कवि के साथ बातचीत का सलीका
शिवप्रसाद जोशी के संग्रह ‘रिक्त स्थान और अन्य कविताएँ’ पढ़ने के बाद इस लेख की शुरुआत करते हुए शीर्षक को लेकर अनेक शब्द दिमाग में कोंधते रहे, मगर हर बार शब्द ज़बान पर आकर फ़ौरन फिसल जाते रहे. पहला शीर्षक उभरा – ‘कवि के साथ बातचीत का तमीज़’. अगले ही पल यह शीर्षक मुझे खुद ही अशालीन लगा इसलिए नया शब्द जोड़ा, ‘अनुशासन’. शब्द को सुनने के बाद इसमें भी कड़क फौजी गंध महसूस हुई; कई और शब्द दिमाग में तैरते रहे, अंततः ‘सलीका’ शब्द मुझे कुछ हद तक कवि की टोन के नजदीक लगा.
इसी उहापोह के बीच अपने पाठकीय संस्कार को लेकर इस ओर ध्यान गया कि मेरी ज़िन्दगी में कविता का कोना रिक्त कैसे रह गया? क्या सचमुच ऐसा ही था? इस रिक्त स्थान को भरने का मुझे अवकाश ही नहीं मिला या ऐसा परिस्थितियों के कारण हुआ? लम्बे समय तक मैं यही समझता था, ऐसा परिस्थितियों के कारण होता रहा होगा, मगर जिस दिन मैंने कवि के बड़े मामा बच्चीराम कौंसवाल के लिए लिखी कविता ‘कॉमरेड’ पढ़ी, मुझे अपनी राय पर दुबारा सोचने के लिए मजबूर होना पड़ा. मेरा यह विश्वास तब और पुख्ता हुआ जब मैंने कवि के एक और परिजन बहुचर्चित कवि मंगलेश डबराल पर लिखी कविता ‘कवि को जाना था ऐसे’ पढ़ी.
कैसे-कैसे पाठ सामने आते हैं कविता के!… खुद के रिक्त स्थान की जगह पर कवि के रिक्त स्थान को जोड़ना समस्या का सरलीकरण लग सकता है; या हो सकता है कि यह अपने बौद्धिक स्तर को लेकर हिंदी समाज से रियायत मांगने की मेरी पेशकश हो, मुझे नहीं मालूम. फ़िलहाल अपना पक्ष प्रस्तुत करने के लिए मैं अपने सुदूर बचपन की एक अप्रिय घटना का जिक्र करना चाहता हूँ.
हमारे परिवार में विद्या के प्रति अनुराग को विचित्र तरीके से आँका जाता था. अगर किसी काग़ज़ के टुकड़े पर असावधानी से पाँव पड़ गया तो कागज को माथे से लगाकर माफ़ी मांगने की परम्परा थी क्योंकि कागज-किताबें विद्या की देवी की प्रतीक समझी जाती थीं. हालाँकि उन कागजों पर लिखे गए शब्द उस उम्र में बोझ लगते थे और हम हमेशा मनाते थे कि कब हमें पढ़ाई-लिखाई से मुक्ति मिले!
पांचवीं की बोर्ड परीक्षा देने हम बच्चों को आठ-दस किलोमीटर दूर सामने की पहाड़ी पर के स्कूल में जाना होता था जहाँ मुझे कुछ दिन तक एक रिश्तेदार के घर रहना पड़ा था. अपने स्कूल के आखिरी दिनों में हम बच्चे इस बात को लेकर उत्साहित थे कि अब कलम-दवात से पिंड छूटेगा और कापी में ‘जी निब’ से लिखने को मिलेगा. जी निब एक खास तरह की कलम थी जो अंग्रेजी लिखने के लिए मिलती थी.
उस दिन स्कूल से घर लौट रहा था, रास्ते में पड़ने वाले ऊँचे शिखर पर चढ़कर मैंने अपनी कलम और दवात पूरा जोर लगाकर नीचे घाटी की ओर फैंक दीं, मन-ही-मन में की गई इस प्रार्थना के साथ कि भविष्य में कभी इस निंगाल की कलम से पाला न पड़े. मगर कलम छोड़कर हाथ से थामी गई जीनिब पर कभी हाथ सेट नहीं हो पाया, अपनी ही लिखावट हमेशा बेगानी लगती रही. यह सिलसिला आज तक थमा नहीं है.
