कल एक मित्र का फोन आया. मित्र मुम्बई में हैं, और अभिनय के क्षेत्र में अपना नाम कमा रहे हैं. वैसे तो मित्रों के फोन आते रहते हैं, परन्तु ये फ़ोनकॉल विशेष थी.
ये फोनकॉल, मुझ लेखक के लेखन की प्रशंसा के एकमात्र उद्देश्य से की गई थी. जाहिर है लेखक के लिये, ये ज़िंदगी की सबसे महत्वपूर्ण फोनकॉल्स में से एक थी.
मित्र ने लेखन की प्रशंसा प्रारम्भ की ही थी कि मेरी आँखों के सामने दोनों बच्चों ने कुत्तों की तरह लड़ना प्रारम्भ कर दिया. उधर से मित्र भाषा की पकड़ पर बात कर रहा था और इधर ये दोनों बच्चासुर एक-दूसरे के बाल पकड़े थे.
बच्चों को इस तरह लड़ते देख असली वाला कुत्ता कब तक शांत बैठता! उधर से मित्र ने कहा कि तुम दृष्टांत अच्छे उठा रहे हो, इधर वो कुकुर मेरे सामने मेरा मोजा उठा कर ले गया. वहाँ मित्र मेरे लेखन का विश्लेषण कर रहा था, और यहाँ कुकुर मोजे के तंतुओं का. मैं लाचार देख रहा था.
चर्चा आगे बढ़ी. उधर मैंने मित्र से कहा कि उत्साह बढ़ाने के लिये मैं आपका ऋणी रहूँगा. इधर मेरा ऋणी, प्रेस वाला, कपड़े ले आया. वो मेरा दस रुपये का ऋणी था. जी में आया कि फोनकॉल रोक कर श्रीमती जी से कह दूँ कि इसके दस रुपये काट लेना. पर लेखक के लिये प्रशंसा से अधिक कीमती क्या हो सकता है भला? …. कल पता चला कि प्रशंसा से अधिक कीमती दस रुपये होते हैं. प्रेस वाला, मुझे चिढ़ाने वाली, विजयी मुस्कान दे कर चला गया.
बात फिर आगे बढ़ी. थियेटर की चर्चा चल निकली. उधर से मित्र ने बताया कि भोपाल में थियेटर से अनेक प्रतिभाशाली लोग निकल रहे हैं, इधर श्रीमती जी ने फ्रिज से टिण्डे निकाल लिये.
टिण्डे शत्रुराष्ट्र के घुसपैठिये की तरह होते हैं. आप कितने भी सुरक्षा प्रबंध कर लें; आधा किलो ,पाव भर तो घर में घुस ही आएंगे. कई बार गृहणियाँ बदला लेने के लिये भी टिण्डास्त्र चलाती हैं. मेरी निगाहों से ठीक दस फुट दूर टिण्डे काटे जा रहे थे और मैं असहाय था. टिण्डे काटते समय स्त्रियों के चेहरे पर क्रूरता के भाव आ जाते हैं कि आज बताती हूँ साले को, बड़ा पति बना फिरता है! फिर वे प्रेम से कहती हैं-
आ साजन इन टिण्डन में, सो प्लेट ढाप तोहे दूँ.
न मैं खान दूँ और को, न तोहे छोड़न दूँ.
मेरा मन मित्र की प्रशंसा में नहीं लग रहा था. कटी सब्ज़ी को छुकने से रोकना ,किसी अनगाइडिड मिसाइल के रूख़ को मोड़ने की तरह है. अब कुछ नहीं किया जा सकता था.
उधर से मित्र ने कहा – मिलने का प्लान बनाते हैं, मैं भोपाल आ रहा हूँ , इधर फोन पर बॉस की कॉल वेटिंग आने लगी. अब साहित्य और नौकरी में से एक का चुनाव करने का वक़्त आ गया था. मित्र की मीठी-मीठी प्रशंसा के बीच, कॉल वेटिंग की कड़वी टूँ-टूँ आ रही थी. हृदय गति बढ़ रही थी. फिर बॉस का फोन आना बंद हो गया. बॉस को दया आ गई होगी शायद , पर इसकी सम्भावना कम ही है.
सम्भावना इस बात की है कि बॉस का अहम् आहत हो गया हो. बॉस का अहम् ,शेयर सूचकांक से भी अधिक सम्वेदनशील होता है.
