे. ठाकुर चन्दन सिंह के संपादन में अंग्रेजी अखबार ‘हिमालयन टाइम्स’ व नेपाली भाषा के ‘तरुण गोर्खा’ ‘व ‘गोर्खा संसार’ में भी मुखर हो लिखा गया था कि राणा तंत्र व ब्रिटिश सरकार द्वारा जन आंदोलन का दमन करने के लिए जिस कूटनीति से गोर्खा सेनिकों का इस्तेमाल किया जाता है उस पर तुरंत रोक लगायी जाए.
1920 में ही सविनय अवज्ञा आंदोलन में गाँधी जी के साहचर्य में पश्चिमोत्तर के पठान भी शामिल हुए थे जिन पर ब्रिटिश सरकार द्वारा गोली चलाने के आदेश को गोर्खा सेनिकों ने ठुकरा दिया था. अंग्रेजी पत्रिका ‘बॉम्बे क्रॉनिकल’ में भारतीय नेपालियों की सहभागिता पर खड़कबहादुर बिष्ट ने आह्वान किया. उन्होंने स्वयं एक व्यभिचारी की हत्या कर दी थी और 1929 में जेल से छूट वह स्वाधीनता आंदोलन में कूद पड़े थे. सरदार पटेल से धरसना में भेंट करते जाते कांग्रेसी व तेरह नेपाली स्वयंसेवकों के साथ गिरफ्तार हुए. जब छूटे तो दिल्ली की सी आई डी ने गोर्खा सेना में विद्रोह फैलाने के कांग्रेसी नेताओं से उनके गठजोड़ का आरोप लगा फिर गिरफ्तार कर दिया..
उत्तरप्रदेश के पहाड़ी जिलों, देहरादून और हिमाचल प्रदेश के विभिन्न स्थानों में बस गए गोरखा भी इस सामाजिक-सांस्कृतिक परिवर्तन से प्रभावित थे . गोरखा समाज खुद में भी अपनी संस्कृति, संस्कार, परंपरा, भाषा, साहित्य व पहचान के लिए छटपटा रहा था. इस ऐतिहासिक सांस्कृतिक उहा-पोह के दौर में उनके बसाव के दोनों मुख्य केंद्रों देहरादून व धर्मशाला में कई सामाजिक, सांस्कृतिक व साहित्यिक संस्थाओं की स्थापना हो चुकी थी. देहरादून में नेपालियों में ब्रिटिश सरकार से विद्रोह की भावना को फैलाने के लिए नेपाली भाषा में पर्चे व पोस्टर छपा उन्हें घर घर पहुँचाने का जिम्मा सेना से बर्खास्त धनपति सिंह ने किया. दुर्गा मल्ल इसी काम में जुटे यह उनके जीवन में आने वाला एक ऐसा परिवर्तन था जिससे उन्हें नई दिशा मिली.
दुर्गा मल्ल गोरखा जगत के प्रतिभाशाली गायक, नाटक कार व संगीतकार मास्टर मित्र सेन थापा की बहुमुखी प्रतिभा और समाज की उन्नति के लिए उनके द्वारा किये जा रहे लोक कल्याण कारी कार्यों से अभिभूत रहे. उन्होंने मित्र सेन के लिखे कई नाटकों को अपनी फौज की यूनिट में मंचित किया.
अपनी दस साल की नौकरी पूरी होने के बाद वह जनवरी 1941 को अवकाश ले कर अपने घर भाग्सू लौटे और तब ठकुरी परिवार की कन्या शारदा देवी के साथ उनका विवाह संपन्न हुआ.
यह द्वितीय विश्व युद्ध का दौर था. यूरोप में पोलैंड पर जर्मनी ने आक्रमण कर दिया था. तब ब्रिटेन और फ्रांस ने पोलैंड का साथ देने की घोषणा की. भारतीय सेना की टुकड़ी अगस्त, 1939 को सिंगापुर पहुँच चुकी थी जहां से उन्हें मलाया पहुंचना था. 13 सितम्बर, 1939 को द्वितीय विश्व युद्ध आरम्भ हो गया.1941 तक यह निश्चित हो गया था कि अब जापान आक्रमण करेगा. दुर्गा मल्ल की विवाह की रस्में भी पूरी न हुईं थीं कि उन्हें यूनिट में लौटने का आदेश आ गया.
