कोई ज़िंदा है…?
इन तीन शब्दों का नाद बहुत देर तक ज़ेहन में होता है… होना चाहिए भी क्योंकि ये तीन शब्द आपके ज़िंदा होने की तस्दीक के लिए ही कहे गए हैं.
ओ टी टी के इस रहस्य–रोमांच–अपराध–अश्लीलता और नाटकीयता के ओवर डोज़ वाली सिरीज़ के युग में ‘सरदार उधम’ जैसी फिल्म एक साहसिक हस्तक्षेप है एक ठोस प्रोटेस्ट. कंटेंट और प्रेजेंटेशन दोनों में.
फ़िल्म में अंडरलाइनिंग घटना तो जलियावाला बाग है, उससे उपजी बेचैनी है, उस बेचैनी से उपजा प्रोटेस्ट या विद्रोह है और फिर उस विद्रोह के पीछे का जीवन दर्शन है लेकिन जिस बारीकी से घटनाओं और इतिहास के उस टुकड़े में जगह–जगह फैले ब्यौरों को बुना गया है वो ज़्यादा महत्वपूर्ण है. भरपूर शोध के साथ बनी इस फिल्म में ब्रिटेन की सीक्रेट सर्विस MI 6 की कार्यवाहियों से लेकर आयरिश विद्रोही और उनके इंडिया हाउस से संबंध तक को जोड़ा गया है.
फिल्म ने मार्क्स के विचार को, सोशलिज्म और लिबरल थॉट्स को बहुत शानदार तरीके से रेखांकित किया है. ये एक तरह का प्रति आख्यान है जो छद्म राष्ट्रवाद और देश भक्ति के पॉपुलर प्रदर्शनों को आईना दिखाता है. भगत सिंह को अपने पाले में खींचने की रस्साकसी के बीच ये सामान्य और जाना–बूझा सा सच भी बड़ा लगने लगता है कि HSRA के मेंबरान या भगत सिंह या शहीद उधम सिंह या फेबियन सोशलिस्ट नेहरू या फासिस्ट बेंडिंग सोशलिस्ट सुभाष कौन लोग थे, इनकी ज़मीन क्या थी और उद्देश्य क्या. या उन्हीं के समय में उनके बरक्स खड़े और इनकी मुखालिफत में सरकार के साथ दिखने वाले लोग और उनके उद्देश्य क्या. आम तौर पर ज़्यादा ऑडियंस तक पहुंचने के लिए फिल्मकारों को विचारधारा से समझौता करना पड़ता है. शूजित ऐसा करते नहीं दिखते.
विचार हिंदी फिल्मों में पहली दफा आया हो, ऐसा नहीं है. सत्तर–अस्सी के दशक के साथ एक समय हिंदी सिनेमा में ऐसा आया था जब लेफ्ट (या लिबरल) विचार को लेकर फिल्में बनीं. एक धारा जो समानांतर सिनेमा की चली उसमें फॉर्मूला फिल्मों के सामने एक प्रति आख्यान रचा गया. अपने दर्शन में रूढ़ होते–होते इन फिल्मों और प्रचलित फिल्मों के बीच एक दूरी बनी रही. नए सिनेमा में आर्ट और कमर्शियलिज़म का गठजोड़ सबसे सुखद है हालांकि उसमें कुछ उधड़े हुए धागे भी हैं जो कुछ समझौतों से रफू होते हैं जिसमें बड़ा समझौता आर्ट को ही करना पड़ता है. यहां यह देखना सुखद है कि समझौते का धागे पर कला पक्ष के रंग कम हैं.
फ़िल्म बायोपिक है और विक्की कौशल अपनी आंखों और चेहरे की बनती–बिगड़ती रेखाओं से उस बेचैनी को आवाज़ देने में सफल हुए हैं जो सरदार उधम के ज़ेहन में रही होगी. फिल्म का सेटअप, ख़ास तौर से तीस के दशक का ब्रिटेन और रूस बहुत अच्छे से दर्शाए गए हैं किसी हॉलीवुड फिल्म की तरह अच्छी तकनीक के इस्तेमाल के साथ. बस एक चीज़ बहुत बुरी तरह अखरती है– भाषा का ट्रीटमेंट. ऐसा लगता है स्क्रिप्ट और स्क्रीन प्ले कुछ बरस पहले लिखा गया होगा जब OTT प्लेटफॉर्म पर छोटे शहरों कस्बों के सिनेमा घरों वाले दर्शक कम थे इसलिए डायलॉग्स अंग्रेजीदां या मल्टीप्लेक्स सिनेमा वाले दर्शकों को टारगेट करके लिखे गए.
शूजित सरकार दृश्य की ‘मंथर गति’ और आवाजों के बीच ‘मौन’, दोनों के शानदार इस्तेमाल की काबिलियत रखते हैं. धीमी चाल में खरामा–खरामा चलते लंबे सीन और बहुत तफ़्सील से खुलते सीक्वेंस उनका यू एस पी है. ‘सरदार उधम’ में यू एस पी काम कर गया लगता है. आर्ट और विचार का ऐसा मेल कम ही देखने को मिलता है.
