-चन्द्रकला
पहाड़ की चोटी पर घाम दिखाई देने लगा है. पहाड़ों पर घाम आने तक तो घर से बाहर काम-काज के लिए निकलने की तैयारी पूरी हो जाती है. बचुली भी जल्दी-जल्दी अपने काम निपटा रही है. उसे घास के लिए जंगल जाना है. आजकल के दिनों में आसपास घास मिलना बहुत ही मुश्किल हो जाता है. नीचे बाखली में बच्चों के हल्ला-गुल्ला के बीच घसियारिनों की आवाजे़ें भी सुनाई देने लगी हैं. अभी तक घर का काम खतम होने को नहीं आया है. कितना भी जल्दी उठो घर के काम बचे ही रह जाते हैं. रात ब्याण का तारा देखकर तो उठ जाती है बचुली. धारे से पानी लाना हुआ, गाय-भैंस का दूध निकालकर पूरे परिवार की चाय तैयार करनी हुई, तब पूरा परिवार उठने वाला हुआ. बच्चे कहां काम करने देते हैं, इसलिए उनके उठने से पहले ही कलेवा बना लेना पड़ता है. अपनी सुध लेेने का समय ही कहां बचता है. (Story by Chandrkala)
छोटे-मोटे काम निपटाने में ही पूरी सुबह निकल जाती है. फिर घर के काम दिखते ही कहां हैं? पूरा दिन भी लगे रहो तब भी पूरे नहीं होते! कोई काम छूट गया, तो सास की डांट-फटकार का डर अलग से हुआ. हर घड़ी तलवार सी लटकी रहती है सिर पर. पति ठहरा फौजी, कभी-कभार ही आना होता है उसका. इसलिए तो मन ही मन घुटती रहती है वह. गांव में जब रेडियो बजता है, तो बचुली के कान वहीं लगे रहते हैं. कहीं लड़ाई तो नहीं लग गई? सेाचती रहती है वह. जब तक कुशल-क्षेम न मिल जाय, तब तक गले से नीचे रोटी नहीं उतरती. साल भर में एक बार घर आने वाला हुआ बचुली का पति प्रकाश. बचुली के पास बैठने का तो समय ही नहीं मिलता उसको. कभी दुः,ख बीमारी हुई, कभी बच्चों का नामकरण हुआ या नाते-रिश्तेदार में कोई शादी हुई, तभी आना हो पाता उसका. कोई न कोई जरूरी काम हमेशा ही हुआ. यदि कभी बीच में छुटट्ी मिल गई तो बीच में आ जाता है, नही ंतो साल भर बाद ही आना होता है. कितने भी दिन के लिए आये प्रकाश, इत्मीनान से बैठककर घर-गृहस्थी की बातें करने या बचुली की दुःख परेशानी सुनने की कभी फुरसत नहीं मिलती उसे. पति-पत्नी का आपस में खुलकर बातें करना अच्छा भी तो नहीं मानने वाले हुए गांव-घरों के लोग. वैसे भी पहाड़ में आमतौर पर लड़कों की शादी घर का काम सम्हालने के लिए ही तो कर दी जाती है. शादी के बाद बहू-बेटे का जीवन कैसा होगा, उनकी इच्छा-आकंक्षाओं का क्या होगा? इसका ख्याल कोई नहीं रखता, न ही इस दिशा में सोचने की किसी को फुरसत होती है. बहू के सपने, सपने ही रह जाते हैं, मन की बात मन में ही रह जाती है.
पहले-पहल बचुली ने अपने पति को मन की बात चिट्ठी में लिखकर भेजने की सोची भी, तो उसकी सम्भावना नहीं बन पाई आखिर . उत्तर आ गया, तो बचुली से पहले पूरे गांव को खबर हो जाने वाली हुई. गांव के जेठ जी डाकिया जो ठहरे! चिटठ्ी पढ़कर बड़बड़ाते रहते-‘‘आजकल की ब्वारियों को शर्म की नहीं हुई! कैसी वाहियात बातें लिखती हैं! और ये छोरे, दो पैसे क्या कमा लिये, ब्वारियों के इशारों पर चलने लगते हैं! बड़े-बूढ़ों का लिहाज तो है ही नहीं!’’ पर वे स्वयं किसी की भी चिट्ठी खोल कर पढ़ते समय किसी लिहाज़ की नहीं सोचते. गांव में आते-जाते वक्त इससे बचुली उसहज महसूस करने लगी. आखिर मन मारकर चिट्ठी लिखना भी छोड़ देना पड़ा उसे.
जब तक बच्चे नहीं हुए, मन परदेश में ही लगा रहता था. बहुत बार पति से कहा, साथ ले जाओ. लेकिन कौन सुनने वाला हुआ! ससुराल के दुख से दो-तीन बार मायके भी भाग कर चली गई. लेकिन हर बार मायके वालों ने पहुंचा दिया ससुराल. यह कहकर कि अब वही तेरा घर है. सुख हो या दुख, सब कुछ झेलते हुए रहना होगा तुम्हें वहीं. मायके में अब कुछ भी नहीं है तुम्हारा. तब कितना रोती थी वह. यह सोचकर कि आखिर लड़की को पराये घर क्यों जाना होता है? लेकिन दुख हो तो क्या, जीना तो हर हाल में पड़ता ही है. दिन-महीने और सालों-साल! फिर मां-बाप की इज्ज़त भी तो लड़की को ही रखनी हुई! इसीलिए कष्ट सहते हुए भी वह ससुराल में ही डटी रही. इसी उम्मीद में कि कभी तो दिन बहुरेंगे. अब तो बच्चों में ही सारा सारा ध्यान लग जाता है. बचुली के आने के बाद घर में केवल बच्चे ही नहीं बढ़े, ससुराल की भैंसे भी बढ़ गई थीं. जो खेत बांज पड़ रहे थे उनमें फसल उगने लगी थी. घर और बाहर, सारा काम बचुली के सहारे ही तो टिका हुआ था. देा देवर हैं, वे कभी मदद कर दे ंतो ठीक. नहीं तो उनकी मिन्नतें करते रहो. जरा-सी उनके मन की नहीं हुई, तो तमाशा शुरू कर देने वाले हुए वे घर में.
