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दिल्ली से तुंगनाथ वाया नागनाथ – 2

(पिछली क़िस्त – दिल्ली से तुंगनाथ वाया नागनाथ – 1)

गडोलिया गांव से निकलते समय बांध के पानी के उस पार देखा. वहां पहाड़ की गोद में खंडहर हुआ गांव उभर आया था. माचिस के डिब्बों जैसे टूटे मकान थे, सपाट सीढ़ीदार खेत थे और घरों के आसपास तथा मेंड़ों पर कभी हरे-भरे रहे पेड़ों के भूरे कंकाल खड़े थे. बड़कोट और छोल गांव से नीचे भी बांध के उस पार कई मुअन-जो-दड़ो और हड़प्पा दिखाई देते रहे. लगता था, जैसे भूरी मिट्टी के पहाड़ पर छेनी-हथौड़ी से मकान और खेत-खलिहान बनाए दिए गए हों. वहां उन भूरे-उदास मकानों और खेत-खलिहानों में भी कभी जीवन की हलचल रही होगी- आज वहां सन्नाटा पसरा हुआ था.

गडोलिया गांव की सड़क पर शासन ने हैंडपंप लगा दिया है. गांव के बच्चे पीने के लिए कलशों में उसका पानी भर रहे थे. नीचे आरपार बांध का पानी भरा हुआ था मगर वह कहीं और पहुंच कर प्यास बुझाएगा, खेतों की सिंचाई के काम आएगा. हर गांव के पांव बांध के पानी में डूबे हैं मगर मुंह प्यासा है. क्या पीपलडाली, क्या मगरौं. मगरौं के नीचे उस पार तो डूब कर बाहर निकले मकानों के खंडहर, खेत-खलिहान और वृक्षों के कंकाल देख कर मन में सुमित्रानंदन पंत की पंक्तियां गूंजने लगींः

एक सौ वर्ष, नगर उपवन,
एक सौ वर्ष, विजन वन!
– यही तो है असार संसार
सृजन, सिंचन, संहार !

बांध की अतुल जलराशि हमें मगरौं तक ही दिखाई दी. मगरौं-सौंड गांव से चीड़ वन शुरु हो गए. अचानक हिमालय के शुभ्र शिखरों की क्षणिक झलक ने मन मोह लिया. पौखाल में भी आसपास के पहाड़ों पर घने चीड़ वन थे. ढलते सूरज की पीली धूप सामने के पहाड़ों में उजास भर रही थी. पौखाल में रुक कर चाय पी. सूरज अब चीड़ वृक्षों की चोटी में धूप का सुनहरा रंग भर रहा था. चंद्रकुंवर बत्र्वाल के शब्दों में ‘संध्या में शिखरों पर, फैला विगलित सोना/परी कुमारी का, पुलकित विलास में होना!’

‘‘ यह इलाका आलू की खेती के लिए बहुत प्रसिद्ध है ,’’बहुगुणा बता रहे हैं.

पौखाल में नीचे की ओर चित्ररचित से सुंदर सीढ़ीदार खेत दिखाई दे रहे हैं. उनमें से कई खेतों में गोबर-पत्तियों की सड़ी हुई खाद डाल कर फैला दी गई है. खाद पड़े वे खेत काले दिखाई दे रहे हैं. खेतों की मेंड़ों को पत्थर-कंकरीट से पक्का बना दिया गया है. आगे स्यालकुंड, मगरौं (सौड़) और कांडीखाल में खेतों को देख कर लगा वहां भी अच्छी खेती होती होगी. इन दिनों मालू (बोहिनिया वाहलिल) पर बहार आई हुई है. बेलें सफेद-क्रीमी रंग के फूलों से लदी हुई हैं. जखंड, टोलू और टकोली गांव में मालू की खूब बेलें झूल रही थीं. फिर कीर्तिनगर आया. शाम ढलने के बाद हम मुनि-की-रेती से 128 कि.मी. का सफर तय करके श्रीनगर पहुंच गए.

