अपनी चार साल पुरानी एक महत्वपूर्ण पोस्ट को आज फेसबुक पर शेयर करते हुए बागेश्वर के हमारे साथी केशव भट्ट ने लिखा है:
” आज तक भी यही हालत हैं, शर्म आती है हमारी सरकारों पर जो दुनिया में बोलती फिरती हैं कि उत्तराखंड में सब अच्छा है पर्यटन के लिए, यहां आओ तो यही.”
वास्तविकता यही है कि राज्य बनने के इतने सालों बाद भी न हमारे शासन-प्रशासन के पास इस तथाकथित पर्यटन प्रदेश में पर्यटन को बढ़ावा देने ले किये किसी तरह का कोई रोडमैप है न कोई दूरदृष्टि. ट्रेकिंग और पर्वतारोहण के मामलों में तो स्थिति और भी शोचनीय है.
पिथौरागढ़ जिले की मुनस्यारी तहसील हर हमेशा चर्चे में रहती है. आपके लीगल काम यहां लटकते रहेंगे. हाँ यदि आप रेता-बजरी का काम खुलेआम या अंधेरे में कर रहे हों या फिर बड़े ठेकेदार, नेता आदि हैं तो नियमों की फाइलें किनारे हो जाएंगी. एक-आध जनआंदोलनकारी भी हैं इस क्षेत्र में लेकिन उनकी आवाजें हमेशा दबा दी जाती हैं. अंग्रेजों के जमाने के कानून वक्त-बेवक्त धौंस जमाने के लिए यहां दबी पड़ी फाइलों में से आज भी बाहर निकल ही जाते हैं. वैसे हर जिला, तहसील या कहें पटवारी चौकियां जनता की समस्या को कम ही सुलझा पाती हैं. धरातल पर हों न हों लेकिन कागजों में जनता का विकास खूब होता है.
मुनस्यारी का जिक्र करने का मुख्य कारण इस क्षेत्र में साहसिक यात्रा पर आने वाले टूरिस्टों को होने वाली परेशानी है. मुनस्यारी से हिमालयी क्षेत्रों के लिए कई टै्किंग रूट हैं. मुख्यत: मिलम ग्लेशियर, रालम ग्लेशियर, नंदा देवी बेस कैम्प, उंटा धूरा दर्रा होते हुए मलारी आदि हैं. इन क्षेत्रों में आप तहसील प्रशासन और आईटीबीपी की इजाजत के बगैर एक कदम भी रख नहीं सकते हैं. यहां जाने के लिए हर किसी को परमिट बनाना पड़ता है. और परमिट के इस धंधे में कई दलालों की क्षुधा शांत होती है. परमिट के लिए हर किसी के पास ये सब होना जरूरी है. मसलन… स्थायी निवास प्रमाण पत्र, चरित्र प्रमाण पत्र, मेडिकल फिटनैस, करीब सात-आठ फोटो के साथ ही जाने का प्रयोजन तथा उन क्षेत्रों के दो निवासियों के पते व हस्ताक्षर जो तुम्हें जानते हों. इसके साथ ही कई शर्तें भी उस परमिट में हैं. आप कैमरा, कंपास, नक्शा, डायरी, पैन, अग्निशमक चीजें सहित कई अन्य चीजें नहीं ले जा सकते हैं…. अब इस वीरान हिमालयी क्षेत्र में जाने वाले पर्वतारोही अपना खाना बिना आग के कैसे बना पाएंगे…. इस पर कोई सुनवाई नहीं होने की.
बहरहाल ! इस सबके लिए मुनस्यारी में दो-तीन दिन रुकना अनिवार्य जैसा हो जाता है. कई पर्यटक तो आजिज आकर तहसील प्रशासन को कोसते हुए वापस चले जाते हैं.
इस परमिट से मेरा भी दो बार साबका पड़ा. पहली बार 1998 में. तब परमिट के लिए तीन दिन मुनस्यारी में ही रूकना पड़ा. दूसरी बार 2011 में मिलम-उंटाधूरा-मलारी के लिए परमिट बनाने में तहसील प्रशासन और आईटीबीपी ने हमारी टीम के नाकों चने चबवा दिए. मिलम में तो आईटीबीपी की दादागिरी ये थी कि उसने अपने और तहसील प्रशासन के परमिट को मानने से ही इंकार कर दिया. मेरे द्वारा उन परमिटों में ना जाने का कारण लिखित में मांगने पर ही हमें फिर जाने दिया गया. बाद में मैंने इस बाबत आरटीआई से जानकारी मांगी तो तहसील प्रशासन ने लिखित में जबाव दिया कि मुनस्यारी क्षेत्र में कहीं भी कोई भी पर्यटक आ-जा सकता है.
परमिट की बात पर प्रशासन पूरी तरह से मुकर गया. यह मामला तब राज्य सूचना आयोग में भी पहुंचा, जहां तहसील प्रशासन की कारगुजारी पर आयोग ने खेद प्रकट कर जिला प्रशासन को इस पर कार्यवाही करने को भी कहा. तब इस आरटीआई की वजह से करीब एक साल तक पर्यटकों को कोई परेशानी नहीं हुई. लेकिन अभी बीते दिनों मुनस्यारी जाने पर मुझे मालूम हुआ कि तहसील प्रशासन ने फिर से परमिट अनिवार्य कर दिया है.
मैं इस पोस्ट में मुनस्यारी तहसील के परमिट से संबंधित उन्हीं के नियम-कानून की प्रति पोस्ट कर रहा हूं. मेरी आप सभी से गुजारिश है कि तहसील प्रशासन के इन नियम-कानून के प्रति की फोटोस्टेट निकाल हर पर्यटक को बांट दें. वो फिर खुद ही तहसील प्रशासन को आईना दिखा देगा.
ये जानकारी आप सभी अपने मित्रों को भी शेयर करें तो हो सकता है उनके कोई पर्वतारोही मित्र के ये काम आ जाए.
– बागेश्वर से केशव भट्ट
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बागेश्वर में रहने वाले केशव भट्ट पहाड़ सामयिक समस्याओं को लेकर अपने सचेत लेखन के लिए अपने लिए एक ख़ास जगह बना चुके हैं. ट्रेकिंग और यात्राओं के शौक़ीन केशव की अनेक रचनाएं स्थानीय व राष्ट्रीय समाचारपत्रों-पत्रिकाओं में छपती रही हैं. केशव काफल ट्री के लिए नियमित लेखन.
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