यहाँ
तुम उदास नहीं रह सकते
शिवप्रसाद जोशी
अपनी परेशानी कहना गलत है
तुम बीमार नहीं हो सकते
चुप रहना तुम्हारी कमजोरी समझा जायेगा
रोने की कोशिश तुम्हें बाहर फिंकवा देगी
बहुत खतरनाक है
जहाँ जीवन बना रहे हो
वहाँ तुम उसे वाकई बनाने लग जाओ
यहाँ किस भाषा में बात होती है
कौन से शब्द वर्जित हैं
कौन से शब्द मशीन में अटक जाते हैं
सीखना होगा कि मशीन क्या चाहती है
वो हरगिज तुम्हारी चेतना नहीं चाहती
स्पीड चाहती है
जो जितना तेज हाथ चलाएगा
वही आख़िरकार प्रतिभावान कहलायेगा.
कविताएँ मैंने कभी नहीं लिखीं; न उन्हें पढ़ने/समझने का सलीका खुद में महसूस किया. पहली बार यह संस्कार मैंने अपने खुरदरे दोस्त वीरेन डंगवाल में देखा और शायद उससे ही सीखा. वीरेन के लिए ‘खुरदरा’ विशेषण जानबूझकर इस्तेमाल कर रहा हूँ. जिन्दगी में तो वह खुरदरा कतई नहीं था, शायद जरूरत से ज्यादा भावुक था, मगर मुझे हमेशा लगता रहा कि हमारी कविता को वीरेन ने पहली बार नौस्तैल्जिया और अतीत मोह के उदासी-भरे माहौल से मुक्त करके उसकी सही जगह पर खड़ा किया, बावजूद अपने तमाम पूर्ववर्ती कवियों की कोशिश के.
वीरेन डंगवाल का यह सन्दर्भ ज़रूरी है
नैनीताल में वो मेरे कॉलेज जीवन के आखिरी साल थे और उसने बीए के पहले साल में प्रवेश लिया ही था. हम लोगों ने साहित्य और कलाओं में रुचि रखने वाले छात्र-छात्राओं का एक ग्रुप तैयार किया था और एक-दूसरे को अपनी रचनाएँ सुनाते/दिखाते थे. सबसे छोटी कक्षा के उस छोटे कद के लड़के ने एक दिन हमें धमकाने के अंदाज़ में ललकारा कि हम उसे अपने ग्रुप में शामिल करें. हमने उससे पूछा कि क्या उसने कभी कुछ लिखा है? बिना किसी झिझक के उसने बताया कि उसने कुछ लिखा तो नहीं है, मगर वह लिखकर दिखा सकता है. हम लोगों में ज्यादातर लोग कहानी लिखते थे, इसलिए उसे चुनौती दी कि अगर कल सुबह ग्यारह बजे वह कैंटीन में हमें अपनी लिखी कहानी सुनाएगा तो उसे ग्रुप में शामिल कर लिया जायेगा.
दूसरे दिन ठीक ग्यारह बजे एक पतली-सी रूलदार कापी में, जो बच्चों के रफ काम में लायी जाती रही होगी, कहानी लिखकर वह कैंटीन में हाजिर हुआ. सबको उसने चाय पिलाई और अपनी कहानी सुनाई. कहानी सुनकर हमारा सारा रुआब उसी तेजी से पानी हो गया और उसी वक़्त से हम उसके मुरीद हो गए. ‘खरगोश’ शीर्षक यह कहानी वीरेन की पहली रचना और अंतिम कहानी थी. इसके बाद उसे हमारा हीरो बनना ही था. बाद में इलाहाबाद में जब मटियानीजी के साथ मैंने ‘विकल्प’ निकाला, कहानी को उसके एक अंक में प्रकाशित किया. कहानी पर अलग से टिप्पणी करने की जरूरत नहीं है, पाठक उसे पढ़कर अपनी राय बना सकते हैं.