मित्र के अभिनय की बात चल निकली. उधर मैं मित्र से कह रहा था कि तुम्हें अपने वीडियो सोशल मीडिया पर पोस्ट करने चाहिये, इससे तुम्हारी प्रसिद्धि और बढ़ेगी, इधर बच्चों के बीच की लड़ाई और बढ़ गई थी. दंगा बढ़ते देख बच्चों की माँ का धैर्य छूट गया और वो टिण्डे छोड़ कर युद्ध में सम्मलित हो गईं. युद्ध अब त्रिपक्षीय हो गया.
इस प्रकार की परिस्थितियों में सबसे पहले उसका दमन किया जाता है जो सर्वाधिक विद्रोह कर रहा हो, सर्वाधिक मुखर हो. सरकारी दमन की पहली झलक माँ के दमन में मिलती है.
माताएँ, किसी एनकाउंटर स्पेशलिस्ट की तरह ,चिल्ला-चोट कर रहे बच्चे को कोने में ले जाती हैं, फिर उसकी अच्छे से कुटाई करती हैं. बच्चा ज़्यादा विद्रोही हुआ तो उसका मुँह दबा कर बंद भी कर सकती हैं. इस मामले में शायद ऐसा ही हुआ होगा. हालाँकि दूसरे पक्ष का कहना था कि ये बच्चा बहुत शातिर है, ये झूठ बोल रहा है. डिप्लोमेटिक बच्चे इस मारा-कुट्टी से बच जाते हैं. जो पिटते हैं,वे ही आगे चलकर कुछ क्रांति करते हैं. इस सारी पंचायत के बीच मित्र का फोन जारी था.
इस बीच पिटने वाला बच्चा भैंकरा देता हुआ मेरे पास आ गया. कार्यपालिका के बाद अब उसे न्यायपालिका का अनुभव होने वाला था.
घर के विवादों में निर्णय देने वाले पुरुष की स्थिति ऐसी होती है, जैसी राम मंदिर के मामले में सुप्रीमकोर्ट की है. पुरुष बच्चे को सांत्वना देता है और बस सांत्वना देता है. इस सांत्वना के बहाने, वह स्वयं को भी सांत्वना देता है.बच्चा समझ गया कि कानून के भरोसे कुछ नहीं होने वाला.
उधर मित्र समझ गया कि मेरा ध्यान फ़ोन के वार्तालाप पर नहीं है. वह थियेटर का मँझा हुआ अभिनेता है. उसने मेरी आवाज़ के उच्चावच, शब्दों के मध्य के अंतराल से ये जान लिया है कि मेरा ध्यान कहीं और है. इधर बच्चों के भैंकरे की आवाज़ तेज होती जा रही थी. मित्र विनम्रतापूर्वक कहने लगा-अभी तुम व्यस्त हो, मैं बाद में फोन करता हूँ. मैंने स्वयं से कहा – व्यस्त?
मेरे जैसा उदासीन जीवन जीने वाला व्यक्ति, जिसका दिन अड़तालीस घण्टे का होता हो, जिसे प्रेम यह कह कर छोड़ गया कि तुम बहुत बोरिंग हो, जिसने विश्विद्यालय की सांस्कृतिक गतिविधियों में डिबेट और क्विज़ का चुनाव किया हो, जिसका प्रिय विषय दर्शन शास्त्र हो, जिसके फोन पर पूरे दिन में केवल एक काल, सिम कम्पनी वाली मैडम का, आता हो , वह व्यस्त?
दरअसल आप किसी भी साहित्यकार या ‘वाना बी’ साहित्यकार से पूछें, वह आपको यही बताएगा कि मुझे लिखने के लिये बहुत संघर्ष करना पड़ा. यह बात अब मुझे समझ आई. लेखन तो लेखन, कायनात मुझे प्रशंसा भी सुनने नहीं दे रही थी.
ये सारी गतिविधियां उसी समय हुई जब मित्र का फोन कॉल आया. इसीलिए ‘नीरज’ ने लिखा होगा –
मैं चला जब रोकने दीवार सी दुनिया खड़ी थी,मैं हँसा तब भी, बनी जब आँख सावन की झड़ी थी.
अतः उपरोक्त प्रकार से व्यंग्य का जन्म होता है.
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मूलतः ग्वालियर से वास्ता रखने वाले प्रिय अभिषेक सोशल मीडिया पर अपने चुटीले लेखों और सुन्दर भाषा के लिए जाने जाते हैं. वर्तमान में भोपाल में कार्यरत हैं.
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