पहाड़ की औरत को तो शुरू से ही कष्ट सहना होता है. काम का बोझ इतना कि वह अपनी इच्छा से जीना तो क्या, मरने की भी नहीं सोच सकती है. तली बाखेली के बचराम सौरज्यू की ब्वारी रधूली है जिससे अपना सुख-दुःख कहकर मन हल्का कर लेती है बचुली. फिर किसी भी दुख-दर्द में साथ देने वाली, हिम्मत बांधने वाली, सबकी रधुली दी ही तो हुई. सुखी तो वह भी नहीं हुई अपने परिवार में. लेकिन गांव में सबसे समझदार वही हुई.
कमर में रस्सी , हाथ में दरांती, आंचल में भूने हुए भटट् के दाने व चावल बांधकर निकल रही हैं घसियारिनें अपने-अपने घरों से. जिसका घर सबसे नीचे हुआ उसने निकलना ठहरा सबसे जल्दी. फिर एक-एक को आवाज़ लगाते-लगाते, ठट्ठा करते, खिलखिलाते बन जाता पूरा समूह. बचुली भी जल्दी से दो रोटी हलक में डाल लेना चाहती है. काम के बीच में खाने की फुरसत कहां मिलती है? रूखा-सूखा जो भी मिला, खाना हुआ ही. भूखे पेट पूरा कारोबार सम्हालना भी तो मुश्किल है. पहाड़ों में बीमार पड़ना भी तो एक और मुसीबत ठहरी. आसपास कहीं अस्पताल या डाक्टर हुए भी नहीं. छोटी-मोटी बीमारी हो तो वैद्यज्यू दवा देने वाले हुए. रोग समझ नहीं आया, तो डोली करके मरीज़ को सड़क तक लाना ठहरा. फिर वहां से गाड़ी करके शहर के अस्पताल पहुंचने वाले हुए. वहां डाक्टर ने ठीक देखभाल कर ली तो सही, नहीं तो कहां बचने वाला हुआ मरीज! रोटी खाते हुए सोच रही है बचुली. छोेटे लड़के को सुबह ही अपना दूध पिलाकर छोड़ना पड़ता है. दिन भर बच्चों को घर पर अकेले छोड़ने से मन में हर घड़ी टीस सी लगी रहती है. लेकिन छोड़ें नही, तो काम नहीं चलेगा.
‘‘अरे कमला, तेरी आंख में ये गूमड़ कैसे आ गया? क्या रात दीपवा के बौज्यू ने पी रखी थी?’’ बचुली ने चबूतरे में पहुंच चुकी कमला से पूछा. तभी उसके पीछे आ रही मधुली, जो कि कमला की पड़ोसन थी, बोल पड़ी, ‘‘भूली, कल रात बहुत मारा इसके आदमी ने. अपना कुछ कमाता-धमाता नहीं… ये बेचारी दूध बेचकर, घास बेचकर, खेतों में मजदूरी करके, बच्चों का पेट काट कर जो थोड़ा बहुत बचाती है वह भी नहीं छोड़ता. अपने बच्चों का भी ख्याल नहीं रखता. उसको दारू और जुए के लिए पैसे मिलते रहें, तो ठीक. नहीं तो कमला ने मार खानी हुई. सास-ससुर बूढे़ हुए… वो कुछ कहते नहीं. …आखिर बेटा जो ठहरा.’’ धीरे-धीरे सब घसियारिनें पहुंच रही हैं. कुछ पाथर पर दरांती तेज करती हुई बातें कर रही हैं. ‘‘पहाड़ का आदमी शराब न पिये, तो बात ही क्या हुई? कितने घर उजड़ते हैं, कितने बच्चे वीरान हो जाते हैं, कितनी बहुएं पिटती हैं! लेकिन दारू बन्द नहीं होने वाली हुई इस पहाड़ में!’’
बचुली ने काम समेटते हुए अपने छोटे वाले बच्चेे को सास को पकड़ाया. जो सुबह के समय मां का पीछा छोड़ता ही नहीं, बहुत रोता है. हलांकि सास सम्हाले रहती है दिन भर, फिर भी बच्चों को छोड़ने पर मन तो भर ही आता है. बचुली की सास हर समय गुस्से में रहती है. ज्यों ही बचुली ने दरांती और ज्योड़ उठाया, सास बोेल पड़ी ‘‘ब्वारी घर जल्दी आ जाना, बातों में मत लगी रहना. आसपास के गाड़-खुड़ों की गोड़ाई, खाद-पानी करना है. बाहर-भीतर के बहुत काम पड़े हैं. ढोर-डंगरों के लिए घास लानी नहीं होती, तो मैं तुझे कभी नहीं भेजती इन सैणियों के साथ. इन्होंने ही तो तेरे दिमाग चढ़ा रखे हैं. प्रकाश घर पर होता तो इतनी नहीं बिगडती तू’’. तमतमाते हुए बचुली की सास बोली.
रोज का यही किस्सा ठहरा. इसीलिए बचुली की सास को देखते ही आग बढ़ जाती हैं घसियारिनें. आज न जाने क्यों बचुली का मन खराब हो गया है. वह भी गुस्से में बोल पड़ी, ‘‘क्या बिगड़ गई हूँ मैं? जब बिगड़ने के दिन थे तब नहीं बिगड़ी. अब तो दो बच्चों की मां हो गई हूँ. अभी भी तुम सबके सामने नीचा दिखाती हो. अपना पूरा जीवन तो तुम्हारे इस घर को बनाने में लगा दिया है. फिर भी तुमको चैन नहीं है. तुम्हारा बेटा घर पर होता तो न्यारा ही करता!’’ ‘‘ओ, प्रकाश की ईजा, क्यों ब्वारी को परेशान करती है? उसके घास को जाते समय ही सारी बातें याद आती हैं तुझे. जाने दो उसको!’’
बचुली के ससुर छत के टूटे हुए पाथरों को ठीक करते हुए रुककर चिल्लाते हुए बोले. ‘‘तुम्हीं ने तो सर पर चढ़ा रखा है. नहीं तो इतना मुंह थोड़े ही खोलती यह’’! बड़बड़ाते हुए बच्चे को कमर पर खोंसते हुए बचुजी की सास भीतर चली गई. बचुली भी तेज कदमों के साथ घसियारिनों के पीछे चल दी, जो अब तक दूर पहुंच चुकी थीं.