देवप्रयाग से पहले रास्ता बंद न होता तो हम केवल 108 कि.मी. की दूरी तय करके पहले ही श्रीनगर पहुंच गए होते. बहरहाल, रात में श्रीनगर ही रहने का निश्चय किया. संजय भी थक गया था. थकता भी क्यों नहीं, दिल्ली से यहां तक पहुंचने में अब तक वह लगभग 400 किमी. गाड़ी चला चुका था. उसे आराम की सख्त जरूरत थी हालांकि वह चाय-वाय पीकर कर्णप्रयाग तक चल पड़ने की बात कर रहा था.

‘‘बिलकुल नहीं,’’ प्रकाश ने जोर देकर कहा, ‘‘यहां अब तुम आराम करो. खा-पी कर सो जाओगे. सुबह चलेंगे.’’ हम सबने हामी भरी. गढ़वाल मंडल विकास निगम के विश्राम-गृह में पहुंच कर 8-शैयाओं की डाॅरमेटरी ली. उसमें तीन शौचालय-स्नान घर देख कर मेरा चिरकालिक बाउल सिंड्रोम शांत हुआ. सोचा, तीन में से एक तो खाली मिल ही जाएगा ! सुबह ढाई बजे से जगे हुए थे, इसलिए अब खाना खाकर फटाफट सो जाना चाहते थे. सुबह भी जल्दी उठना था ताकि जैसे भी हो, निर्धारित इंटर कालेजों तक पहुंच कर बच्चों से बातें कर सकें. सोए और सोते ही कुछ साथियों को गहरी नींद आ गई. मैंने भी शायद एक झपकी ली थी कि रोशनी देख कर आंखें तरतरी हो गईं. आधी मुंदी आंखों से देखा- सामने अपने बिस्तर पर प्रकाश मेरी ओर पीठ किए कुछ पढ़ रहा था. बहुत रात तक बीच-बीच में अधमुंदी आंखों से देखता रहा मगर प्रकाश बिना हिले-डुले उसी मुद्रा में पढ़ते हुए दिखाई दिया. फिर न जाने कब आंख लगी, कब प्रकाश सोया. सुबह देखा, वह चारों ओर से कंबल लपेट कर कुकून बना हुआ था. इससे पहले कि मेरा बाउल सिंड्रोम दिमाग में खलबली मचाए, मैं पौने चार बजे धीरे से उठ कर बिल्ली की चाल से चल कर बाथरूम में घुस गया. नहा-धोकर निकला तो राहत की सांस ली. मेरे पास वक्त था और जाने से पहले एकाध बार और शौचालय में जाने का मौका मिल सकता था.

हम लोग तैयार होकर सुबह ठीक 5 बजे श्रीनगर से कर्णप्रयाग के लिए निकल पड़े.

श्रीनगर से 32 किमी. रुद्रप्रयाग, वहां से 12 किमी. नगरासू, 10 किमी. गोचर और फिर 10 किमी. कर्णप्रयाग. हमें चाय मिल गई थी लेकिन प्रकाश को चाय नहीं गर्म पानी चाहिए था. तय हुआ कि कहीं रास्ते में ले लेंगे.

श्रीनगर से निकलते समय सामने का दृश्य देख कर दिल धक्क से रह गया. छब्बीस वर्ष पहले मैंने यहां गले के हार की तरह घूम कर कल-कल बहती अलकनंदा देखी थी. मैं इन तमाम वर्षों में अपने बच्चों और संगी-साथियों को उसी अल्हड़ अलकनंदा के बारे में बताता आ रहा था. लेकिन, सामने का दृश्य देख कर मैं छला हुआ-सा महसूस करने लगा. यहां भी बांध? मैंने तब आसपास हरे-भरे पहाड़ देखे थे लेकिन अब उन्हें कमर तक छील दिया गया था. उनके सामने रोड़ियों और पत्थरों के पहाड़ खड़े कर दिए गए थे. और, अलकनंदा? उन अपरिचित रेत-रोड़ी के पहाड़ों के आसपास से दुबली-पतली और थकी-हारी-सी अलकनंदा जैसे आंचल में मुंह छिपाए बेमन से धीरे-धीरे आगे बढ़ रही थी. श्रीनगर और अलकनंदा को यह क्या हो गया है? क्या नई जल-विद्युत योजनाओं के नाम पर हमें इस तरह निर्ममता से पर्वत और पर्वतपुत्रियों का गला घोंट देने का कोई हक है? क्या प्रकृति हमें इसके लिए माफ कर सकेगी? मन खराब हो गया. कुछ दूर तक चुपचाप आंखें बंद कर लीं.