वीरेन ने जो कविताएँ लिखी हैं, उन्हें कभी किसी पत्रिका को नहीं भेजा, किसी ने आग्रहपूर्वक उससे कविता मांगी तो वह हमेशा कतराता रहा. अलबत्ता उसने अपनी सारी कविताएँ दोस्तों को सुनाने के लिए लिखी हैं. वह हमेशा कहता था कि उसकी सारी पूँजी उसके दोस्त हैं. उसकी अनेक कविताओं का पहला श्रोता मैं भी रहा हूँ. वह अपनी कविताएँ कविता की तरह नहीं, जिन्दगी की तरह पढ़ता था. उसका कथ्य, भाषा, शिल्प और सारी कविताई सब कुछ जिन्दगी-जैसा होता था, शायद इसीलिए उसकी कविता पढ़कर जिन्दगी को फिर-फिर से जीने का मन करता था. अपनी जिन्दगी से कौन प्यार नहीं करता, इसलिए वीरेन की कविताओं के पाठक की मज़बूरी है कि वह उसकी कविता से प्यार करे. इसी प्यार की बदौलत हम लोगों ने उसके खुरदरे नाम ‘वीरेंद्र’ को बदलकर ‘वीरेन’ बना दिया था, बावजूद इसके वह अपने नाम का इस्तेमाल हमेशा अपनी शर्तों पर करता रहा. अपनी कविताओं की तरह.
जैसे ‘राम सिंह’ के बाद ‘बहादुर’
आसानी से शिवप्रसाद जोशी को वीरेन की अगली पीढ़ी कहा जा सकता है. और वह है. ‘राम सिंह’ में चरित-नायक अपना नहीं, अपने रचनाकार का पाठ रचता है, जिसे उसके कई प्रशंसकों ने उसका ‘लाउड’ पाठ किया है. इस पाठ में कुछ को शेखर जोशी का ‘दाज्यू’ संबोधन दिखाई दिया तो किसी और को मंगलेश के गाँव की लालटैन का. दरअसल ‘राम सिंह’ का पाठ समझने के लिए बहुत आगे जाकर 2002 में प्रकाशित शिवप्रसाद जोशी की कविता ‘बहादुर’ को पढ़ना चाहिए. यह कविता अपनी जड़ों से छिटक गए प्रवासी का संबोधन नहीं है, न खुद के अवसाद का आख्यान; हालाँकि रात के अँधेरे में मोहल्ले-कॉलोनियों में बीड़ी के जो जुगनू चमकते हैं वे अतीत-राग का-सा संकेत करते हैं. इसके बावजूद सच कुछ और है: ‘बजती है सीटी/ ठकठक की आवाज/ बहादुर फ़ैल जाते हैं पानी की तरह/ उस पर छपाछप खेलती है हमारी नींद.’
उसके घर से बहुत दूर नहीं है देश
लेकिन दूर है कोई भी जगह
घर छोड़कर जहाँ रह रहे हों
उसे सब बहादुर कहते हैं
उसके पिता को भी यही कहकर बुलाते थे
उसका छोटा भाई उसके साथ रहता है
छोटा बहादुर
लेकिन उसे कभी नहीं कहा किसी ने
बड़ा बहादुर
पता नहीं किसने कहा सबसे पहले किस को बहादुर
पता नहीं कौन आया सबसे पहले बहादुर बनकर
साथ ही लक्ष्मण
लक्ष्मण और मैं
साथ-साथ आए इस शहर
वह आया भागकर
नौवीं में हुआ फेल
मैं आया सारे दर्जे पास कर…
मैं जहाँ जीवन बनाता हूँ
लक्ष्मण वहाँ कप धोता है
और चाय बनाता है.
मिथक और यथार्थ के बीच झूलते नागरिक:
एक: आछरियाँ
अपनी उम्मीदों और खुशियों में मारी गयीं
उन्हें पेट में मारा गया या नदी के तट पर
जंगल में या अँधेरे ओबरों में
मारी गयीं या पहाड़ों से धकेली गयीं.
