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अंग्रेजी शासन के ताबूत पर आखिरी कील

1857 के बाद फरवरी 1946 पहला मौका था जब भारतीय सेना ने ब्रिटिश शासन के विरुध्द खुलकर अपना रोष और असंतोष व्यक्त किया. इतिहास में यह विद्रोह भारतीय नौसेना विद्रोह नाम से दर्ज है. उत्तराखण्ड से इस विद्रोह में भाग लेने वालों में कोटद्वार के बद्रीदत्त पांडे, पौढ़ी गढ़वाल के गोकुल प्रसाद भट्ट, टिहरी के मोती सिंह, चमोली के शालिगराम, अल्मोड़ा के किमसेन आदि प्रमुख हैं.
कोटद्वार के बद्रीदत्त पांडे ने विद्रोह के विषय में बताया कि 11 फरवरी 1946 को कोलाबा स्थित सिगनल पर ट्रेनिंग सेंटर, वाई.एन.एस तलवार, बंबई में, अंग्रेज कमांडर विंग के नौसेना निरीक्षण के दौरान जगह-जगह जय हिन्द लिखा था मिला. विंग ने जब एक अन्य अंग्रेज अधिकारी से जय हिन्द का अर्थ पूछा तो उसने अर्थ हिन्दुस्तान की जय बताया. जब विंग ने परेड के दौरान सौनिकों से पूछा की दीवार पर जय हिन्द किसने लिखा तो मुहम्मद गुलाम नाम का एक कश्मीरी सैनिक छाती तानता हुआ कतार से निकलता बोला मैंने लिखा. इस पर उसे गिरफ्तार कर दूसरी जगह भेज दिया गया. जिससे सैनिकों में गुस्सा फ़ैल गया.
12 फरवरी के दिन बंबई स्थित जहाजों और बैरिकों के हजारों नाविकों ने कैसलवार में एकत्रित होकर 11 शर्तों को लेकर हड़ताल शुरू कर दी. नाविकों ने हड़ताली जुलूस निकाला जिसे बंबई की जनता ने सक्रिय सहयोग दिया. नौसेना के समर्थन में बंबई के तीन लाख मजदूरों ने भी हड़ताल कर दी. धीरे-धीरे यह हड़ताल करांची, कोचीन, विशाखापटनम आदि स्थानों में फ़ैल गया.
13 फरवरी को पुनः जब हड़ताली नौसेनिक जुलूस प्रदर्शन हेतु बाहर निकले तो आफ़िसर ने ड्यूटी पर खड़े मराठा सैनिकों को आदेश दिया कि नाविकों को रोकने के लिये बल का प्रयोग करें मराठा सैनिकों ने आदेश मानने से इनकार करा दिया. इसके बाद रायल मेराइन के सैनिकों को बुलाया गया. दोनों के बीच जमकर गोलाबारी हुई. उधर भारतीय नौसेना के समर्थन में भारतीय वायु सेना ने भी हड़ताल शुरू कर दी.
बाद में यह विद्रोह पं. नेहरू, वल्लभ भाई पटेल, जिन्ना, अरुणा आसफ अली आदि की मध्यस्थता के पश्चात समाप्त हुआ. इस समय जब पूरा देश सांप्रदायिकता की आग में जल रहा था ऐसे समय में नोसेना के सैनिक कांग्रेस और लीग के संयुक्त झंडे के नीचे लड़ रहे थे.
विदोह में सक्रिय रूप से भाग लेने के कारण बृजमोहन भट्ट. माता सिंह, शालिगराम और किमसेन को 1946 में सेवा से मुक्त कर दिया गया था. यह विद्रोह ब्रिटिश शासन के ताबूत पर आखिरी कील साबित हुआ.

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Girish Lohani

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