गांव की धार पर दीपा का घर था. जिसकी शादी को अभी साल भर से ज्यादा नहीं हुआ था. घसियारिनें जो़र से उसे आवाज़ लगा रही थीं तभी उसकी भतीजी ने बाहर निकल कर कहा, ‘‘चाची तो पहले ही गाय-बछड़े लेकर जंगल को घास लेने चली गई है.’’ ‘‘क्यों क्या बात है आज इतनी जल्दी क्यों चली गई वो? कहीं घर में कुछ हुआ तो नहीं मीनू?’’ रधूली दीदी ने परेशान होते हुए पूछा. आमा चाची कल से मायके जाने की ज़िद कर रही हैै. लेकिन बाबू मना कर दिया. इसी गुस्से में बिना खाये ही चली गई है जंगल को,’’ यह कहते हुए मीनू चुप हो गई. घसियारिनें भी अपने रास्ते चल पड़ीं.
‘‘हे भगवान, क्या जिन्दगी ठहरी इस औरत की भी! आदमी अधपगला ठहरा. मां-बाप ने जाने क्या सोचकर शादी की थी इतनी खूबसूरत गुड़िया जैसी लड़की की,’’ कमला बोलने लगी. ‘‘ क्या करते? जब किस्मत खराब ठहरी, तो बांध दिया अधपगले के सााथ. पीछे से और लड़कियां भी हैं. उनको भी तो ब्याहना है मां-बाप ने. कब तक बिठाये रखते घर में! लड़का जैसा भी हो, खाने और रहने की तो कोई परेशानी नहीं होती उसके लिए. परिवार बन गया तो सुख मिल ही जायेगा. यही सोचा होगा दीपा के मायके वालों ने.’’ बचुली तपाका से बोली, ‘‘लेकिन दीपा का दुख देखने थोड़े ही कोई आ रहा है कि क्या झेल रही है वो! पति दिन भर खेत में काम करता है. फिर भी बड़ा भाई हर समय फटकारता रहता है. शादी भ तो जबरदस्ती करवा दी उसकी. दीपा तो बहुत ख्याल रखती है उसका. तभी तो शादी के बाद से खुशा रहने लगा है भुवन.’’ यही बातें करती हुई औरतों ने अपनी चाल तेज कर दी. सभी दीपा को ढूूँढने की सोच मन में लिए हुए जल्दी से जंगल में प्रवेश कर लेना चाहती थीं. दीपा के बिना घास- पिरूल-लकड़ी लाने में मन कैसे लगेगा? उसके उदेखी गीत सुनकर तो मन हल्का हो जाता है. जब वह गाती है तो सभी सुध-बुध भूल जाते हैं.
जंगल ही तो पहाड़ की महिलाओं के जीवन का आधार हैं. यदि जंगल न हो तो मानो यहां की औरतों के जीवन पर ही प्रश्न चिन्ह लग जाये. एक पहाड़ से दूसरे पहाड़, एक घाटी से दूसरी घाटी, कहीं भी जायें, वही है जो घास इकटठी करती हुई महिलाओं के जीवन को मजबूती व दृढ़ता देता है. चैमास में घर के आसपास मिल जाती है घास लेकिन और बखत तो दूर-दूर ही जाना पड़ता है. चीड़ के ऊंचे-उंचे पेड़ों पर चढ़ कर काट लाती हैं लकड़ी, पहाड़ की सहासी महिलाएं. पहाड़ कितना भी खतरनाक हो, जहां एक मुटठी भर भी घास दिख जाये, वहीं जाना हुआ इन औरतों को. तभी तो कितनी ही महिलाएं अकाल काल-कलवित हो जाती हैं इन पहाड़ियों से गिरकर. लेकिन कभी हार नहीं मानती हैं ये औरतें.
बाघ भालू का मुकाबला करना कितना भी कठिन क्यों न हो, पहाड़ की औरतों के लिए दूर-दूर तक घास-लकड़ी के के लिए जंगलों में घुसते चले जाना बहुत ही सुखद व रोमांचकारी होता है. यह पहाड़ की चोटियां व गहरी घाटियां ही तो हैं जहां सारे भय से दूर, उनमुक्त हो जाती हैं, पहाड़ की बेटी-ब्वारिरयां. अपने मन की पीड़ा, सास की फटकार, सभी तरह की किस्से कहानियां इन्हीं डांडी-कांठियों में गूंजती हैं. जब आपस में बातें करती हैं, औरतें जंगल में, तो उनके दुखों में पेड़ और पक्षी भी शामिल हो जाते हैं. सारा जंगल ही गूंज उठता है. तभी तो औरतों का दर्द गीत बनकर गूंजता है इनकी जुबान पर.