वे गला फाड़ कर हंसीं, रोयीं चीखकर
उन्हें तृप्त होना था उनकी साँसें उन्हीं पहाड़ी नोकों पर धँसी जहाँ गयीं वे घास काटने
वे रातों को नहायीं, नंगे पाँव दौड़ीं, वे सँवारती रही लेकिन हवा उनके बालों को बिखेरती रही
वे चुप हुईं और अचानक किसी और आवाज में बोलीं
उन्होंने सर पीटा और गलियां बकीं…
उनकी मौतें रहस्य बनीं उन्हें अभिशप्त माना गया
उनके सामने न बजाओ बाँसुरी या गाओ गीत
हरगिज न जाओ दुपहरी में बाहर
वे ताक में हैं…
वे हर लेती हैं बाँके जवान
उन्हें ले जाती हैं अपने आनंदलोक में…
और जाने कहाँ
बजती रहती हैं विरह की धुन.
दो: अपने बारे में
छोटी सी काली गोल बिंदी लगाती हूँ
ज्यादातर गहरे रंग के सूट पहनती हूँ
नीला मुझ पर सबसे ज्यादा फबने वाला रंग है
लोग कहते हैं मेरी आवाज बच्चों जैसी है
रोज सुबह उठकर
ओस पर चलती हूँ भिगोया चना खाती हूँ
घिसे चमड़े का बैग लेकर नौकरी पर जाती हूँ
अभी मैंने नयी रजाई खरीदी
इसमें खुद को मोड़माड़ कर सोना भला लगता है
सिमटते हुए चलती जाती हूँ
जो चीजें मेरे साथ चलती हैं
वे हैं – हवा-पानी, मिट्टी, आग और आकाश
मेरी आँखें ऐसी हैं जैसे दुनिया पर हैरान हों….
तीन: दीपा करमाकर
जितनी देर में मैंने लिखा एक अक्षर
उतनी देर में तुम कूदी हवा में ले ली दो पलटियां
जितनी देर में सूझा मुझे पूरा शब्द
उससे पहले तुम घुटने सीधे कर खड़ी हो गई मैट पर
और वाक्य लिखते-लिखते तुमने पलट दिया इतिहास
और एक छोटा-सा टुकड़ा गद्य का
एक नदी पहाड़ से निकलती है एक आदमी घर से निकलता है आते जाते जहाज़ लदेफदे कुछ तेज़ नौकाएँ एक जहाज़ जो इतना धीमे चलता था स्मृति में खड़ा का खड़ा है बीचों बीच पानी मुझे याद है वो फोटो मेरे मन पर अंकित जहाज़ पर कोयला लदा पीछे एक जंगल और पीछे आसमान और उन पर कुछ बादल. मेरे चलने की गति से बह रहा है पानी या मेरे मन की गति से या मेरा मन उस गति से कोसों आगे है शायद इस जन्म में दिखती इस नदी और उसके पानी और उसके बहाव से भी आगे कहीं दूसरे जन्म में भटक रहा है मन बल्कि क्या वो वहीँ का हो गया है किसी और ही मनुष्य के पास मैं अलग-अलग ढंग से चला नदी के किनारे जैसे मुझे यह दायित्व भी है निभाना सोचता कई ढंग से और हर बार पानी की छपाक आती है.
(पूरे पैरा में अंत के अलावा एक बार पूर्ण विराम का प्रयोग किया गया है. अपनी जड़ों के उत्स से अंकुरित, निरंतर बहती नदी के रूपक को प्रस्तुत करते इस शब्द-चित्र में यह विराम-चिह्न सायास है या गलती से, स्पष्ट नहीं होता, हालाँकि वहां बिम्ब कुछ देर ठहरता जरूर है.)