अप्रैल 1941 को दुर्गा मल्ल की यूनिट सिकंदराबाद पहुंची. आगे समुद्र पार जाना था. तब उन्हें समुद्र पार जाने से पहले 28 दिन की छुट्टी मिली और वह परिवार से मिलने अपने गांव लौटे. वापस लौटने में पल्टन बोलाराम पहुँच चुकी थी जहां से वह 22 अगस्त,1941 को बम्बई बंदरगाह और अगले ही दिन मलाया के लिए कूच कर गई. मलाया के पोर्ट स्वीट होम पहुँचने में उन्हें 11 दिन लगे जहां से आगे इप्पो नगर से तीन मील दूर पल्टन अपने शिविर स्थल पर पहुंची. 2/1 की उनकी यूनिट के अलावा अन्य गोर्खा यूनिटें भी सितम्बर 1941 तक मलाया पहुँच गईं थीं. अभी दक्षिण पूर्व एशिया में युद्ध का एलान नहीं हुआ था अचानक ही 8 दिसंबर 1941 को जापान ने मित्र सेना की टुकड़ियों पर आक्रमण कर दिया और 11 दिसंबर तक उन्होंने ब्रिटिश फौज का भारी नुकसान कर डाला.
जापान सैनिकों की रणनीति यह थी कि एक ओर तो उन्होंने मित्र सेना को अपना निशाना बनाया तो दूसरी ओर मलाया और थाईलैंड पर संहारक हमले जारी रखे.सिंगापुर में उनका भारी दबाव बना रहा. जापानियों ने अपने युद्ध कौशल से मित्र सेना को आत्मसमर्पण के लिए विवश कर दिया. 11 फरवरी 1942 को सिंगापुर में मित्र सेना का पतन हुआ जिसके फलस्वरूप 19 फरवरी, 1942 को फरेर पार्क में हुई. इस ऐतिहासिक सभा में सत्तर हजार युद्ध बंदियों को ब्रिटिश सेना की ओर से ले. कर्नल हंट ने जापानी प्रतिनिधि मेजर फुजीवारा को सौंप दिया.कर्नल हंट के साथ युद्ध बंदियों के समर्पण में कप्तान मोहन सिंह, कर्नल गोल तथा पूर्ण सिंह ठाकुर भी साथ थे. जापानी सेना के समक्ष आत्मसमर्पण करने पर हुई सभा में कप्तान मोहन सिंह जिन्हें कालांतर में ‘जनरल’ का पद दिया गया था ने घोषणा की कि ब्रिटिश व उसकी मित्र देश की सेना को जापानी सैनिकों ने मलाया व सिंगापुर की ओर खदेड़ दिया है, अब बर्मा से उन्हें बेदखल कर दिया जायेगा.
हिंदुस्तान की आजादी हासिल करने का सही मौका अब सामने है. सदियों तक हमारे देश को गुलाम बना हमारे हर संसाधन की लूट मचा, हम पर जो जुल्म हुए उनका बदला लेने का यह सही वक्त है. हमारे आजाद होने के इस अभियान में हर तरह की मदद करने का वचन जापान ने दिया है. अब यह हमारा कर्तव्य है कि हम ऐसा ताकतवर संगठन खड़ा कर दें जिससे हमारे चालीस करोड़ हिंदुस्तानी आजाद होने के लिए एकजुट हो अपनी लड़ाई लड़ें. इस मकसद से अब हम अपने दक्षिण पूर्व एशिया के हिंदुस्तानी सिपाहियों और देश के नागरिकों के साथ ‘आजाद हिन्द फौज’ का गठन करने की घोषणा करते हैं. कप्तान मोहन सिंह की इस घोषणा से ‘फरेर पार्क’ इंकलाब जिंदाबाद के नारों से गुंजायमान हो गया. क्रांतिकारी रास बिहारी बोस के निर्देश पर कप्तान मोहन सिंह ने सिंगापुर में आज़ाद हिन्द फौज की नींव रखी.
1940 में नेता जी सुभाष चंद्र बोस ने कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया था और फॉरवर्ड ब्लॉक की स्थापना की थी. तभी उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया पर 1941 में वह ब्रिटिश जेल से फरार हो कर भेष बदल कर काबुल होते हुए बर्लिन पहुँच गए. जर्मन सरकार की मदद से उन्होंने आजाद हिन्द फौज का गठन किया तभी जर्मनी में बंदी बनाए दस हजार हिंदुस्तानी सैनिकों में करीब तीन हजार पांच सौ आजाद हिन्द फौज का हिस्सा बने.