आज हिरूली, मधुली, परूली, बचुुली, रधुली, कमला, सभी परेशान हैं. कहां होगी दीपा? कहीं कोई गलत कदम न उठा ले वह! जंगल में प्रवेश करते ही दो ने उसको धाद लगाई ‘‘दीपा… ओ दीपा…! कहां है तू?’’ दूर पहाड़ों से टकराकर आवाज़ वापस आ गई. तभी बांज के झुरमुटों से खड़खड़ाहट सुनाई दी. सब की निगाहें उधर को ही उठ गईं. धीरे-धीरे उनकी तरफ आ रह थी दीपा. उसकी आंखों में बुरांस के फूलों की तरह झर-झर आंसू बह रहे थे. हमेशा हंसती रहने वाली दीपा का चेहरा आज बहुत उदास था. सभी दीपा के पास पहुंच गये. पर उसके आंसू थमने का नाम नहीं ले रहे थे. ‘‘क्या बात है दीपा? तूझे आज क्या हो गया है? तू घर से इतनी जल्दी क्यों आ गई आज? इतना रो क्यों रही है तू?’’ रधूली दीदी ने प्यार से उसके सिर पर हाथ फेरते हुए एक साथ सबकुछ पूछ लिया. ‘‘सासू बताने को कुछ होता तो कुछ बताती भी. औरत ही ठहरी मैं. किसको क्या कहूं? आदमी मेरा सीध-सादा ठहरा. किसी को कुछ बोलने हुआ नहीं. जो जेठज्यू ने कहना हुआ वही करना हुआ उन्होंने. उनके तो सामने आने से ही डरते हैं. मैत भी कितनी बार जाऊं मैं? गरीब मां-बाप और छोटे भाई-बहनों का दुख देखकर वापस आ जाती हूं.’’ यह कहकर दीपा और जो से रो पड़ी. सभी उसे देखकर दुखी हो गईं. ‘‘आखिर बात क्या है? यूं ही बड़बड़ाती रहेगी या कुछ ठीक से बतायेगी भी?’’ कमला ने झिड़की देते हुए कहा, जो खुद भी रोकर आई थी सुबह. ‘‘ क्या कहूं, दीदी, जेठज्यू ने तो मेेरा जीना हराम कर रखा है… कल शाम की बात है… तुम्हारे देवर दुकान में सौदा लेने चले गये थे. जिठानी गोठ में दूध निकाल रही थी. बच्चे चाख में किताब पढ़ रहे थे. मैं चूल्हे पर सब्जी चढ़ाकर आटा गूंथ रही थी. तभी जेठज्यू ने पीछे से आकर चुपचाप मुझे पकड़ लिया.’’ सहमी हुई दीपा ने रधुली दी के गले लगकर फिर रोना शुरू कर दिया. कुछ घड़ी तो सन्नाटा पसर गया.
‘‘क्यों क्या तेरी जिठानी नहीं समझती पति की नियत को?’’ परूली गुस्से में बोली. ‘‘दीदी, मेरी जिठानी तो देवी है देवी. मेरा तो मां की तरह ख्याल रखती है. लेकिन जेठज्यू के सामने उन्होंने कुछ नहीं बोलना हुआ. आफत कर देते हैं उनके लिए. उनका जीवन तो वैसे ही नरक है. बच्चों व छोटी ननद की खातिर सारे कारोबार पर माथा लगा रखा है. उनका कष्ट देखकर तो मेरा मन और दुखी हो जाता है. बस, यही डर है किसी दिन कलंक लग गया तो मैं जीते जी मर जाऊंगी. गांव वाले भी मुझे ही नाम रखेंगे,’’ कहकर दीपा सुबकने लगी. ‘‘अरे, तेरा जेठ इन्सान थोड़े ही ठहरा! पक्का जानवर हुआ वो तो! उसने गांव की लड़कियों को तक तो छोड़ा नहीं, ब्वारियों को क्या छोड़ेगा!’’ रधुली दीदी गुस्से से बड़बड़ाई. ‘‘सासू, अब तो घर नहीं जाऊंगी. या तो खाव पड़ जाऊंगी या यहीं किसी पेड़ से लटक कर फांस खा लूंगी. वापस घर जाना तो अब होगा नहीं!’’ दीपा दृढ़ता से बोली. दीपा की बातें सुनकर वहां मौजूद सभी औरतों का दर्द बाहर छलक आया.
पहाड़ की औरत का जीवन पहाड़ के समान ही कठिन है. पहाड़ की दृढ़ता ही तो है जो उसे हर मुसीबत से पार होने का साहस देती है. अब रधुली दी को ही देखो… शादी के तीन साल बाद ही तो पति मर गया था. छोटी ही तो थी तब रधुली दी. मायके वाले कुछ समय तक तो आते रहे. फिर कोई खबर नहीं ली. एक लड़की हुई धना. उसके सहारे ही सारी उम्र गुजार दी. पिछले साल जैसे-तैसे करके उसके हाथ पीले कर दिये. कितना भी कष्ट झेलती है फिर भी खुशनसीब समझती है खुद को रधुली दी. ननदों का ब्याह पहले कर दिया. अब एक देवर बचा हुआ है. फौज से दो महीने की छुट्टी आयेगा, तभी लगन सुझा कर ब्याह कर देगी. लड़की देख रखी है रधुली दी ने. घर में सास-ससुर के रहते हुए भी कितना दुख देखा है इसने. गांव के माहौल में एक विधवा औरत का जीवन कितना कठिन होता है. कभी अपनी कहानी सुनाती है तो आंखें भर आती हैं सुनने वालों की. जंगल-गाड़-गधेरों रास्तों में और रात-अधरात को घर के बाहर कैसे बचा आई थी खुद को. विधवा औरत कितनी भी अच्छी हो, समाज में तो उसे हमेशा ही हिकारत की नजर से देखा जाता है. रधुली दी, दीपा को समझाते हुए बोली, ‘‘देख दीपा, मैं क्या कम परेशान हूँ? भरी जवानी में विधवा हो गई मैं. कितनी बातें सुनीं मैंने! कितना नाम रखा गांव वालों ने! लेकिन मैं चुपचाप अपने काम में लगी रही. कई बार मरने की सोची मैंने. लेकिन अपनी बेटी धना की खातिर कमर बांधी मैंने.’’ तभी तपाक से मधुली बोल पड़ी, ‘‘बैणियो मैं क्या कम दुखी हूं तुम लोगों से? हर औरत का दुख बड़ा ही होता है. लेकिन मैं मरने की कतई नहीं सोचती हूँ. इन्सान का जीवन एक ही बार मिलता है. इसमें दुख हो या खुशी हर हाल में जीना होता चाहिए.’’ कमला, जिसके शराबी पति की मारी हुई चोटों का दर्द उभर आया था, बोल पड़ी, ‘‘रोज़-रोज़ मार खाना, अपमान झेलना, बच्चों को रोता देखना, बूढे़ सास-ससुर का दुःख देखना! इससे अच्छा तो मर ही जाना चाहिए.’’ दीपा को तो सहारा सा मिल गया! बोलने लगी, ‘‘तू ठीक कहती है कमला, तिल-तिल करके मरने से अच्छा तो यही है कि एक ही दिन मर जायें. कम से कम अपने साथ दूसरों को तो दुखी नहीं देखेंगे. चल, तू और मैं पार उँची वाली पहाड़ी से नीचे कूद जाती हैं. सारा मामला ही खतम हो जायेगा. हमारे पीछे कुछ भी हो, हमें क्या?’’