रिक्त स्थानों की गलत पूर्ति : एलेग्जेंडर ड्यूमा के ‘तीन तिलंगे’ (1844) की जगह भारतीय राजनीति के ‘तीन मुष्टंडे’ (2017)
यह विषयांतर नहीं है. हुआ यह कि ‘रिक्त स्थान और अन्य कविताएं’ पढ़कर कविताओं के समीक्षा-नोट्स तैयार किये ही थे कि मेरे विवि के दिनों के आत्मीय दोस्त गिरधर राठी की कृष्णा सोबती पर लिखी किताब ‘दूसरा जीवन’ की जानकारी मिली. राठी शब्द और साहित्य के सरोकारों को लेकर गहराई से सोचने वाले हिंदी के गिने-चुने लेखकों में से हैं; इसका अंदाजा मुझे पचपन साल पहले से है, जब हम प्रयाग विवि में साथ पढ़ते थे. मैं हिंदी का शोध छात्र था और वह अंग्रेजी में एमए कर रहे थे. प्रतियोगी परीक्षाओं और उर्जावान साहित्यिक माहौल की तलाश में एकत्र हुए हम अनेक हम-उम्र दोस्त अपने-अपने तरीके से अपने जीवन की आधारशिला तराश रहे थे. दूसरे तमाम लोगों की भी अंग्रेजी में अच्छी पकड़ थी, मगर मुझे राठी के मुकाबले कोई जँचता नहीं था. मेरी ही क्लास के छात्र वीरेन और नीलाभ की पकड़ भी कम नहीं थी, हमारी मित्र-मण्डली से बाहर के तो दसियों लोग थे ही, मगर विशेष रूप से राठी का स्मरण इसलिए है कि अमर गोस्वामी के साथ मिलकर हमने जो संस्था ‘वैचारिकी’ बनाई थी, राठी उसकी अंग्रेजी में रिपोर्टिंग करके अख़बारों में भेजते थे. राठी मुझे शायद इसलिए भी पसंद थे क्योंकि वह बहुत कम बोलते थे और अपने बारे में तो बहुत ही कम बात करते थे. साहित्य के अलावा राजनीतिक विषयों में उनकी रूचि थी और एक समाजवादी सोच से जुड़ी पत्रिका के लिए लिखते थे.
कृष्णा सोबती की जीवनी ‘दूसरा जीवन’ को मैंने पढ़ा नहीं था, मित्र अरुण देव के ब्लॉग ‘समालोचन’ में उस पर एक लम्बी टिप्पणी पढ़ी, जिसमें कृष्णा सोबती, राठी और अनेक दूसरे लोगों के बारे में रोचक जानकारियाँ मिलीं. दूसरी अनेक बातों के अलावा अमृता प्रीतम के साथ ‘जिंदगीनामा’ के शीर्षक को लेकर उनके लम्बे मुक़दमे की विस्तृत जानकारी मुझे सबसे पहले इसी लेख से मिली.
मुक़दमे का परिचय इस तरह दिया गया है, “सहज-सरल कथा इतनी है कि कृष्णा सोबती का उपन्यास ‘जिंदगीनामा’ 1979 में प्रकाशित होकर साहित्य अकादमी का पुरस्कार पा चुका था. हिंदी साहित्य जगत में उसका स्वागत का अनुमान उसके पुनर्प्रकाशन के संस्करणों, समीक्षाओं और अनुवाद से होता है.
“अमृता प्रीतम की पुस्तक ‘जिंदगीनामा’ 1983 में प्रकाशित होती है जिस पर ‘हरिदत्त का जिंदगीनामा’ का ‘जिंदगीनामा’ बड़े अक्षरों में रखा गया. कृष्णाजी ने अमृता प्रीतम से निवेदन किया कि वे हरिदत्त की पुस्तक का नाम में सिर्फ ‘जिंदगीनामा’बदल दें – व्यर्थ ही शीर्षक के कारण दोनों पुस्तकों में कन्फ्यूजन हो रहा है. अमृता प्रीतम ने न जाने किस टोन में जवाब दिया, तुम्हीं या आप ही शीर्षक बदलो…’
“कृष्णा सोबती ने 1983 में यह मुकदमा दाखिल किया जो 2011 में समाप्त हुआ. ‘इस बीच वकीलों की फीस तथा बाकी खर्चों के लिए, कृष्णाजी के शब्दों में ‘तीन घर बिक गए’. 2011 में जज ने कृष्णा सोबती की मित्र सुकृता पाल से गिरधर राठी के पूछने पर कहा- ‘यह एक सिद्धांत की लड़ाई थी और वे खुद सही थीं. लेखकीय अधिकार की, बौद्धिक संपदा के अधिकार की यह लड़ाई थी.’