रूस के बर्फीले प्रदेश और स्लेज से पार करने वाला सीन खूबसूरत है तो वहीं जलियांवाला बाग में रक्तपात और उसके बाद का दृश्य बहुत लंबा और खूब खून, दर्द, चीख और कराहों से भरा हुआ है. वो पूरा दृश्य उसी भयावहता, विद्रूपता और नग्नता के साथ आना भी चाहिए था जो बीस सालों तक सरदार उधम सिंह के अंदर, उसके व्यक्तित्व में बैठा रहा, खौलता रहा, बजबजाता रहा. दरअसल वो पूरा दृश्य उधम सिंह के काम को और उनके विचार को अकेला जस्टिफाई कर सकने में सक्षम है.
ऐसा लगता है कि उस वार्तालाप की आवश्यकता नहीं थी जिसमें माइकल ओ’ड्वायर अपने कृत्य के लिए लेश मात्र का भी अपराध बोध होना स्वीकार नहीं कर रहा है. माइकल ओ’ड्वायर की एक किताब है ‘इंडिया एज आई नो इट’ उसमें जनरल डायर के इस कृत्य के साथ–साथ उनके अपने कार्य–काल के दौरान किए सारे कृत्यों पर पीठ ठोंकी गई है. 1925 में छपी इस किताब में जनरल डायर के इस एक्शन के बाबत वो एक टेलीग्राम का हवाला देते हैं जो एकदम से ध्यान खींचता है– ‘योर एक्शन करेक्ट एंड लेफ्टिनेंट जनरल अप्रूव्स’.
इस बात को दर्शाने के लिए कि इस नरसंहार के लिए माइकल भी उतना ही दोषी था, उस वार्तालाप का सहारा लिया गया. वो कहानी के लिहाज़ से एक कमज़ोर सीन हो सकता था, पोएटिक जस्टिस खोजने वाला, कड़ी जोड़ने वाला, कार्य–कारण संबध मिलाने वाला, बायोपिक के लिहाज़ से एक कृत्रिम सा सीन. लेकिन शूजित ने ज़रा सा ट्विस्ट देते हुए उस सीन के ज़रिए बदले की कार्रवाई और प्रोटेस्ट के बीच मौलिक अंतर की बात रखकर कमाल कर दिया है.
प्रोटेस्ट और विद्रोह, मतांतर और घृणा, वैचारिक विरोध और बदला के बीच के संबंध और अंतर को असेंबली हॉल में फेंके गए बम और भगत/ बटुकेश्वर की सायास गिरफ्तारी में समझा जा सकता है या उस पर्चे से समझा जा सकता है जो असेंबली हॉल में भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने उड़ाए थे जिसकी आखिरी पंक्तियां थीं–
‘हम मनुष्य के जीवन को पवित्र समझते हैं. हम ऐसे उज्जवल भविष्य में विश्वास रखते हैं जिसमें प्रत्येक व्यक्ति को पूर्ण शांति और स्वतंत्रता का अवसर मिल सके. हम इंसान का खून बहाने की अपनी विवशता पर दुखी हैं. परन्तु क्रांति द्वारा सबको समान स्वतंत्रता देने और मनुष्य द्वारा मनुष्य के शोषण को समाप्त कर देने के लिए क्रांति में कुछ-न-कुछ रक्तपात अनिवार्य है.’
या उस तस्वीर से समझा जा सकता है जो फांसी पर झूलते हुए उधम के हाथों में थी.
जलियांवाला बाग सीन के साथ नेपथ्य में मद्धम स्वर में बजता ‘कोई जिंदा है’ का साउंड ट्रैक पूरे साढ़े बीस मिनट का है. इसे पूरा सुनिए. कोई मेलोड्रामा नहीं है, न बहुत सारे ड्रम्स बज रहे न ही शांतनु मोइत्रा ने तेज़ परकशन वाद्यों से आपकी हृदय गति बढ़ाने का प्रयास है, ना ही वॉयलिन के पंचम सुर में कोई तीखी और तेज़ आवाज़ उठ रही है. जो है वो इस दृश्य के प्रभाव को अत्यधिक सांद्र कर रहा है. अगर आपको कोई हूक उठ रही है, कोई दर्द उभर रहा है, गुस्से से कांप रहे हैं, रुलाई छूट रही है या उबकाई आ रही है ये म्यूज़िक और दृश्य के एकसार होने का असर है.
इस सीन में एक तीर की तरह झक भीतर घुसने वाला शॉट है. एक बच्चा है जिसके ऊपर लोगों का पांव पड़ रहा है. लोग आपाधापी में उसे कुचलते हुए निकल रहे हैं… ये शॉट इस लंबे सीक्वेंस में चार या पांच बार आया है. बार– बार का दुहराव इसलिए नहीं है कि आपने पहली बार में मिस किया तो दुबारा देख लीजिए बल्कि इसलिए कि एक तरह का ‘दृश्य–अनुनाद’ पैदा हो, बारहा एक दस्तक, एक चोट जो हथौड़े की ठक–ठक की तरह आपके अंतस पर दर्ज होती जाए.
कोई है… कोई है… कोई
कोई ज़िंदा है?
जौनपुर में जन्मे अमित श्रीवास्तव उत्तराखण्ड कैडर के आईपीएस अधिकारी हैं. अमित के गद्य की शैली की रवानगी बेहद आधुनिक और प्रयोगधर्मी है. उनकी तीन किताबें प्रकाशित हैं – बाहर मैं … मैं अन्दर (कविता), पहला दख़ल (संस्मरण) और गहन है यह अन्धकारा (उपन्यास).
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