आंखें खोलीं तो देखा प्रकृति सुबह-सुबह सामने के पहाड़ों पर अपनी अदृश्य कूंची से कोहरे की सफेदी पोत रही थी. देवलगढ़ गांव की छोटी-सी पुलिया के पास किसी झाड़ी की ओट से गहरे नीले रंग की कलचुड़िया (ह्विसलिंग थ्रस) निकल कर सामने आई. एक पत्थर पर पीले पंजे टिका कर उसने क्षण भर हमारी ओर देखा और फिर ऊपर की ओर उड़ गई.

श्रीनगर लगभग 10 किमी. पीछे छूट चुका था. हम कलियासौंड़ के बाद खांकरा गांव पार कर रहे थे. सामने पहाड़ों पर ऊपर से नीचे तक काले पर्णविहीन पेड़ खड़े थे. लगता था, खाली ठूंठ खड़े हैं. सोचा, बैसाख खत्म होने को है. क्या उन्हें ग्रीष्म ऋतु के आने का संदेश नहीं मिला? मिला तो अब भी क्यों मौन साधना में लीन हैं? प्रकाश की आवाज आ रही है, “इन पेड़ों को क्या हो गया है? पूरे पहाड़ में ऐसे खड़े हैं जैसे सूख गए हों.”

बांई ओर गांवों के पैताने अलकनंदा बह रही है. यहां उसकी धारा में कुछ तेजी दिखाई दे रही है. उसे क्या पता पंद्रह-बीस किलोमीटर बाद उसके पैरों में बांध की बेड़ियां पड़ने वाली हैं.

एक बोर्ड में अचानक गुलाबराई लिखा हुआ देख कर चौंक गया. जिम कार्बेट ने रुद्रप्रयाग का आदमखोर तेंदुआ गुलाबराई में ही तो मारा था! आज से ठीक 84 वर्ष पहले मई के ही महीने में. यहां वह रात भर आम के पेड़ पर मचान में बैठा था और वही से अंधेरे में तेंदुए पर अचूक निशाना साधा था.… शायद यहीं इस घटना का वह यादगार पत्थर भी होगा जिसमें लिखा गया-‘‘यहां मई, 1926 में जिम कार्बेट ने रुद्रप्रयाग का आदमखोर तेंदुआ मारा.’ गुलाबराई तब एक छोटा-सा गांव था. आज कंकरीट के इन मकानों और दूकानों को देख कर कौन उस गांव की कल्पना कर सकता है.

गुलाबराई से उतर कर हम रुद्रप्रयाग पहुंच गए हैं. ये तीर्थ स्थान माना जाता है. यहां मंदाकिनी नदी अलकनंदा से आकर मिलती है. मंदाकिनी पर सस्पेंशन ब्रिज है जिसके टावर पर कभी जिम कार्बेट ने आदमखोर की प्रतीक्षा में 20 रातें बिताई थीं.

यहां से कर्णप्रयाग अब मात्र 32 किमी. दूर है. हम इंटरकालेज के बच्चों से हर हालत में बात करना चाहते हैं. इसलिए कालेज पहुंचने का इरादा है. हमने रुद्रप्रयाग से आगे की राह पकड़ी. लो, यहां तो नीचे अलकनंदा उछल-कूद कर भाग रही है. इतनी दूर उसे बांध कर क्या पता! इस पार पहाड़, उस पार पहाड़. उनके पैताने बहती अलकनंदा. बीच में चौंड़ी घाटी. सात-आठ तोतों का झुंड कियांक्-कियांक् करता हुआ आया और आंखों से ओझल हो गया. कहीं से आकर चीड़ की शाख पर एक कलचुड़िया बैठी और ‘स्वी ई ई’ की मधुर सीटी बजा कर दूसरी ओर उड़ गई. हम रतूड़ा गांव पार करके गोचर की ओर बढ़ रहे हैं. अलकनंदा के ऊपर घाटी की खुली, भारी हवा में उड़ान भर कर दो कौवे उस पार से इस पार आ गए हैं. वे सामने सड़क किनारे खड़े ऊंचे डेंकण (मेलिया अजेदरख) के हरे-भरे पेड़ की शाख पर जाकर बैठ गए हैं.