“1984 में हाईकोर्ट ने यह मुकदमा तीस हजारी कोर्ट की जिला अदालत को सौंप दिया था. हाईकोर्ट से जिला अदालत मुकदमा तो आ गया था परन्तु कृष्णाजी और अमृताजी के उपन्यासों की पांडुलिपियाँ पेश की गई ‘नामा’ नामावली किताबों की प्रतियाँ और मुक़दमे की तमाम फाइलें ‘गायब’ हो गईं थीं. यह सबूत कभी जिला अदालत पहुंचे ही नहीं. फिर भी इन अदत्त सबूतों के बिना ही न्याय हो गया था.
“यह तथ्य भी उल्लेखनीय है कि अमृता प्रीतम ने अपनी पत्रिका ‘नागमणि’ में ‘कैदी नंबर 666’ शीर्षक से इस पुस्तक को विज्ञापित किया था. बाद में लोकप्रियता देखते हुए उसका शीर्षक ‘हरिदत्त का जिंदगीनामा कर दिया गया था….
“सन 1991 में एक इंटरव्यू में कृष्णा सोबती ने कहा था, ‘यह मुक़दमा इतना लम्बा खिंचा कि ये मजाक ही हो गया, मैंने न्याय व्यवस्था और उसकी कारन्दाजी के बारे में बहुत-कुछ सीखा, मेरी बहुत-सी ऊर्जा इसमें जाया हो गई, लेकिन इस प्रक्रिया ने मुझे ‘दिलोदानिश’ जैसा उपन्यास भी प्रदान किया, जिसके कथानक के हृदयस्थल में न्याय का सवाल है. लेखक से बड़ा लेखन है और लेखन से भी बड़े वे मूल्य हैं जिन्हें जिंदा रखने के लिए इन्सान बराबर संघर्ष करता आया है, बड़ी से बड़ी कीमत चुकता आया है, लेखन मात्र लिखना ही नहीं, लिखना जीना है, भिड़ना है, सामना करना है, उगना है, उगते चले जाना है.”
“कृष्णा सोबती एक लेखक की गरिमा कितना मानती थीं कि उचित भाषा में पत्र न मिलने पर उन्होंने बिड़ला फाउंडेशन का बहुमूल्य ‘व्यास सम्मान’ अस्वीकृत कर दिया था. सन 2010 में उन्होंने कांग्रेस की यूपीए सरकार के समय ‘पद्म भूषण’ अलंकार लेने से मना कर दिया था. इसी तरह साहित्यकारों के पक्ष में बोलने में असमर्थ रहने वाली साहित्य अकादमी का पुरस्कार तथा फेलोशिप भी उन्होंने लौटा दी थी…
“कृष्णा सोबती पुरस्कार और उन्हें मिलने वाले सम्मान से तब और ऊँची हो जाती हैं जब वो देश में घटित घटनाओं और आंदोलनों के पक्ष-विपक्ष में अपनी तीखी प्रतिक्रियाएं व्यक्त करती हैं. इनसे उनके सामाजिक सरोकारों का दायरा अनंत हो जाता है. नर्मदा बचाओ आन्दोलन के लिए राष्ट्रपति के नाम काव्यात्मक पत्र और 6 दिसंबर, 1992 को बाबरी मस्जिद के ध्वंस पर उनकी तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त हुई थी…
“कृष्णा सोबती का वसीयतनामा स्वयं अपने-आप में हिंदी साहित्यिक जगत की एक धरोहर है. इसमें कृष्णाजी ने अपने घर-परिवार के किसी सदस्य को ट्रस्ट-फाउंडेशन में शरीक नहीं किया. कृष्णाजी ने अपनी सेवा में अठारह बरस बिताने वाली सहायिका विमलेश के आवास के लिए स्थायी बंदोबस्त कर दिया… कृष्णा सोबती ने एक करोड़ रुपए से अधिक की राशि रज़ा फाउंडेशन को दी. इसी तरह ज्ञानपीठ पुरस्कार 2017 के ग्यारह लाख की राशि भी रज़ा फाउंडेशन को प्रदान की.