आजाद हिन्द फौज के गठन के शुरुवाती दौर में गोर्खा राइफल्स की 2/1,2/2 व 2/9 यूनिटों ने महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया. जापानी फौज के सम्मुख आत्म समर्पण किये गोर्खा बटालियन के सिपाहियों को आजाद हिन्द फौज का स्वयंसेवी बनने के लिए प्रेरित करने की जिम्मेदारी पूर्णसिंह रावत के दिशानिर्देश पर हवलदार दुर्गा मल्ल व आसमान राई को सौंपी गई. पहले पहल दुविधा में फंसे सैनिकों ने कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई पर दुर्गा मल्ल व उनके साथियों के निरन्तर प्रयास व आह्वान से उनमें आजाद हिन्द फौज की सक्रियता से देश की आजादी मिलने की सोच बलवती होते गई. दुर्गा मल्ल की कविता, नाटकीय प्रतिभा और अपने देश व संस्कृति का अभिमान प्रकट व मुखर करने की प्रतिभा ने युद्धबंदी सैनिकों में सुप्त पड़ा जोश जागृत करना ही था.
अब तक आजाद हिन्द संघ की कार्य समिति के द्वारा तेरह यूनिटों और दलों का गठन किया जा चुका था. आजाद हिन्द फौज के पंद्रह हजार ऑफिसरों व सिपाहियों को उनकी कुशलता के आधार पर (1)तीन गुरिल्ला रेजिमेंट (2) विशेष सेवा दल जिसे बहादुर दल कहा जाता था (3)सूचना दल (4)कुमुक दल (5)फील्ड फोर्स रेजिमेंट (6)तोप खाना (7)बख्तरबंद गाड़ी दल (8)इंजीनियरिंग दल (9)एम टी कंपनी (10)सिग्नल कंपनी (11)मेडिकल दल (12)बेस अस्पताल व (13)ऑफिसर ट्रेनिंग स्कूल की इकाईयों से सम्बंधित किया गया था. दुर्गा मल्ल गुप्तचर विभाग में रहे, पहले कप्तान और फिर मेजर.
बैंकॉक सम्मलेन के एजेंडे से अलग अपने स्वार्थ के लिए जापान की कुछ गतिविधियों से आहत आजाद हिन्द फौज के कई कमांडरों के बीच असंतोष फैला.इसी बीच आजाद हिन्द फौज के सर्वोच्च कमांडर मोहन सिंह और अध्यक्ष रास बिहारी बोस के बीच मनोमालिन्य होने से कटुता बढ़ने लगी. रास बिहारी बोस के कहने पर जापानी जर्नल इवाकुरो ने 20 सितम्बर को जनरल मोहन सिंह को गिरफ्तार कर संतजेम द्वीप के एक बंगले में नजरबंद कर दिया. मोहन सिंह को इस स्थिति का आभास हो गया व उन्होंने आजाद हिन्द फौज का विघटन कर दिया.
ऐसी परिस्थिति में जर्नल इवाकुरो ने अपनी सरकार से सिफारिश की कि स्थितियों को नियंत्रण में रखने के लिए सुभाष चंद्र बोस ही सर्वमान्य नेता होने के योग्य हैं.सुभाष चंद्र बोस 4 जुलाई 1942 को सिंगापुर में सभी एशियाई भारतीयों के प्रतिनिधि सम्मलेन में शामिल हो आजाद हिन्द फौज के स्वरुप पर विचार विमर्श कर चुके थे जिसके परिणाम स्वरुप 25 अक्टूबर 1942 को इस सरकार का गठन किया गया. सारी तैयारी के बाद नेता जी बर्लिन से 3 जुलाई 1943 को सिंगापुर पहुंचे और 4 जुलाई को उन्होंने सिंगापुर की कैथे बिल्डिंग में एशिया भर से जुटे प्रतिनिधिमण्डल को सम्बोधित किया. इससे अगले ही दिन 5 जुलाई को आजाद हिन्द फौज के पुनर्गठन की विधिवत घोषणा हुई. तदन्तर 25 अक्टूबर,1943 को आजाद हिन्द फौज की सैनिक टुकड़ियों और वहां उपस्थित लगभग पचास हजार जनसमूह के मध्य अभूतपूर्व घोषणा की गई कि अस्थायी आजाद हिन्द सरकार ब्रिटेन और अमेरिका के विरुद्ध युद्ध की घोषणा करती है.सब उल्लास और कुछ कर गुजरने के जोश से भर उठे.