बचुली चुपचाप अपनी दगडियों बातें सुनते हुए अपने जीवन के बारे में सोच रही थी. सास कितना दुःख देती है! पति प्यार करता भी है तो क्या हुआ फायदा? कभी लेकर तो जाता नहीं अपने साथ. दो बच्चे हो गए, फिर भी माँ जो कहे, वही करना हुआ. बच्चों के भविष्य के बारे में तो कुछ सोचना ही नहीं है इन्होंने. काम करने वाली नौकरानी मैं हुई ही! दो बच्चे मिल ही गये हैं! अब और क्या चाहिए? कितनी बार चाहा बचुली ने कि कुछ दिन पति के साथ रहकर आऊँ. लेकिन हर बार सास मना कर देती. यह कह कर कि घर और खेत का काम-काज कौन सम्हालेेगा? प्रकाश छुटट्ी पूरी होने के बाद अपना सामान बाँधता और सुबह ही बिना कुछ बोले, चल देता. सड़क तक पहुँचने में देर लगने वाली हुई. अपने आँसुओं को चश्मे के पीछे छिपाते हुए चुपचाप चल देता. बचुली समझती है अपने पति का दर्द मन ही मन. तभी तो घण्टों धार पर बैठकर जाते हुए देखती है आज भी उसको. तब तक जब तक कि गाड़ पार आंखों से ओझल ना हो जाये, हाथ हिलाना बन्द ना हो जाये और आकृति भर न रह जायें दोनों.
मेरा जीवन भी क्या है? रोज की झिक-झिक से तो मरने में ही फायदा है. मर जाऊँगी तो दूसरी आ जायेगी. बच्चों को सास-ससुर पाल ही लेंगे. यह सोचते हुए बचुली के आंसू बहने लगे. वह दीपा से बोली, ‘‘दीपा, मैं भी तैयार हूँ तेरे साथ मरने के लिए. बहुत जी लिया मैंने! अब क्या करना है जीकर!’’
हीरुली बड़ी देर से सबकी बातें सुन रही थी. कुछ बोल नहीं रही थी. उसका जीवन भी कम दुःखी नहीं है. पति दिल्ली में काम करता है. पहले तो साल-छः महीने में घर आ भी जाता था. लेकिन अब आना बन्द ही कर दिया है. कुछ छः साल पहले तल्ले गांव वाले खीमूका ने बता दिया था कि पप्पू के बौज्यू ने दूसरी शादी कर ली है. एक लड़के का ही सहारा बचा था तब हीरूली को. उसको भी पढ़ाने का बहाना करके जबरदस्ती ले गया. अब कभी मन आया तो सास-ससुर के नाम पर कुछ पैसे भेज देता है. नहीं तो वह भी छुट्टी. सास-ससुर की देखभाल करके ही अपना जीवन गुजार रही है हीरुली. बेटे के जाने के बाद से तो एकदम गुमसुम सी रहने लगी है. तभी तो जब सब औरतें अपने दुःखों की बात करने लगी तो उसका दुःख भी छलक आया है आंखों के रास्ते. उसकी भी अपनी इच्छा यही है कि जीने में रखा क्या है!
माहौल का असर हर इन्सान पर पड़ ही जाता है. और फिर जब माहौल जंगल का हो जहां औरतें ही औरतें हों, उनमुक्त. चारों और नीरव शान्ति. कहीं-कहीं से पंछियों की चहचहाट, रुक-रुक कर. हवा के झोंकों से पार की पहाड़ी पर खडे़ चीड़ व देवदार के वृक्षों की सांय-सांय सुनाई दे रही है. तो इधर के पहाड़ में बाँज व बुराँश के सूखे पत्तों की सरसराहट खलल डाल रही है. ऐसे वातावरण के प्रभाव से स्वंय को बचाना कितना कठिन है!
आपस में अपने दुःखों को बाँटती इन महिलाओं की भावनाएं इस तरह जुड़ती चली गईं कि दुखों का पलड़ा भारी होता चला गया. और इसी के सााथ हावी होने लगी जीवन पर मृत्यु. सभी का यह एहसास धीरे-धीरे गहराने लगा कि सभी समस्याओं से निजात पाने का एक ही रास्ता है-मृत्यु. अब कोई बात बची थी तो यह कि मृत्यु का वरण कैसे किया जाय? सभी के दुःख समान हैं. जीवन जीने के लिए जो एक-दूसरे का सहारा बनते हैं, वे एक-दूसरे के सहारे मर भी सकते हैं. लेकिन ऐसा कौन सा तरीका होगा कि सब एक साथ मर सकें? सभी सोच रही थीं. ‘‘रधुली दी,’’ कमला ने सुझाया, ‘‘जब हमने साथ मरने का फैसला कर लिया है, तो तुम ही सोचो कि मरा कैसे जाय’’? परूली सब की बातें सुनते हुए अपने दुःख भूलने लगी थी. मरने की योजना बन रही थी, तो उसे अपने मन की इच्छा पूरी होती दिख रही थी. इसलिए वह बोल पड़ी, ‘‘एक साथ मरने का एक ही तरीका है. हम सभी अपनी धोती के आंचल एक-दूसरे से बांध लेते हैं. और सबसे ऊंची खड़ी धार पर जाकर वहां से नीचे गिर जाते हैं. एक-दूसरे के सहारे मर तो जायेंगे ही. गाड़ तक पहुंच गये, तो तर भी जायेंगे.’’
तभी बचुली बोली, ‘‘हाँ बैणा, तू ठीक ही कहती है. ऊंची धार से एक साथ गिरेंगे, तो कोई नहीं बचेगा. हम अपने आंचल बांध कर सो जाते हैं. मरने से पहले नींद पूरी हो जायेगी तो आत्मा को शान्ति मिलेगी’’. रात ब्याण का तारा देखकर जिनका उठना होने वाला ठहरा, आधी रात तक घर का काम ही जिनका पूरा नहीं होने वाला हुआ, उन औरतों की नींद तो मरने के बाद ही पूरी हो सकती है. इसलिए मरने से पहले पूरी कर लेने के विचार से सभी के चेहरे पर खुशी की लहर दौड़ गयी. दिन भर घाम में चैन से सोयेंगे. किसी का डर नहीं होगा. और गहरी नींद में गिरकर मर जायेंगे, तो गिरने का पता भी नहीं चलेगा!