“शिवनाथजी भारत सरकार के एक बड़े आईएएस अधिकारी थे. वे 1983 में उनकी पत्नी के निधन के बाद शिवनाथ अकेले 1989 में आनंदलोक सोसाइटी के अपने अपार्टमेंट बी-505 में रहने आ गए. भारत सरकार तथा अन्य देशी-विदेशी संस्थानों के, या वहां से पदमुक्त विद्वानों-अफसरों की यह गेट बंद बस्ती शिवनाथजी को रास आ गई.
“कृष्णा सोबती ने 1990-91 में उसी आनंदलोक सोसाइटी में बी-503 नंबर का फ्लैट ख़रीदा शिवनाथजी ने सोसाइटी एसोसिएशन के अध्यक्ष के नाते सोसाइटी के पुस्तकालय का उद्घाटन करने आई कृष्णा सोबती को पहली बार देखा था. इसके बाद इंडियन लिटरेचर के संपादक के आग्रह पर ‘ए लड़की’ का चुनौतीपूर्ण अंग्रेजी अनुवाद किया.
“प्रो. श्यामाचरण दुबे एवं डॉ. लीला दुबे के फ्लैट में 24 नवम्बर, 2000 को मैरिज रजिस्ट्रार के सामने एक-दो जनों की उपस्थिति में विवाह हुआ. लेखक कृष्णा सोबती और और लेखक-अनुवादक शिवनाथजी का विवाह उन दोनों की 75 वर्ष की आयु में हुआ. दोनों की जन्मतिथि 18 फ़रवरी 1925 थी.
“समय सरगम में कृष्णाजी के शब्द हैं- ‘वे अपने कमरे में. मैं अपने कमरे में. मेरी आदत रात-रात भर काम करने की, सुबह देर से उठने की. उनका दिन प्रातः से शुरू. हम दोनों के स्वभाव अलग, लेकिन एक-दूसरे को पूरी तरह समझने वाले…
“24 नवम्बर 2000 को एक घर और दो अलग कमरों में साथ रहने वालों में एक शिवनाथजी 7 फ़रवरी 2014 को वह कमरा और यह संसार खाली कर गए. उनकी विदाई के पांच वर्ष बाद 25 जनवरी 2019 को कृष्णा सोबती ने भी इस हमारी साहित्यिक दुनिया में हमारे लिए अपना ‘दूसरा जीवन’ शुरू किया.”
कृष्णा सोबती से जुड़ा गिरधर राठी का यह प्रसंग विषयांतर नहीं है, इसका जिक्र पहले कर चुका हूँ. यह सवाल भी बना हुआ है कि इस प्रकरण को शिप्रसाद जोशी के कविता-संग्रह की समीक्षा में जोड़ने का क्या तुक है? संयोग किस्सों-कहानियों में ही नहीं, जिन्दगी में भी घटित होते हैं और वही न सिर्फ हमारी जिन्दगी की दिशा, साहित्य-संस्कृति की धारा भी तय करते हैं. तर्क और विवेक की कसौटी पर कसने पर हम कतई इसे स्वीकार नहीं करेंगे, मगर हिंदी लेखन के साथ इस तरह के संयोगों का जरूरी सम्बन्ध है.
कृष्णाजी के मुक़दमे के सनसनीखेज विवरण को पढ़कर हिंदी के ही एक खुद्दार, मगर अभावग्रस्त, अंग्रेजी न जानने वाले लेखक शैलेश मटियानी के मुक़दमे का जिक्र करना चाहता हूँ, जिसके पास फूटी कौड़ी नहीं थी मगर रात-रात भर अंग्रेजी-हिंदी शब्दकोश बगल में रखकर उन्होंने ‘भारत का संविधान’ पढ़ा और उच्च और उच्चतम न्यायालय में अपने मुक़दमे की पैरवी खुद की. यह मुकदमा किसी सामान्य व्यक्ति के खिलाफ नहीं, भारत के सबसे बड़े प्रकाशन-संस्थान टाइम्स ऑफ़ इंडिया के विरुद्ध था. मगर यह बात इतिहास में दर्ज है कि दो-तीन लेखकों को छोड़कर हिंदी लेखकों ने ही मटियानी के प्रति विश्वासघात किया. सवाल शायद हार-जीत का था भी नहीं, हिंदी भाषियों की अस्मिता का था, जिसका प्रतिनिधित्व शैलेश मटियानी करते थे. हालाँकि उनके पास हारने के लिए कुछ नहीं था, मगर उनके ही परिजनों ने अपनी ही भाषा का सौदा किया, इसकी मिसाल शायद ही दुनिया की किसी भाषा में हो!