नेता जी सुभाष चंद्र बोस के निर्देशों का पालन करने में दुर्गा मल्ल सदैव आगे रहे. ब्रिटिश फौज की गुप्त सूचनाओं को वह आजाद हिन्द फौज के रंगून स्थित हेडक्वाटर पहुँचाते थे. आजाद हिन्द फौज के कोहिमा तक पंहुच जाने का श्रेय गुप्त चर कमांड के मेजर दुर्गा मल्ल की सटीक सूचनाओं के द्वारा संभव हुआ.गुप्तचर विभाग में गुरिल्ला यूनिट के कमांडर रहे दुर्गा मल्ल की टुकड़ी बर्मा की सीमा पार कर आसाम के पहाड़ी इलाके में पैराशूट से उतर चुकी थी अब वह वेश बदल कर ब्रिटिश सेना की गुप्त सूचनाएं इकट्ठा कर इसकी सूचना रंगून में स्थित आजाद हिन्द फौज के हेड क्वार्टर को देते रहे. इसके साथ ही उनके जिम्मे यह दायित्व भी था कि वह आसाम की स्थानीय जनता को ब्रिटिश शासन के विरुद्ध भड़का कर आजाद हिन्द फौज के देश की आजादी के पवित्र उद्देश्य के बारे में बता उन्हें जागरूक करें. मेजर दुर्गा मल्ल अपने अग्रिम दस्ते में आजाद हिन्द फौज को कोहिमा तक पहुंचा चुके थे. गुप्त सूचनाएं एकत्रित करते वह अंग्रेजी हुकूमत के छल कपट में फंस 26 मार्च 1944 को कोहिमा से आगे मणिपुर के गांव उखरुल से अचानक गिरफ्तार कर लिऐ गये . उनके खिलाफ भारतीय सैनिक कानून की धारा 41 तथा भारतीय दंड संहिता की धारा 121 के अंतर्गत सैनिक अदालत में मुकदमा ठोक दिया जाता है और युद्ध बंदी बना दिल्ली के लाल किले के बंदीगृह में रखउन पर राष्ट्र द्रोह का अभियोग लगा दिया जाता है. दिल्ली की लाल किले की सैनिक अदालत में सेना के बड़े अधिकारियों के सवालों के जवाब दुर्गा मल्ल ने बेझिझक दिया.
ब्रिटिश शासन की पुरजोर कोशिश थी कि किसी भी तरह आजादी के इस आंदोलन को कुचल दिया जाए. भले ही इसके लिए छल कपट भी करना पड़े. दुर्गा मल्ल को इस अभियोग से बरी करने के लिए यह प्रलोभन दिया गया कि वह ऐसे माफीनामे पर दस्तखत कर दें जिसमें यह स्वीकार किया गया हो कि उन्हें ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध लड़ने के लिए उकसाया गया. पर दुर्गा मल्ल तो उस मिट्टी की पैदाइश थे जो अपनी मातृ भूमि की रक्षा के लिए प्राण न्योछावर करने में सदैव तत्पर रही है. वीरतापूर्वक ब्रिटिश सरकार की कुटिल पेशकश को अस्वीकार कर वह माफीनामे के कागज को फाड़ देते हैं.
भरी अदालत में वह देश के प्रति अपने संकल्प को दोहराते हैं कि, ‘गोलियां दाग कर, आग में झोंक कर या क्रूर से क्रूर अत्याचार कर अंग्रेज सरकार मुझे मारना चाहे तो मार ले. मैं मरने के लिए तैयार हूं. मेरी एक की मौत से मेरे जैसे लाखों देशप्रेमी जन्म लेंगे और राष्ट्रीय भावना मैं ओतप्रोत हो कर स्वतंत्रता की बलि -वेदी पर अपने प्राण हँसते हँसते बलिदान करने के लिए तैयार रहेंगे.”