मरने के लिए मन को कितना भी तैयार कर लिया होगा, तो भी मौत से डर तो होना ही था. इसलिए अब सबसे बड़ी समस्या थी कि कौन धार की तरफ लेटेगा? ‘‘जिसको सबसे ज्यादा दुख होगा वही आगे लेटेगी तो सही रहेगा. मैं ही सबसे पहले लेटूंगी,’’ दीपा ने आगे-आगे चलते हुए कहा. ‘‘नहीं, मैं तुमसे बड़ी हूँ, इसलिए मेरा ही सबसे आगे लेटना सही रहेगा,’’ रधुली दी बोली. बचुली तेज आवाज में बोली, ‘‘मेरा जैसा दुख किसी को नहीं है. पहले मेरा मरना ही सही होगा.’’ धार पर पहुंचने तक यही चर्चा होती रही कि कौन सबसे किनारे पर लेटेगी. अन्त में रधुली दीदी पर ही सबकी सहमति बनी.
इस बेदर्द दुनिया से दुर जाने का रास्ता ढूँढ लिया था अपने जीवन से दुखी औरतों ने. सभी पहुंच चुकी थीं ऊंची चोटी पर. धार में बैठकर सबने धोती की गाँठ में बांधकर लाये हुए च्यूड़ और भुने हुए भटट् खाये. सिरहाने पर रस्सी और दरांती रखकर सभी लाइन से सो गयीं. कोई कुछ नहीं बोल रही थी. सभी मन ही मन तैयार कर रही थी खुद को मरने के लिए. शरीर की थकान से ज्यादा मन की थकान थी. मरने का कठोर फैसला उनको डरा नहीं रहा था. क्योंकि जीवन के संघर्ष से उन्होंने हार मान ली थी. नींद, जिसकी चाहत वे सालों से करती थीं, उन पर हावी होने लगी. पक्षी भी उन औरतों के दर्द को समझते थे. तभी तो धीमी-धीमी आवाज़ में लोरी सुना रहे थे, उनके मन को शान्ति देने के लिए. वे शायद साक्षी बनना चाहते थे इन बहादुर औरतों के कठोर निर्णय के. जंगली जानवर का डर पहाड़ की औरत को होता नहीं, डरती हैं तो इन्सानी जानवर से ही. तभी तो इन्सानों से दूर जाने का फैसला कर लिया था उन्होंने. अब तो उनको न घर पहुंचने की चिन्ता थी, न घरवालों की फटकार की. सारी जिम्मेदारी से दूर वे खो जाना चाहती थी अनन्त में.
घाम पहाड़ों के पार धीरे-धीरे सरकने लगा था. हल्की ठण्डक बढ़ने लगी थी. रधुली दीदी जल्दी ही सपने में खो गई. फिर अचानक अचकचाकर आंखें खोलीं. इधर-उधर देखा. सभी चैन की नींद सो रही हैं. समझ नहीं पा रही थी कि क्या करे, क्या न करे. ज्यों ही उसने दूसरी ओर देखा तो चीख निकलते-निकलते रह गयी. लेटे-लेटे ही रधुली ने जैसे-तैसे अपना आंचल तो खोल लिया, पर जैसे ही उठने को हुई, नीचे की ओर गिर पड़ी. चूंकि अब तक वह मरने का इरादा बदल चुकी थी, इसलिए बचने के लिए किलमोड़े के झाड़ को पकड़ लिया और बाबिल की झाड़ में पैर अटका लिए. नीचे कई फीट गहरी खाई थी. रधूली दीदी मौत को सामने देखकर एकदम से डर गयी. लेकिन वह अब जीने की हिम्मत बांध चुकी थी. इसलिए जैसे-तैसे करके ऊपर आ गई. आखिर पूरी जिन्दगी इन्हीं भ्योहों में घास काटते हुए बीती थी. खडे़ होकर उसने अपनी एक नज़र अपनी दगड़ियों पर डाली. जिनको देखकर ऐसा लग रहा था जैसे जिन्दगी में पहली बार इतने चैन से सो रहीं हों. एक पल को ख्याल आया कि जगा दे सबको, मगर अगले ही पल वह डर गई वो कि अचानक सब नीचे न गिर जायें.
पहले ही तय था कि नींद में जैसे ही पलटी लेंगे, एक-दूसरे के भार से तेजी से नीचे गिरते चले जायेंगे. मधुली पलटी लेने लगी, तो उसकी नींद हल्के सी खुली. उसे अपना आंचल हल्का सा लगा. ज्यों ही वह गिरने को हुई, उसकी तेजी से चीख निकल आयी और झटके में सभी की आंखे खुल गयीं. अब स्थिति यह थी कि जरा सी हिलतीं, तो पांचों खाई में गिर जातीं. पर एक नींद सो लेने के बाद माहौल ही कुछ बदला हुआ था और फिर सबको एहसास हुआ कि कुछ गड़बड़ है. रधुली दी नहीं है. कहीं बंधा हुआ आंचल खुल तो नहीं गया था? कहीं रधुली दी नीचे गिर तो नहीं गयी है? कहीं किसी गलती से वे सब ऊपर ही रह तो नहीं गये हैं? सोच की धाराएं सब के मन में फूटने लगीं. इसी के साथ सभी मरने की नहीं, खुद को बचाने की पड़ गयी. पर अब बचें भी तो कैसे?
मधुली पलटी खाते-खाते अचानक रुक नहीं गयी होती तो वे कब की गिर गयी होतीं, सब की सब. पर सपनों से जगते ही मधुली के साथ-साथ सभी स्थिर हो गयीं. ज़रा भी हिले-डुले बिना आवाज़ देने लगीं. ‘‘रधुली दी, तुम कहां हो?’’ ‘‘हमको बचाओ’’, ‘‘बचाओ रधुली दी’’! मधुली अगर दुबली-पतली नहीं होती, तो इतना भर कहने की थरथराहट से भी सबक गिरने लग जातीं. अब वे एक साथ धरती से चिपकी हुईं, घास का ही पकड़ कर खुद को बचाने का प्रयास करने लगीं जी तोड़.