जरा सन 2000 से पहले के कृष्णा सोबती के साहित्यिक मूल्यांकन पर नज़र डालें, जब उनकी दोस्ती एक बड़े नौकरशाह के साथ उजागर नहीं हुई थी और एक अनजान अनुवादक ने उनकी कहानी का अंग्रेजी अनुवाद नहीं किया था. ‘सिक्का पलट गया’, ‘बादलों के घेरे’, ‘यारों के यार’, ‘मित्रो मरजानी’, ‘डार से बिछुड़ी’ जैसी सामान्य भारतीय स्त्री के बेवाक स्वर को रेखांकित करने वाली अमर कहानियों को हाशिये में धकेलकर ‘ए लड़की’ को उनकी प्रतिनिधि रचना रेखांकित करने के पीछे कौन-सी विवशता मौजूद थी?… एक झोंके की तरह वरिष्ठ आइएएस अफसर शिवनाथजी का उनकी जिन्दगी के रंगमंच पर उभरना, ‘ए लड़की’ का उनके द्वारा अनुवाद करना, इतालवी हिंदी विदुषी मरिओल्ला आफरीदी का सोबती-साहित्य का मूल्यांकन, उनकी साहित्यिक पीठिका में अशोक वाजपेयी और रज़ा फाउंडेशन का दखल, क्या ये कारक इतने खास थे कि पुराने मूल्यांकन को हाशिये में धकेल देते? ऐसा मानने के पीछे कोई सार्थक कारण नहीं है कि सन 2000 से पहले के कृष्णाजी के मूल्यांकनकारों के पास गंभीर समझ नहीं थी.
‘रिक्त स्थान और अन्य कविताएँ’ की समीक्षा के बीच इस प्रसंग को डालने के पीछे कोई आग्रह या दुराग्रह नहीं, अपनी उस जिज्ञासा का समाधान खोजना है, कि विगत तीस-चालीस वर्षों की हिंदी कविता में कुछ खास तरह के कवियों को ही रेखांकित करने का फैशन बढ़ा है. न सिर्फ कवि, अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर ख्यातिप्राप्त कुछ खास लेखक, जिनसे सामान्यतः हिंदी का पाठक अनभिज्ञ है. जब पाठक रचना-संसार से ही परिचित नहीं होगा, वह उसकी रचना-संवेदना को कैसे समझ सकता है?
मुझे इसीलिए अपनी समीक्षा इसी बिंदु पर ख़त्म कर देनी पड़ी थी कि हिंदी कविता के रिक्त स्थान ठीक उसी तरह अपनी शक्ल अख्तियार कर चुके हैं, जैसे 1844 में प्रकाशित एलेग्जेंडर ड्यूमा के उपन्यास ‘तीन तिलंगे’ (थ्री मस्केटियर्स) की लेखकीय संवेदना, जिसने ब्रिटिश भारत की सांस्कृतिक चेतना को बड़ी कोशिशों के बाद शक्ल दी थी, 173 साल बाद भारतीय राष्ट्रीय चेतना के रूप में वही शब्द ‘भारतीय राजनीति के ‘तीन मुष्टंडे’ (2017)के रूप में उसी ताकत के साथ रिक्त स्थान पर आसीन हो चुके हैं.
हिन्दी के जाने-माने उपन्यासकार-कहानीकार हैं. कुमाऊँ विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग के अध्यक्ष रह चुके बटरोही रामगढ़ स्थित महादेवी वर्मा सृजन पीठ के संस्थापक और भूतपूर्व निदेशक हैं. उनकी मुख्य कृतियों में ‘थोकदार किसी की नहीं सुनता’ ‘सड़क का भूगोल, ‘अनाथ मुहल्ले के ठुल दा’ और ‘महर ठाकुरों का गांव’ शामिल हैं. काफल ट्री के लिए नियमित लेखन.
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