हमने गोचर भी पार कर लिया है. सबका मन चाय पीने को है मगर निमित्त प्रकाश को बनाया जा रहा है,“प्रकाश को अभी तक चाय नहीं मिली, न गर्म पानी मिला.’’

“कोई साफ-सूफ दुकान दिखाई दे तो संजय गाड़ी रोकना.’’ चटवापीपल में साफ-सूफ दूकान मिल गई. यह नाम कुछ सुना हुआ सा लगता है. संजय ने गाड़ी रोकी और हम लोग बाहर निकले. इधर-उधर ऊंचे पहाड़ थे. पहाड़ों की ढलान पर सुबह के सूरज की सुनहरी किरणें पड़ रही थीं. दूकान के आगे गुनगुनी धूप की चादर फैल चुकी थी. हमने वहां चाय पी. चंदन ने अपने संग्रह से बड़े आकार के कुरकुरे, स्वादिष्ट बिस्किट खिलाए. दूकान के आसपास जंगली गौरेयों का झुंड चहक रहा था. कुछ दूर एक लमपुछिया (ब्लू मैगपाई) ने पेड़ की ओर उड़ान भरी. गुनगुनी धूप में बुलबुलें भी गीत गुनगुना रही थीं.

लेकिन, चटवापीपल? याद आया, प्रसिद्ध शिकारी जिम कार्बेट ने रुद्रप्रयाग के आदमखोर तेंदुए को मारने की शिकार कथा में इस गांव के बारे में भी तो लिखा है. सन् 1918 से 1926 के बीच इस पूरे इलाके में आदमखोर तेंदुए का भारी आतंक फैला हुआ था. इस गांव के नीचे अलकनंदा नदी पर तब भी सस्पेंशन ब्रिज था.

गाड़ी चलने लगी तो संजय ने नरेंद्र नेगी के गीतों की सी डी लगा दी. गीत सुनते-सुनते हम कर्णप्रयाग पहुंच गए. सुबह के केवल 7-30 बजे थे. हमने गाड़ी में से ही गलबहियां भरतीं पिंडर और अलकनंदा को देखा. बाजार में पूछ कर उन राजकीय इंटर कालेजों का पता लगाया जहां हमें व्याख्यान देना था. कमल को राजकीय इंटर कालेज, कर्णप्रयाग में छोड़ा, चंदन को राजकीय बालिका इंटर कालेज में और प्रकाश, डॉ. आर्य और मुझे कर्णप्रयाग से लगभग साढ़े पांच किमी. आगे राजकीय इंटर कालेज, सिमली में. बहुगुणा सत्ताईस-अट्ठाईस किमी. आगे राजकीय इंटर कालेज, नारायणबगड़ में व्याख्यान देने चले गए. लौटते समय उन्हें हमें साथ लेकर नागनाथ-पोखरी पहुंचना था.

मैदान में बैठे 200-300 बच्चे हमारा इंतजार कर रहे थे. वंदेमातरम, शारदा वंदना और ‘स्वागतम शुभ स्वागतम, आनंद मंगल अति शुभम्’गीत गायन के बाद बच्चों से बातचीत हो सकी. मैंने जीवन में विज्ञान और वैज्ञानिक सोच के बारे में बताया, डॉ. आर्य ने जीवन में सफलता पाने के लिए सुझाव दिए और प्रोफेसर प्रकाश ने जीवन में किताबों की भूमिका के बारे में समझाया. खुले मैदान में बच्चे धूप से खूब तपते रहे. बातचीत खत्म हुई तो प्रधानाचार्य महेंद्र सिंह सजवाण के आग्रह पर रोटी-सब्जी का नाश्ता करके हम गाड़ी का इंतजार करने लगे.