दुर्गा मल्ल का यह उत्तर सुन कर अधिकारी असमंजस में पड़ गए. सैनिक अदालत यह चाहती थी कि वह माफ़ी मांग लें. इसलिए उन्होंने दुर्गा मल्ल को दो दिन का समय दिया कि वह अपने निर्णय पर पुनः विचार करें. नियत समय पर अदालत फिर बैठी.दुर्गा मल्ल अपने निर्णय पर अडिग थे. सरकार ने अब उन्हें उनके परिवार के सदस्यों से मिला कर भावनात्मक रूप से विचलित करने की कोशिश की पर वह न माने. आखिर में उनसे यह तक कह दिया गया कि भले ही वह माफीनामे में दस्तखत न करें बस मौखिक रूप से यह कह दें कि मैं अपनी पल्टन जी. आर. में काम करना चाहता हूं. पर वह न माने. उन्होंने अपने संकल्प को दोहराया.बोले कि ‘सिर झुका माफ़ी मांगने के बजाय मैं सर ऊँचा कर अपने देश के लिए बलिदान देना चाहूंगा’. अदालत में सन्नाटा पसरा रहा. अधिकारियो ने उन्हें भीतर बुला फिर समझाने की कोशिश की. दुर्गा मल्ल तो अविचल थे, अपनी बात पर दृढ़, अपनी माटी पर सब कुछ न्योछावर होने के प्रण पर अडिग. सेना का अनुशासन भंग करने, सम्राट के विरुद्ध षड़यंत्र करने के आरोप में भारतीय सैनिक कानून की धारा 41 और भारतीय दंड संहिता की धारा 121 के अंतर्गत उन्हें मृत्यु दंड दिया गया.
फांसी पर लटकाने से पहले माफीनामे में दस्तखत कर छूट जाने का भरोसा उन्हें फिर दिया गया पर उनके दिमाग में तो नेता जी का सिंगापुर में किया एक ही संकल्प एक ही ही नारा था ‘दिल्ली चलो’.नेता जी ने कहा था ‘तुम मुझे खून दो मैं तुम्हें आजादी दूंगा’. दुर्गा मल्ल ने स्वयं को ऐसा खुशनसीब सैनिक पाया जो नेताजी के आह्वान पर खरा उतरा.
फांसी पर लटकाये जाने से पहले दस दिन तक उन्हें कैदी नंबर 4216 के रूप में रखा गया. उस काल कोठरी के तख्त में दरी बिछी थी. उनके सिरहाने गीता के साथ कागजों का वह पुलिंदा था जिसमें उनकी रची कविताएं थी उनका रचना संसार था. उनकी फांसी से एक माह पहले ही उनकी पत्नी शारदा मल्ल, छोटे भाई लक्ष्मण मल्ल, बहन श्यामा, सासू श्रीमती हरिकला और चचिया ससुर नत्थू चंद ठाकुर की उनसे मुलाकात करवाई गई तो सबको लगा कि वह तो अनूठे परमानन्द की अवस्था में हैं.
उनसे बात होने पर पहले उन्होंने अपने सभी मित्र परिचित सम्बन्धियों की कुशल ली. फिर सबको अपनी फौज के कारनामें सुनाए. बार -बार नेताजी सुभाष बोस और जर्नल मोहन सिंह व अन्य देशभक्त साथियो की तारीफ की. तब बोले कि यह जीवन तो क्षण भंगुर है. बहुत सोच विचार कर वह आजाद हिन्द फौज में आए अब देश के लिए, आजादी के लिए लड़ना और अपने प्राण देना उनका कर्तव्य है. शांत, प्रसन्न चित्त और संतुलित रह गीता के दो श्लोक पढ़ 25 अगस्त 1944 को फांसी पर लटक उन्होंने देश के प्रति अपनी सर्वोच्च निष्ठा प्रकट कर दी. दिल्ली जिला जेल के रोज एवेंन्यू में स्थापित शहीद स्तम्भ में उनका नाम खुद गया.
