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13 Comments

  1. यादवेन्द्र

    अल्मोड़ा बाजार की गली में गर्मागर्म जलेबी की दुकान हुआ करती थी।मैंने गंगोलीहाट आते जाते कई बार वहाँ जलेबियाँ खाई हैं।अब वह दुकान है या नही?
    यादवेन्द्र / पटना

  2. RS Manral

    सुंदर लेख कांफल ट्री डाट काम की विशेषता बन गई है।??? हार्दिक शुभकामनाएं.?? अल्मोड़ा में मिश्रित भोजन प्रणाली आधुनिकता की देन है।??? अल्मोड़ा में खाने के बाद मीठा खाने का रिवाज है।? बाल मिठाई, सिंगोड़ी (पतकुच) या चाकलेट प्रायः सभी घरों तक में मिल जाते हैं।?? भोजन के साथ विभिन्न आचार भी टपकिए के ही सहचर हैं।?? टप से उठाकर टपकिया नहीं खाया तो भोजन अधूरा है।???

  3. राजेश साह

    शानदार वर्णन। पढ़ते हुए लगता है कि आप अल्मोड़ा की गलियों में घूम रहे हों। साधुवाद।

  4. Kamlesh bagdwal

    पहाड़ी भोजन के पृष्ठ तनाव तथा टपकी के मानवीकरण के इस अद्भुत लेख की प्रशंसा हेतु शब्द नहीं मिल रहे………..

  5. [email protected]

    वाह. मजा आ गया.

  6. Om Prakash

    बहुत सुंदर और शिक्षाप्रद लेख। खाने के बहाने कई बातें और जानकारियां भी कह डाली। टपका की सुंदर व्याख्या जो हमारे पहाड़ी संस्कृति की पहचान है उसे हमारे पहाड़ों पर होने वाले उतार चढ़ाव की कहानी बयां करती है।

  7. क्रान्ति रौतेला

    भाँग और भंगीरे की चटनी अलग अलग होती है। भाँग एक अलग चीज है और भंगीरा अलग |

  8. Lalit सिंह बिष्ट

    सुंदर लेख।

  9. T.C.Sharma

    बहुत ही जीवंत वर्णन ।

  10. Pankaj

    बहोता बढ़िए !
    परन्तु, मयर विचारल लेखक साब एक द्वी पोस्ट अपणी पहाड़ी भाषा में ले लिखाण चहियोच !
    कठिन काम चा पर, शब्दों का माध्यमल हम ले पहाड़ घूमी ओल !
    मेरी सेउ

  11. Ritu

    भट की दाल, काले चने का छोला और भात के साथ मिर्च। बस फिर कुछ नहीं चाहिए। छोटे छोटे सड़क किनारे खुली दुकाने, लाजवाब हैं। सस्ता और स्वादिस्ट खाना यहीं मिलता है। अल्मोड़ा से कपडख़ान को नीचे वाली सड़क पर और बिनसर जाते हुए कई भोजनालय हैं जिनमे जरूर खाना चाहिए।

  12. नटखट

    बहुत अच्छा लगा आपका प्रयास।

  13. सुधीर पंत

    आपके द्वारा वर्णन किए गए इस लेख को पढ़कर अल्मोड़ा दिमाग में घूमने लगा

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