घने डेंकण की छांव में बैठे गाड़ी का इंतजार कर ही रहे थे कि मेरे मोबाइल की कोयल ने कूक कर बताया कि कोई एस एम एस संदेश आया है.‘यहां कौन याद कर रहा है’? सोचते हुए संदेश खोला तो लिखा था- ‘क्या आप भी पहाड़ समारोह में आए हैं? मैं नंदप्रयाग इंटर कालेज में हूं- नवीन जोशी.’ यानी, लखनऊ से पत्रकार-संपादक साथी नवीन भी आया है! तुरंत जवाबी संदेश भेजा, “अरे वाह ! मैं सिमली में हूं. नागनाथ में मिलते हैं. ”

गाड़ी आई और हम ठीक 11-30 बजे 28 किमी. दूर पहाड़ की चोटी पर स्थित नागनाथ-पोखरी की ओर चल पड़े जहां 12-30 बजे पुस्तक विमोचन का कार्यक्रम शुरु होना था. कर्णप्रयाग घाटी से सर्पीली सड़क हमें पहाड़ पर ऊपर और ऊपर ले जा रही थी. काफी ऊपर पहुंच कर दूर नीचे कर्णप्रयाग शहर के साथ ही पिंडर व अलकनंदा का संगम दिखाई दे रहा था. हम लोग चलती गाड़ी में व्याख्यानों और अगले कार्यक्रमों की चर्चा कर रहे थेः

“जोरदार प्लानिंग है. सुबह 7 से 9 बजे के बीच 32 इंटर कालेजों के लगभग 15,000 बच्चों से बातचीत हो गई.”

“वह भी केवल 2 घंटे के भीतर.”

“शेखरदा की ही प्लानिंग हो सकती है ऐसी.”

“और, देखो व्याख्यान देने वाले कौन हैं? कितनी दूर-दूर से आए हैं ! पर्वतारोही, पत्रकार, प्रशासक, पर्यावरणविद्, वनविद्, सामाजिक कार्यकर्ता, प्रबंधन विशेषज्ञ, पुरातत्वविद्, मुख्य सूचना आयुक्त, वैज्ञानिक, विज्ञान लेखक, प्रोफेसर, चिकित्सक, छायाकार, फिल्मकार….और भी न जाने कौन-कौन.”

“हद है ! और देखो, सब आए हैं. अपने खर्चे पर चले आए हैं.”

“सच्चे मन से जुड़ना यही तो हुआ.”

“असली काम इसी तरह हो सकता है.”

“इसीलिए तो खाली जेब, पहाड़ को समझने के लिए केवल चार विद्यार्थियों द्वारा शुरु की गई एक पैदल यात्रा इतने बड़े अभियान में बदल गई है.”

संजय आड़े-तिरछे रास्ते से गाड़ी को पहाड़ की ऊंचाई में ले आया था . अब रास्ता पहाड़ के दूसरी ओर मुड़ गया. रास्ते में कई गांव पड़े. पहाड़ की ऊंचाई से नीचे दूर घाटी में बसे गांव की भी झलक दिखाई दे रही थी. कहीं-कहीं तो पहाड़ पर ऊपर से नीचे तक केवल करीने से कटे हुए सीढ़ीदार खेत ही दिखाई देते थे. शायद उन खेतों में चौमास की फसल बोने के लिए बारिश का इंतजार हो रहा था. एक जगह से दूर नीचे घाटी में गोचर की हवाई पट्टी भी दिखाई दी. बहुत सुंदर दृश्य था.