विवाह के तीन दिनों के भीतर ही अपनी पत्नी को गांव में छोड़ सिंगापुर को प्रस्थान व आई. एन. ए में शामिल हो गुप्तचर विभाग का नेतृत्व करते भारत में आना और गिरफ्तार हो वह मातृभूमि के शहीद बने.तब उनकी पत्नी शारदा देवी की उम्र चौदह साल थी. वैधव्य के पश्चात् इस वीर शहीद की पत्नी ने अपनी पढ़ाई नियमित कर पंजाब यूनिवर्सिटी से ‘प्रभाकर’ परीक्षा उत्तीर्ण कर ली. फिर सिलाई बुनाई का प्रशिक्षण ले स्कूल में क्राफ्ट टीचर बन गईं. अगस्त 1972 में उन्हें सरकार द्वारा स्वतंत्रता सम्मान परिवार पेंशन दी गई. सन 1989 में वह उच्चतर माध्यमिक विद्यालय से सेवा निवृत हुईं व 29 जनवरी 1990 को उनका निधन हो गया. शहीद दुर्गा मल्ल को फांसी की सजा होने के बाद उनके दोनों भाइयों ने गोर्खा राइफल्स से त्यागपत्र दे दिया व डोईवाला गांव के अपने पैतृक घर से हट अनारवाला व रांझे वाला बस गए.
(Shahid Durga Malla)
अपने देश को आजाद देखने के लिए क्षमादान की याचना के बजाय अपने जीवन का बलिदान करने के समय जब उन्हें फांसी के तख़्त की ओर ले जाया गया तो सैनिक अदालत के न्यायाधीश ने उनसे अंतिम इच्छा पूछी. वीर दुर्गा मल्ल ने कहा कि वह एक गीत गाना चाहते हैं. न्यायाधीश ने उन्हें गीत गाने कि इजाजत दी. लय और ताल के साथ वीर दुर्गा मल्ल की आवाज गूंज उठी :
कदम कदम बढ़ाए जा
खुशी के गीत गाए जा
ये जिंदगी है कौम की
कौम पर लुटाये जा.
तेरी हिम्मत बढ़ती रहे
खुदा तेरी सुनते रहे
जो सामने तेरे अड़े
तो खाक में मिलाये जा.
कदम कदम…
गोर्खा शिखर पुरुष -श्रृंखला (2) में रचे सन्दर्भ ग्रन्थ ‘अमर शहीद दुर्गा मल्ल’ में सुवास दीपक ने भारत के पहले गोर्खा स्वाधीनता सेनानी के जीवन वृत के साथ ही उन तथ्यों को सामने रख दिया है जो इससे पहले सामने ही नहीं लाये गये थे.
गंगटोक सिक्किम के साहित्य अकादमी अनुवाद पुरस्कार, नेपाली भाषा तथा साहित्य में विशिष्ट योगदान के लिए भानु पुरस्कार तथा महाकवि लक्ष्मी प्रसाद देवकोटा अन्तर्राष्ट्रीय सम्मान प्राप्त सुवास दीपक ने हिंदी, अंग्रेजी के साथ ही नेपाली में आंचलिक व राष्ट्रीय परिदृश्य पर खूब रचा है.
(Shahid Durga Malla)
जीवन भर उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के कुल महाविद्यालयों में अर्थशास्त्र की प्राध्यापकी करते रहे प्रोफेसर मृगेश पाण्डे फिलहाल सेवानिवृत्ति के उपरान्त हल्द्वानी में रहते हैं. अर्थशास्त्र के अतिरिक्त फोटोग्राफी, साहसिक पर्यटन, भाषा-साहित्य, रंगमंच, सिनेमा, इतिहास और लोक पर विषदअधिकार रखने वाले मृगेश पाण्डे काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.
हमारे फेसबुक पेज को लाइक करें: Kafal Tree Online
Support Kafal Tree
.
काफल ट्री वाट्सएप ग्रुप से जुड़ने के लिये यहाँ क्लिक करें: वाट्सएप काफल ट्री
काफल ट्री की आर्थिक सहायता के लिये यहाँ क्लिक करें
1 Comments
खीम सिंह रावत
उत्तराखंड के भूले बिसरे सहीद सेनानी दुर्गा मल्ल जी के बारे में लिखा गया व्रत कथा पढ़कर आनंद विभोर हो गया हूं कि हमारी देवभुमि की धरा पर ऐसे लोग पैदा होकर फांसी के फंदे को सहर्ष आलं गन करते हुए अपना बलिदान दिया।
धन्यवाद लेखक महेदय को जिन्होंने इतने विस्तार से शाहिद दुर्गा मल्ल के बारे में सुधी पाठको को सरलता से अवगत कराया।। काफल ट्री का हार्दिक आभार व्यक्त करता हूं।।
टिप्पणीकार ,,,,, ,,,,, खीम सिंह रावत हल्द्वानी से ।।