तब तक धार के उपरी कोने में एक पेड़ से सटी बैठी रधुली दी बोल पड़ी, ‘‘दीपा तुम्हारे आंचल से रस्सी बंधी है, सब लोग अपने आंचल आपस में मजबूती से बंधे रहने दो और पैरों को टिकाकर धीरे-धीरे ऊपर को आओ, रस्सी बाँज के पेड़ से बंधी थी और रधुली दी भी उसको खींच रही थी. आखिर सभी ऊपर आ गईं, नीचे जाने में उतनी दिक्कत नहीं थी जितनी कि ऊपर आने में परेशानी हुई. सभी ने राहत की सांस ली. सबको नया जीवन मिला था. ज्यों ही सब सयंत हुईं, रधुली दी को कोसने लगीं. ‘‘चलो, हम सब मरी तो नहीं, तूने तो तो छोड़ दिया था हमको मरने को!’’ ‘‘आखिर हमको छोड़कर तू जी पाती कभी?’’ ‘‘इतनी हिम्मती होकर भी तूने दगाबाजी क्योंकी हमारे साथ?’’ सब एक साथ बोल पड़ी. लेकिन दीपा बीच में बोल पड़ी, ‘‘सासू ऐसा मत कहो, उन्होंने अपने को ही नहीं बचाया, हमें भी तो बचाया है’’. लेकिन कमला गुस्से में बोली, ‘‘सबने मरने की बात तय की थी ना, फिर बचाने की बात कहां से आई’’. एक बाद एक ताने सुनने के बात रधुली दी रोने लगी और बोली, ‘‘बैणा, मुझे मौत से डर नहीं लगता. मेरी बात तो सुनो! स्वैण मेरी धना आकर बोलने लगी थी, ‘ईजा बाबू तो पहले ही चले गये. अब तू भी चली जायेगी तो मैं त्यौहार में कहां जाऊँगी? मेरा आवा कौन देगा? मैं मैत किसके लिए आऊँगी? ईजा, मैं तो अभी नयी ब्वारी हूँ. कितने दुख झेल रही हूँ यहां ससुराल में! तूने ही तो मुझे हिम्मत बांधकर ससुराल में सबका सामना करने को कहा. और अब जब तूने पूरी जिन्दगी हिम्मत बांधी, तो अब क्यों हार रही है तू. जिन्दगी से लड़ते जीने का हौसला देने वाली मेरी माँ, तू क्यों मरना चाहती है? अब तू नहीं रहेगी, तो किसके सहारे जीऊँगी मैं?’ बैणा, अपनी चेली की बातें सुनकर मेरी आंखें खुल गयीं. तभी मैंने अपना आंचल खोल लिया. लेकिन मैं तुमको सोते हुए जगाती तो हम नहीं बचते, मैंने ऊपर आकर तय किया कि मैं किसी को नहीं मरने दूंगी इसीलिए दीपा के आंचल में चुपचाप रस्सी बांध दी.
रधुली दी की बातें सुनकर सभी को अपना घर-परिवार, अपनी जिम्मेदारियां याद आने लगीं और अपने फैसले पर भी सभी को अफसोस होने लगा. सभी अफसोस होने लगा. सभी सोच रही थी कि वह मर जाती तो क्या होता उनके परिवार का, उनके बच्चों का? जैसे डरवाना सपना देखा हो सभी में अब घर जाने की इच्छा बलवती होने लगी. जब तक सबको होश आया, पार धार से घाम नीचे उतर जाने को था. लेकिन सबसे बड़ी चिन्ता यही थी कि बिना घास के घर कैसे जाया जायेगा?
अब स्थिति यह थी कि आसमान से टपके खजूर पर अटके. गांव-घरवालों को भी जबाव देना था. दीपा ने तो घर वापस जाने से इन्कार ही कर दिया. सभी डर रही थी कि घर जाकर क्या जबाव देंगी कि दिन भर कहां रहीं? किन्तु अब डरने से काम बनने वाला नहीं था. कोई न कोई रास्ता तो निकालना ही था. तभी मधुली बोली पड़ी, दीदीयों अब तो जिन्दगी का कोई बड़ा फैसला करना होगा! नहीं तो अब जिन्दगी पहले से ज्यादा दुखदायी हो जायेगी. दीपा को जेठ का क्रूर चेहरा दिखायी देने लगा था. लेकिन रधुली दी शान्त थी अब. उसने जैसे संकल्प कर लिया हो, अपने और अपनी दगड़ियों के भावी जीवन का. वह दृढ़ता से बोली, ‘‘देखो बैणियों, जब हम मरने से नहीं डरे, तो अब हमें किसका डर है. अब हमें अपने ऊपर होने वाले अत्याचार को सहने के बजाय उसका विरोध करना चाहिए. अकेले-अकेले हम सालों से अपनी-अपनी परेशानी झेल रही हैं. अपने दुख से मन ही मन घुटते रहने के बजाय एक -दूसरे के साथ बांटना चाहिए, नहीं तो हम मरने की ही सोचती रहेंगी.
‘‘हां, दीदी तू ठीक कहती है’’ परुली बोली. ‘‘आज पूरे गांव में हल्ला तो मचा ही होगा जब हम समय पर घर नहीं पहुंची हैं. हमारी ढूंढ खोज भी शुरू होने वाली होगी. इसलिए हमें भी कहना और करना है आज ही करना होगा. आज तक हम चुपचाप सबकुछ सहती रही, रोती रही. अब तो हमें अपनी बात घर-गांव वालों के सामने खुलकर रखनी होगी’’. परुली की बातों का समर्थन करती हुई कमला ने कहा, ‘‘खाली बातों से काम नहीं चलेगा, आज सुनेंगी कल फिर वैसा ही होगा. हमें इतना साहस भी करना होगा कि फिर हमारे साथ किसी प्रकार की जोर जबरदस्ती ना हो. मैंने तो तय कर लिया है कि अब अपने आदमी से मार नहीं खाऊंगी, चाहे जो भी हो जाये. दीपा को तो आज हर-हाल में सबके सामने अपने जेठ की काली-करतूत का खुलासा करना ही होगा. हम सब मिलकर उसको तेरे से माफी मांगने को मजबूर करेंगे और आगे के लिए भी धमका देंगे. तभी हमारी बात को कुछ समझेंगे भी.’’ सभी दरांती घास-पत्तों पर तेजी से चलने लगी थीं. सबके मन में उथल-पुथल मची थी कि घर कैसे जायें और कब क्या हो? रधूली दी ने सबसे कहा, ‘‘बैणियो एक-दूसरे को सहारा देंगी तो हम सबका जीवन अच्छा होगा तो बच्चोें का भविष्य भी सुधरेगा. पहाड़ की जो कठिनाईयां हम झेल रहे हैं उससे भी कभी ना कभी हम पार पायेंगे. आज यदि हम अपने घर वालों का और गांव वालों का सामना मजबूती से कर लेती हैं तो दूसरी महिलाओं को जो चुपचाप सबकुछ सहकर अपनी किस्मत पर रो रही हैं, उनको भी हौसला मिलेगा. वह हमारे साथ खड़ी होंगी, आखिर एक और एक ग्यारह तो होता ही है. पढ़ी-लिखी नहीं हूं तो क्या हुआ इतना तो जानती हूं मैं भी’’ कहते हुए जोर से हंस दी वह. सभी के चेहरों पर मुस्कान फैल गयी.