आखिर हम 12-30 बजते-बजते नागनाथ-पोखरी पहुंच गए. चारों ओर बांज, बुरांश और काफलों के हरे-भरे पेड़ थे. वहां भोजन किया. स्वादिष्ट पर्वतीय व्यंजन बने थे. कार्यक्रम राजकीय इंटर कालेज, नागनाथ-पोखरी में आयोजित किया गया था. यहां इसी पर्वत-प्रदेश में जन्मे, पले-बढ़े और इसी इंटर कालेज में पढ़े चार पर्वतपुत्रों की अतीत से खोज कर लाई गई रचनाओं को सहेज कर छापी गई इन दुर्लभ पुस्तकों का विमोचन किया गयाः ‘इतने फूल खिले’ (चंद्रकुँवर बर्त्वाल) , स्नो बॉल्स आॅफ गढ़वाल’ (नरेंद्र सिंह भंडारी) ,‘उत्तराखंड रहस्य’( शालिग्राम वैष्णव) और‘गढ़वालः एंशियंट एंड रीसेंट’ (पातीराम परमार).

प्रांगण में तने लंबे-चौड़े शामियाने में सैकड़ों स्थानीय आबाल-वृद्धों के साथ बाहर से आए अतिथि भी बैठे हुए थे जिनमें फ्रांस की कैथरीन, बंगलुरु के समीर बनर्जी और दिल्ली, लखनऊ के तमाम साथियों के साथ ही उत्तराखंड के विभिन्न स्थानों से आए हुए साथी भी थे. उत्तराखंड के मुख्य सूचना आयुक्त डॉ. आर. एस. टोलिया की अध्यक्षता में पुस्तक विमोचन के बाद प्रांगण की ठंडी हवा में गीत-लोकगीत गूंजने लगे. बांज-बुरांशों से आती उस ठंडी हवा में, चंद्रकुँवर बर्त्वाल की सद्यः विमोचित पुस्तक‘इतने फूल खिले’ में संकलित ‘नागनाथ’कविता की पंक्तियों को पढ़ना एक अद्भुत अनुभव थाः

ये बांज पुराने पर्वत से
यह हिम से ठंडा पानी
ये फूल लाल संध्या से
इनकी यह डाली पुरानी.
इस खग का स्नेह काफलों से
इसकी यह कूक पुरानी….

डॉ. योगाम्बर सिंह बर्त्वाल अभी-अभी बता चुके थे कि काफलों पर कूकने वाली ‘‘काफल पाक्कू’चिड़िया पर लिखी चंद्रकुंवर बर्त्वाल की रस भीगी कविता पढ़ कर राहुल सांकृत्यान ने उनका नाम ही‘काफल पाक्कू’ रख दिया था!

अगला कार्यक्रम इन पहाड़ों के पार 69 किमी. दूर गोपेश्वर में था. इसलिए 3 बजे हम लोग वापस घाटी के नीचे कर्णप्रयाग लौटे और वहां से नंदप्रयाग, चमोली मार्ग पर सीधे गोपेश्वर की ओर बढ़ चले.

मैठाणा गांव से निकलते समय फिर सड़क किनारे खिले नीली गुलमोहर के पेड़ों ने हमारा स्वागत किया. चमोली से आगे बढ़ते समय अलकनंदा का पुल पार करते समय देखा, नीचे अलकनंदा जैसे खुशी से उछलती-कूदती भाग रही थी. कोठियाल सैंण, पठियालधार, मैग्वाड आदि गांवों को पार करके ऊपर और ऊपर उठती सड़क ने हमें गोपेश्वर पहुंचा दिया. जगह-जगह से आए हुए साथियों ने बस स्टेंड पर गढ़वाल मंडल विकास निगम के विश्राम गृह में डेरा डाला हुआ था. हम भी वहीं पहुंचे. विश्राम गृह के कर्मचारियों को हमारे आने की खबर थी. उन्होंने हमें कमरा दिखा दिया- पांच शैयाएं, एक शौचालय! मुझे देश-विदेश घूमे कर्नल सती की बहुत पहले घर के शौचालय दिखाते समय कही हुई बात याद हो आई कि हम लोग घर बनाते समय हर चीज पर खूब खर्च करते हैं मगर शौचालय और स्नानघर बनाने में बड़ी कंजूसी दिखाते हैं. पांच लोग और एक शौचालय?

मेरे मन में खलबली मच गई. कहने की कोशिश की कि अलग कमरा मिल जाए तो दो लोग उसमें रह लेंगे. मगर कौन रहे और कमरा ही कहां उपलब्ध था? अब क्या होगा? बोवेल सिंड्रोम का शैतान जाग उठा. उसे बचपन से झेल रहा हूं और पता था कि वह मनोवैज्ञानिक स्तर पर मेरी क्या गत बनाएगा. साथियों से कहा, शेखर से कहा. यह तय हुआ कि कुछ-न-कुछ हो जाएगा. फिलहाल कार्यक्रम में चलते हैं.

अंटार्कटिका में रह कर लौटे पत्रकार-पर्वतारोही गोविंद पंत ‘राजू’, अमेजन के जनजीवन उपर बी.बी.सी. के राजेश जोशी और तिब्बत की प्रकृति और संस्कृति पर शेखर पाठक के अनुभव दृश्य व्याख्यानों की विशेष प्रस्तुति में देखे-सुने. देख-सुन कर कठोर परिस्थितियों में भी जीवट बनाए रखने और संघर्ष करने का संदेश मिला.

देर शाम खाना खाने विश्राम गृह में गए. खाना भी खाया मगर बाथरूम की समस्या के कारण मन बैचेन ही रहा. इस अजीब-सी समस्या के कारण अपराध बोध भी अनुभव कर रहा था कि मेरी निजी समस्या परेषानी का सबब बन रही है. मगर करता भी क्या? आंतों का सीधा संवाद मस्तिष्क के साथ लगातार जारी था. कई बार तो ये दोनों ही मुझे खिसिया देते कि ‘अब कहां जाओगे बच्चू बाथरूम ?’ जो हैं, उनमें तो कोई न कोई होगा ही, तब तुम्हारा क्या होगा?’ चुपके से दो-एक लोगों से कहा, किसी होटल में कोई कमरा दिला दें. दिन भर की यात्रा से थकान भी अनुभव कर रहा था लेकिन मेरी समस्या का समाधान अभी नहीं हो पाया था. नवीन और राजू के कमरे में जाकर उनसे भी मिला. शेखर को पता लगा, फिक्र हुई. उसने एक स्थानीय युवक साथ भेजा कि किसी और गेस्ट हाउस में या कहीं भी कमरा दिला दें. एकाध जगह देखने भी गए मगर हालात देख कर लौटने को मजबूर हो गया. रात का 11 बज चुका था. मैंने मन में एक रास्ता यह भी निकाल लिया कि कुछ नहीं तो गाड़ी में ही सो जाऊंगा. मुंह अंधेरे निकल कर आसपास किसी वीराने में हो आवूंगा. तभी, साथ के स्थानीय युवक ने नीचे डिग्री कालेज के पास का गेस्ट हाउस देखने की राय दी. हम वहां पहुंचे. बहुत देर तक गेट खटखटाने और आवाजें देने के बाद अंधेरे में केयरटेकर परशु नमूदार हुआ. उसने कमरा दिखाया. मैंने राहत की सांस ली. सशंकित पेट शांत हुआ. कहते हैं न कि ‘अंत भला तो सब भला’. वही हुआ. वहां मैं अकेला जरूर पड़ गया था लेकिन मन और पेट दोनों शांत हो गए. इतनी रात गए यहां छोड़ने के लिए सड़क में जाकर संजय को धन्यवाद दिया और पिट्ठू लेकर उस एकांत कमरे में चला आया.

(जारी)

देवेंद्र मेवाड़ी

लोकप्रिय विज्ञान की दर्ज़नों किताबें लिख चुके देवेन मेवाड़ी देश के वरिष्ठतम विज्ञान लेखकों में गिने जाते हैं. अनेक राष्ट्रीय पुरुस्कारों से सम्मानित देवेन मेवाड़ी मूलतः उत्तराखण्ड के निवासी हैं और ‘मेरी यादों का पहाड़’ शीर्षक उनकी आत्मकथात्मक रचना हाल के वर्षों में बहुत लोकप्रिय रही है.

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