यह आवाज केवल परुली, कमला और रधुली दी या दीपा और बचुली की नहीं थी, बल्कि सभी औरतों की आवाज़ थी. सभी के चेहरे पर खुशी के आंसू बहने लगे थे और वे आपस में एक-दूसरे का हाथ पकड़े हुए दिल ही दिल में मजबूत बने रहने की प्रेरणा दे रही थीं. सभी को मानो नया ज्ञान मिल गया था. आखिर सबने मिलकर जितना घास-पात-पिरूल जुट सकता था. सभी ने इकटठा किया जल्दी-जल्दी. जो जल्दी नहीं कर पा रही थीं उनकी मदद दूसरी ब्वारियों ने किया. एक-दूसरे की मदद से सभी के गट्ठे तैयार हो गये गांव की औरतों के, जितना भी सम्भव था आज का मान रखने के लिए.
झुटपुटा फैलने लगा था. जंगल की भयावहता धीरे-धीरे बढ़ने लगी थी. लेकिन मौत से लड़ने वाली औरतों के कदम निडरता से गांव की ओर बढ़ते जा रहे थे. पंछी अपने घोंसलों में पहुंचकर बच्चों को दाना खिलाने की जुगत लगा रहे थे. दूर जंगली जानवरों की आवाजे़ भी अब सुनाई देने लगी थीं.
गांव की बाखेली में सभी आदमी इकट्ठा हो गये थे. बूढ़ी सासें भी आपस में बातें करती हुईं चिन्तित हो रही थीं. बच्चों को देर तक अपनी माँओं के लिए. बचुली के लड़के ने दूध के लिए रो-रो कर बुरा हाल कर रखा था. उसकी सास बच्चे को सम्हालते हुए बात-बात में गालियां बक रही थी. कुछ घरों की चिमनी से धुआं उठने लगा था. मशाल का इन्तजाम कर गांव के आदमी जंगल जाने की तैयारी करने लगे थे. कमला के पति ने आज शराब नहीं पी रखी थी. वह कुछ ज्यादा ही परेशान था. दीपा का जेठ भी मशाल लेकर औरतों को ढूँढने जाने की तैयारी कर रहा था. इतनी भीड़ में भी खामोशी छायी हुई थी. जैसे आशंका हो कुछ घट जाने की.
गांव के आदमी अभी जंगल जाने की तैयारी कर ही रहे थे कि धार के खेतों में क्रिकेट खेलकर वापस आ रहे लड़के चिल्ला पड़े, ‘‘काकी, आमा, बूबू, …घसियारिनें आ रही हैं!’’ धुंधलके में बोली गयीं ये आवाजें पूरे गांव में गूंजने लगीं. जो घर के भीतर थे वे भी ये सोचते हुए बाहर निकल रहे थे कि एक झलक देख तो लें, सभी सही-सलामत हैं या कि किसी को कुछ हो गया? गांव वालों ने राहत की सांस ली, एक साथ. बच्चों की किलकारी, हल्ले-गुल्ले से सारा गांव गूंज उठा.
लेकिन अभी मन में अलग-अलग आशंकाएं थीं घसियारिनों को लेकर. उस दिशा की ओर सभी ताक रहे थे, जहां से उनको आना था. सभी के मन में यह उद्विग्नता कि आखिर ऐसा क्या हुआ कि घसियारिनों को घर वापस आने में इतनी देर हुई. हर कोई सबसे पहले जान लेने को उत्सुक था.
तेज़ कदमों से चलती हुई घसियारिनें अपने-अपने घर की ओर न मुड़कर उसी जगह पर पहुंची जहां सारे गांववाले इकट्ठे थे. औरतों ने भीड़ के सामने अपने गट्ठर पटक दिये. सब अवाक्! जैसे ही जानकारी मिली कि घसियारिनें घरों के बजाय बाखली में पहुंची है, तो धीरे-धीरे हर कोई अपने घर से निकलकर वहीं पहुंचने लगा. घसियारिनें सभी को सकते में डालकर बैठ गयीं सबके सामने. खामोश भीड़ प्रश्नों के तीर तरकश में तैयार रखी हुई, उत्सुक! पर घसियारिनों के चेहरे पर रत्ती भर भी भय का भाव नहीं!
आखिर मृत्यु पर विजय पाकर नये आत्मविश्वास के साथ लौटी थीं वे सब. उनके चेहरे पर एक दृढ़ता थी अपने अस्तित्व व अस्मिता की नयी लड़ाई लड़ने की. नये संकल्प के साथ अपने होने का एकसास कराने की. भीड़ के प्रश्नों का जवाब देने के लिए सभी तैयार थीं. अपनी बात कहने के लिए तैयार, नये संकल्प के साथ. टिकटशुदा रुक्का : जातीय विभेद पर टिके उत्तराखंडी समाज का पाखण्ड
विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में राजनीतिक, सामाजिक विषयों पर नियमित लेखन करने वाली चन्द्रकला उत्तराखंड के विभिन्न आन्दोलनों में भी सक्रिय हैं.
संपर्क : [email protected] +91-7830491584
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